गुरुवार, 30 जून 2022

पावस -बिम्ब 🌈🌈 [ सायली ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🌈 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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टपके

टपका पके

सघन अमराई में

लूटने दौड़े

बालक।


बीता

अर्द्ध आषाढ़ 

मिटा आतप प्रगाढ़

मेघ घिर

बरसे।


हुई 

कोकिला मौन

आम की डाली

झुरमुट में 

बैठी।


झरते

बरसे मेघ

नहीं अब नीला

अंबर विशद

पनीला।


पनारे

चल उठे

निशि दिन भर

झर - झर

कर।


लगे

बोलने मोर

मेघ गर्जन सुन

बागों में 

नाचते।


चातक

प्रण करता

पिएगा स्वाती जल

जब घन

बरसाए।


घन

गरजे बरसे

चमकी बिजली भी

तृषित नहीं

धरती।


दादुर

लगे उछलने

करते टर टर,

स्वर भरते

मंत्रोच्चारण।


वीरबहूटी

कहाँ गई

पड़ती न दिखाई

पावस ऋतु

आई।


बिना

दाँत के

निपट पोपले बाबा

पिलपिले आम

चूसते।


🪴 शुभमस्तु !


३० जून २०२२◆२.४५ आरोहणम् मार्तण्डस्य।


टपका टपके डाल से🥭🌳 [ कुंडलिया ]


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✍️ शब्दकार ©

🥭 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                         -1-

बीता आधा मास यों,  उमस भरा आषाढ़।

आए बादल झूमकर,झर-झर झरा प्रगाढ़।।

झर-झर  झरा प्रगाढ़, गिरे अंबर से पानी।

प्यासी  धरती मौन, पहनती साड़ी  धानी।।

'शुभम्' न गरजे मेघ,नहीं है जल घट रीता।

सुखी हुए जन जीव,समय सूखे का बीता।।


                         -2-

आए घन सुख शांति ले,हर्षित हुए  किसान।

ताक  रहे  थे  शून्य  में,करते उनका   मान।।

करते   उनका  मान,   श्वेत बादल  गहराए।

रोक  हवा  की  साँस,खोल बाँहें  वे  छाए।।

'शुभम्' न आतप शेष,सिंधु से जल भर लाए

रहा  न खारी  नीर,उतर अवनी पर  आए।।


                         -3-

ऊपर  प्यासी  दृष्टि से,तकता स्वाती - भक्त।

सारन बैठा शाख पर, निज प्रण में  अनुरक्त।

निज  प्रण में अनुरक्त,मेघ स्वाती  के आएँ।।

गिरे  मेघ   से बूँद, चंचु  में  जल  ले   पाएँ।।

'शुभम्' न पीता नीर,बहे जल गंगा  भू  पर।

रखता अपनी टेक,ताकता चातक  ऊपर।।


                         -4-

डाली वृक्ष  रसाल की,कूक रही  दिन- रात।

पिक अब बैठी मौन हो,जब देखी बरसात।।

जब  देखी  बरसात,मग्न झुरमुट   में  ऐसी।

जन्मजात  हो  मूक,साध  चुप बैठी   कैसी।।

'शुभम्' पपीहा पीउ, नाद की रट   मतवाली।

सुनते लेश न  कान,नहीं अब गूँजे   डाली।।


                         -5-

टपके  टपका  डाल से,अमराई की   छाँव।

बालक युवा किशोर भी,चले छोड़कर गाँव।

चले  छोड़कर  गाँव,  लूटते जो  पा  जाएँ।

पीत  महकते आम, चूसकर वे  सब  खाएँ।।

'शुभम्'  न जिनके दाँत,पोपले बाबा लपके।

पके पिलपिले आम,बाग में मिलते   टपके।।


🪴 शुभमस्तु !


३०जून२०२२◆१.४५ 

पतनम मार्तण्डस्य।

सेतु - भंग! 🛤️ [ अतुकांतिका ]


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✍️ शब्दकार ©

📻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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निंदा की खाई

जो जिह्वा ने बनाई,

स्तुति के सेतु से

पट नहीं पाती,

बालू की नींव पर

महल की दीवार

खड़ी नहीं होती।


मजबूत होनी चाहिए

आधार शिला

हर सड़क की,

तभी बन सकते हैं

स्तुतियों के सुदृढ़ सेतु,

वरना बालू 

खिसकने ही वाली है,

मानव की दोमुँही जीभ

अपनी बनाई खाइयों से

भवन ध्वस्त करने वाली है।


स्तुतियों के सेतुओं की

निर्माण सामग्री 

खोखली न हो,

तो निशंक 

पार हुआ जा सकता है,

हिलता हुआ हर सेतु

कभी भी भूमिसात 

होकर स्व अस्तित्व पर

प्रश्न वाची चिह्न 

लगा सकता है!

स्तुति के सेतु का 

भरोसा भी क्या है?


अब सेतु- बंध नहीं

सेतु  - भंग हो रहे हैं,

इंसान अपने को 

मिटाने के लिए

नेत्र - अंध हो रहे हैं,

खाइयाँ ही खाइयाँ,

सद्भाव की परछाइयाँ,

मन के सरोवर में

मात्र काली काइयाँ,

भविष्य में अँधेरा है,

आदमियों का

 गाँव शहर नहीं,

बेतरतीब जंगल का

 बसेरा है।


दूर होता जा रहा

आदमी आदमियत से,

स्तुतियों के सेतु 

बनाएगा कौन,

खोदी जा रहीं हैं खाइयाँ,

भविष्य को अब

सुनहरा 'शुभम' 

बनाएगा  कौन ?

हाथों में लिए कुल्हाड़ी

अपने ही पैरों को

काट रहा है,

अपने अस्तित्व के

चिह्न तक मिटाता 

जा रहा है।


🪴 शुभमस्तु !


३० जून २०२२◆ ७.३० आरोहणम् मार्तण्डस्य।

बुधवार, 29 जून 2022

धाराधर नभ में छाए ⛈️ [ दोहा ]

 

[ वृष्टि, धाराधर,बरसात,प्यास,पुष्करिणी]

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✍️ शब्दकार©

🌈 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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     🚦 सब में एक 🚦

कूक -कूक कोकिल करे,अमराई  में  रोर।

वृष्टि करो घन साँवरे,  हुई सुहानी   भोर।।

सु-समय जल की वृष्टि से,अवनी को वरदान

जीव, जंतु, पादप, लता,करते हैं जल पान।।


धाराधर जलधार   ले,अंबर  में   साकार।

वन,उपवन,मैदान में, खोलें जल - आगार।।

धाराधर ले  हाथ  में, आया जब  बनबीर।

पन्ना  दाई  हो  गई, उदय - त्राण    बेपीर।।


नारी-दृग  बरसात  में,शेष बचा  है  कौन!

पिघलें पाहन मोम- से,पतित भूप के भौन।।

सावन की बरसात से,हर्षित भू, वन, बाग।

खेत,लता,पादप सभी,शमित जेठ की आग।


जितना बरसे नैन जल,उतनी बढ़ती प्यास।

सावन में बरसें जलद, विरहिन और उदास।।

प्यास तुम्हारे दरस की, नित करती  बेचैन।

तनिक न कल दिन में मिले, नींद नआए रैन।


धाराधर   नभ  छा  गए, गिरे दोंगरा   मीत।

पुष्करिणी हँसने लगी,तपन गई अब बीत।।

पुष्करिणी जलमग्न हो,सर में करती मोद।

क्यों जाए अब रेत में,प्रिय पानी  की  गोद।।


    🚦  एक में सब  🚦

धाराधर   बरसात  में,

                       करते    हैं जल  - वृष्टि।

पुष्करिणी की प्यास हर,

                      हर्षित     होती     सृष्टि।।

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धाराधर =बादल,खड्ग।

पुष्करिणी= तलैया, हथिनी।

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🪴 शुभमस्तु !


