बुधवार, 31 अगस्त 2022

बोल न वाणी बाण-सी 🦚 [ दोहा ]

 352/2022

 

[व्रत,उपवास,फल,निर्जल,मौन]

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✍️ शब्दकार ©

🦚 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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      🌷 सब में एक 🌷

व्रत  सेवा का ले लिया,हिंदी  माँ  के  बोल।

काव्य-सृजन करले 'शुभं',हिंदी है अनमोल।

दृढ़ व्रत ऐसा लीजिए, पालन  कर आचार।

नियम भंग करना नहीं,खुलें प्रगति के द्वार।।


उमापुत्र  गणनाथ  का,जन्म हुआ  बुधवार।

भक्त करें उपवास भी,कर पूजन उपचार।।

मन को अपने इष्ट के, रख चरणों  के   पास।

कहते हैं  विद्वान  सब,यही सत्य  उपवास।।


सत्कर्मों का फल सदा,होता  है शुभ नित्य।

सोच-समझकर ही करें,आजीवन नित कृत्य

फल आने पर पेड़ की,नत होती  हैं  डाल।

मूढ़ मनुज क्यों तन रहा, मारे उच्च उछाल।।


निर्जल व्रत यदि है किया,लगा इष्ट में ध्यान।

कहीं भूलवश जान लें,करें नहीं जल-पान।।

निर्जल होना देह का,उचित  नहीं है मीत।

कैसे तन नीरोग हो,यदि न शेष  जल-तीत।


कटुक वचन से मौन ही,सदा श्रेष्ठ है मित्र।

मधु -वाणी से ख्यात हो,नर का चारु चरित्र।।

मितभाषी रहता सुखी,उचित यही धर मौन।

पहले  वाणी  तौलिए,  बुरा बताए   कौन!!


      🌷 एक में सब 🌷

निर्जल  व्रत  उपवास का,

                          फल  न जानता  कौन?

बोल न वाणी बाण-सी,

                      उचित 'शुभम्' रह    मौन।।


🪴 शुभमस्तु !


३१.०८.२०२२◆५.१५ आरोहणम् मार्तण्डस्य।

पावन गंगा घाट 🏞️ [ कुंडलिया ]

 351/ 2022

 

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✍️ शब्दकार ©

🌷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                           -1-

पावन     गंगा-घाट  पर,जाकर देखें   आप।

मिले भीड़   भारी वहाँ, धोती अपने   पाप।।

धोती अपने   पाप, बाँध  कर लाई    गठरी।

लगवा टीका  भाल, खा रही पूड़ी    मठरी।।

'शुभम्' नदी में देख, बड़ा ही दृश्य  सुहावन।

सिर पर हुए सवार,पाप होकर फिर  पावन।।


                            -2-

आएँ   गंगा-घाट   पर, बार-बार  कर  पाप।

बड़भागी  बन   आप  भी, मिटें देह-संताप।।

मिटें  देह-संताप, नहाना   तन मल-मल के।

करें बहुत नित पाप,पड़ौसी से जल-जल के।

'शुभम्'किए जो पाप, नहीं तृण भर पछताएँ।

मिला मनुज का रूप, पाप कर  गंगा  आएँ।।


                              -3-

धोती  गंगा पाप नित,फिर भी सदा   पवित्र।

औषधीय  गंगा  कहे,  मेरा विमल   चरित्र।।

मेरा  विमल  चरित्र, मिला कर पय में पानी।

बेच रहे  हैं 'भक्त', जीविका उन्हें   कमानी।।

'शुभं'तिलक दे भाल,ठगों की जाति न होती।

ठगते  बदलें  वेश, सरित  गंगा अघ  धोती।।


                         -4-

गंगा  में  रहते  सदा, मेढक, जलचर ,  मीन।

पाप नहीं  उनके  धुले,पतित योनि से हीन।।

पतित योनि से हीन,अभी तक जलचर सारे।

हुए न मनुज प्रवीण, नियति से   हारे   मारे।।

'शुभम्' न  गंगा-लाभ, दौड़ते जल  में  नंगा।

पहन  न  पाए   वेश, ठगी कर रहते   गंगा।।


                         -5-

गंगा   पावन   घाट पर,ठगियों की   भरमार।

तिलक,छाप, चंदन लगा, करते लूट अपार।।

करते लूट अपार,बदलते तन  की   हुलिया।

भक्तों को ठगमार,भरी नित जिनकी कुलिया

'शुभम्' न  कहना लूट,भले लूटें   कर  नंगा।

हर-हर जपते  जाप, लगा जयकारा    गंगा।।


🪴शुभमस्तु !


३०.०८.२०२२◆३.००प.मा.


गंगामय ऋषिकेश 🏞️ [ दोहा ]

 350/2022


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✍️ शब्दकार ©

🏞️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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पावन  गंगा-धार की,महिमा है   ऋषिकेश।

लक्ष्मण-झूला सोहता,निर्मित रम्य  स्वदेश।।


निर्मल  गंगाजल  बहे,दृश्य प्रकृति के रम्य।

तन-मन को शीतल करे,गंगा सदा  प्रणम्य।।


एक  ओर  गंगा  नदी,उधर हरित शुभ शृंग।

विद्युत  के  खंभे  सजे,देख हुए  हम  दंग।।


मंदिर    गंगा-घाट   पर,  होता शंख-निनाद।

सुनी कर्ण में भक्ति ध्वनि,विनशे हृदय विषाद


स्वच्छ  रखें  गंगा  नदी,अंकित बहु  निर्देश।

झगड़ा हँसी न कीजिए,नहीं घाट पर क्लेश।।


कृषि-सिंचन  करती  रही,नित गंगा की धार।

करते  जो  आराधना,  होते भव  से   पार।।


लक्ष्मण  झूले पर सजी,जाली खूब  सँभाल।

ध्वजा तिरंगा सेतु की, सबल सुरक्षा  ढाल।।


🪴 शुभमस्तु !


३०.०८.२०२२◆९.४५ आरोहणम् मार्तण्डस्य।

सोमवार, 29 अगस्त 2022

आदमी ही आदमी का ईश! 🪷 [ गीतिका ]

 349/2022



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✍️ शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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किसी गरीब  की आह कभी, लिया न करो।

न  सताया   ही   करो   बुरा, किया न करो।।


न  भली   आह से  लोह  भस्म   हो   जाए,

रोती   सिसकती   साँस  में , जिया न करो।।


दुनिया   में   अच्छे   काम  के महके  सुमन,

अरे  दाह  किसी   जीव  को, दिया न करो।।


आदमी     ही     आदमी   का  ईश    ब्रह्मा,

यों  आदमी  के  सुख  कभी, पिया न करो।।


चाहते  हैं  सब  'शुभम्'  जीवन  सदा   हो,

मानवीय   पथ   छोड़कर, दुखिया न करो।।


🪴 शुभमस्तु !


२९.०८.२०२२◆७.१५ आरोहणम् मार्तण्डस्य।

चाहते सब शुभम् जीवन! 🪷 [ सजल ]

 348/2022

 

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★समांत : इया।

★पदांत  : न करो।

★मात्राभार : 21.

★मात्रा पतन :शून्य।

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✍️ शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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किसी गरीब  की आह कभी, लिया न करो।

न  सताया   ही   करो   बुरा, किया न करो।।


न  भली   आह से  लोह  भस्म   हो   जाए।

रोती   सिसकती   साँस  में , जिया न करो।।


दुनिया   में   अच्छे   काम  के महके  सुमन।

अरे  दाह  किसी   जीव  को, दिया न करो।।


आदमी     ही     आदमी   का  ईश    ब्रह्मा।

यों  आदमी  के  सुख  कभी, पिया न करो।।


चाहते  हैं  सब  'शुभम्'  जीवन  सदा   हो।

मानवीय   पथ   छोड़कर, दुखिया न करो।।


🪴 शुभमस्तु !


२९.०८.२०२२◆७.१५ आरोहणम् मार्तण्डस्य।


दुनिया बगिया है! 🪂 [ गीतिका ]

 347/2022


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✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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मानें       तो       दुनिया   बगिया     है,

जिसने      जीवन     सुखद जिया   है।।


जीवन       का        आनंद     न   जाने,

आँसू    जन    को       सदा  दिया   है।।


मानव     को   सुख     शांति  तभी   है,

किसी   फटे     को    कभी सिया    है।।


दुख     देकर      किसने   सुख   पाया,

सुखी    वही      जो     अश्रु   पिया   है।।


बचा    न      कोई      निज   कर्मों    से,

फल    वैसा        जो    कर्म किया    है।।


स्वर्ग         उसी      घर    में   होता    है,

सन्नारी           सर्वांग        तिया       है।।


'शुभम्'    भाव    मन      के पावन   रख,

नर ,  निधि      में     मिलती  नदिया   है।।


🪴 शुभमस्तु !


२९.०८.२०२२◆६.४५ आरोहणम् मार्तण्डस्य।

नर, निधि में मिलती नदिया है! 🪂 [ सजल ]

 346/2022

 

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●समांत:इया।

●पदांत: है।

●मात्राभार:16.

●मात्रा पतन:शून्य।

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✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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मानें       तो       दुनिया   बगिया     है।

जिसने      जीवन     सुखद जिया   है।।


जीवन       का        आनंद     न   जाने।

आँसू    जन    को       सदा  दिया   है।।


मानव     को   सुख     शांति  तभी   है।

किसी   फटे     को    कभी सिया    है।।


दुख     देकर      किसने   सुख   पाया।

सुखी    वही      जो     अश्रु   पिया   है।।


बचा    न      कोई      निज   कर्मों    से।

फल    वैसा        जो    कर्म किया    है।।


स्वर्ग         उसी      घर    में   होता    है।

सन्नारी           सर्वांग        तिया       है।।


'शुभम्'    भाव    मन      के पावन  रख।

नर ,  निधि      में     मिलती  नदिया   है।।


🪴 शुभमस्तु !


२९.०८.२०२२◆६.४५ आरोहणम् मार्तण्डस्य।


देशभक्तों से विमर्श 🇮🇳 [ दोहा ]

 345/2022


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✍️ शब्दकार ©

🇮🇳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम् '

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चंदन -उपवन में लगी,दीमक पाकर   पोल।

उजड़ रही मम देश की,भारत भू अनमोल।।

देशद्रोहियों  को  नहीं, करे क्षमा  क्यों  देश!

रहते  हैं  जो  देश  में, बदल -छद्म के वेश।।


नेता  अभिनेता  भले,  या हो जनता  आम।

नहीं हुआ जो देश का,उसका मोल छदाम।।

देशभक्ति  के  ढोंग  में,रँगे वसन  जो  लोग।

चंदन - तरु  के  कीट  हैं,बने देश  का  रोग।।


देते  नहीं   सुगंध   जो,  तो  क्यों  दें   दुर्गंध!

