बुधवार, 30 सितंबर 2020

कहानी :इज्जतघर की [ चौपाई ]


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✍️ शब्दकार©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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इज्जतघर की विकट कहानी।

सबको सुननी मुझे  सुनानी।।


इज्जतघर  बन  गए  हजारों।

हुईं    दिशाएँ    सुंदर   चारों।।


खुले खेत में फिर क्यों जाना?

कोई   आए   तो    शरमाना!!


देख किसी को झट उठ जाना।

सबसे  अपनी   दृष्टि  बचाना।।


इज्जतघर  जिसने बनवाया।

उसने   पूरा  लाभ  कमाया।।


कच्ची - पक्की  ईंट  लगाई।

बालू  में  ही   करी  चिनाई।।


गेट बज  रहा थर-थर  सारा।

निकल पड़े जो धक्का मारा।।


इज्जतघर 'शो पीस ' सजाए।

सचिव आदि  ने दाम बनाए।।


लोटा  लेकर   बाहर   जाती।

तनिक  नहीं  नारी शरमाती।।


आड़    ढूँढ़ती  मूँज, मेंड़ की।

चाल चल रही किसी भेड़ की।।


घूँघट   लंबा   झीना -  झीना।

इज्जत का  जा रहा नगीना।।


घर की इज्जत इज्जतघर में।

कहीं और वह चली उधर में।।


इज्जतघर के  काम  निराले।

बिकते गोभी  ,गरम मसाले।।


इज्जतघर   में    ईंधन, कंडे।

बनी   दुकानें   बिकते  अंडे।।


टॉफी , चॉकलेट मिल जाती।

सजे   कुरकुरे   लंबी  पाँती।।


जब सोते  तब  लगता ताला।

इज्जतघर   में  बैठा  लाला।।


इज्जतघर    से दाम  कमाएँ।

पर  इज्जत   खेतों  में जाएँ।।


'इज्जत'   देखे   रात  अँधेरा।

होने   पाए     नहीं    सवेरा।।


बाहर   जाते  सब नर -नारी।

इज्जतघर  से  आय सँवारी।।


खूब   योजना   है   सरकारी।

इज्जतघर की महिमा भारी।।


 बुद्धिमान  हैं  ग्राम -निवासी।

इज्जतघर से आय निकासी।।


'शुभम'  आदमी है गुणकारी।

'इज्जतघर'की लाज सँवारी।।


💐 शभमस्तु!


30.09.2020◆ 6.00अपराह्न।


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'इज्ज़त घर' की इज्ज़त [ दोहा ]

 

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✍️ शब्दका©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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'इज्ज़त घर'तो बन चुके,अभी वही  है हाल।

लोटा लेकर चल पड़ी,'इज्जत'मध्यम चाल।।


अवगुंठन मुख पर पड़ा,कर में लोटा थाम।

'इज्ज़त' खेतों में चली,हो वर्षा या    घाम।।


'इज्ज़त घर'को छोड़कर,ढूँढ़ रही   है ओट।

'इज्ज़त धारी'वह वधू, पहन ऊन का कोट।।


अरहर की झाड़ी मिले, मिले मूँज का झाड़।

इज्जतघर को छोड़के, ढूँढ़ रही है आड़।


उपले,ईंधन से भरे,'इज्ज़त घर' के  कक्ष।

'इज्जत' वाले लोग ये,हुए बहुत ही  दक्ष!!


'इज्ज़त घर' में  सोहती,सुंदर सजी   दुकान।

चॉकलेट,टॉफी बिकें,'इज्ज़त घर' की शान।।


'इज्ज़त' मिली प्रधान को,चिनी पीलिया ईंट।

बालू  नब्बे  फ़ीसदी,  घटिया वाली     सीट।।


बिना  भेंट  पूजा  चढ़े, बने  न  'इज्जतधाम'।

सचिव साब भी ले चुके, निबटा सारा काम।।


अंगों को आदत पड़ी,खुली हवा  की सैर।

'इज्जत घर'में दम घुटे,चले खेत  में  पैर।।


संस्कार  बदलें नहीं,सहज न मिले   सहूर।

'इज्जत घर' में बैठना, अभी बहुत  है  दूर।।


स्वच्छ  हवा  में बैठकर, लेते हैं  जो   साँस।

'इज्जत घर'तो बंद है, वहाँ सूखता  माँस।।


💐 शुभमस्तु  !


30.09.2020◆11.30पूर्वाह्न।


'इज़्ज़त घर' [ अतुकान्तिका ]


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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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बन गए 'इज्ज़त घर',

प्रधान को मिली

भरपूर 'इज्ज़त',

बनवाने के लिए 

घर -घर में 

'इज्ज़त घर'।


उधर भी देखें,

घर की 'इज्ज़त'

हाथ में लोटा लेकर

चल पड़ी 

पिछवाड़े के

खेतों की ओर,

ढूँढ़ती हुई कोई ओट,

करती हुई 

प्रशासन की मंशा पर

गहरी -गहरी चोट।


'इज्ज़त घरों' में

भरे देखे

ईंधन और उपले,

गेटदार स्नानागार,

बैठे हैं कुछ में

सजाकर 'टेढ़े मेढ़े'

कोल्ड ड्रिंक की बोतलें

कुछ अधेड़ दुकानदार,

क्या ही सुंदर

सजे हैं 'इज्ज़त घर' !

और इधर 

ये 'इज्ज़तदार'!

क्या करेगी 

सरकार ?

ले तो गए 

अपना पूरा हिस्सा 

बिचौलिए हिस्सेदार।


'इज्ज़त घरों' की

इज्ज़त पर

पड़ गए हैं ताले,

अब वे चाहे

लकड़ी कंडे भरें

या बेचें गर्म मसाले!

ऑमलेट अंडों के

वे जो चाहें

कर डालें!


पर 

घर की

इज्ज़त तो 

आज भी है

मेड़ों और

 झाड़ियों के पीछे,

हाथ में 

लोटा छलकाती

चली जा रही है,

जो न तब थी

न अब है,

 उसे खुले में

जाते हुए भी

'इज्जत' नहीं

जा रही है।


💐 शुभमस्तु !


30.09.2020◆10.30 पूर्वाह्न।

भारत के गाँव [ कुण्डलिया ]


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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                     -1-

भारत  बसता  गाँव  में,कह देते   हैं  लोग।

गाँव  छोड़कर  शहर में,रहते करते    भोग।।

रहते   करते भोग, गाँव  क्यों रास  न आए।

साधन  सुविधापूर्ण,शहर ही सबको   भाए।।

'शुभम'गाँव का हाल,सुधारें मत हों आहत।

मनहर  होंगे गाँव, बनेगा  सुंदर     भारत।।


                      -2-

भारत  का हर  गाँव ही,भरता सबका पेट।

फल,सब्जी याअन्न की,करता है शुभ भेंट।।

करता  है  शुभ  भेंट, दूध , दालें  भी  देता।

सस्ता  बेचे  दीन,  वस्तु  मँहगी  वह लेता।।

'शुभम' ठग रहे लोग,कृषक है भारी आहत।

हुआ  प्रशासन  पंगु, गर्त   में जाता भारत।।


                      -3-

भारत  गाँवों में बसे ,कहकर ठगते   लोग।

जनगण मन बीमार है,फैल रहे   हैं   रोग।।

फैल रहे हैं रोग,चिकित्सक नर्स  न  कोई ।

असमय मरते दीन, गाँव की जनता   रोई।।

'शुभम' कमीशनखोर,चूसते जनता का सत।

आश्वासन   का खेल,वोट दे गिरता   भारत।।


                      -4-

भारत  के  सब  गाँव  तो, बने दुधारू  गाय।

पय  पी  बेघर  छोड़ते,  शेष गाँव   में  हाय।।

शेष  गाँव  में हाय, चाय भी उन्हें न  मिलती।

ठांय-ठांय   से लूट,रूह नारी की    छिलती।।

'शुभम'  बंद सब द्वार,जिंदगी होती    गारत।

नेता करते   ऐश , गाँव का लुटता    भारत।।


                      -5-

भारत  के  हर गाँव  का, बड़ा बुरा  है  हाल।

मच्छर नित ग़जबज करें,रोग बने हैं काल।।

रोग   बने  हैं  काल,  नहीं शौचालय   सुथरे।

उपले  ईंधन  बंद,  हाथ  लोटा ले     निकरे।।

'शुभम' न बदली सोच,जुए सट्टे  में  वे  रत।

कैसे  हो   उद्धार,  बने  सुंदर मम   भारत।।


💐 शुभमस्तु !