२८ जून ११.१५ पतनम मार्तण्डस्य।

आवरण से आब है ! 🍓 [ व्यंग्य ]

  


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 ✍️ व्यंग्यकार © 

 🍓 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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आवरण' का अपना एक विशेष आकर्षण है।एक विलक्षण सौंदर्य है।कोई चमड़े से ढँका है ,कोई कपड़े से। कोई रंगों से ढँका है,कोई तरंगों से और जिससे सब कुछ ढँका है ;वह दमड़ी है।कुछ भी नहीं बचा जो दमड़ी से ढँका हुआ नहीं हो।बड़े से बड़े पाप, मैं अथवा आप,ठोस ,द्रव या भाप,दमड़ी ही है सबकी बाप।कोई नहीं है जिसकी नाप।इस मृत्युलोक में दमड़ी का ही तो है विचित्र प्रताप।सब कुछ ढँक लेती है दमड़ी,भले ही हो वह नंगी चमड़ी अथवा मक्खी से सनी रबड़ी।सब कुछ दमड़ी के आवरण के नीचे आकर्षक है,सुगंधित है,सम्मोहक है।सर्व स्वीकार्य है,सबके लिए अनिवार्य है।चाहे वह आम हो या खास,झोंपड़ी हो या महल-सा आवास।सबका ही है दमड़ी में विश्वास।एक अबोध नवजात मानव - शिशु भी सादा कागज के टुकड़े को नहीं पकड़ता ; परंतु एक पाँच सौ के नोट को कसकर जकड़ता है।अपनी मुट्ठी में मजबूती से पकड़ता है।यही तो दमड़ी का जादू है ; आदमी संस्कारवश उसका आदी है। 

  मनुष्य के शरीर के आवरण चमड़ी (त्वचा,खाल)की बात करते हैं ,तो पाते हैं कि ये चमड़ी ही उस आकर्षण का प्रथम सम्मोहक तत्त्व है ,जो किसी दूसरे नर अथवा नारी को अपनी ओर एक चुम्बक की तरह खींच लेता है। कल्पना कीजिए यदि कुछ समय के लिए किसी देह से यदि उस त्वचावरण को हटा दिया जाए तो कुछ क्षण के लिए भी उस देह और देहांगों को देखा भी नहीं जा सकता।फिर उसके साथ किसी स्पर्श,चुम्बन,आलिंगन आदि की कल्पना भी नहीं की जा सकती।उस समय उस मनुष्य के हृदय, यकृत, फेफड़े, गुर्दे,आँतें,आमाशय,मूत्राशय, मलाशय, सिर के ऊपरी भाग में दिमाग, जबड़े ,दाँत, जीभ आदि अंग औऱ उनके विविध उपांग ही दिखाई देंगे।किस व्यक्ति में है साहस कि त्वचा विहीन मानव शरीर के आंतरिक भाग को देख सके। यह त्वचा का सुंदर और सशक्त आवरण ही है , जो अन्य नर - नारियों के लिए सम्मोहक औऱ आकर्षक बन क्या कुछ करने के लिए आहूत कर लेता है।

  मानव शरीर के आवरण की चर्चा के अंतर्गत यह बताना भी आवश्यक हो गया है कि प्रकृति प्रदत्त त्वचावरण के ऊपर भी उसे सजाने सँवारने के हजारों उपक्रम किये जाते हैं। युग -युग से किए जा रहे हैं। भले ही प्रकृति मनुष्य को कितना ही सुंदर शरीर, त्वचा, रंग, बनावट, सुडौलता ,कद, काठी दे दे ,किंतु पेड़ की शाखाओं की तरह उसके ऊपर रँग - रोगन ,क्रीम, पाउडर ,महावर, लिपस्टिक, काजल, तेल, परफ़्यूम आदि के आवरण पर आवरण चढ़ाना नहीं भूलता। आधुनिक युग में तो सौंदर्य प्रसाधन केंद्रों में हजारों लाखों खर्च करके आवरण ही तो चढ़ा रहा है। जो सभी अस्थाई ही हैं। स्थाई आवरण त्वचा के ऊपर ये सभी नकली आवरण ठीक वैसे ही हैं, जैसे किसी रजाई,गद्दे का कवर या तकिए के गिलाफ़ हों। प्रकृति औऱ प्राकृतिक में मरते हुए मानव के विश्वास का ही परिणाम है कि वह आवरण पर आवरण चढ़ाए जाने के बावजूद संतुष्ट नहीं है। 

  मानवीय सभ्यता का तकाज़ा है कि वह सभ्यता के साथ समाज में रहे। इसलिए चमड़े पर कपड़े भी आ गए।रंग -बिरंगे , छोटे -बड़े, ढीले- कसे हुए,मोटे या पारदर्शी (जिनके पहनने अथवा न पहनने का कोई अर्थ भले न हो।) ;पर क्या किया जाए ,फैशन के नाम पर ये आवरण भी लादने ही हैं। देह - दिखाऊ सभ्यता का अपना एक अलग आकर्षण है। तभी तो विवाह- बारातों में कड़कड़ाती भीषण ठंड में भी स्लीवलेस ब्लाउज, स्वेटर, कार्डिगन विहीन देह दर्शन नई सभ्यता का परचम ही तो हैं। इससे कम पर कोई समझौता नहीं करती कोई नारी। भले ही हो जाए , कोई भारी बीमारी।

   चलते -चलते बहुत से मानवीय आवरणों के साथ दमड़ी के आवरण की बात भी हो जाए।दमड़ी एक ऐसा विशाल तंबू है ,जिसके नीचे एक दो नहीं , गाँव के गाँव ,नगर के नगर ,महानगर आवृत किये जा सकते हैं। कितना ही बड़ा पाप कर के दमड़ी की शरण में आ जाइये, आपका बाल भी बांका नहीं हो सकता। पुण्य तो प्रदर्शन के लिए ही जन्मे हैं। हाँ, पाप को आवरणों के नीचे ढँकना जरूरी है।उसके लिए पैसे रूपी आवरण का अविष्कार कर ही लिया है।बड़े से बड़ा पाप भी इस तंबू से बाहर अपनी टाँग नहीं निकाल सकता।उसे अपनी सारी टाँगें उसके भीतर ही समेट कर रखनी होंगी।समाज, धर्म ,राजनीति के हजारों लाखों पापों का शरण दाता ये दमड़ी टेंट ही तो है। जिसके नीचे हजारों रँगे सियार, लोमड़,लोमड़ियां, अश्व वेश धारी गदहे पूर्णतः सुरक्षित हैं। अब चोर की दाढ़ी में तिनका तो छिपा हुआ ही रहता है। किंतु यदि चोर कोई स्त्री हो अथवा चोर दाढ़ी विहीन हो , तब क्या ? तब के लिए भी पक्का इंतज़ाम किया हुआ है। तब तिनका उसकी दाढ़ में जरूर मिल ही जाना है।क्योंकि चोर कोई भी हो ,रोटी तो खाता ही होगा।इसलिए दाढ़ उसका अनिवार्य अंग है।


 सारांशतः यही कहा जा सकता है कि आदमी आवरण की एक आवश्यक आवश्यकता है। उसके बिना उसका जीवन नहीं,अस्तित्व नहीं। जब चिड़ियों को पंख, बिच्छू को डंक,घोंघे को शंख दिये हैं तो मानव को मनमाने आवरण से ढँकने का भी अधिकार नहीं है? आवरण आदमी की आब है, नक़ाब है, उसकी आभा है ।वह उसके अस्तित्व का अंग है।आवरण से ही तो उसके जीवन में रंग है ,तरंग है। आवरण से ही उसका सत्संग है। आवरण से नेता ,सिपाही, दरोगा, दीवान, सिविलियन सबकी पहचान है। आवरण ही तो उड़ता हुआ निशान है।जो उसे पहचानने का एक साधन है। वही उसकी भक्ति है ,आराधन है। 

 🪴 शुभमस्तु ! 