भारत  माँ के कोढ़ वे,हैं जो मति के  अंध।।

कभी  तिरंगे  का  नहीं, करना है   अपमान।

प्रथम जान आचार को,बना रखें नित शान।।


काल अवधि संज्ञान ले ,फहराएँ ध्वज आप

खेल न समझें मूढ़जन,लगे देश का  शाप।।

देशभक्ति होती नहीं, तो मानव  क्या  ढोर!

एक तराजू पर तुलें,नट, व्यभिचारी, चोर।।


मानव,शूकर  या गधे,सभी- सभी से  भिन्न।

मानव है तो मान रख,क्यों गर्दभ पशु खिन्न!!

मानव  से  ही  देश है, नहीं गधों  से  नाम।

मानवता  के   वेश  में, करता खोटे   काम।।


कभी  न  भूलें  देश  के, वे बलिदानी  नाम।

दे  दी  आजादी  हमें, नाम  हुए  अभिराम।।

देश धर्म  पर  हो  गए,जो सपूत बलिदान।

'शुभम्'नमन करता उन्हें, माना श्रेष्ठ महान।।


सेवा करते  देश  की, जिनका विशद चरित्र।

होता  है  उन्नत वही, नहीं  देह का    चित्र।।

कर्म  साथ  रहता  सदा, जाता भी वह साथ।

कर्म नहीं  अच्छे किए, पीट रहे निज  माथ।।


कर्मवीर  तो  भानु  है,फैले जगत  प्रकाश।

बैठा मलता हाथ जो,बिखरे हों ज्यों  ताश।।


🪴शुभमस्तु !


२६.०८.२०२२◆ ११.३० आरोहणम्  मार्तण्डस्य।

अभी कहाँ तक पहुँचे हो! 👹 [ अतुकान्तिका ]

 344/2022


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✍️ शब्दकार ©

🪀 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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मिला एक दिन 

पथ में मुझको,

पूछा मैंने:

'हे कलियुग जी!

अभी कहाँ तक

पहुँचे हो!

आँख बचाकर

गए वहाँ भी

जहाँ कहीं भी

 मैं-मैं  चें-चें ।'


'जहाँ हो रही

कथा भागवत,

बंटता हो जिस ठौर

सदावर्त,

होली ईद दिवाली,

 बिना बजाए ताली,

घुस जाते हो,

खून-खराबा करवाते हो।'


बोला वह 

आँखें चमकाता,

सुस्मिति- सी 

अधरों पर लाता:

'अब तो

 आने वाले मौसम सारे

मेरे ही मधुमास हैं,

रिश्तों में

मानव - मानव में,

बनकर घुसता हूँ

दानव मैं,

भावी समय सुनहरा है,

जहाँ कहीं भी

तुम जाओगे,

मुझ कलियुग को

नित पाओगे,

निकट न कब तक

तुम आओगे ?

कुशल न शेष तुम्हारी।'


'पुण्य कर्म में

पाप बना मैं,

कहीं अहं तो

कहीं गुनाह मैं,

ज्यों नाले की दुर्गंध,

मानव होता अंध,

करता,

 करवाता मैं द्वंद्व,

मेरी प्रकृति में

रहते हैं नित्य

निरन्तर छल - छंद,

धर्म धुरंधर पापी पहले,

दिखलाने को 

माला चंदन!'


नेता अवतारी 

हैं मच्छर,

भले न जाने

काला अक्षर,

पर दिखलाते

सबके ऊपर,

यही देव हैं

अब तो भूपर,

मानव देवी धन्य

इन्हें ही छूकर,

हिम्मत किसकी

जो कोई भी

बोले चूं भर।

इतने से ही

'शुभम्' समझ ले

तू भी मूँ भर।'

- और वह 

खिलखिल करता ,

जनसभा मंच पर

जा विराज गया।


🪴 शुभमस्तु ! 


२५.०८.२०२२◆१०.३० आरोहणम् मार्तण्डस्य।


ग़ज़ल 🌴

 343/2022

         

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✍️ शब्दकार ©

🌴 डॉ. भगवत स्वरूप *शुभम्'

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जीवन वन है और नहीं कुछ।

घन सिंचन है और नहीं कुछ।


माली  एक  वही   है  सबका,

व्यर्थ जतन है और नहीं कुछ।


मानव   एक   इकाई   केवल,

नहीं  वतन है औऱ नहीं कुछ।


जिसको सच  माने   बैठा  तू,

एक सपन है और नहीं कुछ।


ठंडक  होती   भाड़ों  में  कब,

विकट तपन हैऔऱ नहीं कुछ।


मान   रहा  अपने  को  रब तू,

वहम-शरन है और नहीं कुछ।


'शुभम्'भुलाया मानव जीवन,

राम- चरन है और नहीं कुछ।


🪴शुभमस्तु !


२५.०८.२०२२◆११.४५ आरोहणम् मार्तण्डस्य।

बुधवार, 24 अगस्त 2022

पाई यहीं,यहीं पर खोई 🧸 [ गीत ]

 342/2022


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✍️  शब्दकार ©

🔑 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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पाई  यहीं , यहीं पर खोई,

साथ न  ऊपर  जाती।


एक  छिद्र  से  बाहर  आई,

माँस  पिंड-सी  काया,

हवा लगी तब खोली आँखें,

जग में जीव लुभाया,

विस्मृत कर परतीती,

गर्भ-कोठरी    रीती,

याद   नहीं   अब  आती।


ओढ़ी खाल जाति की आपद,

करके जाति  - सवारी,

ऊँचा-नीचा   छोट-  बड़ापन,

की  बस  सोच - विचारी,

बन  मंडूक  कुँए  में,

कुंचित केश जुंए में,

बनी  जाति  ही  थाती।


कोई बाँभन, ठाकुर,  बनिया,

तेली ,जाटव ,लोधी,

नाक सिकोड़ें  भीत  परस से,

शोधी, बोधी , औंधी,

जाति न पूछे कोई,

खूनी  सुई  चुभोई,

शीतल होती छाती।


स्वाद जीभ का मांसाहारी,

स्वस्थ बनाए अंडा,

कदम- कदम पर बदले अपना,

मानव  झूठा  फंडा,

स्वार्थ भरी चतुराई,

सारे लोग - लुगाई।

मनमाती  ही  भाती।


🪴शुभमस्तु !


२४०८२०२२◆३.००पतनम मार्तण्डस्य।

फैशन बना तिरंगा 🇮🇳 [ गीत ]

 341/2022


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✍️ शब्दकार ©

🇮🇳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्

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जान रहे  हैं  वे  सब झूठे,

फिर  भी  मत  दे  आते।


कहीं जाति का छोंक लगा है,

कहीं  वर्ण  का  छाता,

पाँच   साल   पूरे   होने   पर,

फिर मत को अजमाता,

होती   पुनः  ठगाई,

आ जाती   गरमाई,

बन उलूक  मदमाते।


नहीं   तुम्हारे  लिए  बने  वे,

अपनों के हित जीना,

बधिक चुगाता है ज्यों दाना,

वैसे  जीवन  छीना,

दाना फेंक  बुलाना,

चाँदी  से तुलवाना,

घर   अछूत   के  खाते।


निज विकास ही लक्ष्य एक है,

नाम देश का कहना,

नोटों की बोरियाँ सजीं घर,

भैया हों या  बहना,

जिसकी पूँछ उठाई,

हमने   मादा    पाई,

तनिक  नहीं   पछताते।


लोकतंत्र  का  उठा  तिरंगा,

कुछ भी कर  लो  भैया,

धूनी   रमा   छाँव   झंडे की,

पार  लगा   लो    नैया,

फैशन   बना   तिरंगा,

जपो गाय   या   गंगा,

कंचन  कामिनि   राते।


🪴शुभमस्तु !


२४.०८.२०२२◆ २.२० पतनम मार्तण्डस्य।

नगरपालिका सोई 🛻 [ गीत ]

 340/2022

   

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✍️ शब्दकार ©

🪸 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम् '

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नाले ऊँघ रहे सालों से

नगरपालिका  सोई।


पंकासन में शूकर लेटे,

करते खेल निराले,

चेयर ले  वे  अंदर बैठे,

लगा जुबां पर ताले,

लेश   नहीं  सुनवाई,

जनता जी चिल्लाई,

दुर्गंधें  ही बोई।


नाक नलों की टपक रही है,

सुर -सुर तेज जुकामी,

कोई   नहीं   देखने   वाला,

करते   काम    इनामी,

शॉल  माल हैं   प्यारे,

जनता  एक  किनारे,

कुकर बनी  बटलोई।


फिर चुनाव आने  वाले हैं,

हथिया लें फिर कुर्सी,

बनें   विधायक  ऊपर बैठें,

चढ़ी मगज में तुरसी,

पीली  धोती  उरसी,

राजनीति है गुड़ सी,

लाज हया सब धोई।


जाति वर्ण का खेल खेलते,

तनकर खड़े खिलाड़ी,

महाभारती     सेना   जैसी,

जनता   सीधी  आड़ी,

अपना  दाँव  लगाना,

गुड़ फेंका ललचाना,

लो निचोड़ मत छोई।


🪴 शुभमस्तु !


२४.०८.२०२२◆१.३०

पतनम मार्तण्डस्य।


शब्द -रसांजन 🍎 [ दोहा ]

 339/2022

  

[झरोखा, छीर,तीर,बिजना,मौका]

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✍️ शब्दकार ©

🍑 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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    🪂 सब में एक 🪂

नयन- झरोखा बैठकर, देख  लिया संसार।

दुर्लभ छवि हे कामिनी, तू रति की अवतार।

बंद झरोखा चारु दृग,फिर भी दिखते श्याम

सूर  नहीं  हिय  से हुए, दर्शन दें   अविराम।।


यमुना-जल गोपी घुसीं,तन पर वस्त्र न छीर।

कान्हा को  भाया नहीं, जब आए   वे  तीर।।

गो माता के  छीर का, जग में  पावन  नाम।

जी भर कान्हा ने पिया,गोपालक अभिराम।।


राधा, मोहन, गोपियाँ, आए यमुना - तीर।

क्रीड़ा कुंजों में करें,पिक शिखि सुंदर कीर।।

मार  नहीं   दृग - तीर तू, उर में होते  घाव।

हे कामिनि ब्रज-अंगने, बदल रहे मम भाव।।


बिजना की सद वायु से,मिले न उर को चैन।

घायल मम अंतर हुआ,मिले श्याम  से नैन।।

बिजना विरहिन को नहीं,भाए  नींद न रैन।

जब  से  नैनों  में   बसे, मदन मुरारी   मैन।।


प्रेमी मौका  देख कर, ढूँढ़ प्रिया  का  गेह।

गुपचुप जा मिलने गया,जतलाने उर -नेह।।

मौका जो नर छोड़ता, पछताता  सौ  बार।

स्वर्णिम क्षण मिलते कभी,बंद न करना द्वार


   🪂  एक में सब  🪂

खोल झरोखा  गेह  का,

                       सरि   यमुना के    तीर।

बिजना ले  बाला   खड़ी,

                     मौका  पा  कर छीर ।।


🪴शुभमस्तु !