30.09.2020 ◆9.45पूर्वाह्न।

मंगलवार, 29 सितंबर 2020

फूलों का संसार निराला [ बालगीत ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🌻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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फूलों  का    संसार   निराला।

पूजा   करें   सजाएँ   माला।।


ऋतु -ऋतु के हैं फूल निराले।

रंग -  बिरंगे   खुशबू   वाले।।

प्रकृति ने   नव   जादू  डाला।

फूलों  का   संसार  निराला।।


गेंदा,  जूही  ,  चंपा ,   बेला।

है  गुलाब महका अलवेला।।

पीला, लाल ,गुलाबी ,काला।

फूलों का  संसार   निराला।।


गुलमहदी , कनेर  है  भाती।

देखो   छुईमुई     शरमाती।।

श्वेत  चाँदनी   करे  धमाला।

फूलों  का  संसार  निराला।।


फूलों  से   सब्जी  फ़ल आते।

आम  रसीले   सबको  भाते।।

लौकी , भिंडी   बैंगन  काला।

फूलों का   संसार   निराला।।


फूलों   में   नर  - मादा  होते।

सृजन - बीज  माटी में बोते।।

क्रिया- परागण ने सब ढाला।

फूलों  का  संसार  निराला।।


चिड़ियाँ,कीट,तितलियाँ आतीं।

क्रिया -  परागण  हाथ बँटातीं।।

सृजन- बिंदु का खुलता ताला।

फूलों    का  संसार  निराला।।


व्यर्थ   नहीं  फूलों  को तोड़ें।

डाल नहीं  पौधों   की मोड़ें।।

'शुभम' नेह से भर दें प्याला।

फूलों  का  संसार  निराला।।


💐  शुभमस्तु !


29.09.2020 ● 6.15 अपराह्न।

पंछी [ बालगीत ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🦚 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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पंखों   से   पंछी  नभ  जाते।

इसीलिए  वे  खग कहलाते।।


चलो गाँव  की  ओर सैर को।

भुला सभी से किसी बैर को।।

गाँवों   में    पंछी    मिल पाते।

पंखों  से   पंछी  नभ  जाते।।


ऋतु  वसंत  में कोयल  बोले।

डाल-डाल जाकर मुँह खोले।

मोर , पपीहा   सब   हर्षाते ।

पंखों  से   पंछी  नभ  जाते।।


सुंदर   मुर्गा     हमें    जगाता।

कुक्कड़ कूँ कर  गाना गाता।।

मुर्गी   बतखें    करती   बातें।

पंखों  से  पंछी   नभ  जाते।।


गौरैया    घर    नीड़   बनाती।

चूँ चूँ  चीं चीं कर   भरमाती।।

खग कपोत भी नाच दिखाते।

पंखों  से   पंछी  नभ  जाते।।


भजन  सुनाती है पिड़कुलिया।

भोलीभाली   है  गलगलिया।।

बुलबुल, श्यामा उड़- उड़ गाते।

पंखों  से   पंछी   नभ  जाते।।


आम्र - डाल  पर बैठा  तोता।

छेद तने   को  रहता  सोता।।

नभ में  चील ,बाज  मँडराते।

पंखों  से पंछी   नभ  जाते।।


तीतर   और    बटेर   बोलते।

खेतों  में वे   निडर   डोलते।।

बोल   टिटहरी   हमें   डराते।

पंखों   से   पंछी  नभ जाते।।


गिद्ध  कहाँ  जाकर  हैं  सोए।

काँव - काँव करते  हैं  कौवे।।

बगले,क्रौंच कभी दिख पाते।

पंखों  से  पंछी  नभ   जाते।।


प्यारा  नीड़  बया  का होता।

पत्नी के सँग  रहता  सोता।।

बुनकर  पंछी  वे   कहलाते।

पंखों  से  पंछी  नभ  जाते।।


जलमुर्गी   पोखर   तटवासी।

झेंपुल   प्रातः  धूम  मचाती।।

केंकों को क्या कमतर पाते।

पंखों से  पंछी   नभ  जाते।।


💐 शुभमस्तु !


29.09.2020 ◆12.45अपराह्न।


जब से मैं भी शहर हो गया [ गीत ]

  

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✍️ शब्दकार©

🦚 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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जब    से    मैं   भी     शहर   हो गया।

मेरे     भीतर         जहर     बो  गया।।


हवा     प्रदूषित      हुई      गाँव    की।

शांति    मर    गई   सभी  ठाँव    की।।

नौ -   नौ   आँसू    नयन      रो  गया।

जब    से  मैं   भी  शहर   हो   गया।।


चौपालें         दुकान          हो    गईं।

नौनिहाल  -    मुस्कान       खो  गई।।

नारी      का        सम्मान    सो  गया।

जब   से  मैं   भी  शहर    हो  गया।।


कृषक      नहीं    अब    खेती करता।

सजा       दुकानें   निज    घर भरता।।

कृषि      उत्पादन    कहीं   खो  गया।

जब    से  मैं   भी    शहर    हो  गया।


पानी         हुआ     भूमि   का    खारी।

फैल        रहीं           कितनी  बीमारी।।

स्वस्थ   देह    अब    स्वप्न   हो    गया।

जब   से    मैं   भी    शहर   हो  गया।।


काटे          बाग      गई     अमराई।

सरिता   -    जल    की   हुई विदाई।।

फूलों     का      संसार     सो   गया।

जब   से     मैं    भी  शहर   हो  गया।।


गेहूँ ,       चना ,       मटर    की   खेती।

नहीं      रही      अब    फसल अगेती।।

प्रेम      और     व्यवहार    लो   गया।

जब   से   मैं    भी     शहर  हो  गया।।


काला        धुआँ      चिमनियाँ छोड़ें।

आँखें      ढँकें       नाक -  भौं  मोड़ें।

स्वाभाविक       संसार       तो   गया।

जब    से  मैं    भी    शहर   हो  गया।।


हरे      साग        का     सपना  आता।

अंडा        माँस     आदमी   खाता।।

मानवता       का      मरण  हो    गया।

जब   से  मैं  भी     शहर     हो  गया।।


है       विकास     विनाश    का    बेटा।

बलिदानों    की        भू     पर   लेटा।।

आँसू     से   मुख   विकल  धो    गया।

जब   से   मैं   भी    शहर    हो   गया।।


आओ         चलो       गाँव  अपनाएँ।

संग         प्रकृति     आनन्द   मनाएँ।।

'शुभम'   गाँव   का  सुमन  खो   गया।

जब    से   मैं   भी   शहर    हो  गया।।


💐 शुभमस्तु ! 


29.09.2020 ◆10.30 पूर्वाह्न।


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समय -साधना [ दोहा ]

  

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✍️शब्दकार©

🌞 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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समय नहीं है हाथ में,समय उड़े बिन पंख।

नाद न करता जीभ से,नहीं बजाता शंख।


समय समय की बात है,ऊँचा कभी गिरीश।

फेर समय का जब पड़े,झुकता कुंजर शीश।


मनुज समय बर्बाद यों,करना मत पल एक।

पता नहीं किस शुभ घड़ी,काम करे तू नेक।।


समय नष्ट जिसने किया क्षमा न उसको एक

समय नष्ट करता उसे,जिसका पथ अविवेक


रखे  हाथ  पर हाथ  क्यों,बैठा यों     बेहाल।

समयचक्र अविराम है,देख समय की चाल।


समय ईश का नाम है,समय सत्य का नाम।

बिना समय है शून्यता,समय चले अविराम।


कर्मवीर  के  हाथ   की,  मुट्ठी में   है   बंद।

कर्महीन खोता उसे,समय सदा स्वच्छन्द।।


आठ प्रहर चौंसठ घड़ी,सबका समय समान।

कर्महीन कहता नहीं,नहीं समय  का  भान।।


दुख में लगती मंद गति,सुख में लगती तेज।

सुखदुख में जो एकसम जीते सुख की सेज


समय-समय सब खेलते,जीत नहीं है हार।

कोई घोंघा सीप ले  ,  कोई   ले     उपहार।।


समय - साधना साधती, जीवन की हर कोर।

लय-गति में नर्तन करे,होता स्वर्णिम भोर।।


💐 शुभमस्तु !


19.09.2020◆ 6.30अप .