 २९ जून २०२२◆६.००पतनम मार्तण्डस्य।


 

मंगलवार, 28 जून 2022

अतीत की सतीतता और आज ! 🪷 [ लेख ]

 

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 ✍️ लेखक © 

 🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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         पीछे !पीछे !! पीछे !!! और पीछे झाँक कर जब देखता हूँ;तो अतीत दिखाई देता है।अपने सात दशक पूर्व के अतीत की झाँकी में जिस तीत के दर्शन होते हैं,आज उस तीत का दुर्भिक्ष काल चल रहा है।चाहे भौतिक रूप से देखें,सामाजिक, भावनात्मक , धार्मिक अथवा सांस्कृतिक रूप से सिंहावलोकन करें ,तो तीत तो बस अतीत में ही दिखाई देती है। आर्द्रता का वह 'सतीत- काल' अब किसी भी क्षेत्र में दृष्टिगोचर नहीं होता। इन्हीं में से कतिपय बिंदुओं पर विचार करना आवश्यक प्रतीत होता है। 

               सबसे पहले भौतिक जगत की ओर दृष्टि डालते हैं तो पाते हैं कि पावस ऋतु में जो वर्षा होती थी ,आज उसका दस प्रतिशत भी जल वर्षण नहीं होता।आषाढ़ का मास लगते ही आकाश मंडल काले भूरे मेघों से भर जाता था। मेघों की श्यामलता से दिन में भी अँधेरा छा जाता था।कुछ ही दिनों में बादलों की गड़गड़ाहट, बिजली की गर्जन और चमक के साथ वर्षा प्रारम्भ होती तो एक एक पखवाड़े रुकने का नाम नहीं लेती थी। थोड़ी देर के अंतराल के बाद जो वर्षा होती ,तो गोबर से लिपे पुते गाँव के आँगन, छतें ,गलियाँ, पनारे , नालियाँ, नाले ,दगरे ,खेत , वन, उपवन,नदियाँ, नहरें, बम्बे आदि सभी कुछ पानी पानी होते दिखाई देते थे। सात दशक पहले बरसते पानी में नहाने, आँगन में लोटने,पनारों के नीचे खेलने ,गलियों में उछलने कूदने का जो आनन्द लिया , उसे फिर नहीं देखा गया। वृद्धावस्था की ये आयु पाने के बाद स्वयं तो वह आनन्द नहीं ले सकते ,किंतु आज की नई पीढ़ी तो उस समय के आनन्द की कल्पना भी नहीं कर सकती।यद्यपि उस समय आज जैसी आर्थिक समृद्धि नहीं थी ,फिर भी आदमी संतुष्ट था ,प्रसन्न था। चाहे वह किसान हो ,मजदूर हो,नौकरी पेशा हो ,आम स्त्रियाँ हों अथवा विद्यार्थी ; सभी आंनद मग्न जीवन यापन कर रहे थे। 

            घर गाँव के बाहर खेतों में ,मेड़ों पर , तालाबों में सब जगह एक नया उल्लासपूर्ण वातावरण का साम्राज्य था।रास्ते, मेड़ों, खेतों में रेंगती हुई वीर बहूटियाँ, केंचुए, अनेक प्रकार के कीट - पतंगे,तालाबों में टर्राते हुए मेढक ,चम -चम चमकते हुए जुगुनू वृंद आदि का अपना ही समा था। यह सब कुछ तीत अर्थात पानी की बहुतायत का चमत्कार था। जो वर्तमान में दुर्लभ ही नहीं असम्भव ही हो चुका है।कच्ची छतों,घूरों, मेड़ों औऱ जहाँ - तहाँ उगने वाले फंगस,गगनधूर,मकियाँ,कठफूले, कुकुरमुत्ते,नम दीवारों पर हरे -हरे मखमली स्पर्श का आनन्द प्रदान करते शैवाल आदि अब कहाँ? सांध्य काल में मनोहर इंद्रधनुष की छटा का आनंद अब कठिन हो गए हैं।यह बात अभी मात्र बरसात की ही की जा रही है। ये वह सुनहरा काल है ,जिसके आधार पर वर्ष की शेष पाँच ऋतुओं का सौंदर्य टिका होता है।शेष पाँच ऋतुओं के सौंदर्य का तो फ़िर कहना ही क्या है? वर्णनातीत ही है। 

               भौतिक जगत की एक नन्हीं - सी झाँकी के बाद जब आज के सामाजिक क्षेत्र में झाँकते हैं तो वहाँ भी मानवीय संबंधों की तीत की कमी ही कमी दिखाई देती है। उस अतीत में सभी के दुःख- दर्द में सम्मिलित होना प्रत्येक सामाजिक के जीवन का अहं हिस्सा होता था। परिचित या अपरिचित कोई भी हो ,उससे राम राम, नमस्कार ,प्रणाम करना हमारा संस्कार था ।अब हम केवल अपने मतलब से नमस्ते करते हैं।जिनसे मतलब है ,बस वही हमारे नमस्ते के दायरे में आते हैं। शेष तो ऐसे हैं ,जैसे अपरिचित ,अनजान ।उस समय के लोग विशाल हृदय थे ,तो आज संकीर्ण हृदय। हृदयहीन भी कहें तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी।आज स्वार्थ ही संस्कार है।सामाजिकता का तिरस्कार है ,बहिष्कार है।कोई किसी के कटे पर मूत्र विसर्जन करने को तैयार नहीं है ,यदि कर भी देता है ,तो उसे उस मूत्र का मूल्य भी चाहिए;जिसे लिए बिना वह पिंड छोड़ने को तैयार नहीं है।मूल्य विहीन समाज में अब आदमी का मूल्य दो दमड़ी का भी नहीं है।मूल्य केवल स्वार्थ का ही शेष है।यह युग मूल्यप्रधान नहीं , स्वार्थ प्रधान है।ढोंग,ढपली औऱ प्रदर्शन आज के युग में सर्व सम्मान के आधार हैं।भावों की तीत मर चुकी है। हृदय मात्र रक्त संचारक पम्प है , उसमें भावों का कोई स्थान नहीं है।

               संस्कृति औऱ धर्म ;ये सभी मानव मूल्यों और मानवीय भावों से जुड़ी हुई चीजें हैं। जब भाव ही मर चुके हैं ,तो संस्कृति और धर्म कैसे सतीत रह सकते हैं।धर्म का दिखावा औऱ संस्कृति का ढोल उस समय नहीं पीटा जाता था।उस समय धर्म में शुष्कता औऱ दिखावा नहीं था, जो आज दिखाई दे रहा है।आज धर्म व्यावसायिकता का केंद्र बन गया था। पुण्य से पाप कमाने का धंधा जोरों पर है। धर्म के नाम पर आदमी अंधा हो चुका है ,जिसका लाभ बड़े- बड़े महंत, गद्दीधारी ,ए सी वासी धर्म के साम्रज्य पर बैठे तथाकथित 'महापुरुष ' चला रहे हैं। भावों का अकाल धर्म , संस्कृति सबका बेड़ा गर्क कर रहा है।

 सब कुछ अर्थ अवलंबित हो चुका है ,तो अतीत की सतीतता कैसे आ सकती है? धर्म,राजनीति,समाज ,कर्म, यहाँ तक कि मौसम, ऋतुएँ, धरती ,बादल, वर्षा की तीत अतीत बन कर रह गई है। जिसकी वापसी की संभावना दिखाई नहीं देती । पता नहीं कि मानव औऱ मानव से सम्बद्ध सभी कुछ उसे किस शुष्कता की ओर ले जा रहे हैं। जब मनुष्यता ही नहीं रहेगी तो विनाश की ओर जाना एक प्राकृतिक न्याय की ओर पदार्पण ही तो होगा।जिसकी परवाह न किसी धर्म धुरंधर को है, न संस्कृति विद को। राजनेता को तो अपनी कुर्सी की दो रोटियां सेंकने से मतलब है। उनके जाने चाहे मनुष्य जाए भाड़ में या देश रसातल में,अथवा सारी सृष्टि अशेष हो जाए। उसे नहीं पता कि सूखे आटे से तो रोटियाँ भी नहीं बनतीं। 

 🪴 शुभमस्तु ! 

 २८ जून २०२२◆ ७.००पतनम मार्तण्डस्य।


धान -पौध धर स्कंध 🌱 [ दोहा ]


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✍️ शब्दकार ©

🌱 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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कंधे  पर  रख पौध को, जाता खेत किसान।

पानी  टपके   मूल  से,  रोपेगा वह    धान।।


डंडे  के  दो  छोर  पर, पौध लटकती  मीत।

रोपेगा जब  खेत  में,कृषक मानता  जीत।।


धान- पौधशाला  सजी,सघन पौध  से आज।

मूल सहित लाया अभी,फसल बने सुखसाज


टप -टप  टपके मूल से,पानी अविरल  बूँद।

चला जा रहा खेत की,मेंड़ कृषक चख मूँद।


हरा - हरा हर खेत है, हरी मेंड़  पर  घास।

हरी पौध काँधे रखी,नई फसल  की  आस।।


देता  सबको  अन्न वह,भारत वीर  किसान।

जाता है निज खेत पर,होते कनक- विहान।।


आओ हम स्वागत करें,शुभं कृषक का मीत।

जीता नित्य अभाव में,फिर भी उसकी जीत।


🪴 शुभमस्तु !