२३.०८.२०२२◆१०.३० 

पतनम मार्तण्डस्य।


प्रबोध-पंचांगिका 🪸 [ कुंडलिया ]

 338/2022


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✍️ शब्दकार ©

🪸 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                         -1-

कहता कर अपराध को,दोषी अपनी   बात।

अपने  सत संज्ञान  में,किया न मैंने   घात।।

किया  न  मैंने  घात, झूठ आरोप   लगाया।

पकड़ा मुझे  बलात्,वृथा ही यहाँ  फँसाया।।

'शुभम्' न कहता चोर,दंड मैं सच ही सहता।

मिलते पुष्ट प्रमाण,चोर फिर हाँ- हाँ कहता।।


                         -2-

मिलता न्यायागार  में, घातकार  को  दंड।

सहज नहीं स्वीकारता,कर दुष्कर्म  प्रचंड।।

कर  दुष्कर्म  प्रचंड, झूठ की रोटी    खाता।

रहे अहम  में चूर,नहीं  पल को  पछताता।।

'शुभम्'न कर सत्कर्म,पाप से तिलभर हिलता

भोग रहा परिवार,अघी को चैन न  मिलता।।


                           -3-

रोटी मिले हराम की,फिर क्यों करना काम।

बने  जौंक चूषण करें,घिसें न तन का चाम।।

घिसें न तन का चाम,चाट औरों  का  भेजा।

मौज  करे  परिवार, चूस  धन माल सहेजा।।

'शुभम्'  ढोर  से  हीन, जिंदगी करता  छोटी।

टपक  रही  है  लार, देख  पर चुपड़ी  रोटी।।


                         -4-

ढोंगी  अपने  ढोंग  में , रहते बड़े    प्रवीन।

तिलक छाप माला जपें,माल चाभते छीन।।

माल  चाभते  छीन, झूठ  की फैला  माया।

बहे न कण भी स्वेद,पल्लवित पोषित काया

'शुभम्' सभी परिवार,बाल सँग पोंगा-पोंगी।

करें  निराले   ढोंग,  देश  के सारे    ढोंगी।।


                         -5-

थोड़े निकलें पंख जब,उड़ जाते  नभ बीच।

छोड़ नीड़ शावक सभी,रहें न शोषक नीच।।

रहें न शोषक नीच,खगी खग उन्हें  न  पालें।

अपना  दाना आप, ढूँढ़ कर स्वयं  निकालें।।

'शुभम्' खगों  से सीख,मारना छोड़ हथौड़े।

मानव  की  संतान,कर्म से बन नर   थोड़े।।


🪴 शुभमस्तु !


२३.०८.२०२२◆१२.१५ आरोहणम् मार्तण्डस्य।


सोमवार, 22 अगस्त 2022

फूलों जैसा जीवन चाहा 🌹 [ गीत ]

 337/2022

 

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✍️ शब्दकार ©

🌹 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम् '

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फूलों    जैसा   जीवन   चाहा,

शूलों    को     दुत्कार   दिया।

सुमन-सेज को सहज बिछाया

नहीं  शूल  -  सत्कार किया।।


राहें   मनुज   वही  चुनता  है ,

चलना  हो   आसान     जहाँ।

जहाँ पड़े  हों कंकड़ - पत्थर,

जाना    चाहे      नहीं   वहाँ।।

जलता   रहा   पड़ौसी  से नर,

सँग परिजन   के प्यार जिया।

फूलों   जैसा    जीवन   चाहा,

शूलों   को   दुत्कार    दिया।।


सबका  भला  चाहता मन से,

दुःख   नहीं   आते  तव पास।

वचन  बोलता   मुख   से झूठे,

क्यों करता तब सुख की आस।।

सुख   के  सपने   देख रहा है,

दुख   का   ही  आधार लिया।

फूलों   जैसा    जीवन   चाहा,

शूलों    को   दुत्कार   दिया।।


आदर्शों   की    बड़ी   पोटली,

शीश      उठाए    फिरता   है।

सोचा  है  क्यों रोग - भार  से,

फिर भी मानव   घिरता  है??

दिया   एक   के   बदले   तूने,

सौ -  सौ   का उपहार  लिया।

फूलों    जैसा    जीवन  चाहा,

शूलों   को    दुत्कार   दिया।।


मुख में   राम   बगल  में छूरी,

तेरी      नित्य  -  कहानी    है।

हिंसक पशुओं से  भी घातक,

मानव   का   क्या  सानी है??

जो भी   तेरे   निकट आ गया,

उसको    तूने    मार     दिया!

फूलों   जैसा   जीवन   चाहा,

शूलों   को   दुत्कार    दिया।।


आडंबर  से  ठग   मानव  को,

ठगने      में     उलझाता    है।

लालच लोभ दिखा नारी धन-

से    मँझधार     डुबाता   है।।

'शुभम्'बचा जो मानव ठग से,

जीवन   का  उद्धार   किया।।

फूलों   जैसा    जीवन   चाहा,

शूलों   को    दुत्कार   दिया।।


🪴शुभमस्तु !


२२.०८.२०२२◆५.४५

पतनम मार्तण्डस्य।

तोते जैसे हम उड़ पाते 🦜 [बालगीत ]

 336/2022

 

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✍️ शब्दकार ©

🦜 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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तोते   जैसे   हम   उड़   पाते।

बैठ  डाल    आनंद   मनाते।।


पकड़  न कोई  हमको  पाता।

धरती  पर बैठा  खिसियाता।।

पके  आम के फल हम खाते।

तोते  जैसे   हम   उड़   पाते।।


घर   होते   पेड़ों  पर   अपने।

शाला में   क्यों जाते  पढ़ने??

विद्यालय    ऊपर     बनवाते।

तोते  जैसे   हम   उड़   पाते।।


शिक्षक  भी फिर  पक्षी  होते।

कान  ऐंठते   नहीं ,  न  रोते।।

पंजे    से      डैने     नुचवाते।

तोते   जैसे   हम   उड़  पाते।।


रहती  उड़ने    की   आजादी।

उड़तीं  छत पर अम्मा दादी।।

वे उड़ना  हमको   सिखलाते।

तोते  जैसे   हम   उड़   पाते।।


नदी    ताल  में   पानी   पीते।

अपने मन का  जीवन जीते।।

'शुभम्'  नहा   वर्षा   में आते।

तोते    जैसे  हम  उड़   पाते।।


🪴 शुभमस्तु !


२२.०८.२०२२◆११.४५आरोहणम् मार्त्तण्डस्य।

चाहे तू यदि शांति 🪦 [ सजल ]

 35/2022


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🪷समांत :  अता ।

🪷पदांत:  तू।

🪷मात्राभार : 16.

🪷 मात्रापतन: शून्य।

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✍️शब्दकार ©

🪦 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम् '

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करने  से  पहले  न जता  तू।

नहीं किसी को बात बता  तू।।


गोपनीय  रख  जो करना हो।

नहीं जगत को बता  पता तू।।


खोले नहीं  रहस्य  शोध का ।

अपने प्रति करना न खता तू।।


अज्ञानी     प्रचाररत     रहते।

फैलाना  मत  कहीं  लता तू।।


गठरी   बाँध  राह   में   जाए।

लुटवाना  मत  मालमता  तू।।


चाहे तू यदि शांति परम् सुख।

नहीं जीव को कभी सता तू।।


सदा'शुभम' पथ ही अपनाना।

दुष्कर्मों  को   बता  धता  तू।।


🪴 शुभमस्तु !


२२.०८.२०२२◆ ४.१५आरोहणम् मार्तण्डस्य।


अपना तिरंगा🇮🇳 [ गीतिका ]

 334/2022


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✍️ शब्दकार ©

🇮🇳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम् '

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वस्त्र  का  टुकड़ा  नहीं अपना तिरंगा।

जानता पल  को  नहीं झुकना तिरंगा।।


आन पर  अगणित  मिटे  हैं वीर अपने,

ठानता   है  रात -  दिन तपना तिरंगा।


केसरी  फहरा   रहा बलिदान का  रँग,

मानता है  नियति का लिखना तिरंगा।


मध्य  में   गोदुग्धवत   सित पट्टिका से,

शांति  के संदेश   नित  कहना तिरंगा।


चक्र    नीला   अहर्निश   संदेश   देता,

जागने   का ,   वायुवत   बहना तिरंगा।


देश  की  समृद्धि   की  धरती हरी   है,

युग - युगांतर  में  हरित  रहना तिरंगा।


देश   के  हर   नागरिक   का धर्म है  ये,

शान   में   ताजिंदगी    लखना  तिरंगा।


🪴 शुभमस्तु !


२१.०८.२०२२◆२.००पतनम मार्तण्डस्य।

शनिवार, 20 अगस्त 2022

तिरंगोत्सव बनाम फैशनोत्सव 🇮🇳 [ व्यंग्य ]


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 ✍️व्यंग्यकार © 

 🇮🇳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्

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 हम सब सदा से उत्सव प्रिय हैं,उत्सवपसन्द भी हैं। उत्सवप्रियता हमारे स्वभाव का एक अहम अंश है।जितना निर्देशित किया जाए उससे भी मीलों आगे बढ़कर उत्सव का सौन्दर्यवर्धन करना हमारे दैनिक क्रियाकलाप का अंग ही बन गया है। इसके लिए चाहे कोई नियम भंग होता हो या आचार संहिता की धज्जियाँ उड़ती हों;हमें इससे इससे कुछ भी लेना-देना नहीं है।उड़ें तो उड़ती रहें। हमें अपनी मस्ती से काम।