बेटियाँ [ दोहा ]

 

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✍️शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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बेटी  आधी  सृष्टि   है,  बेटी से   संसार।

ए नारी निज कोख़ में,बेटी को मत मार।।


बेटी  सारे  सृजन  की, होती कला   महान।

सुंदरता का स्रोत है,हर घर नर की शान। 


सृजन नहीं तव हाथ में,बनता कर्ता   मूढ़।

बेटे बेटी का सृजन,समझ राज अति गूढ़।।


कठपुतली  की  डोर  को, रहा विधाता थाम।

उसकी करनी में मनुज,क्यों बनता है वाम।।


बेटी को कम आँककर,करता नर अपमान।

पर्दे   में  रखना  बुरा ,उसकी भी  पहचान।।


मटकी  नहीं  अचार की,बेटी मानव  जान।

बेड़ी डाली  पैर की,करता पथ व्यवधान।।


विज्ञापन -बाला बना, शोषण करता रोज।

सजा-धजा कर लूटता,बेटी के कर भोज।।


माता,बेटी,भामिनी,वामा, भगिनि  अनेक।

नाम बहुत गुण धर्म से,नारी सुमन विवेक।।


दो कुल को ज्योतित करे,बेटी गुण भंडार।

शिक्षित  उसे बनाइए, नहीं बेटियाँ   भार।।


लता  नहीं  बेटी  कभी , सुदृढ़ गेह  आधार।

साहस धीरज धारिणी,मान सुता आधार।।


 बेटी के पग बेड़ियाँ, डाल न कर कमजोर।

जाग गई  हैं  बेटियाँ,  हुआ सुनहरा   भोर।।


💐 शुभमस्तु !


28.09.2020◆2.00अप.


शिरडी में साईं [ दोहा ग़ज़ल ]


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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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कहते  हैं परमात्मा, रहता है सब  ठौर।

सभी चराचर में बसा,करें बात पर गौर।


राम कृष्ण अवतार हैं,ईसा बुद्ध महान,

हिन्दू मुस्लिम खोजते,कैसा आया दौर।


खुदगर्ज़ी पुजती यहाँ,पूजे पत्थर  काग,

माथे पर महका करे,खुशबू वाली खौर।


शिरडी में साईं  हुए,मुस्लिम कहते लोग,

क्या उनमें रब ही नहीं,ठीक नहीं ये तौर।


इंसाँ, कीड़े में  सदा, होता  रब का वास,

पत्ती, फूलों में रमा,शाख, मूल या बौर।


मज़हब में रब बाँटकर,लड़ता इंसाँ रोज़,

कहीं  धूपबत्ती  करे,कहीं डुलाता चौर।


'शुभं'धर्म वह है नहीं,जो बाँटे भगवान,

मसक कीर सा जीरहा,इंसाँ कीट बतौर


💐 शुभमस्तु !


26.09.2020 ◆11.15 पूर्वाह्न।


ग़ज़ल

 

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✍️ शब्दकार©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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ज़र्रे-ज़र्रे में रब है  भली  कहता  है।

मेरा दिल  कितना सही कहता है।।


राम  में कृष्ण में आस्था तो रखिये,

 तेरी बिगड़ी बनेगी यही  कहता है।


ईंट-पत्थर में भी हमें  दिखता वही,

जिसकी   जैसी  मति  वही कहता है। 


एक ही नूर से  ब्रह्मांड  है बना सारा

कौन   है  जो  ये राज नहीं कहता  है।


जाति, मज़हब  में बाँटता है  रब  को,

नादां  है जो खुद को सही कहता  है।


काग ,चीलों को पूजता  खुदगर्ज़ यहाँ,

इंसान  को   इंसान   नहीं  कहता   है।


दोगली  बातें  तो   खोखली  हैं    तेरी,

खो गया सच तेरा 'शुभम'यही कहता है।


💐 शुभमस्तु !


26.09.2020◆9.30 पूर्वाह्न।

शुक्रवार, 25 सितंबर 2020

जब मैं रात ढाई बजे तक पढ़ा [ संस्मरण ]


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लेखक © 


🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'


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            कहते हैं कि सात वर्ष में एक युग बदल जाता है। यहाँ तक कि हमारे शरीर की संरचना के समस्त अंग, उपांग ,रक्त, मांस ,मज्जा आदि सभी में पूर्ण परिवर्तन हो जाता है। यदि अतीत की साढ़े पाँच दशक पूर्व की खिड़की में आज झाँक कर देखते हैं ,तो इस तथ्य की सत्यता स्वतः प्रमाणित हो जाती है। उस समय मैं राजकीय इंटर मीडिएट कालेज आगरा में हाई स्कूल का विज्ञान वर्ग का विद्यार्थी था। नवीं कक्षा अच्छे अंकों से उत्तीर्ण करने के बाद दसवीं में अध्ययनरत था। गाँव से शहर में आकर अपने पूज्य चाचाजी प्रोफ़ेसर डॉ. सी.एल.राजपूत जी के साथ रहकर अध्ययन कर रहा था। वहीं से नित्य प्रति पैदल ही विद्यालय आता- जाता था।


               यह बात सन 1969 की है। उस समय परीक्षाएँ यथासमय हो जाती थीं औऱ मई या जून में परिणाम भी घोषित हो जाते थे। परीक्षा का समय आ चुका था। लेकिन हमारा विज्ञान का पाठ्क्रम मात्र पच्चीस प्रतिशत ही पूर्ण हो सका था। अन्य सहपाठी छात्र अपने ही विषय अध्यापकों से ट्यूशन पढ़कर पाठ्यक्रम पूरा कर ले रहे थे। मैंने कभी भी कोई ट्यूशन नहीं पढ़ा। विज्ञान का पाठ्यक्रम की स्थिति देखकर मुझे कुछ उदासी होने लगी , लेकिन मैंने साहस नहीं छोड़ा। देखते -देखते वह दिन भी आ गया कि अगले दिन विज्ञान का प्रश्नपत्र होना था।


             मैं अपने पूरे शिक्षा अध्ययन काल में कभी भी रात में नौ बजे के बाद नहीं पढ़ा। विद्यालय से घर आकर दिन में जितना भी पढ़ना, लिखना,याद करना होता था ;पढ़ लेता था। थोड़ा बहुत रात नौ बजे तक पढ़ता था। दिन में जब मैं किताब लेकर पढ़ने बैठता , मेरी पूजनीया दादी जानकी देवी देखते ही कहतीं: " लला ज्यादा मति पढ़िवे करै, ज्यादा पढ़िवे तें आँखें कमिजोर है जाति हैं।" इस पर मैं यही कहता ;" ठीक है अम्मा।"और वहाँ से हटकर अपने बँगले में या बगीचे में छिपकर पढ़ने चला जाता। मेरी अम्मा ,(दादी को मैं अम्मा ही कहता था ।) ,पिताजी या बाबा जी ने कभी न पढ़ने के लिए नहीं कहा और न रोका ही। क्योंकि मैं तो स्वतः ही किताबी कीड़ा था।अब किताबी कीड़े से क्या कहना कि पढ़ ले ,याद कर ले , स्कूल का काम कर ले।


                सुबह विज्ञान की परीक्षा थी और तैयारी थी नहीं। उस रात मैंने यह दृढ़ निश्चय कर लिया था कि जितना भी पाठ्यक्रम पूरा हुआ है ,उसमें से जो भी आएगा ,उसे पूरा और सही तरीके से करके आना है। 'आधी छोड़ सारी को धावे।आधी रहे न सारी पावे।।' वाली कहावत को मैं बख़ूबी जानता ,समझता था। इस तरह जब पढ़ने बैठा तो रात के ढाई बज गए ।और मुझे यह संतुष्टि हुई कि अब सब याद हो गया।


              सुबह परीक्षा हुई ।  प्रश्नपत्र बहुत अच्छा  हुआ और परीक्षाफल घोषित होने पर विज्ञान में 77%अंकों के साथ विशेष योग्यता भी प्राप्त हुई। इस प्रकार मेरा उस रात ढाई बजे तक पढ़ना सार्थक सिद्ध हुआ।जितना पाठ्यक्रम तैयार था ,उसे ही दुहराया । नया कुछ भी तैयार करने का कोई प्रयास नहीं किया। वह मेरे जीवन का पहला औऱ अंतिम दिन था , जब मैं रात में ढाई बजे तक पढ़ा। आज भी जब उस दिन की याद आती है ,तो बहुत अच्छा लगता है।


 💐 शुभमस्तु ! 


 25.09.2020 ◆7.30 अपराह्न।

पाँच फीसद [अतुकांतिका ]


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✍️ शब्दकार ©

🏵️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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छिपाने योग्य का

दिख जाना

कहलाता है

नंगापन।


छिपाने योग्य का

 मानक

बनाया किसने 

हमने आपने

मैंने इसने उसने।


छिपाने योग्य?

मानव में

मानव की मान्यता

मानवेतर में नहीं।


छिपाना ही 

मानवता,

अन्यथा पशुता,

कदली-पल्लव

कर -पल्लव

अथवा 

वसन की ओट,

छिपा नहीं पाना

मानव का खोट?