२८ जून २०२२◆१.००पतनम मार्तण्डस्य।


छाया चाहे छाँव 🌳 [ दोहा ]

  

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✍️  शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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दादुर    बोला    दादुरी,  आई पावस   रैन।

मेघ अभी बरसे नहीं,मिले न पल  भी चैन।।


अवधि गई आषाढ़ की,आधी गिरी न  बूँद।

सिर के ऊपर उड़ रहे, बादल आँखें  मूँद।।


कूक-कूक कोकिल थके,अब बैठे धर मौन।

अमराई  में शाख पर,झूल रही अब  कौन!!


पक कर पीले पड़ गए, अमराई  में   आम।

टप-टप कर गिरने लगे,नित्य भोर निशि शाम


धरती  प्यासी ऊँघती,है मावस    की  रात।

पुरवाई  चुपचाप-सी, करती  है  क्या  बात!!


पूरब  से  पच्छिम   चले, फूफा  फूले  गाल।

बादल नभ  में  टहलते, वर्षा बिन बदहाल।।


बरसा  एक न  दोंगरा, धरती प्यासी   मौन।

पड़ीं  दरारें  देह  में,  बहे न शीतल   पौन।।


छाया को भी  छाँव  की,लगी हृदय में चाह।

मौन नीम वट शिंशुपा,निकल रही है आह।।


रहा तमतमा भानु का,मुखमंडल नित गोल।

पल्लव हिले न एक भी,नहीं रहे तरु डोल।।


सरिताएँ  कृशकाय हैं, सर में पड़ी  दरार।

तेज धूप  व्याकुल करे,बादल हुए  फरार।।


पानी - पानी रट रहे,मानव पशु  खग धीर।

मुरझाए  पल्लव  लता,दिया न  पावस नीर।।


  🪴 शुभमस्तु !


२८ जून २०२२◆९.३० आरोहणम् मार्तण्डस्य।

समय ⏰ [ मुक्तक ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🌻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                         -1-

सदा     समय     है      ईश    हमारा,

सुरसरि    की     ज्यों    शीतल  धारा,

भरती      है       आनंद     देह     उर,

ज्यों    रजनी     में      हो   ध्रुव  तारा।


                         -2-

समय -   समय    की   अलग  बात   है,

कभी     दिवस    तो     कभी रात    है,

समय   किसी    का    नहीं एक  -  सा,

होती    शह      तो      कभी  मात    है।


                         -3-

भूलो      कल     मत    कभी आज    भी,

कभी    चने     भर       कभी   ताज  भी,

चलती   लहर    समय   की  हर    पल ,

समय       सजाता    'शुभम्'  साज    भी।


                            -4-

समय     कभी      बरबाद    न    करना,

रुकता      नहीं    समय    का     झरना,

बूँद    -     बूँद      से      सागर   भरता,

समय  -    सिंधु       के     पार  उतरना ।


                         -5-

जो      न     समय    की चिंता   करता,

नहीं      समय     उससे     फिर  डरता,

क्या      होगा    भविष्य      नर     तेरा,

शीघ्र     पाप      से    तव   घट    भरता।


🪴 शुभमस्तु !


२८ जून २०२२◆११.४५ आरोहणम् मार्तण्डस्य।


सोमवार, 27 जून 2022

कल्पना 🦢 [ गीतिका ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🦚 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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गहन         कल्पना   -  निर्मित   सारा।

सृजन    सृष्टि      का     हुआ हमारा।।


मन    की   शक्ति     अपार  न   जाने,

कोई ,      सागर         रत्न    हजारा।


अंबर     में       रवि,     सोम, सितारे,

खोज    मनुज     नभ   -  गंगा   हारा।


अंत    नहीं      विज्ञान     शोध   का ,

ललित     काव्य     में    ज्ञान पसारा।


स्वप्न       सँजोती        नित्य कल्पना,

प्रभु  ने     जग     को    यहाँ उतारा।


अद्भुत     जीव,    जंतु,   पशु ,  पक्षी,

जनित       कल्पना      रूप  उभारा।


'शुभम्'    अकथ       है     गूढ़  कल्पने!

तुमसे        हमको         सबल  सहारा।


🪴 शुभमस्तु !


२७ जून२०२२◆२.३० पतनम मार्तण्डस्य।


नहीं करें भेड़ों से यारी 🐏 [ बाल गीतिका ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🐑 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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नहीं       करें        भेड़ों       से    यारी।

चलें     चाल      अपनी     हम   सारी।।


सोचे   -     समझे     बिना   न   चलतीं,   

भेड़   -     चाल      है     सबसे  न्यारी।


देखो         एक,     एक       के    पीछे,

चली     जा      रहीं      पंक्ति    सँवारी।


गर्दन     नीचे     झुकी     सभी      की,

लगती       चाल   बड़ी     ही    प्यारी।


एक      कूप     में      यदि  गिरती   है,

गिरतीं    सब       ही      बारी  - बारी।


सीखें       उठा       तान    कर    ग्रीवा,

चलने       की        तब       हो  तैयारी।


भेड़         नहीं     बनना    मानव    को,

बुद्धिमान      हों      सब      नर  -  नारी।


' शुभम्'         आचरण    मानव    जैसा,

करें        सभी ,     मत    मेष  बिचारी।


🪴 शुभमस्तु !


२७ जून २०२२◆ १०.३० आरोहणम् मार्तण्डस्य।


आचारवती नारी (सजल ) 🧕🏻

 

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समांत : आरी।

पदांत:  है।

मात्राभार: 16.

मात्रा पतन: शून्य।

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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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दृढ़             आचारवती      नारी   है।

नर     से     सदा      रही   भारी    है।।


देती        सदाचरण      संतति     को,

नारी        हितकर     सुखकारी      है।


कहें    न   अबला    अब   नारी     को,

घर  -   घर     में     वह   अवतारी   है।


पूरक        जग    में       युगल परस्पर,

संतति      की      आभा    सारी       है।


एक      हाथ     से      बजे   न    ताली,

दो    करतल      की   ध्वनि  जारी     है।


मिलन       रात     का    दिन  से    होता,

मधुर        चंद्रिका      प्रतिहारी        है।


'शुभम्'    विनाशक  अहम सभी    का,

युगल         जीव      का    आचारी    है।


🪴 शुभमस्तु !


२७ जून२०२२◆६.३०

आरोहणम् मार्तण्डस्य।

मानव- जीवन उपन्यास है!📙 [ गीतिका ]


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✍️ शब्दकार ©

📙 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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मानव       -      जीवन     उपन्यास     है।

हम   सब    के   नित   आस- पास    है।।


बहु     चित     पात्र     मिलेंगे  पथ     में,

बद   - सुंदर       का     सघन न्यास    है।


मीत      अपेक्षा      मत      रख    सबसे,

जीवन         तेरा    वृत्त -   व्यास        है।


साथ            कौन         होगा  आजीवन,

निज   तन  - मन   से   सफल आस     है।


मात ,      पिता    गुरु     संतति       दारा,

इन      सबसे     जीवन -  विकास      है।


मिल        जाएँगे        कुछ    राहों      में,

कुछ        बिछड़ेंगे        बात खास      है।


जटिल       कथानक,   देश - काल       में,

भाषा      -     शैली      का  उजास      है।


पात्र,       चरित,     परिवेश,  वायु,   जल,

आना     ही      है       तुझे    रास      है।


नायक    ' शुभम्'        रहेगा    तू       ही,

तेरी       ही      तो      शुचि  सुवास    है।


🪴शुभमस्तु !


२६ जून २०२२◆ ७.००पतनम मार्तण्डस्य। 


रविवार, 26 जून 2022

सुख का नशा निधान! 🍷 [ दोहा गीतिका]


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✍️  शब्दकार ©

🍺 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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सभी नशे में चूर हैं,अलग सभी  की शान।

लेता कोई रात  - दिन,कोई मात्र  विहान।।


कोई  मदिरा  लीन है,कोई काम - प्रवीण,

दामोदर  के दास  हैं, लख लाखों  इंसान।


नारी को नर-कामना,निशि दिन रहे अधीर,

नर को  नारी  चाहिए, सारा जगत  प्रमान।


नशा  तँबाकू का करे,गाँजा चरस   अफीम,

हैरोइन  के  हीर  भी, करते नहीं    बयान।


कोई   कोने  में  छिपा, भरता वीर  गिलास,

सँग में है नमकीन भी, महफ़िल में गुणगान।


धीर वीर का नालियाँ, करतीं स्वागत नित्य,

शूकरवत   औंधे  पड़े,  छेड़ें इंग्लिश   तान।


नशे - नशे  का भेद है,अलग स्वाद - संवाद,

'शुभं' बुरा कहना नहीं,सुख का नशा निधान।


🪴 शुभमस्तु !