 देश की स्वाधीनता की पचहत्तरवीं वर्षगाँठ को अमृत महोत्सव के रूप में मनाया जाना था। बड़े जोश -ओ - खरोश के साथ मनाया भी गया। और स्कूटी, बाइक, ट्रेक्टर, कार ,तिपहिया, ट्रक, छत, पानी की टंकी , घर की ऊँची मुँड़ेर ,सबको नई दुल्हन की तरह तिरंगे से सजा दिया गया।रेशमी, खादी, कागज,प्लास्टिक और न जाने किस - किस के रेशों से निर्मित तिरंगे फरफराने लगे। लगाकर झंडे उनके मालिक देश भक्ति के रंग में ऐसे रँग गए कि नियम औऱ ध्वज की आचार संहिता तो झंडों से भी ऊपर आसमान में ऐसे टाँग दी कि उसको पुनः देखना ,समझना और अनुपालन करना भी आवश्यक नहीं समझा गया।सरकार का जो आदेश 13 अगस्त से 15 अगस्त तक था ,वह अनिश्चित कालीन हड़ताल की तरह आसमान में ही टंगा ही रह गया।एक बार तिरंगा बाँध कर भूल गए कि उसे सम्मान सहित उतार कर नीचे भी लाना है।उसे कब टाँगना है कब उतारना है ,इसकी भिज्ञता से बेखबर देशभक्त गण तिरंगोत्सव का मनचाहा अवधि -विस्तारण करके ऐसे आकंठ डूब गए हैं कि जैसे आज उन्हें ही राष्ट्रपति का पदभार हस्तांतरित कर दिया गया हो। 

 तिरंगा न होकर यह एक फैशन और उसका फैशनोत्सव होकर रह गया है। वास्तव में देश भक्ति हो तो ऐसी कि आचार संहिता को भी फहरा दिया कि चल तू भी झंडे की तरह लहरा ले ,फहरा ले।ऐसा अवसर फिर हाथ में आया कि नहीं आया तू दीवाली होली की तरह मस्ती मना ले। अब यह तिरंगोत्सव न होकर फैशनोत्सव में बदल गया है। फैशन प्रेमी तो मानव है ही। उसे तो बस बहाना भर चाहिए था ,सो वह उसे मिल गया है। इसलिए आज भी उनके ट्रैक्टर, कारों, पानी की टंकियों पर बाकायदा लहरा रहे हैं ।ये अलग बात है कि आदमी के साथ- साथ बंदर भी छतों और टंकियों के तिरंगों का सदुपयोग कर उनकी छत पर सुसज्जित जल - आशयों में गोते लगा-लगा कर आनंदित हो रहे हैं। 

 देशवासियों को इससे कोई मतलब नहीं कि तिरंगे की भी कोई आचार संहिता होती है। उसे चढ़ाने उतारने के भी कोई नियम होते हैं। जब देश स्वतंत्र हो गया तो देशवासी भी 'सब कुछ' मनमाने ढंग से करने के लिए स्वतंत्र हो गए। उन्होंने राष्ट्र ध्वज को अपने अंत:वस्त्र या पेंट -कमीज, कुर्ता सलवार की तरह समझ लिया है कि जब तक चाहो ,जैसे चाहो, पहनो, फट जाए तो भी लटकाये रहो। उनकी दृष्टि में तिरंगा देश की अस्मिता का प्रतीक नहीं है। उनका देश भी तो कुएँ के मेढक की तरह उतना ही है ,जितने तक वे टर्रा सकते हैं।अपनी टर - टर्र पंहुँचा सकते हैं। वे जो कुछ भी कर लें ,वही नियम है; वही आचार संहिता है। 

 आज तिरंगा अनेक 'भक्तों' के लिए अपनी राजनैतिक भक्ति का साधन भी बन गया है।झंडे के सहारे ही वे भक्ति के डंडे पर चढ़कर 'ऊपर' पहुँचने के लिए लालायित हैं।मूर्खों को महामूर्ख बनाने का एक तुरुप का ताश उनके हाथ में है।जो जन देशभक्ति का अर्थ भी नहीं जानते, उनका निजी घर ,गाड़ी ,टंकी, वाहन सभी तिरंगों से सजे हुए हैं। भारतवासियों को किसी चीज को भुनाना खूब आता है। भुनभुनाने के तो वे उस्ताद ही हैं।

 स्थिति यह है कि उनके घरों में बिजली के पंखे अनावश्यक घूम रहे हैं, रात दिन बिजली जलाई नहीं फूँकी जा रही है। नगरपालिका के प्रायः सभी नलों को जुकाम हो गया है, पर कोई भी देखने करने वाला नहीं है।नाले बनवाकर कभी भी सफाई न कराने की शपथ लिए हुए बैठी नगरपालिका से आप कुछ कह नहीं सकते। वे इतने व्यस्त हैं कि मच्छर पालन केंद्र के रूप में कस्बों को बना दिया गया है। डॉक्टरों को खुश जो बनाये रखना है। 

मच्छर होंगे तो डेंगू आदि बीमारी बढ़ेंगी और इसका लाभ डॉक्टरों को मिलेगा। अहसान किसका ? चेयरमैन साहब का। अब तिरंगा तो एक आवरण मात्र बना रह गया है। इसके नीचे चाहे कितने दोष ढाँप लीजिए। सब देशभक्ति ही कहे जाएंगे। यह लहरा फहरा कर जितने काम करता है ,उससे ज्यादा आवरण बन कर सुरक्षा का अमोघ कवच भी बन जाता है।बहुआयामीय है हमारा तिरंगा।देशभक्तों को इसकी रक्षा की आवश्यकता ही क्या ,यह तो स्वयं उनकी भी रक्षा कर देता है। यही कारण है कि वे एक बार टाँग कर टाँगें रहने में ही अपना भविष्य उज्ज्वल समझते हैं।यदि तिरंगे ने उनकी रक्षा नहीं की, तो उनकी टाँगें ही न टाँग दीं जाएँ। इसलिए 'भक्तों' ने सोचा कि ऐ तिरंगे! तू ऐसे ही सदा छत पर लहराए।हम तुझे एक बार टाँग चुके तो क्यों उतार कर नीचे लाएं।

 भले ही हम गाते रहें: 

 इसकी शान न जाने पावे।

 चाहे जान भले ही जावे।। 

 🪴 शुभमस्तु !

 २०.०८.२०२२◆ ८.००आरोहणम् मार्तण्डस्य।

 🏔️🇮🇳🏔️🇮🇳🏔️🇮🇳🏔️🇮🇳🏔️

गुरुवार, 18 अगस्त 2022

काजल मेघों का सजा! ⛈️ [ दोहा ]

 330/2022

 

[पराग,काजल,किताब,फुहार,गौरैया]

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✍️ शब्दकार©

📚 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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       💎 सब में एक 💎

कलिका से मिलता नहीं,अलि को प्रेम पराग

अंतर  में कसमस करे, मंद-मंद  सी आग।।

सुमन - कर्ण  में भृंग ने,किया कुंज   गुंजार।

लिपटा  पीत पराग भी, मान  रहा आभार।।


काजल मेघों का सजा,निकली चपला एक।

स्वर्ण - शाटिका  सोहती,तारे जड़े  अनेक।।

काली काजल कोर से,बढ़ी नयन की ओप।

पल भर  भी रुकता नहीं, बाले  तेरा  कोप।।


पढ़ना क्या आसान  है, तेरी देह - किताब।

कंचन-सी चमचम करे,रुके न पल को आब।

अक्षर  पढ़े किताब के, पढ़े न  जाने  भाव।

गूढ़  पहेली  यौवने, पल - पल  बदले  हाव।।


परस करों का देह पर,लगता मेघ - फुहार।

हे कामिनि!रह दूर ही,कल्लोलिनि-अवतार।

झर- झर झरें फुहार की,बुँदियाँ शीत अमंद।

स्पंदन    हो     देह     में,  भरे असीमानंद।।


घर  के  लता  - निकुंज में,गौरैया  का नीड़।

चहल-पहल चूँ - चूँ करे,नहीं चाहती भीड़।।

गौरैया  तव  नीड़  की, रहूँ तुम्हारे    पास।

बस दाना - दुरका  मिले,औऱ न कोई आस।।


      💎 एक में सब 💎

होती  नहीं  पराग  की,

                  काजल -   वर्ण  फुहार।

गौरैया   करती    'शुभम्',

                  किस किताब को  प्यार??


   🪴 शुभमस्तु!


१७.०.८२०२२◆३.१५ आरोहणम् मार्तण्डस्य।

लीलाधारी 🦚 [अतुकान्तिका ]

 332/2022

        

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✍️ शब्दकार ©

🦚 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्

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 लीलाधर ,

लीलावतारी,

लीलाधाम में

आज लीला करेगा,

घर - घर 

मंदिर - मंदिर

मानव की तरह

जन्म में शिशु बन

अवतरेगा।


लीलाभूमि है

यह  भारत, 

अवतरित होते रहे

यहाँ सदा राम श्याम 

मानव रहा सदा आरत,

फिर भी रहा गारत,

कैसा है इस जन का

स्वार्थ भरा परमारथ!


होती रही  जब- जब

धर्म की हानि,

सिमटने लगी 

जब नर- नारी की कानि,

 भुला बैठा जब

अपनी अस्मिता पहचान,

आदमी का आदमी पर ही

तीर संधान!

हिन्दू की हिन्दू से

छुअन - छुआन,

कोई ईसाई कोई मुसलमान,

क्या यही है आज का

नया इंसान?

फ़िर कैसे करें

मानव देहधारी का

मानव - रूप में संज्ञान?

हो गया 

कहाँ नहीं

वह पशु समान! 

क्या करें लीलावतारी

बचाएँ कैसे उसका मान?


निर्वसन स्नान पर

लाज बचाने वाले!

नारियों को सिखाने

चेतावनी देने वाले!

क्या आज की नारी ने

कुछ भी संज्ञान लिया?

अपनी ही मर्यादा को

अपने ही हाथों 

क्या स्व- नग्नता में

डुबा ही न दिया?

पुनः - पुनः क्या चेताना!

ईश्वरीय चेतावनी की

मिट्टी पलीद करवाना?

क्या उचित होगा?

क्या उसी लीला को

पुनः दोहराना होगा?


द्वापर था तब,

चल रहा अब कलयुग!

कोई किसी की

नहीं मानता,

अपने ही अहं में

मनमानी करता

विलोम ठानता,

भले ही वह

कुछ नहीं जानता,

पर क्षत -विक्षत ध्वज को

छत,कार ,बाइकों पर तानता।


क्या यही देशभक्ति है?

फिर क्यों श्याम 

कुंजों में मुरली बजायेगा,

तुम्हारे प्लास्टिक

 सुमन सज्जित

सजावट - धाम पर

नंगे पैरों

 दौड़ा चला आएगा?

क्या अशरीरी  

शरीर धर कर 

'शरीर' को बचाएगा! 


आज उसी अशरीरी का

शरीर धरने का,

लीला मंच का

पर्दा उठेगा,

लगाकर तिलक चंदन

मानव की बुलंद बोली का

जयकारा जगेगा,

हे श्याम !

वह तुमसे कम 

नाटकबाज जो नहीं है,

वेश बदल कर 

क्या कुछ करने में

सक्षम नहीं है ?


🪴 शुभमस्तु !