छिपाने योग्य का

कुल आकार

मात्र फीसद पाँच,

पिचानवे फीसद

उघड़ा रहे,

नहीं आती कोई

तृण मात्र भी

मानवता पर आँच!


पाँच फीसद में ही

समस्त मानवता

अथवा 

पशुता का आकार,

जीवित मानव देह में 

वह होता साकार,

देता है उसे

आवरण एक नकार ।


पाँच फीसद

पशुता है ,

तो शेष क्या है?

क्या मानवता का महल

महज पाँच फीसद पर

टिका है।


कोई श्वान ,वराह,

हस्ती ,ऊँट, गर्दभ,

सिंह या सियार,

पाँच फीसद को

आवृत करने को

नहीं लाचार,

कोई नहीं जाना समझा

इसकी दरकार।


समस्त मानवता

मात्र पाँच फीसद में

समाहित,

शेष सब 

एक प्रश्न चिह्न,

ज्वलंत प्रश्न?


पशुता और

मानवता के

विभेद का साज,

मात्र कुछ

लघु आवरण में

ढँके हुए 

समझे हुए 

'शुभम' राज !


💐शुभमस्तु !


25.09.2020◆4.30 अपराह्न।

गुरुवार, 24 सितंबर 2020

पुण्य पंथ पर पथिक बनो [ गीत ]


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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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पुण्य  पंथ पर पथिक बनो रे!

द्वेष - भाव    उर   से  त्यागो।

सोए    हुए   पड़े   सपने   में,

शैया   छोड़   उठो     जागो।।


कब तक  और  गुलाम रहोगे,

लोकतंत्र    की    मेष    बने।

बाँध पट्टिका निज नयनों पर,

अपनों को  डस  शेष  तने।।

भोर  हो गया   बाहर आओ,

अधिकारों  को  लड़  माँगो।

पुण्य पंथ पर पथिक बनो रे!

द्वेष -भाव   उर   से त्यागो।।


जाति - भेद   की   दीवारों  ने,

मानवता    का  नाश  किया।

नेताओं     ने   आग    लगाई ,

निज घर  विभव-उजास दिया।

मधुर   सांत्वना   भरे  बताशे,

मित्रो!   इन्हें   छोड़   भागो।

पुण्य पंथ पर पथिक बनो रे!

द्वेष -भाव   उर  से  त्यागो।।


काने    बाँट  रहे    रेवड़ियाँ,

घर    वालों    को   देते   हैं।

भूखे मरते कृषक श्रमिक ये,

वे   न   अभी  तक  चेते  हैं।।

आश्वासन   झूठे   हैं   इनके,

कह   दो   हटो   दूर   नागो।

पुण्य पंथ पर पथिक बनो रे!

द्वेष -भाव   उर  से  त्यागो।।


अपनी     जेबें    भरने   वाले,

देशभक्त      कब   होते     हैं?

ये  चूषक , शोषक  भारत के,

सदा   शूल    ही    बोते   हैं।।

देशद्रोहियों पर गिन-गिन कर,

जूतों    की      गोली    दागो।

पुण्य पंथ पर पथिक  बनो रे!

द्वेष - भाव  उर   से  त्यागो।।


श्वेत   बगबगे  वसन धार कर,

 ठग जनता  को   ठगते    हैं।

मृग-मरीचिका को दिखलाते,

ठगे   लोग  कब   जगते हैं??

निर्धन और अधिक निर्धन हैं,

'शुभम'सृजन कर लो जागो।

पुण्य पंथ पर पथिक बनो रे!

द्वेष - भाव   उर  से  त्यागो।।


💐 शुभमस्तु  !


24.09.2020☆11.15पूर्वाह्न

भेड़ भी! अंधी भी! [ कुंडलिया ]


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✍️ शब्दकार©  

🌾 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                     -1-

अंधी  जनता के लिए,काना राजा   ठीक।

वाह-वाह करने लगी, आई उसको छींक।।

आई उसको छींक,एक गमछा ले   आया।

तुरत दौड़कर एक, एम्बुलेंसहि  बुलवाया।।

'शुभम'पतन का काल,न कोई कारज बनता।

एक नयन से हीन,उधर सब अंधी   जनता।।


                     -2-

अंधी  जनता  भेड़ है, या मूढ़ों की  भीड़।

काना राजा जो कहे,बस जाए उस नीड़।।

बस जाए  उस नीड़, बहुत ही आज्ञाकारी।

पूरा    है   विश्वास  , नहीं  कोई    लाचारी।।

'शुभम'काटता पेट,नहीं सिर कोई  धुनता।

मन में है खुशहाल,देश की अंधी  जनता।।


                     -3-

अंधी   भेड़ों के   लिए, नहीं सोचना  ठीक।

सोचेगा राजा सही,चलें पकड़ हम   लीक।।

चलें पकड़ हम लीक, कूप में भले  धकेले।

ग्रीवा  भी  दे काट, भले प्राणों को  ले   ले।।

'शुभम' न शेष विवेक,मूढ़ मानव अनुबंधी।

भले  उतारे  खाल, देह ,मन, धी से अंधी।।


                     -4-

अंधी जिनकी आँख हैं, चर्म-चक्षु पाषाण।

बिना रज्जु  के  वे बँधे, दे  देंगे वे    प्राण।।

दे  देंगे  वे  प्राण, पालतू  श्वान जान    लें।

बँधे तंत्र  की  डोर, भले पशु दीन मान लें।।

'शुभम' मृत्तिका  ढेर, मगर सारे   बहुधंधी।

बैठे  मौन  सुशांत, आँख  हैं दोनों    अंधी।।


                     -5-

अंधी  भेड़ें  भैंकती, रेवड़ में दिन -  रात।

चाहे  ऊन  उतार  लो,  चाहे मारो  लात।।

चाहे   मारो  लात, भुसी तन में  भरवाओ।

करें  वही सब काम,घिनौने यदि करवाओ।।

'शुभम' हमें स्वीकार,तुम्हारी बदबू   गंधी।

करना क्यों इनकार ,पालिता हैं  हम  अंधी। 


💐 शुभमस्तु !


23सितंबर2020◇7.00अप.

प्रीत के गीत [ गीत ]

 

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✍️ शब्दकार ©

💃 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

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प्रीत  के  तो  गीत  ही बस रह गए।

भेद  सारे  कर्म  ही  सब   कह गए।।


राम   रसना   से  रिसा  जाता मधुर।

पर  हृदय  है  कटु  निबौली- सा प्रचुर।।

जुल्म ज़ालिम जगत के हम सह गए।

प्रीत  के  तो  गीत  ही बस रह गए।।


प्रेम   नाटक  का  सजाता  मंच  है।

आवरण  में  निपट  प्रबल प्रपंच  है।।

महल   मानव  के  सजे ही ढह   गए।

प्रीत  के  तो  गीत  ही  बस रह  गए।।


नेह  के    नाते   अभागे  हैं यहाँ।

स्वार्थ     के  ही  रंग  में   रँगता  जहाँ।।

कालिमा    भर -भर  पनारे  बह    गए।

प्रीत  के  तो  गीत  ही  बस रह   गए।।


दान     करता    आदमी  अख़बार     में।

मुस्कराता    फोटुओं    के  ज्वार     में।।

निस्वार्थ  करते  काम  वे सब रह   गए।

प्रीत  के  तो  गीत  ही  बस रह   गए।।


सौ    मुखौटे    चेहरों  पर   आ   गए।

असलियत  के  -भेद  सारे  खा   गए।।

सजलता  के 'शुभम ' सागर दह   गए।

प्रीत   के  तो   गीत   ही बस रह  गए।।


💐 शुभमस्तु !


23.09.2020 ◆1.45अपराह्न

बाढ़ [ दोहा ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🚣🏿‍♀️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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सदा हानि करती बड़ी,जब आती है बाढ़।

धन या जल की बाढ़ में,सेतु न रहें प्रगाढ़।।


बाढ़ कहा जाता सदा,सीमा का अतिरेक।

मर्यादा  भी  भंग हो,नेक न रहते    नेक।।


जब नौका में जल बढ़ा,त्राहि- त्राहि का शोर।

सब सवार यह चाहते,बचे प्राण  की  कोर।।


बस्ती   डूबी बाढ़ में, चाहें सब ही     त्राण।

एक  नाव पर हैं चढ़े,गाय शेर हित  प्राण।।


निज सीमा को लाँघना, उचित नहीं है मीत।

बाढ़ विनाशक है सदा, मानव के  विपरीत।।


पौधे रोपें अवनि पर,हरियाली हर   ओर।

बाढ़ नहीं आए वहाँ,नहीं पवन का   जोर।।


मानव कारण बाढ़ का,दोहन करता खूब।

ऊसर  बंजर  भू  बनी, उगती कैसे   दूब।।


आए धन की बाढ़ जो,कर ले मानव  दान।

बह जायेगा एक दिन,रहे न कोरी   शान।।


देहशक्ति की बाढ़ में,मानवता मत  त्याग।

अति जब होगी बाढ़ की,झुलसेगा तू आग।


नाम  सुनामी  का  सुना,बाढ़ सिंधु की तेज।

मानव की अति से बनी,हुई सनसनीखेज।।


पंचभूत में बाढ़ के, अलग-अलग बहुरूप।

कभी भूमि कंपन करे, उफ़नाते  हैं  कूप।।


💐 शुभमस्तु !