२६ जून २०२२◆४.१५ पतनम मार्तण्डस्य।



यादों के वे दिन 🏕️ [ गीतिका ]


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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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यादों        के         वे    दिन  आ      पाते।

कमल          सरोवर       में     छा   जाते।।


माँ               मेरी           फेरती      मथानी,

गप    -     गप     कर   लवनी   खा   जाते।


गर्म       दूध       गुड़       की   ढेली    सँग,

जब       सोते         हम      पिता  पिलाते।


अधिक       न      पढ़ना   ज्योति     घटेगी,

दादी             के          उपदेश      बताते।


बाबा            लाए      कोट    हरा       रँग,

पहन     जिसे        हम     हर्ष       मनाते।


नीली         नेकर       शर्ट      दूध   -   सी,

चाचाजी                    मुझको   सिलवाते।


'शुभम्'           अकेला      बड़ा       लड़ैता,

सब       घर         वाले     लाड़      लड़ाते।


🪴शुभमस्तु ! 


२६ जून २०२२◆४.१५ आरोहणम् मार्तण्डस्य।

शनिवार, 25 जून 2022

किसको अपना माने! 🥨 [ गीतिका ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🥨 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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रे         मन !      किसको    अपने    माने।

खेल              सुहाने       सपने      जाने।।


यहाँ           वहाँ        हर    ओर    अपेक्षा,

सब         ही         तंबू      इतने      ताने।


पल्लव    -  दल      कब  हिलते   यों    ही,

मारुत            झोंके         बने      बहाने।


काम    -      बंध        बंधित   नर -  नारी,

चित   -    पट        हैं     वे   चारों -  खाने।


कारण      एक     धरा ,  नभ , जल     में,

पीछे          एक,        एक     के     आने।


कोमल      सूत्र       जोड़ता   जग       से,

वरना              बिखरे      ताने   -    बाने।


'शुभम्'     न      यों    ही   कूके  कोकिल,

मोर           नाचते          प्रिया    रिझाने।


🪴 शुभमस्तु !


२५ जून २०२२◆२.३० 

पतनम मार्तण्डस्य।


स्वतः आकलन कर देखें! 🌳 [ गीतिका ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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धोखे      में     रख      किसको      जीते?

छिप -  छिप     छद्मी   रस   को      पीते।।


बहुआयामी                    रूप    तुम्हारा,

कहीं            रागिनी         कहीं    पलीते।


कहीं          देवता       मन -   मंदिर    के ,

उर      में      भाव     नहीं     पर     तीते।


मानव   -     जीवन      जटिल    कहानी,

कहीं       भरे        घट     में    भी    रीते।


मुख        देखे         की     प्रीति  तुम्हारी,

मिलते           नहीं          सदा   मनचीते।


मुख      के      बोल    और   ही   निकलें,

सदा     नहीं      कहते     कुछ     ही ते।


'शुभम्'          आकलन     करके    देखें,

कैसे         दिन       अतीत     के    बीते।


🪴शुभमस्तु !


२५ जून २०२२◆१२.३०

पतनम मार्तण्डस्य।

देह अथवा देही! 🪷🪷 [ गीतिका ]


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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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मात्र       देह     मैं      या     हूँ        देही।

यद्यपि     हूँ   बस     तन    का     नेही।।


जिसको      कहता     हूँ   मैं   'मैं'      'मैं',

रहता      बन      कर     तन    में    मेही।


साधु ,     संत ,    सु - विशेष  मनुज   हो,

रह      जाता      जग       में   बन    गेही।


प्रति       क्षण    बहती    जीवन - सरिता,

मन         ही        मानव       तेरा   खेही।


रविकर      से     क्यों      भय खाता    है,

आजीवन                    रहता    तमगेही।


वसन     रँगे      मन      रँगा    न      कोई,

कितने          हुए          विदेह    विदेही ?


'शुभम्'        जान        देही   नर    अपनी,

दूर      हटा       तम      उर   का      तेही।


देही =आत्मा।

नेही=प्रेमी।

मेही=महीन, सूक्ष्म।

गेही=गृहस्थ।

खेही =नाविक।

तमगेही=तम रूपी घर का वासी।

विदेही= देह रहित।

तेही=क्रोधी।


🪴शुभमस्तु !


२५ जून २०२२◆८.०० आरोहणम् मार्तण्डस्य।

शुक्रवार, 24 जून 2022

हम ही हैं इतिहास-विधाता 💎 [ गीतिका ]


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✍️ शब्दकार ©

💎 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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हम          अपने       इतिहास - विधाता।

भले    न       अक्षर    लिखना    आता।।


वर्तमान           आँखों         के      आगे,

भावी        का         है      वह    निर्माता।


जीवन             में      पगडंडी   अनगिन ,

जो       भटका    फ़िर    राह  न    पाता।


पर       उपदेश     कुशल     जग    सारा,

स्वयं      न       करता       राह    बताता।


गली     -    गली      में    पंडित     ज्ञानी,

धन      का      लोभी      ज्ञान     जताता।


ढोंग     पुण्य      का     आम   यहाँ    पर,

छिपा     -   आवरण        पाप   कमाता।


'शुभम्'       अग्निपथमय   जीवन       है,

चलें       सँभल   कर      क्यों   पछताता।


🪴 शुभमस्तु !


२४ जून २०२२◆८.३०

 पतनम मार्तण्डस्य।

जीवन की किताब को खोलो 📙 [ गीतिका ]

 

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✍️ शब्दकार ©

📙 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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जीवन          की      किताब     को   खोलो।

उचित            सदा        वाणी तुम   बोलो।।


ग्रंथ          नहीं         कोई      पढ़ना      है,

सच       को        सुलभ      तराजू    तोलो।


उपदेशक            कहते      सब      अपनी,

स्वयं         विचारो    विष    मत      घोलो।


उचित      नहीं      भटकाव भँवर         में,

राजमार्ग      तज      वृथा      न     डोलो।


सदा        कुसंगति      से     है        बचना,

उचित     खेत     उपवन       में     हो   लो।


पछताना          क्यों      पड़े   बाद        में,

जा    तम     भरे     कक्ष     में        रो लो।


'शुभम्'       समझ     कर   कदम   बढ़ाओ,

स्वेद   -     सलिल       से   आनन    धो लो।


🪴शुभमस्तु !


२४ जून २०२२◆८.००

पतनम मार्तण्डस्य।

वेश अनमोल तुम्हारा 🙊 [ गीतिका ]


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✍️ शब्दकार ©

🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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पहला      हित        अपना    ही    होता।

फसल      काटता       जो    नर   बोता।।


पर       -      उपकारी     कितने    जन्मे,

नेता           घड़ियाली        दृग      रोता।


राम    -    राम        जपता    माला     से,

नित्य       माल       के      मनके     पोता।


वंश       जाति       है     पहले       सबसे,

कनक         कामिनी        सबल   सँजोता।


मंदिर            में         घंटा     भी    बजता,

तीर्थराज          में            लेता        गोता।


देशभक्ति          की     खाल  ओढ़       ली,

यद्यपि               भीतर       बैठा     खोता।


'शुभम्'           वेश       अनमोल    तुम्हारा,

पर        हमाम        में      नंगा       होता।


🪴 शुभमस्तु !


२४ जून २०२२◆१.००पतनम मार्तण्डस्य।


अपनी - अपनी नाव 🚣🏻‍♀️ [गीतिका ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🚣🏻‍♀️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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अपनी      -    अपनी      नाव  हमारी।

चलें          चलाएँ          कर  तैयारी।।


कभी       भँवर       पड़ते    सरिता  में,

नैया          ले          हिचकोले     भारी।


नहीं           दीखता          कहाँ  किनारा,

फिर       भी        बढ़ती     रहे    सवारी।


पतवारों             का         रहे   भरोसा,

केवट      हैं         सारे       नर -  नारी।


सबकी          अपनी      अलग   कहानी,

पति     -    पत्नी       पितुवर महतारी।


दो  -  दो      हाथ     पैर      दो    सबके,

दो   -  दो    कान    आँख    दो    न्यारी।


'शुभम्'         जोंकवत     रक्त  न     पीना,

महका      निज       उपवन   की   क्यारी।


🪴 शुभमस्तु !