१८.०८.२०२२◆११.४५ आरोहणम् मार्तण्डस्य।

तिरंगा -भक्त आधुनिक भारत 🇮🇳 [ दोहा ]

 331/2022

 

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✍️ शब्दकार ©

🇮🇳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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देशभक्ति  होती  नहीं, तारीखों   को    देख।

बनता शुभ इतिहास तब,रच कर्मों का लेख।

लगा  तिरंगा   वैन  पर, दौड़ा भक्त   महान।

टॉल अदा करता  नहीं, रँग बाजी की शान।।


बिना काज बिजली जले,पंखा भी पुरजोर।

देशभक्ति  की  शान  में, करे तिरंगा   शोर।।

नल को तेज जुकाम है,नगरपालिका मौन।

लगा तिरंगा वैन पर,गया भक्त वह  कौन??


सबमर्सिबल  भक्त  की, चलती   धारासार।

टंकी  पर  फहरा रहा, देश भक्ति  का प्यार।।

नियम  तिरंगा  के  नहीं, भक्त जानते  एक।

फहराना  ही ध्येय  है,फैशन की   है   टेक।।


छत की भग्न मुँडेर पर,फहरा बिना विचार।

एक तिरंगा रेशमी,  सजे तिपहिया   कार।।

अंगवस्त्र  बनियान के,भी होते कुछ   रूल।

टाँग  तिरंगा   भक्त जी, गए एकदम   भूल।।


'सब कुछ' करने के लिए,देश हुआ  आजाद।

आड़ तिरंगे की भली,नियम -भंग का स्वाद।

टाँग दिया छत, कार पर,गए भक्तगण भूल।

कौन  तिरंगे  को रखे, सीखा नहीं   उसूल।।


समझ तिरंगे को लिया,अपनी पेंट  कमीज़।

नहीं उतारें आठ दिन,शेष न रही  तमीज़।।


🪴 शुभमस्तु !


१८.०८.२०२२◆८.१५ आरोहणम् मार्तण्डस्य।

सोमवार, 15 अगस्त 2022

घर मुंडेर तिरंगा 🇮🇳 [ गीत ]

 329/2022

  

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✍️ शब्दकार ©

🇮🇳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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पानी की टंकी पर  फहरे,

घर  मुंडेर  तिरंगा।


बीते साल पचहत्तर अमृत-

उत्सव  का दिन आया,

ट्रैक्टर,कार, सभी बाइकों पर,

झंडा फर - फर भाया,

रेशम,  सूती,  खादी,

नित हो रही  मुनादी,

देशभक्ति में रंगा।


नन्हे - मुन्ने  विद्यालय  के,

झंडे  लिए  गली में,

देशभक्ति  के गीत गा रहे,

सजे हुए तितली में,

मातृभूमि  जय गाते,

माँ को शीश  नवाते,

तन - मन से हैं चंगा।


रँग हरित श्वेत है केसरिया,

पहने   बाला   नारी,

सभी दुकानें सजीं पताका,

संस्था सब सरकारी,

सबकी   है     तैयारी,

आजादी अति प्यारी,

उचित नहीं  है   दंगा।


आजादी की  मिली धरोहर,

बाद   जन्मने    वाले,

रखना इसे सँभाल शुभंकर,

करना 'शुभम्' निराले,

अन्न  देश  का  खाया,

रहना ध्वज की छाया,

जब  तक  यमुना गंगा।


🪴 शुभमस्तु ! 


१५.०८.२०२२◆६.४५ पतनम  मार्तण्डस्य।


🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳🇮🇳

विदा हुआ अब सावन 🌈 [ गीत ]

 327/2022


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✍️ शब्दकार ©

🌈 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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रिमझिम-रिमझिम कजरी गाता,

विदा हुआ अब सावन।


रजोमती   सरिताएँ   धाईं,

रजमयता  निज  हरने,

हरी घास पर दौड़ लगातीं,

भैंसें      गायें     चरने,

हवा  बहे  बरसाती,

हैं प्रसन्न सुत नाती,

धरती  है  मनभावन।


भैया ने कर  में   बंधवाई,

लाई  बहना  राखी,

कोकिल मोर हुए मतवाले,

नाच रहे  सब पाखी,

करते कृषक किसानी,

सोहे    साड़ी    धानी,

धरा  नित  रम्य  सुपावन।


श्रीकृष्ण  की   जन्मअष्टमी,

मना    रहे     नर - नारी,

भादों कृष्ण पक्ष  की काली,

निशा  सजल  अँधियारी,

जन्मे  कृष्ण कन्हाई,

बजती  रही   बधाई,

गोपी  -  गोप रिझावन।


नील गगन तल उड़ते  बगुले,

मोर बाग  में  नाचें,

भोर हुई  ले - ले  निज पोथी,

पाखी तरु पर बांचें,

पंडुक भजन सुनाती,

वेला    प्रेय   प्रभाती,

आए  हैं   घर   साजन।


🪴 शुभमस्तु !


१४.०८.२०२२◆१०.०० पतनम मार्तण्डस्य।

सजल 🪷

  

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समांत: आड़।

पदांत: के नीचे।

मात्राभार :16.

मात्रा पतन:शून्य।

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✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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करभ  गया   पहाड़  के नीचे।

खीझा  वह  दहाड़ के  नीचे।।


अपने  से   ऊँचा   जब पाया।

छिपता त्वरित आड़ के नीचे।


नहीं मिली बरगद  की छाया।

पहुँचा  विटप  ताड़ के नीचे।।


इतराया    आजादी    पाकर।

गीदड़  गया  झाड़  के  नीचे।।


लड़-भिड़ कर मित्रों से आता,

छिपता सुत किवाड़  के नीचे।


शेर    दहाड़ें     भरता  ऊपर,

गया न शल्य - बाड़  के नीचे।


'शुभम्' कर्म ऐसे नित करना।

जाए   क्यों  उजाड़ के नीचे!!


🪴 शुभमस्तु !


१५.०८.२०२२◆६.००आरोहणम् मार्तण्डस्य।

रविवार, 14 अगस्त 2022

जिसकी पूँछ उठाई 🪺 [ गीत ]

 326/2022

 

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✍️ शब्दकार ©

🪹 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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जिसकी पूँछ उठाई जाती,

निकल रहा  है मादा।


अवसर जिसको मिले 'सुनहरा',

क्यों करनी में छोड़े,

राम नाम की ओढ़ चुनरिया,

अपना मुख वह मोड़े,

दस -दस पीढ़ी खाएँ,

बैठी    मौज   मनाएँ,

बाहर  से   है   सादा।


बहुत जरूरी रँगना तन को,

राजनीति से रँग ले,

बन समाज का सेवी प्राणी,

राम श्याम का सँग ले,

झंडा  एक  लगा  ले,

मुखड़ा देह सजा ले,

या बन  गुंडा  दादा।


'कोई   नहीं  देखने वाला',

सोच  यही   है  तेरी,

पीकर के  अमृत तू आया,

किंतु नहीं  अब देरी,

होगी     जब    सुनवाई,

कुछ हो न सके हरजाई,

बतला  नेक   इरादा।


बोए  बीज  बबूल  हाथ से,

आम  कहाँ  से खाए,

कपड़े   रँगे  जलें अर्थी में,

ऊपर    नंगा    जाए,

बहुत  बड़ी  लाचारी,

हुई   जिंदगी  ख़्वारी,

बोझ गधे  का  लादा।


🪴 शुभमस्तु !


१४.०८.२०२२◆५.३० 

पतनम मार्तण्डस्य।

लहराया मैं आसमान में 🌻🇮🇳 (गीत)

 325/2022

 

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✍️ शब्दकार ©

🌻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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लहराया मैं आसमान में,

मानव  बहक गया।


मेरी  छाया  में   सौगंधें,

खाकर करता वादे,

मुँह में राम बगल में छूरी,

नेक  न  रहे   इरादे,

लोकतंत्र को गाली,

कंधे   टाँग  दुनाली,

आँगन  महक  गया।


छाँव  तिरंगे  की  वह सोता,

देश  समूचा  कुनबा,

अंधे   बाँट    रहे   रेवड़ियाँ,

ढूँढ़  रहा  घर  पुरबा,

पहन  भक्त का चोला,

हर ओर देश में डोला,

दानव  लहक  गया।


गंगा, गाय, तिरंगा, जपता,

उल्लू  सीधा  करता,

परदे में  गो- मांस  चीरता,

नहीं राम  से  डरता,

कैसी यह आजादी,

तन आँखों में वादी,

आनन  चहक  गया।

🪴 शुभमस्तु !


१४.०८.२०२२◆५.००

पतनम मार्तण्डस्य।


आजादी का नाम ! 🇮🇳 [ गीत ]

 324/2022


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✍️ शब्दकार ©

🇮🇳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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राजनीति की चादर ओढ़ी,

आजादी का नाम,

बदल गए हैं गाँव।


फहर उठे हैं खूब तिरंगे,

घर छत में द्वारों पर,

आजादी का जश्न मनाते,

गले  पड़े  हारों  तर,

देश प्रेम का फीता,

काटे   नेता   रीता,

मची लूट  की  काँव।


नगरपालिका का नल बहता,

सुर्र  -  सुर्र दिन रातें,

कागज  में  योजना  फूलती, 

लंबी  -  चौड़ी  बातें,

दिन में लट्टू जलते,

खाते चलते - चलते,

नहीं पेड़  की  छाँव।


सबसे ऊपर रहना हमको,

यही  हमारा  बाना,

माल और का  घर में आए,

गर्दभ  बाप  बनाना,

जपते  राम  ही राम,

नोटासन में विश्राम,

लग जाए  बस  दाँव।


आजादी के स्वरित तराने,

ध्वनि विस्तारक गाता,

नेता माल कहाँ मिल जाए,

इसकी जुगत  भिड़ाता,

है  आजीवन  बीमा,

आजादी का कीमा,

नित्य बदलता ठाँव।


🪴 शुभमस्तु !


१४.०८.२०२२◆३.३० 

पतनम मार्तण्डस्य।

वंचक को पंच 🪸 [छंद :पञ्चचामर ]

 323/2022


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✍️ शब्दकार ©

🪸 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                         -1-

विनीत भाव  चाव ले,स्वदेश के लिए  जियो।

बढ़े  चलो!बढ़े  चलो, सुवेश जो फटे सियो।।

न  छोड़ शोध बोध को,निराश हो न वासियो।

बिगाड़  क्या सके अरे!अमीत मूढ़ वंशियो।।


                         -2-

सुराज  आपके   लिए, सुराज आपसे   बने।

अनीति त्याग नीति से,स्वराज की ध्वजा तने

न  द्वेष - छद्म साथ हो, न बैर - मेघ हों घने।

न  कर्म  हों  अधर्म  के,न पाप में  रहें  सने।।


                         -3-

जना नहीं  सु-मात  ने, न देश भक्त हो सके।

कुदृष्टि से सु-नारि को,कुपूत देख  के  तके।।

हुआ  कु-भार  देश में,लुभा रहा  नहीं  पके।

अराति नाग दोमुँहे, न हैं  सु- मीत  आपके।।


                         -4-

न  भाव देश  का भरा,न धार नेह  की बहे।

यहीं पले, बढ़े ,मरे,न देश को निजी  कहे।।

अमीत  भाव काल -सा,सरोष देह  में  दहे।

सुकून,अन्न,नीर पी,अशांति तीक्ष्णता लहे।।


                         -5-

अपान-सा न जी यहाँ,स्वदेश भाव जो नहीं।

जवान  ढोर  हैं  भले,सु-दुग्ध दे  रहे  कहीं।।

कृतघ्नता  भरी  अघी, अशेष नाग   दोमुँही।

कुकर्म  में  प्रवीणता,सुकर्म में नहीं   जहीं।।


🪴 शुभमस्तु !