23.09.2020 ◆12.30अपराह्न।


उज्ज्वल दिवस [ गीत ]


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✍️ शब्दकार ©

🌅 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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उज्ज्वल दिवस प्रभात बनाया।

सूर्य  अस्त  में निशि की छाया।।


रहता   कहाँ   न   दिखता हमको।

नहीं     बोलता      सुनता सबको।।

दिन  सूरज   निशि   चाँद बनाया।

उज्ज्वल   दिवस  प्रभात बनाया।।


कहते   हैं  कण - कण  का वासी।

लघुतम    इतना     नित्य उदासी।।

गिरि,  सरिता,जन ,जीव समाया।

उज्ज्वल  दिवस  प्रभात बनाया।।


खगदल  के   मुख  बोल रहा है।

कलियों    में  उर  खोल  रहा है।।

अनदेखे      ही   रूप    सुहाया।

उज्ज्वल  दिवस प्रभात बनाया।।


उसका  राज     न  जाने  कोई।

जिसने   बेल   नेह   की  बोई।।

थल  से  अम्बर  तक सरसाया।

उज्ज्वल दिवस प्रभात बनाया।।


मानव  ने     नित   उसको  बाँटा।

नाम    बदल    मतलब का छाँटा ।।

नंगा     जीव     धरा     पर   आया।

उज्ज्वल  दिवस  प्रभात बनाया।।


चोटी    खतने     की     है   भाषा।

बदली      मानव        की परिभाषा।।

जन   विनाश    का   छाया  साया।

उज्ज्वल   दिवस   प्रभात बनाया।।


पशु -   पक्षी   मानव   से  उत्तम।

अहंकार     में      नर   सर्वोत्तम।।

जुल्म    आदमी    ने    ही  ढाया।

उज्ज्वल  दिवस  प्रभात बनाया।।


जितना   ज्ञान     अँधेरा   उतना।

करता है   नित  अभिनय इतना।।

पकड़ी   कस  कर  उसने माया।

उज्ज्वल   दिवस   प्रभात बनाया।।


💐 शुभमस्तु !

21.09.2020 ◇ 12.30 अपराह्न।


सोमवार, 21 सितंबर 2020

सीख यहाँ भी मिलती है [ कुण्डलिया]


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✍️ शब्दकार©

🦢 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                       ◆भौंरा◆

भौंरा रस पीता सदा,बदल- बदल कर फूल।

कलिका  को छूता नहीं,और न छूता   शूल।।

और न छूता शूल,भूल कब अलि से  होती।

रसग्राहक षटपाद,चेतना कभी न  सोती।।

'शुभं'मनुज अज्ञान,तमस का झप्पक झौंरा।

कलिका  को ले चूम,श्रेष्ठ है नर  से   भौंरा।।


                     ◆हंस◆

चुगता  मोती  हंस बस,चुगे न हीरा,  लाल।

उसका  प्रिय आहार है,नहीं बदलता  चाल।।

नहीं   बदलता  चाल,न भावे चाँदी   सोना।

मानव नहीं मराल, यही मानव का     रोना।।

'शुभम'मनुज की जीभ,स्वाद में लेती शुभता।

चखती खाद्य अखाद्य,हंस बस मोती चुगता।


                 ◆चातक◆

चातक पीता स्वातिजल,पिए न गंगा नीर।

भले पिपासा से मरे,तजे न पल  को  धीर।।

तजे न पल को धीर,प्राण से प्रण  है  भारी।

यही योग का साँच,न बाधा माया    नारी।।

'शुभं'लालची जीव,मनुज अपना ही घातक।

उसे  चाहिए भोग, नहीं बन पाता  चातक।।


                   ◆कोयल◆

कोयल  काली रूप की,वाणी मधुर    अनूप।

आता है ऋतुराज जब, गूँजे सरिता  कूप।।

गूँजे सरिता, कूप,  बाग, वन, पादप    सारे।

कौन  देखता  रूप,मधुरिमा में सब     हारे।।

'शुभम'मनुज तम तोम, बोलता वाणी ठाली।

खग से ले ले सीख, देख वह कोयल काली।।


                    ◆वानर◆

सीमा अपनी लाँघता, नहीं बदलता  चाल।

वानर  निज में लीन है,अपने में   खुशहाल 

अपने में  खुशहाल,बदलता चालें   मानव।

बनता योगी साधु, कभी वह होता  दानव।।

गदहा, शूकर,श्वान,नहीं मानव का    बीमा।

'शुभम'बदलता रूप,लाँघता अपनी  सीमा।।


💐 शुभमस्तु  !


20.09.2020◆7.00अपराह्न।

स्वस्थिति ही रस है! [ अतुकान्तिका ]


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✍️ शब्दकार©

🌹 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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सब   भटके    हुए,

झाड़ में अटके हुए,

गृहस्थ-

स्त्री,धन,अनुराग  की ओर,

सन्यासी-

त्याग, वन,विराग  की ओर,

कोई भी नहीं है

अपने  आप की  ओर !


कभी दूसरे से पलायन ,

कभी दूसरे की ओर,

बस पलायन ही पलायन!

मानव है सर्वत्र ही

चंचलायन!

चंचल तन मन !!


भाग कर तुझे

जाना है कहाँ?

क्या परमात्मा 

है वहाँ?

स्वस्थिति के अंदर

आना भी कहाँ ?

जहाँ हो ,जैसे हो

है परमात्मा  वहाँ।

स्वस्थिति को

रास नहीं आया ,

तो रस है ही कहाँ?


रस में ही मुक्ति है,

वही  भक्ति  है ,

वही तो शक्ति है,

रस कहीं बाहर नहीं,

वह है वहीं,

जहाँ तेरी स्थिति रही।


स्वर्ग है तेरे भीतर,

न वन में,

न तीर्थ में,

न घर में,

न सन्यास में,

न गार्हस्थ में,

क्योंकि वे हैं

भ्रांति ,

अशांति और क्लांति।


जहाँ है 

तेरी  दृष्टि,

वहीं भ्रांति

और अशांति की सृष्टि,

तेरा परमात्मा 

तुझमें है,

तेरे पास है,

न स्त्री में,

न धन में,

न वन में ,

न विराग में।


सारे तीर्थ हैं

तेरी आत्मा में,

तू ही तो है

तीर्थंकर,

समस्त यात्राओं से

मुक्ति का नाम ही

है तीर्थयात्रा!


एकांत का रस

नहीं जानता है,

अपना परमात्मा 

कहीं और मानता है!

पहचान तो 

अपना छंद,

अपना रसास्वाद,

अंतर गुंजित वीणा का

अनहद नाद।


बाहर कुछ नहीं,

सब भीतर है,

सुख का स्रोत भी

वहीं से स्रावित है,

बन जा शांति बुद्धि का

नहीं भाग

वन की ओर,

नहीं भाग 

नगर की ओर,

स्वस्थिति के रस में

'शुभम' आनंदमग्न रह,

वहीं तीर्थ है ,

वहीं रस है ,

वहीं परमानंद है

 परमात्मा है।


💐 शुभमस्तु !


