सोमवार, 31 मई 2021

धरती माता धन्य तू! 🌳 [ दोहा -ग़ज़ल ]

  

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 ✍️ शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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धरती   माता  धन्य  तू, हम तेरी   संतान।

लेती  पहले अंक   में,ममता, धीर  महान।।


सहती कितने कष्ट माँ, भरे न फिर भी आह,

धरती सबको धारती, हम सबको वरदान।


अन्न, दूध, फ़ल, फूल का,माँ अवनी भंडार,

तुझसे ही जीवन मिला,देती माँ  तू   ज्ञान।


पर्वत, सागर, झील,सर,भरे तरल  तालाब,

गंगा, यमुना, सिंधु में,कर्ता  का  अभिमान।


वृक्षों    पर  कलरव करें,कोयल,तोते, मोर,

गौरैया  घर  में  करे,चूँ - चूँ  का  शुभ  गान।


वन  में   चीता,  शेर हैं, भालू, हाथी,  गौर,

गाय, भैंस  सब गाँव में,देते पय का दान।


गेहूँ,  जौ, तिल, चणक के, लहराते  हैं  खेत,

सरसों  पीली नाचती,मह-मह अरहर,  धान।


गेंदा, बेला, चाँदनी, खिलते कमल,गुलाब,

जूही, रानी रात  की, धरती  के  अहसान।


'शुभम'धरा का प्यार पा,जीता मानव मात्र,

उऋण नहीं होना कभी,आन मान शुचि शान


🪴 शुभमस्तु !


३१.०५.२०२१◆१.०० पतनम मार्तण्डस्य।

ग़ज़ल 🌴

  

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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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बदला  - बदला   जहां  लगता है।

इंसाँ   अपना    कहाँ    लगता है।।


वीरानगी   का   है  आलम शहर में,

आदमी      दोमुहाँ        लगता  है।


गीत     गाती     न   कोयल सुरीले,

बेजुबां        बागवां      लगता   है।


पीले   पत्तों   का   झरना   है  जारी,

हर    शजर   खामखाँ   लगता   है।


तारे      आँखें     दिखाने   लगे   हैं,

अश्क  भर    आसमां    लगता   है।


न       दरिया   में    पहली   रवानी,

ताल     सूखा     वहाँ    लगता  है।


'शुभम'   रब    छिपा     तू  कहाँ  पर,

रेत     जैसा       यहाँ      लगता  है।


🪴 शुभमस्तु !


३०.०५.२०२१◆२.००पतनम मार्तण्डस्य।

बहाना कोरोना का 🌸 [ कुंडलिया ]


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✍️शब्दकार©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                         -1-

मानव  को मृत देखकर, मानवता की मीच।

आई  बाहर  कलुष की,काली -मैली कीच।।

काली - मैली  कीच, देख जग काँप  रहा  है।

मुख  पर लगा लगाम, यंत्रणा-जहर बहा है।।

'शुभम' बिना  ही  सींग, देश में उमड़े  दानव।

खाते  जीवित  माँस, आज के काले मानव।।


                         -2-

मानव  से  विश्वास  का, टूट गया  है   बाँध।

नर  ही  नर  को खा रहा, नहीं रहा  है  राँध।।

नहीं   रहा   है   राँध,  निकाले  गुर्दे   आँखें।

बना जंगली  श्वान,मिटी मानव  की  साखें।।

'शुभम' दहलते प्राण,देख मानव का ये ढव।

वह नर है अज्ञान, कहे जो इसको  मानव।।


                         -3-

मानव की पशुता निकल,आई बाहर  आज।

कठिन परीक्षा ले रहा,समय सदा सरताज़।।

समय  सदा  सरताज़, बहाना कोरोना  का।

गिरी मनुज पर गाज, हिए में भाला भौंका।।

'शुभं'पतन का काल,मनुजता का उठता शव

बिलख रहे 'घड़ियाल',देहधारी जो मानव।।


                         -4-

मानव  सत्ता-लालची,पल - पल  करे प्रपंच।

आश्वासन -भाषण बहे, चढ़- चढ़ ऊँचे मंच।।

चढ़- चढ़  ऊँचे  मंच, मात्र कीचड़ की होली।

मधुवत मीठे बोल,स्वाद की शोधित  गोली।।

'शुभम'आड़ का खेल,शेष है कागा का रव।

शिक्षित बेचें तेल, आज का धोखा मानव।।


                         -5-

मानव  की मत कीजिए,सूरत से  पहचान।

सींग  लुप्त हैं शीश में,बनें नहीं  अनजान।।

बनें  नहीं  अनजान, आपदा -अवसरवादी।

लगा मुखौटे चारु,पहनकर तन  पर खादी।।

'शुभम' नष्ट  विश्वास, लगी नगरों में है दव।

दो पग दो कर धार नहीं अब साँचा मानव।।


🪴 शुभमस्तु!