२४ जून २०२२ ◆९.०० आरोहणम् मार्तण्डस्य।

शोध नाम है जीवन का 🦚 [ गीतिका ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🦚 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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सागर           की        गहराई       जाना।

मुक्ता       तभी        खोजकर     लाना।।


बैठा         रहा         किनारे    पर    नर,

सीप       न       घोंघे      उसको     पाना।


शोध       नाम      है       इस   जीवन  का,

उन्नति       के       हित     स्वेद    बहाना।


उपला        स्वयं         खाक      हो  पहले,

राख       स्वयं       हो     आग     बुझाना।


अपना      लक्ष्य          आप     ही    देखें,

अवरोधक        बन      पास   न     आना।


जितनी        हिना       घिसी  पाहन   पर,

घर्षक         हाथों             को   रँगवाना।


'शुभम्'      देख       अपने    ही   पथ  को,

उचित      न       बिल्ली    का खिसियाना।


🪴 शुभमस्तु !


२४ जून २०२२◆ ८.१५ आरोहणम् मार्तण्डस्य।


गहराई 🎖️ [ अतुकांतिका ]


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✍️ शब्दकार ©

🎖️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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गहराई में उतरा जो

क्या कभी

 रिक्त हस्त लौटा?

मिले हैं उसे सदा

शंख, सीप, घोंघा,

यदि रहा उसका

 प्रयास और भी गहन

तो उसे मिले हैं मुक्ता।


सागर के किनारे पर

पड़े रहने वाले 

बहाने में मस्त बहने वाले

चाहते रहे 

बिना परिश्रम के ही

गरम मसाले,

समय के साँचे में

जिसने भी

अपने तन मन

कदम ढाले,

मिले हैं उन्हें

परिणाम भी निराले।


जो चलता है

वही गंतव्य पर भी

जा पहुँचता है,

चलते रहने का नाम

जीवन है,

उन्हीं के लिए

ये जिंदगी उपवन है,

अन्यथा बेतरतीब 

बिखरा हुआ वन है।


स्वयं स्वत:

 निर्माण के लिए है,

प्रकृति प्रदत्त ये देह,

बरसाएं इसकी धरा पर

अपने ही स्वेद का मेह,

बना पाएंगे तभी

मानव जीवन को

निस्संदेह सु -गेह,

परिजन औऱ पुरजन

करने लगेंगे 

स्वतः तुम्हें नेह।


वैशाखियों से कौन

कब तक चला है,

बना है जो परजीवी

उसने अपने को

निरंतर छला है,

निज स्वेद का मूल्य

पहचानें,

तभी अपने भावी को

वर्तमान को 

'शुभम्' मानें।


🪴 शुभमस्तु !


२४ जून २०२२ ◆५.३० आरोहणम् मार्तण्डस्य।

गुरुवार, 23 जून 2022

प्रशंसा' की झील में मेरा उतरना! 🌌 [ व्यंग्य ]


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✍️ व्यंग्यकार © 

🌌 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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     महात्मा कबीरदास की एक प्रसिद्ध साखी है :'जिनु खोजा तिन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ। हों बौरी ढूंढ़न गई,रही किनारे बैठ।।' समुद्र की गहराई में अनेक तैराक लोग डुबकी लगाते हैं ;किंतु किसी के हाथ में मोती आते हैं तो किसी को केवल शंख,सीप, घोंघा के पाने भर से ही संतुष्ट होना पड़ता है।आध्यात्मिक भाव से इस दोहे का भाव ग्रहण करने पर मोती, मुक्ता अर्थात मुक्ति (मोक्ष) हो जाता है औऱ शंख ,सीप औऱ घोंघा संसार की अन्य सामान्य वस्तुओं के रूप में मान्य किया जाता है। यह तो हुईं सागर और भव- सागर की बातें । अब अपने मंतव्य की असली बात पर ध्यान केंद्रित करते हैं।

          किसी सागर विशेष में तो नहीं ;एक छोटी - सी झील की गहराई में अवगाहन करने का प्रयास इस अकिंचन ने भी किया। उसने जो कुछ भी प्राप्त किया ,उन्हें सुनकर आप चौंक अवश्य जाएँगे।प्रशंसा एक ऐसी गहरी औऱ विलक्षण झील है कि इसमें जितना नीचे जाएंगे ,उतने ही मोती भी भरझोली ले आएंगे ।मुझे भी मिले।जिन्हें आपको दिखाना चाहता हूँ। जब मैंने देखे हैं तो आप भी दर्शन- लाभ करें। 

        ये संसार सच से अधिक झूठ से संतुष्ट रहता है। यदि झूठ और सच दोनों में से एक को चुनना हो ,तो उसके चयन की प्रथम वरीयता झूठ की होती है। भले ही उसके कारण उसे कष्ट उठाना पड़े, संकट में पड़ना पड़े, जेल भी जाना पड़े; किन्तु पहले वह सच को नहीं ;झूठ को ही चुनेगा।कोई भी किसी की प्रशंसा कर रहा हो ;उसमें आधे से अधिक झूठ की पॉलिश, चमक- दमक, गमक,महक, लहक,चहक होती ही है। और अनिवार्य रूप से होती है। अब चाहे वह क्रीम ,पाउडर, साबुन ,मंजन ,लिपस्टिक, मंजन, टूथ पेस्ट, कॉस्मेटिक्स आभूषण, वस्त्र आदि का विज्ञापन हो अथवा किन्हीं नेताजी के गुणों का गायन। चाहे किसी वर की तलाश में मध्यस्थ द्वारा किसी लड़के को लड़की वालों द्वारा दिखवाया जा रहा हो अथवा किसी लड़की को विवाह हेतु उसका गुणगान किया जा रहा हो।

                   'प्रशंसा' से खून बढ़ता है।खून का दौरा भी तेज होता है।आदमी फूल कर यों कुप्पा हो जाता है ,जैसे रबर के पिचके हुए ट्यूब में हवा भर दी गई हो।   इस   प्रशंसा   ने  आदमी  के बड़े -बड़े काम  किए हैं।  उन्हें  मूर्ख   से महापंडित,महाज्ञानी सिद्ध किया है। भले ही कुछ ही देर के लिए हो। पर इससे असंभव भी संभव होते हुए देखा गया है।कालिदास और विद्योत्तमा का उदाहरण हम सबके समक्ष है।पंडितों द्वारा की गई झूठी प्रशंसा ने एक मूर्ख औऱ जड़बुद्धि को विद्वान सिद्ध करते हुए विदुषी विद्योत्तमा से परिणय करवा दिया। यह चमत्कार प्रशंसा का ही था।

        दुनिया के किसी भी विज्ञापन में झूठी प्रशंसा के अतिरिक्त होता ही क्या है! बड़े -बड़े साँचाधारी करोड़ों में उन झूठे विज्ञापनों को करके नित्य की अपनी रोटी उपार्जित कर रहे हैं औऱ सब कुछ जानती हुई 'समझदार' जनता को मूर्खता की चाशनी से माधुर्य प्रदान कर रहे हैं।कौन नहीं जानता कि संसार की किसी भी गोरा बनाने वाली क्रीम से कोई गोरा नहीं हो सकता।फिर भी जानबूझकर मूर्ख बनना आदमी की हॉबी है।यदि ऐसा होता तो भारत भूमि समस्त भैंसवर्ण के नारी- नर, युवा प्रौढ़ ; दूध जैसे गोरे चिट्टे हो जाते! अफ्रीका में एक भी हब्शी श्याम तवावर्ण नहीं मिलता ।गोरा बनाने वाली क्रीम जो है न ! विज्ञापन रूपी प्रशंसा की यही खास बात है ,कि वह बुद्धिमानों की बुद्धि पर भी कलई पोत देती है।

            कौन नहीं जानता कि नेता न सच बोलता है औऱ न सच के आसपास भी फटकता है।किंतु आम जनता को ऐसी चटनी चटवाता है कि उसके सफेद झूठ को भी वह गाय, गंगा औऱ गायत्री जैसा पवित्र मानकर उसे वही करने देती है ,जो नहीं करने देना चाहिए। मतमंगे औऱ उनके आगे पीछे चलने वाले भेड़ छाप अनुगामी चमचे अंततः उनके झूठे विज्ञापन ही तो हैं। उनके प्रशंसक ही तो हैं। उनकी प्रशंसा में चार चांद लगाने का उनका महान दायित्व नेता को कहाँ से कहाँ पहुँचा देता है। जगह- जगह चौराहों पर किये जाने वाले उनके भाषण में भला झूठ के अतिरिक्त होता भी क्या है। कहना यह चाहिए कि राजनीति की नींव ही झूठ और झूठी प्रशंसा पर रखी गई है।