20.09.2020 ◆11.55पूर्वाह्न।


शुक्रवार, 18 सितंबर 2020

कविता क्या है? [ लेख ]

 

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 ✍️ लेखक © 

 📒 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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               कविता मानवीय मनोभावों के उच्छ्वसित होने का एक सुंदर ,सशक्त और कलात्मक माध्यम है।यह मानवीय भावों-यथा:प्रेम, करुणा ,दया, ममता ,घृणा ,क्रोध आदि की रक्षा करती है।कविता मानवीय मनोभावों को उत्तेजित करने का उत्कृष्ट साधन है।किसी कवि के द्वारा जब भावनाओं का प्रसवी करण होता है ,तो कविता स्वतःस्फूर्त रूप से प्रस्फुटित होने लगती है। 


              स्वावभावतः प्रत्येक व्यक्ति प्राकृतिक रूप से एक कवि होता है,किन्तु एक सामान्य व्यक्ति और कवि में मूलभूत अंतर यह होता है कि शब्द- साधना की कलात्मक अभिव्यक्ति करके कवि अपने मनोभावों को कागज़ ,कैनवस या किसी अन्य आधार पर अंकित कर देता है और वह एक कविता बन जाती है।अन्य सामान्य व्यक्तियों में यह विशिष्ट क्षमता नहीं होती।इसीलिए वे काव्य का सृजन नहीं कर पाते। वे किसी गूँगे व्यक्ति की तरह गुड़ का रसास्वादन तो कर सकते हैं, किन्तु शब्दाधृत कला द्वारा अभिव्यक्त करने में असमर्थ होते हैं।

       

              कविता में विद्यमान प्रेरक शक्ति मानव को किसी सत्कर्म में प्रवृत्त करने की भावना को उद्दीप्त कर उसे सक्रिय बनाती है। जिस प्रकार ब्रह्मा जी द्वारा सृष्टि का सृजन किया जाता है ,उसी प्रकार प्रत्येक कवि भी काव्य -जगत का सृजन करता है। कविता करना एक कला है। जो इस कला में शब्द -साधना का निरन्तर अभ्यास करता हुआ आगे बढ़ता है , वह क्रमशः पारंगत होता चला जाता है। कविता के माध्यम से मानव - जगत के सुख-दुःख, आनन्द-विषाद आदि का सही रूप में अनुभव प्राप्त कर पाता है। 

       

             यह ठीक है कि कविता से मानव का मनोरंजन भी होता है,किन्तु मात्र मनोरंजन ही कविता का अंतिम उद्देश्य नहीं है। मानव -हृदय में एकाग्रता का भाव कविता से ही प्रादुर्भूत होता है। कविता मानवीय भटकाव को दूर करती हुई उसे केन्द्रीयता प्रदान करती है।सीधे -सीधे उपदेश देना नीरस और प्रभावहीन होता होता है, किन्तु कविता द्वारा उससे अधिक प्रभाव उत्पन्न किया जाता है।कविता मानव में सौंदर्य -बोध उत्पन्न कर संसार को सकारात्मक ष्टि से देखने के लिए प्रेरित करती है।वह मानवीय नकारात्मक भावों को निकालकर बाहर कर देती है।

      

             कविता मानवीय अंतःकरण में विलास की सामग्री नहीं परोसती।कविता में मानवीय भाव : करुणा ,प्रेम ,शृंगार ,हास्य,रौद्र, भयानक, वात्सल्य , वीभत्स, शांत आदि रस रूप में साधारणीकृत होकर अस्वादित होते हैं , तभी तो हमें जगत जननी सीता और जगत पिता श्री राम के पुष्प वाटिका के प्रणय प्रसंग को देख पढ़कर उनके प्रति पूज्य भाव होने पर भी उनकी प्रीति एक सामान्य प्रेमी -प्रेमिका की प्रीति की तरह आनंदानुभूति कराती है। वहाँ राम भगवान राम नहीं रह जाते ,और न सीता विशेषत्व धारित सीता माता रह पाती हैं। उन दोनों का साधारणीकृत प्रणय भाव ही सामाजिक को लौकिक प्रेम की अनुभूति का आनंद देता है।


                मानव -जाति के लिए कविता एक अनिवार्य तत्त्व है। मानव की मानवता की रक्षा करने में कविता की महत्वपूर्ण भूमिका है। मानवीय प्रकृति को जागृत बनाए रखने के लिए कविता के बीज का वपन ईश्वर द्वारा मानव -हृदय में किया गया है। पशु, पक्षी ,पौधे ,लता ,जलचर , थलचर तथा करोड़ों जीवधारियों में कविता करने का गुण नहीं पाया जाता। उन्हें इसकी आवश्यकता भी नहीं है। प्रयास करके मानव डाक्टर, अभियंता, वकील , नेता , विधायक ,सांसद ,मंत्री आदि कुछ भी बन सकता है , किन्तु सप्रयास कवि नहीं बन सकता।


             कविता केवल प्रत्येक सहृदय मानव को प्रभावित करती है। सभी लोग सहृदय नहीं होते ,इसलिए उनके ऊपर कविता का प्रभाव ऐसे होता है ,जैसे सूखे हुए पाषाण खण्ड पर कुछ देर के लिए जलधारा गिरा देना , जो अल्प काल के लिए उसे मात्र गीला ही करती है ,कोई स्थायी प्रभाव नहीं छोड़ पाती। सृष्टि में विद्यमान सौंदर्य -बोध को जागृत करने तथा उसे बनाए रखने के लिए कविता की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।कविता मानव को सौंदर्य की ओर आकर्षित ही नहीं करती ,वरन उसमें अनुरक्ति का सूत्रपात भी करती है।भौतिक सौंदर्य की तरह मानसिक सौंदर्य भी मानव की आत्मा को तृप्त करता है। कविता में पार्थिव और अपार्थिव -दोनों प्रकार के सौंदर्य का संयोग दृष्टव्य होता है। मानव पार्थिव सौंदर्य के अनुभव के बाद अपार्थिव (मानसिक) सौंदर्य की ओर आकर्षित होता है । पार्थिव सौंदर्य से अपार्थिव की ओर ले जाना कविता का प्रधान लक्ष्य है।


             कुछ कविगण अपने किसी निजी स्वार्थवश या लालच के कारण राजनेताओं, अधिकारियों ,अपने इष्ट मित्रों आदि की प्रशंसा में कसीदे काढ़ते हुए कविता का दुरुपयोग करते हुए भी देखे जाते हैं।यह कविता का अपमान है। माँ सरस्वती का असम्मान है। कवि की दृष्टि में सर्वोच्च प्राथमिकता उच्च आदर्शों ,मानवीय मनोभावों औऱ सकारात्मकता की ओर होनी चाहिए। चाटूकारिता से रंजित कविता करना कवि क़ा धर्म नहीं है।एक सच्चा कवि मानव मात्र में सौंदर्य का प्रवाह करता है। कविता की रसात्मकता ही उसका प्रधान गुण है: ' वाक्यं रसात्मकम काव्यं'। 

 💐 शुभमस्तु !


 18.09.2020◆12.55अपराह्न। 


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गुरुवार, 17 सितंबर 2020

ग़ज़ल


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✍️ शब्दकार ©

🐟 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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शुरू  हो  गया    फ़िर  वही सिलसिला है।

न दिल आदमी का आदमी से मिला  है।।


मज़ा   आ  रहा  है   सताने  में   उसको,

चूस  जाने  को  इंसां  हुआ पिलपिला  है।


कभी  मुफ़्त  में  प्यार  मिलता नहीं  है,

जां  भी   लुटा  दो  पहाड़ी किला है ।


उसे   भूख    सारी   पैसे    की  ख़ातिर,

भूखा  औ'   नंगा   हर इंसाँ  मिला   है।


किसी  का  रँगा  दिल  देखा न  पाया,

तन  को  रँगाया  हुआ झिलमिला  है।


छुड़ाते   हैं  धन   लगवा   के लँगोटी,

मुझे  दान  कर  दे  तो तेरा भला   है।


'शुभम' तू सुधर जा तो कल्याण  होगा,

कहाँ  तू  जमाने  के पथ  पर चला   है!


💐शुभमस्तु !


17.09.2020◆2.00अपराह्न

धरती माता [ बाल कविता ]


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✍️ शब्दकार©

🌍 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

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धारण  करती   धरती  माता।

जन -जन तेरी महिमा गाता।।


अन्न,शाक, फल हमको देती।

कभी न हमसे कुछ भी लेती।


दूध, वसन, घर सभी मिठाई।

सब  धरती  माता   से पाई।।


सहती   सबका  भार बराबर।

हम धरती पर सदा निछावर।।


कोई   गर्त    बनाता    गहरा।

दर्द  न सुनता  मानव बहरा।।


मौन  धरे  वह  सहती  भारी।

नित बढ़ जाते पशु,नर,नारी।।


सागर  में  जल  खारी रहता।

नदियों से मीठा जल बहता।।


गिरि  पयधर से बहता सोता।

पीता, भू  पर  फसलें बोता।।


हर  किसान को धरती प्यारी।

बने महल ,घर, अटा,अटारी।।


मूढ़  मनुज जल दोहन करता।

रोता तब जब प्यासा मरता।।


कहते  टिकी  शेष फन धरती।

रात- दिवस जनरक्षा करती।।


'शुभम'मान उपकार धरा का।

नहीं करे  तू  धूम - धड़ाका।।


💐 शुभमस्तु !