१३.०८.२०२२◆४.००पतनम मार्तण्डस्य।

त्रिरंग नित पुनीत है!🪷🇮🇳 [छंद :पञ्चचामर ]

 322/2022


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✍️ शब्दकार ©

🇮🇳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                         -1-

महान   देश  के  सभी, महान देशवासियो।

सु-काज में रहो लगे,बनो  न दास दासियो।।

सुजान  आन-बान  से,सुदेश में रहो  जियो।

सुधा सुबोल तोल के,पिला जिला सदा पियो


                         -2-

न रंग  भेद   ठीक  है, न वर्ण भेद  नीक  है।

अखंड  देश हिंद है,सुवर्ण -सा अतीत   है।।

न  भूल मान देश  का,न  जी सदंभ  मीत है।

स्वतंत्र देश की ध्वजा,त्रिरंग नित पुनीत  है।।


                         -3-

सदा  सुसावधान  हो,अराति ताक में  खड़ा।

क्षमा  नहीं करें उसे,भले न जो  पगों  पड़ा।।

विषाक्त नाग घात में,सु-बाड़ बंध  में  अड़ा।

न लातखोर  मानता ,न  टूट जाय  थोबड़ा।।


                         -4-

लगे रहो सु-काज में,जियो सदा  स्वदेश को।

स्वभूमि अन्न नीर  को, न भूलना सुवेश को।।

स्वतंत्रता  पुकारती,मिटा अमीत  क्लेश को।

सु-बोल बोल हिंदवी,जपो उमा  महेश  को।।


                         -5-

कुराजनीति  दंभ की,न देश को  बचा  सके।

अनीति ऊँच- नीच से,अमीत दाह से तके।।

भरे  अनेक  दोमुँहे, विषाक्त बोल   बोल  के।

नहीं  करें उसे  क्षमा, रहे न नेह  घोल   के।।


🪴 शुभमस्तु !


१३.०८.२०२२◆११.३० आरोहणम् मार्तण्डस्य।

शुक्रवार, 12 अगस्त 2022

स्वतंत्रता संग्राम सैनानी मेरे पितामह:स्व.श्री तोताराम राजपूत और तिरंगा 🇮🇳 [ संस्मरण ]

 321/2022 



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 ✍️ लेखक © 

 🇮🇳 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्

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  आगरा - जलेसर मार्ग से पूर्व दिशा में टेढ़ी बगिया से चार किलोमीटर दूर स्थित मेरे छोटे - से गाँव पुरालोधी के छःदेशभक्तों ने अपने परिवार और गृहस्थी से मुँह मोड़कर देशभक्ति की अलख जगाने में कोई कमी नहीं छोड़ी।उन्होंने महात्मा गांधी जी के आह्वान पर अपनी किशोरावस्था से ही देश की स्वतंत्रता के आंदोलन में आजीवन अपनी महती भूमिका का निर्वाह किया।ये छः देशभक्त सैनानी थे:1. स्व.श्री प.लालाराम शर्मा जी, 2.स्व.श्री लेखराज जी,3.स्व.श्री पीतम्बर सिंह जी,4.स्व.श्री गुलाब सिंह जी,5. स्व.श्री तुला राम जी और मेरे पूज्य पितामह (बाबा) 6. स्व.श्री तोताराम राजपूत जी। इन सभी ने अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों के विरुद्ध आंदोलनों में अपनी सक्रिय सहभागिता से अंग्रेज़ी प्रशासन के छक्के छुड़ा दिए थे। कभी टेलीफोन के तार काटना,कभी रेलवे की पटरियां उखाड़ना, कभी हाट बाजारों को लूटना आदि उनके दैनिक कार्यक्रम में सम्मिलित थे।

   मेरे बाबा मुझे समय -समय पर किये जाने वाले अपने कारनामों का हाल मुझे सुनाया करते थे। दादी श्रीमती जानकी देवी भी बहुत कुछ बताती - सुनाती थीं।एक बार की बात है कि मेरे बाबा तथा कुछ अन्य देशभक्त बरहन की हाट की लूट में शामिल हुए ,किन्तु पुलिस उन्हें गिरफ्तार नहीं सकी तो पूरे गाँव की जनता पर सामूहिक जुर्माना लगा दिया गया। 

    1942 के आसपास की एक बार गाँव में घटित घटना की चर्चा करते हुए मेरी पूजनीया दादी ने बताया कि एक घुड़सवार अंग्रेज गाँव में देशभक्तों को गिरफ़्तार करने के लिए आया। सभी छः लोग गाँव से बाहर अन्यत्र भूमिगत थे ,इसलिए वह किसी को भी गिरफ्तार नहीं कर सका ।हाँ, वह स्वयं अवश्य गाँव की देश भक्त महिलाओं की गिरफ्त में आ गया। जैसे ही वह हमारी चौपाल पर पहुँचा मेरी दादी के नेतृत्व में स्त्रियों के एक समूह ने उसे पकड़ कर घोड़े से नीचे गिरा लिया औऱ उसे लहँगा ,चुनरी पहनाकर काजल बिंदी से सजा दिया।साथ ही एक दूध की हांडी लाकर उसके सिर पर हेलमेट भी लगा दिया औऱ उसके सामने ही नीम के पेड़ पर तिरंगा फहरा दिया । तब तो अंग्रेज को उलटे पैरों भागते ही बना।

   मेरे पूज्य बाबाबाजी को अंग्रजों के विरुद्ध विद्रोह के कारण 1932 और 1942 में जेल जाना पड़ा। 15 अगस्त 1947 को देश को स्वतंत्रता प्राप्त हुई। आगरा में उस समय एक अंग्रेज जिला कलेक्टर थे,जिनका नाम था आई.एम.रैना.; जिनके हस्ताक्षर से एक हस्तलिखित पत्र पूज्य बाबाजी को प्रदान किया गया ।जो उन्हें देश की आजादी के बाद पच्चीस रुपये प्रति माह पेंशन दिए जाने संबंधी प्रमाण पत्र है। जो उन्हें श्रीमती इंदिरा गांधी के कार्यकाल तक प्राप्त होती रही। जिसे श्रीमती इंदिरा गांधी ने बढ़ाकर आठ सौ पचास रुपये प्रति माह कर दिया था, जो अब तो उन लोगों को भी मिलने लगी थी ,जिन्हें 1947 के तुरंत बाद नहीं मिलती थी। मेरे गाँव में एक मात्र मेरे बाबाजी को ही उक्त पेंशन प्राप्त हुई थी।

   मेरे पूज्य बाबा जी ने आजीवन सूती कपड़े से बना हुआ धोती,कुर्ता,गमछा, टोपी, अन्य वस्त्र तथा जूते भी कपड़े से बने से हुए ही धारण किए।लहसुन प्याज खाना तो दूर किसी को इन वस्तुओं को ग्रहण करने वाले को न पास में बिठाते थे और नहीं किसी के पास बैठते ही थे।पूर्ण रूप से सात्विकता का आजीवन अनुपालन करने वाले मेरे पूज्य बाबा जी ने लगभग 90 वर्ष की आयु पूर्ण करके 1987 में इस नश्वर देह का त्याग करते हुए देश के स्वाधीनता संग्राम सैनानियों की पंक्ति में अपना नाम उज्ज्वल करते हुए स्वदेश के साथ - साथ मेरे परिवार के नाम को भी उज्ज्वलता प्रदान की। मेरी पूजनीया दादी 1978 में ही अपनी नश्वर देह का परित्याग करके परम पिता परमात्मा की शरण में चली गईं। अपने ऐसे महान पूज्य बाबाजी और पूजनीया दादी जी के ऊपर उनके इस प्रपौत्र को विशेष स्वाभिमान है। उनके असीम स्नेह का मैं सदैव ऋणी रहूँगा।

 🪴शुभमस्तु !

 १२.०८.२०२२◆१२.१५ पतनम मार्तण्डस्य। 

 

हमारा तिरंगा [अतुकान्तिका ]

 320/2022


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✍️शब्दकार ©

🇮🇳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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देश का गौरव 

अपना तिरंगा

गगन में फहराए,

निश्चिंत हो लहराए,

बना प्रतीक

पराक्रम त्याग,

शांति और

हरित समृद्धि का।


अनेकता में एकता

ध्वज ने सिखाई,

साथ चलने की

दिशा इसने दिखाई,

मार्गदर्शक वह हमारा,

विजयी विश्व 

तिरंगा प्यारा।


हमारी आन

बान और शान,

हमारे पहचान,

हमारा मान,

इसका

 रक्षा- दायित्व हमारा,

सदियों से लहराता 

गहराता रहा ,

रहे यों ही 

देता हुआ हुआ

संदेश उजियारा।


हमारी देशभक्ति का

दिव्य प्रतीक,

देश के अनाम

बलिदानियों की याद,

धरोहर 

अपना स्वाभिमान,

अनन्त प्यार

बिखेरता हुआ बहार।


बहती हुई ज्यों

धरणि पर गंगा,

आकाश में

स्वतंत्र त्यों

लहराता हुआ

अमर तिरंगा,

इसे न बनाएं खेल,

सियासती 

नाटक का पात्र,

क्योंकि नहीं है

 इसे धारण 

करने की पात्रता

सबके पास,

रखना है इसे सँभाल।


कपड़े का

 टुकड़ा भर नहीं,

प्राणों की बाजी 

देने वाले

समझते हैं 

मूल्य ध्वज का,

पावन करता है

गगन से ही

एक - एक कण

भारत भूमि की

'शुभम' रज का।


🪴शुभमस्तु !