              साहित्यिक क्षेत्र में भी झूठी प्रशंसा का बोलबाला है। यदि किसी कवि की झूठी प्रशंसा कर दी जाए तो वह अपने को वाल्मीकि का अवतार समझने लगता है।किसी कवि को गिराने औऱ उठाने में समीक्षक की प्रंशसा की अहम भूमिका होती है।समीक्षक द्वारा किसी रचनाकार को उत्साहित अथवा हतोत्साहित करना उसके नित्य का बाएँ हाथ का खेल है।कोई समीक्षक किसी कवि के भविष्य को चौपट भी कर सकता है औऱ प्रशंसा के तिल का ताड़ बनाकर उसे हिमालय के उच्च शिखर पर भी आसीन करा सकता है। कोई समीक्षक किसी की समीक्षा में एक - दो शब्द की औपचारिक टिप्पणी करके अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता है तो किसी के लिए पूरी स्तुति - गायन करते हुए उसका चरणोदक पान करते हुए धन्य हो जाता है। यदि रचनाकार नारी है ,सुंदर भी है औऱ युवा भी है ,सुभाषिणी भी है ;तब तो कहना ही क्या है ! ताश के पुल पर पुल बनते चले जाते हैं।उसे साक्षात सरस्वती के उच्च आसन पर अधिष्ठित करना अनिवार्य ही हो जाता है।उसे संसार की अनेक दुर्लभ उपमाओं से सुसज्जित किया जाता है।यह सब समीक्षकों की प्रशंसा का ही चमत्कार है ,प्रतिफल है।

          इस देश में जिस व्यक्ति का अपना कोई चरित्र नहीं, ऐसे 'महापुरुष' ही नौकरी, शिक्षण संस्थान में प्रवेश के लिए आचरण औऱ चरित्र की उज्ज्वलता का प्रमाणपत्र देते हुए देखे जाते हैं।यहाँ पर चरित्र का अर्थ मात्र स्त्री पुरुष के जैविक सम्बन्धों की नियम विरुद्धता से ही लिया जाता है। उसके चोरी, गबन, रिश्वत खोरी, भृष्टाचारी आदि पहलुओं पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। हर पति के लिए उसकी पत्नी और पत्नी के लिए उसका पति सर्वाधिक चरित्रहीन होते हैं। फिर सारे जगत की क्या कहिए कि कौन कितना चरित्रवान है! वह क्या स्पष्टीकरण देगा अपने को चरित्रवान कहलवाने का? 

             वस्तुतः प्रशंसा बहुमुखी ,बहु आयामी, सकारात्मक भी ,नकारात्मक भी, पूरब भी पच्छिम भी ,उत्तर भी ,दक्षिण भी,आज भी ,कल भी अर्थात बहुत कुछ है। प्रशंसा पर संसार का सारा विज्ञापन जगत, विवाह जगत,नेता जगत, नर-नारी जगत और सहस्र फण धारी नाग की तरह सारी पृथ्वी टिकी हुई है। यदि प्रशंसा न होती तो बहुत सारे नर नारी कुँवारे ही रह जाते। विज्ञापन ही जिनकी जान है ,ऐसे धंधे ,उद्योग ,कल,कारखाने बंद नहीं होते ,खुल ही नहीं पाते। अकवि को कवि औऱ कवि को अकवि बनाने में प्रशंसा की अहम भूमिका है। यदि आपको भी उच्च कोटि का कवि बनना है तो कुछ समीक्षकों को मक्खन लगाइए अर्थात .....। 

 🪴 शुभमस्तु ! 

 २३ जून २०२२ ◆ ५.४५ पतनम मार्तण्डस्य। 

तड़पे एक बीजुरी नभ में ⚡ [ गीत ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🌈 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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तड़पे   एक   बीजुरी  नभ  में,

सौ -  सौ   बीच     हिए   मेरे।

सावन  भादों  के  घन   उमड़े,

बीती    अवधि  न   पी   हेरे।।


मन  की  बातें   मन   में   मेरे,

किससे  कहूँ    कहाँ    जाऊँ।

अंतरंग   है     कौन    सहेली,

जिससे  मन की  कह  पाऊँ।।

करती हैं  परिहास  पड़ोसिन,

रहतीं    सुबह  - शाम    घेरे।

तड़पे  एक   बीजुरी   नभ  में,

सौ  -  सौ   बीच   हिए   मेरे।।


गरजें   जब  बादल  अंबर  में,

थर - थर  काँपे  हिया  सजन।

सौतन   कौन   बनी   है  मेरी,

मैं  बैठी  क्या   करूँ भजन??

सात  वचन  देकर   हे प्रीतम,

सात     लिए     तुमने    फेरे।

तड़पे   एक  बीजुरी  नभ  में,

सौ -  सौ   बीच    हिए   मेरे।।


'उर  में  सजा  रखूँगा सजनी,'

वादे     किए    हजारों    तुम।

मैंने  क्या   अपराध   किए  हैं,

जिसकी सजा मिली हरदम।।

एकाकी  दिन -  रात  काटती,

धर्म -  संकटों        के     घेरे।

तड़पे   एक   बीजुरी  नभ  में,

सौ - सौ   बीच     हिए   मेरे।।


प्यासी  धरती   तृप्त   हो गई,

हरे  - हरे     अँखुए      आए।

पावस   के   घन बरस रहे हैं,

प्यास  न  सजन बुझा  पाए।।

अमराई    में   झूलें   सखियाँ,

कहतीं     कहाँ    पिया   तेरे।

तड़पे  एक   बीजुरी   नभ में,

सौ -   सौ   बीच  हिए   मेरे।।


भीगी चुनरी- चोली सखि की,

देख    हिए   में   आग    लगे।

बड़भागिनि वे पिय की प्यारी,

सबके   ही   शुभ भाग जगे।।

'शुभम्'अभगिनि  हूँ  मैं कैसी,

कोल्हू     बिना    गए     पेरे।

तड़पे  एक बीजुरी    नभ  में,

सौ -  सौ   बीच   हिए    मेरे।।


🪴 शुभमस्तु !


२३ जून २०२२◆१०.००आरोहणम् मार्तण्डस्य।

बुधवार, 22 जून 2022

संतुलन 🏋🏻‍♀️ [ मुक्तक ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🏋🏻‍♀️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                         -1-

रात दिन के संतुलन से है प्रकृति शुभदा सदा

उदित होते सोम सूरज हैं न विचलित एकदा

बह रही सरिता सजीली सिंधु से मिलना उसे

गूँजती  वीणा  सुरीली,विमल वाणी  शारदा।


                         -2-

शुभ्रतम जीना अगर तो संतुलन अनिवार्य है

अग्रसर  हो  कर्मपथ पर धर्म तेरा  कार्य  है

दूसरों के छिद्र में क्यों डालता है   अँगुलियाँ

राह मेंअपनी चला चल शिष्य या आचार्य है।


                         -3-

पित्त कफ या वात तीनों संतुलन होना सही

विषम भोजन रोगकारी दूध के सँग ज्यों दही

मास दो - दो के लिए आ जा रहीं ऋतुएँ यहाँ

याद रखना बात सच ये जो शुभम् ने है कही


                         -4-

भू गगन जल वायु पावक से जगत साकार है

संतुलन विकृत हुआ तो विश्व ये  बीमार   है

सृष्टिकर्ता की महारत देखिए अद्भुत  अटल

आँधियाँ, भूकंप , बाढ़ें  ले  रहीं आकार   है।


                         -5-

संतुलन परिवार में हो संतुलन हो   देश   में

संतुलन  संसार में  हो  विश्व में  परदेश  में

होड़  भी हथियार  की ये हो नहीं  संसार  में

शांति का साम्राज्य होगा भूमि के हर देश में।


🪴शुभमस्तु !