17.09.2020◆11.55पूर्वाह्न

शिल्पकार की पुण्य कृपा [ गीत ]


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✍️ शब्दकार ©

🌹 डॉ भगवत स्वरूप 'शुभम'

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शिल्पकार  की पुण्य कृपा से,

इस  जग  का  निर्माण हुआ।

पुरुष-प्रकृति के संयोजन से,

निर्मित सबल  प्रमाण हुआ।।


एक  कोशिका   के  जीवों ने,

धरती    पर    जीवन  पाया।

घास   शिवार निराले फंगस,

सब में   नव जीवन  लाया।।

पादप, लता,वन्य, पशु, पंछी,

भूतल  पर   ही  त्राण हुआ।।

शिल्पकार की पुण्य कृपा से,

इस जग का  निर्माण हुआ।।


दीर्घ  काल उपरांत मनुज ने,

जग  में  आ  आकार लिया।

तिल-तिल कदम प्रगति के चढ़कर,

नवयुग  का  विस्तार   किया।।

स्वामी  बना सृष्टि का मानव,

चेतनता   का    प्राण  हुआ।

शिल्पकार की पुण्य कृपा से,

इस जग का  निर्माण हुआ।।


धर्म, कर्म,  विज्ञान,  नीतियाँ,

मानव  को    हित्कारी    हैं ।

मनमानी    से    दूर   हटाएँ,

इनकी      महिमा   न्यारी  है।।

धीरे - धीरे    तमस  हट रहा,

अभी न  पूर्ण प्रयाण  हुआ।

शिल्पकार की पुण्यकृपा से,

इस जग का निर्माण हुआ।।


बिच्छू,   साँप,  नेवले   आए,

अमृत    और   जहर  भी हैं।

हाथी,शेर,हिरन, जलमछली,

सरिता,सिंधु,  नहर   भी हैं।।

ऊँचे    पर्वत   से  गंगा - सी,

अपगा   का  पय पान हुआ।

शिल्पकार की पुण्य कृपा से,

इस जग का निर्माण  हुआ।।


चिड़ियाँ  चहक  रहीं पेड़ों पर,

बाग     महकते   फूलों    से।

कलकल कर बहतीं सरिताएँ,

वन   में    पौधे  शूल   लसे।।

माता -पिता  और संतति से,

इस जग  का कल्याण हुआ।

शिल्पकार की पुण्य कृपा से,

इस जग  का निर्माण हुआ।।


पंचभूत     से     देह    बनाई,

हवा,   धूप,    पानी     सारे।

सूरज,  चाँद ,रात ,दिन सुंदर,

नभ   में   चमक   रहे तारे।।

लगातार यह धड़क रहा उर,

क्यों  इतना   पाषाण हुआ ?

शिल्पकार की पुण्य कृपा से,

इस जग का निर्माण हुआ।।


आओ   जग को स्वर्ग बनाएँ,

ईश्वर     के     आभारी    हों।

सत्यं     शिवं   सुंदरम  लाएँ,

इनकी   महिमा    भारी  हो।।

'शुभम' जीएँ  जीवन को ऐसे,

आदर्शों   का   त्राण     हुआ।

शिल्पकार की पुण्य कृपा से,

इस जग का   निर्माण हुआ।।


💐 शुभमस्तु !


17.09.2020 ◆8.00पूर्वाह्न।

वे कवि हैं!🏆🏆 [ व्यंग्य ] ◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆ ✍ लेखक © 🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप' शुभम' ◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆ वे अपने को कवि कहते हैं।कहते ही नहीं अपने नाम से पहले लिखते भी हैं। जब वे कवि हैं तो भला किसकी जुर्रत है कि उन्हें कोई कवि न कहे , कवि की मान्यता न दे।अपने पूरे मोहल्ले में तो कवि जी कवि जी का हल्ला मचा ही रहता है , पूरे शहर में भी लोग उनका असली नाम भूल गए हैं। उनका नाम ही उनका पता है। यदि बाहर से कोई उनका नाम लेकर उनके पास पहली बार आता है ,तो उनके असली नाम से तो कोई उन्हें बता ही नहीं पाता कि श्री अशर्फी लालजी कहाँ निवास करते हैं। जब तक कोई कवि श्री अशर्फी लाल जी नहीं कहता ,तब तक उनका नाम पता बताना ऐसा हो जाता है जैसे गधों के झुंड में अपना गधा ढूँढ़ पाना! जब कोई उन्हीं जैसा हुआ तो गनीमत है कि जब तक उनके पास आने वाला इच्छा या अनिच्छा से दस बीच रचनाएँ सुन नहीं लेता ,तब तक वे पानी की भी नहीं पूँछते।हाँ, यदि कोई बेशर्मी से पानी माँग भी लेता है तो पानी आने में ही चार -पाँच रचनाएँ सुन लेना आम बात है। कवि जी की रचनाओं को सुनने में कोई रुचि रखता हो या नहीं , इस बात से कवि जी को कोई रुचि नहीं। उन्हें तो बस अपनी कविताएँ सुनानी हैं तो बस सुनानी ही हैं। बस आप वाह ! वाह !! क्या बात कही है! आप तो आप ही हैं, आपने तो तुलसीदास सूरदास को भी पीछे छोड़ दिया।आप तो आज कर तुलसी हो , बिहारी हो ।जैसे अनेक प्रशंसात्मक वाक्य कहते रहिए और उनकी कविताओं के अगाध सागर में गोते लगाते रहिए। बेचारा आने वाला उनकी कविता सुनकर यह भी भूल जाता है कि वह किस काम से आया था। यदि कोई अरसिक व्यक्ति उनके पास आया तो भी उसे कविता तो सुननी ही पड़ेगी। उनकी देहरी से निकलने के बाद ऐसा आगंतुक पुनः लौटकर भी उनके दरवाजे की ओर नहीं देखता कि कहीं फिर से आवाज देकर न बुला लें और पुनः काव्यलाप न शुरू कर दें। वह फिर कभी भी कविजी के पास नहीं आने की कसम लेकर ही उनसे पीछा छुड़ाता है। मोहल्ले -पड़ौस के सभी लोग कवि के इस पवित्र गुण और चरित्र से भली भाँति सुपरिचित हैं , इसलिए नमस्ते करके ऐसे दूर भागते हैं जैसे उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव दूर विकर्षित होता है। अपने ही शहर में कवि जी ने कुछ ऐसे चेले पाल रखे हैं , जो आए दिन उनके घर पर कवि सम्मेलन का आयोजन कर मोहल्ले वालों की नींद खराब करते हैं। प्रायः कवि निशाचर जो होते हैं न ! इसलिए उनके आयोजन रात में रतजगा करते हुए ही सम्पन्न होते हैं। मोहल्ले वालों को इसमें कोई रुचि नहीं है। इसलिए कवि जी उनके लिए एक ही जुमला प्रयोग करते हुए देखे जाते हैं, भैंस के आगे बीन बजाई , भैंस खड़ी पगुराय। यह तो हुई एक कवि जी की बात। इस शहर में ऐसे अनेक कवि उपाधिधारी मानव जीवन -यापन करते हैं।जिनके अपने -अपने तख़ल्लुस हैं, कोई टोंटी है , कोई ढप, कोई बगला कोई हंस, कोई दादू है कोई चाचू, कोई उत्कृष्ट है ,कोई प्रकृष्ट। निकृष्ट कोई नहीं है।एक से बढ़कर एक उपनाम धारी कवि औऱ कवयित्रियाँ।कवयित्रयों के उपनाम भी एक से बढ़कर एक हैं , जैसे चोंची, स्माइल, तबस्सुम, ख़ुशबू, आराध्या औऱ बहुत से मनोहर नाम ,उपनाम। इन कवियों के अपने -अपने ग्रुप हैं , जो प्रायः जाति आधारित हैं। इसलिए वे सब चाहे जैसी रचना करें , उनका नाम चमकना ही है। उन्हें तरह -तरह के सम्मान पत्रों से सम्मनित करना मंच का पावन अधिकार है। वे सब के सब हंस हैं ,उनमें कोई भी कागा नहीं है । यदि दुर्भाग्य वश कोई अन्य जाति वाची उनमें सम्मिलित हो जाता है तो उसका स्थान किसी टिटहरी या कौवे से अधिक नहीं होता। यह देश का सौभाग्य है कि देश में हजारों जातियाँ हैं, इसलिए कवि कवयत्रियाँ भी लाखों करोड़ों में हैं। एक - एक गली से लारी भर कलमकार मिलना सामान्य बात है। देश में हजारों लारियाँ भर सकती हैं। वे अपने काव्यगत वीररस से समुद्र में लहरें पैदा कर रहे हैं, पर दुर्भाग्य कि कविताओं से गोलियां नहीं निकलतीं ।धुआँ भी नहीं पैदा हो पाता तो किसी दुश्मन को कैसे मार पाएँगे। हमारे मान्यवर कविजी श्री अशर्फी लाल जी भी देश के ऐसे ही हीरा हैं, जिनकी शब्दराशि से बारूद की सुगंध वातावरण में व्याप्त हो जाती है। 💐 शुभमस्तु! 03.07.2020◆6.15 अपराह्न।