१२.०८.२०२२◆६.००आरोहणम् मार्तण्डस्य।


अलकें अलि -सी अधर में 💃🏻 [ दोहा ]

 319/2022

 

[अधर,अलता,अलकें ,ओष्ठ, अलि ]

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✍️ शब्दकार ©

💃🏻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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      🪸  सब में एक 🪸

युगल अधर ज्यों ही जुड़े,शब्द हो गए मौन।

अधर नहीं  वे रह सके,भूल परस्पर  कौन।।

अधर -सुधारस पान कर,द्रवित हुईं दो देह।

अंतर में बहता रहा, कलित काम का मेह।।


अलता- रंजित पाँव की,शोभा की अनुहारि।

देख मौन वाणी हुई, पथ गजगामिनि नारि।।

प्राकृतिक अलता  रचा, भौंचक   मेरे  नैन।

अपने पाँव  निहारती, नहीं एक  क्षण चैन।।


सोहें विधुवदनी सुघर, अलकें अलस अनेक

इठलाती बल खा रही, कामिनि ब्रज की एक

अलकें पलकों  पर नचें,चले  पवन पुरजोर।

सलज चाल बाला चले,धड़के उर चितचोर।।


परस  ओष्ठ  का ओष्ठ  से, होते  ही  संचार।

विद्युत  रेखा- सा  हुआ, जुड़े हृदय के तार।।

ओष्ठ - तड़ित  संवेदना, पाकर  तेरी  धन्य।

जीवन मेरा आज  है, पहले से  कुछ अन्य।।


तेरे हृदय - सरोज पर,दो अलि  बैठे   मौन।

तू स्वामिनि उनकी प्रिये,हटा सके अब कौन।

अलि-गुंजन जब से हुआ, रहती  मैं  बेचैन।

उठती उर में टीस-सी,विकल रहूँ  दिन  रैन।।


   🪸  एक में सब   🪸

अलकें     अलि  -   सी अधर    में,

                          उड़तीं   करतीं   खेल।

अलता -   से  दो  ओष्ठ ये,

                   करते     सरस   सु - मेल।।


🪴शुभमस्तु !


०९.०८.२०२२◆१०.४५ 

पतनम मार्तण्डस्य।

गीत नहीं है एकता 🇮🇳 [ दोहा ]

 318/2022

 

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✍️ शब्दकार ©

🇮🇳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम् 

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एक  बढ़ाए  एक  को, पकड़ नेह  से  हाथ।

देश बढ़े आगे सदा,जन -जन का हो साथ।।

बड़ी - बड़ी  ऊँचाइयाँ, चढ़ सकते हम  वीर।

साथ सँभल कर पा सकें, उच्च शृंग को धीर।


ऊपर चढ़ने के लिए,क्या दिन है  क्या रात।

धीर -वीर  थकते  नहीं,संध्या हो  या   प्रात।।

एक - एक   के मेल से, एकादश    निर्माण।

देशभक्त  रणबाँकुरे, करते  माँ   का  त्राण।।


गीत  नहीं है  एकता,जो  गाएँ दिन  - रात।

पहले  उर से  एक  हों,  तभी बनेगी बात।।

सीमा  पर  प्रहरी  खड़े,अपना सीना  तान।

करने को अरिदमन वे,करें प्राण का  दान।।


बैठे    दुश्मन   ताक   में, घात लगाए   तीन।

जागरूक    रणबाँकुरे,  मारेंगें नित    बीन।।

हिमगिरि पर फहरा रही,विजयध्वजा पुरजोर

वचन  तिरंगा बोलता,स्वर्णिम अपनी  भोर।।


चढ़ते  जाना   वीर  तुम,  बढ़ते  जाना  धीर।

मंजिल निश्चित ही मिले,खन खन हो शमशीर

दुश्मन   को  समझें नहीं,छोटा, करें न भूल।

वार  प्रथम करना नहीं,अपना यही   उसूल।।


'शुभम्'  एकता - मंत्र  है,करते  धारण धीर।

शत्रु  न   माने  बात तो, दें बाणों  से  चीर।।


🪴 शुभमस्तु !


०९.०८.२०२२◆९.४५ आरोहणम् मार्तण्डस्य।

सजल 🪦

 317/2022

 

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समांत:आर।

पदांत:दिया है।

मात्राभार :16.

मात्रा पतन:शून्य।

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✍️ शब्दकार ©

🪦 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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कर्ता    ने      संसार       दिया  है।

नर - तन    का   उपहार   दिया है।।


रहना    है    कृतज्ञ     कर्ता   का।

हवा ,धूप    का   प्यार    दिया है।।


नर   को     नारी    नारी    को नर।

सौंप    बड़ा    सुखसार  दिया है।।


नौ    द्वारों    में      बसें    इन्द्रियाँ।

देकर   प्रभु    ने  तार    दिया  है।।


संचालक    नर  -  देही   का मन।

कोई    दबा     उभार   दिया  है।।


नहीं     कमी       करता    लेने   में।

क्या   सुंदर    व्यवहार    दिया   है??


'शुभम्'   पुण्य    जड़     हरी बनाता।

मन  ने  क्या    सुविचार  दिया    है।।


🪴शुभमस्तु !

०८.०८.२०२२◆५.००आरोहणम् मार्तण्डस्य।

अमृत- उत्सव देश का 🇮🇳 [ दोहा गीतिका ]

 316/2022

 

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✍️ शब्दकार ©

🇮🇳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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अमृत - उत्सव देश का,भारत माँ   के नाम।

दे  दी  हमें  स्वतंत्रता, उनको नमन प्रणाम।।


वे  बलिदानी   वीर  थे, दिया त्याग  परिवार,

 बलिवेदी  पर  होमते,अपने प्राण    तमाम।


प्रणय छोड़ ममता तजी, मात-पिता का नेह,

होली,  दीवाली नहीं, सुबह  न  देखी   शाम।


आजादी  की  वायु  में,लेते  हैं  हम  साँस,

हमें  नहीं अनुमान  है, अति वीरों  के काम।


अपना  ये  कर्तव्य   है, राखें सदा   सँभाल,

आजादी  हमको  मिली,करें नहीं   विश्राम।


एक  देश  की  एक  ही, ध्वजा  तिरंगा  एक,

लहराए  नित  शान  से,वर्षा हो    या  घाम।


'शुभम्'काव्य-रचना करें, भारत का गुणगान,

गाथाएँ अनगिन कहें, दिव्य ज्योति उर धाम।


🪴शुभमस्तु !


०७.०८.२०२२◆५.१५ आरोहणम् मार्तण्डस्य।

शनिवार, 6 अगस्त 2022

सबके अलग-अलग पैमाने ! 🚦 [ व्यंग्य ]

 

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व्यंग्यकार © 

 🛝 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्

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 यहाँ सबके पैमाने अलग - अलग हैं। सबकी अलग- अलग सोच और समझदानी का परिणाम है कि पैमाने ही बदल गए।पुराने समय में आजकल की तरह माता-पिता अथवा स्वयं लड़की अपने लिए वर की तलाश नहीं करते थे।परिवार के लोगों द्वारा नाई - बाँभन पर इतना अधिक विश्वास किया जाता था कि इस कार्य का दायित्व उन्हें ही सौंप दिया जाता था। वे दोनों जहाँ भी रिश्ता तय कर देते थे ,विवाह वहीं कर दिए जाते थे।

     एक बार एक गाँव में एक माँ- बाप ने अपनी युवा विवाह योग्य पुत्री के रिश्ते के लिए गाँव के ही बाँभन और नाई को भेज दिया और उनके पूँछने पर बता दिया कि लड़के की उम्र लगभग उन्नीस बीस इक्कीस होनी चाहिए।वे दोनों लोग कहीं दूर गए औऱ कुछ दिन बाद लौटकर आ गए और बताया कि वे उनकी बेटी का रिश्ता तय कर आए हैं। जब उन्होंने भावी वर की उम्र के विषय में पूछा तो बताया गया कि उन्होंने जो बताया था , उसी उम्र का लड़का है, यही कोई उन्नीस बीस इक्कीस का।घर वाले संतुष्ट हो गए।कुछ समय व्यतीत हुआ और वह शुभ दिन भी आ गया जिस दिन बारात आने वाली थी।ढोल पीपनियों के बैंड के साथ बारात भी दरवाजे पर आ गई।अगवानी की गई ।किन्तु जब गाँव की जनता औऱ घर वालों ने वर को घोड़ी पर मुँह लटकाए हुए,घोड़े की जीन में पैरों को अटकाए हुए ,कमर को झुकाए हुए देखा तो उनकी आँखें खुली की खुली रह गईं।तुरंत नाई -बाँभन की जोड़ी को तलब किया गया, इस साठ साल के बूढ़े के साथ जवान बेटी का रिश्ता तय करके आए हैं, तो उन्होंने भी स्पष्ट उत्तर देते हुए पल्ला झाड़ लिया कि आपने ही तो कहा था कि उन्नीस बीस इक्कीस का होना चाहिए । उन्नीस बीस औऱ इक्कीस कितने हुए ? साठ ही न! इसमें हमारा क्या दोष।उनके पैमाने के तर्क से हारकर कर विवश माँ - बाप को उस साठ वर्षीय वर के साथ अपनी बेटी की शादी करनी पड़ी।तब से हर माँ -बाप ने नाई - बाँभन का विश्वास खो दिया और स्वयं वर पसंद करने जाने लगे।


     ये आदमी जीव ही ऐसा है कि इसके पास अपने प्रत्येक गलत कार्य के लिए बेजोड़ सफाई है। अकाट्य तर्क हैं।ग़लत को भी सही ठहरा देने की सूझबूझ पूर्ण तरकीबें हैं। किसी चोर ,डकैत, गिरहकट, अपहर्ता, गबनी, दुष्चरित्र, बेईमान के पास इतनी सफाइयाँ, तर्क और खूबियाँ हैं कि अच्छे -अच्छे जज भी चक्कर खा जाएँ।इसीलिए तो अदालतों में फैसले सही समय पर नहीं हो पाते और अपराधी साफ बच जाते हैं।निरपराध कारागार की रोटियाँ तोड़ते हैं। पानी में दूध मिलाने वाला कहता है कि आज भैंस ज्यादा पानी पी गई इसलिए दूध पतला है।दूध में पानी नहीं मिलाया , पर जो किया है उसे किसी को नहीं जताया कि दोहनी के पानी में ही धार को गिराया ! 