२२.०६.२०२२ ◆१०.००आरोहणम् मार्तण्डस्य।


दो - दो खरहे पाले 🐇 [ बालगीत ]


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✍️ शब्दकार ©

🐇 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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मैंने   दो  -   दो  खरहे   पाले।

आधे     गोरे    आधे   काले।।


घर  भर में   वे   दौड़  लगाते।

दिखते कभी कभी छिप जाते।

चिकने  बाल  सरकने  वाले।

मैंने   दो - दो   खरहे   पाले।।


सुबह  सैर  को मम्मी जातीं।

घास नोंचकर उनको लातीं।।

मैं  कहता  ले  खरहे  खा ले।

मैंने  दो  -  दो  खरहे  पाले।।


कूकर   बिल्ली  से  वे डरते।

दौड़ भागकर छिपते फिरते।।

बंद   किए   कमरे   के ताले।

मैंने  दो -  दो   खरहे   पाले।।


सब्जी  के  छिलके  तरबूजा।

खा   लेते   हैं  वे   खरबूजा।।

खाते   खीरा  बिना   मसाले।

मैंने   दो  -  दो  खरहे  पाले।।


शश की देखभाल हम करते।

नहीं किसी गृहजन से डरते।।

नाम   रखे   हैं    गोरे   काले।

मैंने   दो  -  दो  खरहे  पाले।।


🪴शुभमस्तु !


२१ जून २०२२◆१.४५

पतनम मार्तण्डस्य।

पावस ऋतु मनभावनी 🌈 [ दोहा ]


[पावस,बरसा,फुहार,खेत,बीज]

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✍️ शब्दकार ©

🌈 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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         🌳 सब में एक 🌳

आसमान नीला नहीं, छाए सित   घन   घोर।

रिमझिम पावस नाचती,गीत लीन पिक मोर।

पावस ऋतु झरझर करे, उधर विरह का नीर

विरहिन के दृग से झरे, टीस रही  उर  पीर।।


बाहर आ सखि देख तो,बरसा निर्मल नीर।

झुक-झुक बादल आ गए,कलरव करते कीर

प्यासी धरती देखकर,द्रवित हुए  घन  मीत।

बरसा जल आषाढ़ में,बढ़ी धरा  की  तीत।।


नन्हीं   बूँद फुहार  का, लेना   हो    आंनद।

चलो मीत  बाहर चलें,बरस रहे    घन  मंद।।

सखि फुहार बढ़ने लगी,चिपकी चोली देह।

बंद  करें अब झूलना,चलतीं हैं निज गेह।।


पावस ऋतु मनभावनी,शेष नहीं  अब  रेत।

बरस  रहे हैं मेघ  दल,भरते सरिता  खेत।।

सावन बरसा देखकर,मन में मुदित किसान।

खेत बने तालाब- से, छोड़ी  खाट  विहान।।


बोए बीज  किसान  ने, उर्वर  धरती  खेत।

हरे -हरे अंकुर खिले,सकल सघन समवेत।।

बीज-वपन की कामना, नारी - हृदय अधीर।

विकल प्रतीक्षा में बड़ी,मिटे गात की  पीर।।


      🌳 एक में सब  🌳

बरसा बादल खेत में,

                         पड़ती सघन   फुहार।

पावस  में   हलवाह   ने, 

                              बोए बीज   अपार।।


🪴शुभमस्तु !


२२.०६.२०२२◆०६.००

आरोहणम् मार्तण्डस्य।

टिप -टिप औलाती ⛈️ [ चौपाई ]

 

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✍️  शब्दकार ©

🌈 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्म'

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बरसे   पावस  के   घन प्यारे।

दिखते  नहीं   गगन  में तारे।।

टपक  रहे  हैं  छप्पर , छानी।

बरस  रहा  है  शीतल पानी।।


औलाती  से टिप -टिप झरता। 

वर्षा-जल भूतल  पर भरता।।

गिरती   धार  हाथ से  छूकर।

छिटक  गई है  गीली  भूपर।।


सस्वर    बूँदें   गीत   सुनातीं।

कानों को वे अतिशय भातीं।।

हैं  प्रसन्न    सारे   नर -  नारी।

जल थलचर खग प्रमुदित भारी।


आओ हम  सब  मोद  मनाएँ।

रवि-आतप अब क्या कर पाएँ

बैठे   हम   छप्पर   के   नीचे।

बिछा  खाट निज आँखें मीचे।


छिटक-छिटक कर बूँदें आतीं।

तन मन वसन भिगोकर जातीं।।

'शुभम्'  सुहाती  नम औलाती।

भूरे     घन    पावस  बरसाती।।


🪴शुभमस्तु !


२१ जून २०२२◆११.००आरोहणम् मार्तण्डस्य।

सोमवार, 20 जून 2022

तम के पास उजास 🪷 [ सजल ]


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समांत : आस ।

पदांत:  है।

मात्राभार :16.

मात्रापतन: शून्य।

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✍️ शब्दकार ©

🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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सुर       गण     को    शुभदा  सुवास    है।

आती       उनको      सदा     रास      है।।


तामस        ग्राही      असुर   सदा      से,

सुमनों        में        लगती   कुवास     है।


अस्ताचल        में        रविकर      पहुँचा,

हयदल         खाए      तमस    घास     है।


भले       न      भाए      तम    को   सूरज,

हर     तम        के      पीछे    उजास   है।


एक     ओर      शव     जलें  चिता    पर,

उधर         जन्म      लेता    विकास    है।


साथ      -    साथ     उद्भव - विनाश   भी,

प्रकृति         का        अद्भुत   प्रयास    है।


'शुभम्'       पुतिन   के    संग  देश    कुछ,

जेलेंस्की         की      आस,   पास       है।


🪴 शुभमस्तु ! 


१९जून २०२२ ◆१०.४५पतनम् मार्तण्डस्य।

रविवार, 19 जून 2022

प्राकृतिक न्याय 🪴 [ गीतिका ]


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✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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बिना         भाव         साकार    न     होता।

शब्दों          का        आकार   न    होता।।


जननी          जनक       नहीं   यदि    होते,

संतति       का      आधार    न         होता।


कृत       पुण्यों     के     बीज   न    फलते,

भव   -    सागर      से     पार   न     होता।


सत         करनी       सुमनों  -   सी  महके,

क्या      मानव   -   आचार   न       होता ?


नहीं           वासना         होती    अतिशय,

मानव       भू       का      भार    न   होता।


होड़          लगी       आगे     बढ़ने     की,

ग्रीवा      में        शुभ     हार   न      होता।


'शुभम्'      प्रकृति       का   न्याय  बड़ा  है,

देश    -    देश      में     वार   न      होता।


🪴 शुभमस्तु !


१९ जून २०२२◆ ७.३०

 पतनम मार्तण्डस्य।

स्वर्ग का द्वार :पिता 🪷🪷 [ दोहा ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम् '

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प्रथम पता मेरे पिता, पावन मम    पहचान।

उऋण नहीं होना कभी, सागर,शृंग  समान।।

संस्कार शुभतम दिए,जनक 'शुभम्' सुत मूल

भले क्रोध  करते कभी,रहे सदा   अनुकूल।।


कभी न ऊँचे बोल में,बोला पितु के   साथ।

दृष्टि विनत मेरी रही,सदा झुका पद -माथ।।

पितृ- दत्त आदेश का,सदा किया   सम्मान।

वह अनुभव के  ग्रंथ थे,हित मेरे    वरदान।।


अश्रु पिता के नयन से,गिरे न 'शुभम्' समक्ष।

घर भर के आधार वे,गृह- वाहन  के अक्ष।।

जननी के दो चरण में,रहता स्वर्ग - निवास।

पिता द्वार उस स्वर्ग के,मत समझें  ये हास।।


दिया पिता ने प्यार जो, कौन करेगा   और।

नहीं अभावों में जिया,'शुभम्'पिता सिरमौर।

सूरज-से पितु गर्म थे, पर प्रकाश - भंडार।

उनके छिपते ही भरा, जीवन में  अँधियार।।


आज पिता की रश्मियाँ, देतीं सुखद प्रकाश।

ऊर्जा उनके नेह की,भरती'शुभम्' सु-आश।।

पितृ कर्म से कीर्ति का,ध्वज लहरा आकाश।

शक्ति,ज्ञान,सम्मान से,मिला 'शुभम्'मधुप्राश।


जीवन में सब कुछ मिला,मात पिता आशीष

जन्म-जन्म भूलूँ नहीं,'शुभम्'कृतज्ञ मनीष।।


🪴 शुभमस्तु !


१९जून २०२२◆१२.१५ आरोहणम् मार्तण्डस्य।

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...