प्रेम-बंधन [ गीत ]


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✍  शब्दकार ©

❤️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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प्रेम का बंधन अटल आराधना।

 जिंदगी भर मैं करूँ  तव साधना।।


तुम  कहो तो  गगन  तारे तोड़ दूँ।

तुम कहो तो सरित का रुख मोड़ दूँ।।

बस   समर्पण  की  रही  है भावना।

प्रेम  का बंधन अटल  आराधना।।


जोड़  तिनकों  को सजाएँ नीड़ हम।

शांति   खुशियों की  बसाएँ भीड़ हम।।

हो न ग़म की लेश भी संभावना।।

प्रेम का बंधन अटल आराधना।


स्वाति- चातक - सी  हमारी प्रीति हो।

हारना  ही  युगल  की  हर जीत हो।

स्वप्न  में मत प्रेम  -  देहरी लाँघना।

प्रेम का बंधन अटल  आराधना।।


मात्र  देना  जानता    ले    लो मुझे।

अपरिमित है देय मत  तोलो मुझे।।

तुम अगर हो   साथ कर लूँ  सामना।

प्रेम का बंधन अटल आराधना।


नेह  की  बाती   जलाती  दीप को।

स्वाति  मोती से सजाती  सीप  को।।

है   'शुभम'  आनंद   निजता त्यागना।।

प्रेम का बंधन अटल आराधना।।


💐 शुभमस्तु !


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मधुर जलेबी [ बाल -कविता ]


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✍️ शब्दकार©

🍁 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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टेढ़ी -  मेढ़ी   मधुर  जलेबी।

लच्छेदार   गोल  जनसेवी।।


'नले खोखले   अँगुली  जैसे।

इनमें  रस भर जाता  कैसे??'


खड़ा  सोचता  एक  फिरंगी।

अजब  मिठाई    है   बेढंगी!!


भरती  मधुर  चासनी  चीनी।

खुशबू  आती  भीनी -भीनी।।


सुबह   नाश्ता  सब ही करते।

कुछ ग्रामीण उदर भी भरते।।


कोई  दही   डालकर   खाता।

मिला दूध   में   कोई   पाता।।


ठंडी  गरम   स्वाद  वह  देती।

बनी  जलेबी   बड़ी   चहेती।।


लच्छेदार    रंग    की   पीली।

नगर-नगर में   बड़ी छबीली।।


गरम जलेबी  किसे  न भाती।

चार  आने में  पाव न आती।।


देखो    बैठा    वह   हलवाई।

मधुर जलेबी   थाल  सजाई।।


💐 शुभमस्तु !


16.09.2020◆6.30 अपराह्न।

मंगलवार, 15 सितंबर 2020

बिंदी [ कुण्डलिया ]


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✍️ शब्दकार©

🇮🇳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                      =1=

बिंदी सोहे  शीश पर, वह हिंदी मम   बोल।

अंगना सी रसना लसे,मधुर सुधा रस घोल।।

मधुर सुधा रस घोल,घुटी में पी यह भाषा।

कवि का जीवन त्राण,जिंदगी की परिभाषा।।

'शुभम'जटिल विज्ञान,न समझें मोदक हिंदी।

सदा सुहागन मीत, शीश पर दमके बिंदी।।


                       =2=

बिंदी   शोभित  शीश पर,नहीं उपानह  पैर।

उचित  एक  स्थान है, करे  न तन     सैर।।

करे न तन की सैर, नहीं मन को  भटकाती।

बदल बदल कर ठौर,नहीं कटि को मटकाती

'शुभम'न करती नाच,सुशोभित अपनी हिंदी।

नियत सदा कवि मंच,शीश पर चमके बिंदी


                       =3=

बिंदी की महिमा बड़ी,समझें लघु मत मीत।

विधवा-सी भाषा लगे , बिना सुभागी  प्रीत।।

बिना  सुभागी  प्रीत,  पैर  में पायल  सोहे।

 बिछुआ अँगुली पाद,नारि की गति को मोहे।

'शुभम' और ही बात,सजीली भाषा  हिंदी।

लगती है जब माथ, तभी कहलाती बिंदी।।


                        =4=

बिंदी  एकाकी  कहीं , करती नहीं   कमाल।

नियत ठौर पर जो सजे,होते सकल धमाल।।

होते सकल धमाल,सौ गुनी ओप   सजाती।

देखें तब चमकार,नारि मुख फेर   लजाती।।

'शुभम'इंद्र का जाल,अरुणिमा चेतन जिंदी।

सधवा  की पहचान,  नहीं  है बेकस   हिंदी।।


                        =5=

बिंदी पैरों में लगा , किया बड़ा अपमान।

नाक लगी यों गाल पर,क्या नासा की शान।

क्या नासा की शान,आँख माथे  पर जैसे।

कंधों  पर  दो  कान,गऊशाला में    भैंसे।।

'शुभम'विषमता दीन, करो मत चिंदी चिंदी।

जिसका   है जो ठौर,भाल पर जैसे   बिंदी।।


💐 शुभमस्तु  !


15.09.2020 ◆2.00अपराह्न।

सोमवार, 14 सितंबर 2020

कवियों की चोरी [ दोहा ]


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✍️ शब्दकार ©

🙉 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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कवियों की चोरी हुई,मिला एक कवि चोर।

बतलाता है एडमिन,कहता करो न  शोर।।


कवि को हर स्वागत किया,दी माला गलडाल

जो कहता करते चलो,किया 'शुभम'बेहाल।।


मनमानी  अपनी करे,आजादी ली  छीन।

कहे एडमिन  'मैं सही,तू छोटा कवि  दीन'।।


मैं थापक हूँ मंच का,ताकतवर बरजोर।

तानाशाही एडमिन,है कवियों का चोर।।


खीर बनाई  जतन से, चावल डाला   डेढ़।

बाँट रहा है मंच  पर,कवयित्री को    छेड़।।


नख से शिख तक एडमिन, डूबा काव्यतरंग।

गूँगा बन आनंद ले,सब कवि जन  के  संग।।


कहता कवि से एडमिन, जागो जल्दी भोर।

मैं न कहूँ सोना नहीं, मैं अनु शासक  तोर।।


कविता करने का नहीं,मिलना एक छदाम।

आवंटित जो कर दिया,करना होगा  काम।।


एडमिनी  सबसे  भली, जैसे अश्व -  लगाम।

कविगण हरता मंच से,भले करो मत काम।।


जिम्मेदारी  का   बड़ा, मिलता उसे   इनाम।

गलत पोस्ट जो भेजता, उसकी गर्दन थाम।।


चुरा   तुम्हें   ले जाएंगे,सँभले रहना   मीत।

नाक,हाथ,टाँगें पकड़,'शुभं' न बनना क्रीत।


💐 शभमस्तु !


13.09.2020◆10.00 पूर्वाह्न।

सूफ़ियाना ग़ज़ल

 

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✍️ शब्दकार©

🦚 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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होते  ही सही साँझ मुरली जो बजी  है।

अधरों पे मेरे श्याम के क्या खूब सजी है।


सुनते ही टेर मुरली की चलने लगी गोपी,

आँचल को ढँक रहीं कुल कानि  तजी है।


लगती है आस रास की बैचेन मन बड़ा,

पायलिया गुनगुनाती तगड़ी भी  बजी  है।


राधा के संग आ गईं ललिता विशाखा भी,

मदमाती, गाती, नाचती, सजी -धजी   हैं।


कोई     सँवारे    चूनरी  बाँधे  कोई   गजरा,

सूरतिया एक-एक की पूनम- सी फबी है।


मुस्काते  बंक  दृष्टि  से बाँके बिहारी  जू,

सिर  पर है मोरपंख कटि पीत सजी   है।


श्रीकृष्ण करते नित्य ही लीला नई 'शुभम',

ब्रज के निकुंज बाग में मुरली जो बजी है।


💐 शुभमस्तु!


12.09.2020◆5.45अपराह्न।


किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...