         तर्क के मामले में पढ़ा- लिखा आदमी वकील बराबर,और बिना पढ़ा-लिखा खुदा बराबर। गँवार से भगवान भी हारे। बुद्धिमान तो एक ओर मुँह तकते बेचारे। शायद इसीलिए कहा गया है कि गँवार, बुद्धिमान ,पागल और स्त्री से कभी बहस नहीं करनी चाहिए। इनसे बहस करने से पहले सोच लेना चाहिए कि हार भले ही न हो ,पर हार माननी ही पड़ेगी। आदमी ,इसलिए आदमी नहीं कि वह किसी से भी हार मानेगा! उसे येन- केन- प्रकारेण जीत ही चाहिए।साम,दाम ,दंड ,भेद ;कितनी ही तरकीबें हैं उसे जिताने के लिए।अपनी युक्तियों के बल पर भी वह हाथी जैसे विशाल, शेर चीता जैसे हिंसक औऱ खूँख्वार पशु और सर्प जैसे विषैले जीव को भी अपने चाबुक तले रौंद देता है। आदमी के लिए आदमी चीज ही क्या है! इसीलिए आदमी ,आदमी का स्थाई मित्र नहीं है।उसकी मित्रता भी सशर्त है।अब शर्त जो भी हों। दृश्य हो या अदृश्य ; परंतु क्या आदमी कभी ऐसा भी हो सकता है कि बिना शर्त मिताई करे!सूक्ष्म अदृश्य धागे के बराबर अवश्य स्वार्थ की शर्त होगी ही।यह गहन शोध का गहन विषय है।

         आदमी का पैमाना कब ,कहाँ, कितना परिवर्तित हो जाएगा, कुछ कहा नहीं जस सकता। ये सब स्थितियों, परिस्थितियों पर निर्भर करता है।इसीलिए उसने एक दूसरे का विश्वास खो दिया है ।वह अपने पालतू कुत्ते पर विश्वास कर लेगा ,परंतु अपने चौकीदार पर नहीं।अपने गधे पर विश्वास कर सकता है ,पर गधा चराने वाले पर नहीं। लोग कहते हैं कि जमाना बदल रहा है। जमाना बदल नहीं रहा ,अब वह जम नहीं रहा। उखड़ रहा है।आदमी के दिमाग की माँग उसे कहाँ ले जाएगी, अकल्पनीय है।आदमी के दिमाग की माँग में नीति और नैतिकता को तो भूल ही जाइए।पुराने पैमाने तोड़ने औऱ नए- नए बनाने की उसकी हॉबी अनन्त तक ले जाने वाली है। यही तो उसकी खूबी निराली है।

 🪴शुभमस्तु ! 

 ०६.०८.२०२२◆८.१५ आरोहणम् मार्तण्डस्य।


शुक्रवार, 5 अगस्त 2022

ग़ज़ल 🌴

 314/2022


          

      SIS  SIS  SIS  SIS

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✍️ शब्दकार ©

🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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यूँ  बनो   मीत   मिट्ठू   मिया तुम नहीं।

काम उसको जता  मत किया तुम नहीं।।


एक  से   एक   बढ़कर   यहाँ  शेर   हैं,

आज तक इक फटे  को सिया तुम नहीं।


पेट  अपना   सभी  श्वान   भी भर  रहे,

भूख से   मर  रहे    को  दिया तुम नहीं।


नाम   अख़बार   की  सुर्खियों में   छपा,

पेड़   का  नेक  जिम्मा लिया तुम  नहीं।


रोज़   घड़ियाल   के    अश्रु तुम  में  बहे,

नारि   नयनाज   आँसू  पिया तुम   नहीं।


रंग    में   जाति     के    या सियासत   रँगे,

बालकों  से  नहीं   सु -सिखिया  तुम  नहीं।


रौशनी    दे    रहा  इस  जहाँ को   'शुभम्',

जिंदगी   सूर    की  क्यों जिया  तुम नहीं।


🪴शुभमस्तु!


०५.०८.२०२२◆९.४५ आरोहणम् मार्तण्डस्य।

आदमी का कर्तापन 🛝 [ अतुकान्तिका ]

 313/2022

 

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✍️ शब्दकार ©

🎋 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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किसी का बुरा

तूने जो किया है,

रहना है उसे 

तेरे ही पास में सदा,

वह तेरा है

किसी और का नहीं।


किसी का भला 

करने वाले,

भले भूल जा ,

कभी न कभी

वह  आएगा

लौटकर तेरे ही पास।


बुरा भी तेरा,

भला भी तेरा!

कुछ भी किसी

और का नहीं,

कर्ता है तू

तो भोक्ता कोई

औऱ क्यों होगा?


इतना यदि समझता,

समझ पाता,

तो किसी का बुरा

कर नहीं पाता,

पर अब क्या?

अब तेरा 

कुछ भी नहीं

हो सकता!

निकला हुआ तीर

कमान में लौटता नहीं।!

करने से पहले

आदमी कभी

सोचता नहीं!


किसी का बुरा करने में

कहाँ गया तेरा

कर्ता भाव,

जहाँ देता रहा

तू किसी औऱ को घाव,

क्योंकि उसके 

करने में था

तेरा समग्र चाव!

लगा - लगा कर 

किसी आखेटक की 

तरह दाँव !


भला करने में

बन गया 

पूरी तरह कर्ता,

प्रचार करता हुआ

धरती पर पसरता,

उस पुण्य में भी

पाप का बीज

 शनैः शनैः पनपता!

अल्पकालोपरांत

पूरा दरख़्त बन उभरता!


आदमी आमरण 

नहीं सुधरता,

बसा हुआ संस्कार

जीवन भर उमड़ता,

जिसके वशीभूत वह

गलत - सही करता,

रह नहीं पाती 

मानव में स्थिरता!

वक्त आने पर 

काल के गाल में

आरा मशीन  में 

काष्ठ की तरह  चिरता,

जब लौह शृंखलाओं के बीच

बिना चीखे चिल्लाए घिरता


🪴 शुभमस्तु !


०४.०८.२०२२ ◆ ३.३० पतनम मार्तण्डस्य


ग़ज़ल 🌴

 312/2022    

        

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✍️ शब्दकार ©

🌴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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बरसती  ही     रहीं      रातें।

पनारे -  सी      बहीं    रातें।।


 नहीं   चंदा     नहीं     सूरज,

कहानी  -   सी  कहीं    रातें।


गया  सावन  न   तुम   आए,

लपट  में   हैं     दहीं     रातें।


नहीं  पहले   रहे     वे   दिन,

न पहले  -  सी   कहीं   रातें।


नहीं  लौटीं   वही      घड़ियाँ,

न  आईं     बतकहीं       रातें।


जगाती    थीं   हमें   हर पल,

नहीं    जाती    सहीं     रातें।


'शुभम्'  हैं  मौन   वे  लेकिन,

रही  हैं    सब    जहीं    रातें।


🪴शूभमस्तु !


०३.०८.२०२२◆ १२.३० पतनम  मार्तण्डस्य।


अंत भला तो सब भला 🪦 [ दोहा ]

 311/2022

 

[आरम्भ, प्रारब्ध,आदि,अंत,मध्य]

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✍️ शब्दकार ©

🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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        ☘️ सब में एक  ☘️

देर नहीं  पल  की  करें,  करने में   आरंभ।

करना हो शुभ काम तो,पालें मत मति-दंभ।।

करता है आरंभ जो,सही समय पर  काम।

मिलें शांति,सुख,हर्ष की,भेंटें सुखद विराम।।


लिखा हुआ प्रारब्ध में, उसका है परिणाम।

वर्तमान में जो मिला,है भविष्य   के  नाम।।

सबका निज प्रारब्ध है,हर मानव के साथ।

योनि  बदलती देह की,रहता कर नत माथ।।


आदि भला तो अंत भी, देगा शुभ परिणाम।

लगन परिश्रम से किया,यदि कर्ता ने काम।।

आदि देव का ध्यान कर,करता जो आरंभ।

चरण  चूमतीं  प्राप्तियाँ,ढहते बाधक खंभ।।


क्या  चिंता है अंत  की,शुभम हो श्रीगणेश।

सुखद मिले फल आपको,रहते साथ महेश।।

अंत भला तो सब भला,सफल कर्म परिणाम

उसकी जय जयकार हो,करता जग में नाम।


जीवन का  मध्याह्न  है,तप्त भानु   की  धूप।

मध्य जिसे कहते सभी,नित्य बदलती रूप।।

जा पहुँचा जो मध्य में, बढ़ना ही  पथ ठीक।

सोच लौटने की न हो,मिले तभी फल नीक।।


      ☘️ एक में सब ☘️

कर्म  जीव- प्रारब्ध का,

                      यदि  पावन आरंभ।

आदि,मध्य शुभ अंत हो,

                     साथ  न   देगा दंभ।।


🪴 शुभमस्तु !


०३.०८.२०२२◆७.००आरोहणम् मार्तण्डस्य।

सबका हो कल्याण 🪷 [ दुर्मिल सवैया ]

 310/2022

 

छंद विधान:

1.वर्णिक छंद।

2.क्रमशः 8सगण, II$×8= 24 वर्ण।

3.चार चरण समतुकांत।

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✍️शब्दकार ©

🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                         -1-

शिवजी  सबका  दुख दूर करें,

                  जन जीवन में नहिं  त्रास रहे।

हर ओर खिले बगिया जन की

                    सुमनावलि मंद सुवास रहे।।

जग के प्रभु पालक घालक हो

                 तुम से सब जीवन लाह  लहे।

सब जीव करें निज काज सदा

                 जस बीज पड़े तस पौध  रहे।।


                         -2-

वन, बाग, तड़ाग सु अम्ब भरे,

                  घनघोर  घटा नभ  से  बरसे।

पशु,मानव,कीर,विहंग स भी,

                 लखि सावन के घन को हरषे।।

नर,नारि, युवा  सब  मोद करें,

                      हलवीर किसानअमंद हँसे।

छत ,आँगन,खेत हरे जल से,

                  हरिताभ नई सुषमा विलसे।।


                          -3-

कल कंज कली सर में विकसी,

                रवि  देख  रही हँसती  खिलती।

षटपाद  रहे  रत  गुंजन  में,

                  मधु  लोभ सु-चाह यहीं पुरती।

तल तीर तिरे बहु पात हरे,

                   जल बूँद न एक वहाँ टिकती।

जल पंकनु में खिलते  जनमे,

              पर पंक कु- गंध नहीं मिलती।।


                         -4-

बड़री-बड़री अँखियाँ लखि के,

                   मुरलीधर श्याम भए रस में।

झट होंठ धरी मुरली हरि ने,

                 ध्वनि गूँज उठी सजनी नस में।।

वन कुंजन में  रस धार बही,

                 जल जीव नचे जमुना जल में।

पशु कीर भए मनमीत सभी,

                   हरषीं द्रुम बेल  धरा तल में।।


                         -5-

करुणा कर दीन दयालु प्रभो,

                    तव नेहिल मेघ सदा  बरसे।

सबका  हित साधन हो करते,

              जन एक न भोजन को तरसे।।  

सुख शांति रहे नव कांति बहे,

                    जनमा जग में  उर में हरसे।

शुभता सबको हर भाँति मिले,

            कर दे कुछ त्याग  निजी कर से।।


🪴  शुभमस्तु !

०२.०८.२०२२◆८.००

पतनम मार्तण्डस्य।




किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...