२९.०५.२०२१◆४.४५पतनम मार्तण्डस्य


मेरा देश महान! 🎯 [ दोहा ]


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✍️ शब्दकार ©

🌻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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कोरोना  कलि - काल में,चले यास  तूफ़ान।

कफ़न ख़सोटी नर करे,सजी कफ़न दूकान।।


मानव की यह आपदा, दानव को  वरदान।

माँस ,रक्त खा - पी   रहे, मेरा देश महान।।


मानवता की लाश पर, शैया सजा 'सुजान'।

डूब  रहे   हैं  ऐश   में, मेरा  देश   महान।।


बिलख रहे रोते स्वजन,भयाक्रांत श्मशान।

अंधे   बहरे    लूटते,   मेरा  देश    महान।।


चील  गिद्ध  नर वेश में,कोल डिपो की खान।

ब्लैकमेल  शव  को  करें, मेरा देश  महान।।


आँखों  से   नर   भेड़िया,नेता जैसे  कान।

मानव  के   शव प्रिय उसे,मेरा देश  महान।।


मनुज - परीक्षा  की घड़ी,नहीं रहा  पहचान।

जितना    चाहे  लूट  ले,  मेरा देश    महान।।


सभी   मुसीके  में  छिपे,कंडू, कोदों,  धान।

ज़हर - दान अहि कर रहे,मेरा देश महान।।


करदाता  की  जेब पर,डाका सरल सुजान।

बिना  किए  घर भर रहे,मेरा देश   महान।।


दया, शांति ,करुणा  मरी,पैसा ही  भगवान।

जैसे    चाहो    लूट   लो ,मेरा  देश   महान।।


मानवता   मृत   प्राय है,मानव है    अज्ञान।

दानव    भूखा   भेड़िया,  मेरा  देश  महान।।


🪴 शुभमस्तु !


२९.०५.२०२१◆२.३० पतनम मार्तण्डस्य।

कविता कैसी हो! 🏄‍♀️ [ अतुकान्तिका ]

 

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✍️ शब्दकार©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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शब्दकोश के सागर में जा

पाहन - से रंग बिरेंगे

शब्द खोजकर 

कविता कामिनि को 

सज्जित करना

उचित कहाँ तक!

भावों के अनुरूप

शब्द ही उचित सदा ही।


हो जाता रसभंग 

वहीं जब पढ़ते-पढ़ते 

पाठक की गति में

अवरोधक आए!

छोड़ पठन रचना का

कर शब्दकोश ले

अर्थ खोजने में खो जाए!


रसराज शृंगार 

रस के कोण  - उभार

न रस दे पाएँ!

रस पाने की लालसा

भटक -अटक जाए!

फिर कैसे कोई 

उसको कविता बतलाए!


लगी होड़ जब

केशव कालिदास बनने की

कबिरा सूर बिहारी तुलसी भी

पीछे हट जाएँ ,

 बेचारे क्या कर पाएँ!


रसानुकूल हो

शब्दों का विन्यास,

कवि का सफ़ल प्रयास,

न हो कुछ भी सायास,

वही  कविता 

काव्य- रसिकों में 

गई सराह,

चले जो अपनी सच्ची राह।


शिल्प औऱ भाव

सहज संकल्पित भरित प्रवाह

सरितवत कलकल

 स्वर उत्साह,

वही करती पाठक 

श्रोता में लय गति का

अवगाह।

वही है 'शुभम' 

सत्य सुंदर शिवता की थाह।

करता है हर पाठक

वाह! वाह !! वाह!!!


🪴 शुभमस्तु !


२०.०५.२०२१◆४.३०पतनम मार्तण्डस्य।

धरती पर क्यों आया बंदे!🏵️ [ गीत ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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धरती   पर   क्यों  आया बंदे!

निज   कर्तव्य    निभाना  है ।

शूकर, गर्दभ    ,श्वान   बना है ,

 मनुज    नहीं    रह    पाना है।।


नहीं  भूलना  मात -पिता  को,

जिनने  तुझको  जन्म   दिया।

उस धरती  माँ  को  मत  भूले,

जिसने  अपने   अंक  लिया।।

गुरुजन  देते    ज्ञान  सदा  ही,

मस्तक    उन्हें    झुकाना   है।

धरती  पर   क्यों  आया  बंदे!

निज   कर्तव्य    निभाना  है।।


क्षिति जल पावक गगन वायु से,

निर्मित  होते   तव   तन- मन।

उनका  ऋणी  सदा ही रहना,

दूषित मत करना कन -कन।।

बिना  शुल्क  के  तुझे पालते,

उनका   कर्ज़    चुकाना    है।

धरती   पर  क्यों  आया  बंदे!

निज  कर्तव्य    निभाना   है।।


कर्मों   के  फ़ल  से मिलता है,

किसी जीव   को  मानव तन।

नर - देही  की  लाज  बचाना,

यही धर्म का   शुभ   साधन।।

बिना धर्म पशु, कीट, कीर तू,

सदा   धर्म     अपनाना   है।

धरती   पर   क्यों  आया बंदे!

निज   कर्तव्य   निभाना  है।।


प्रभु कर्ता  ने  जोड़-जोड़ कर,

अंग -  देह का  सृजन  किया।

जो प्राणों  को  तन  में भरता,

तूने   उसका  भजन किया ??

उस अंशी का   अंश  मात्र तू,

आत्मज्ञान   भी    पाना   है।

धरती पर    क्यों   आया बंदे!

निज  कार्यव्य   निभाना  है।।


देश,समाज और परिजन सब,

करते    हैं       तेरा     पोषण।

तुझे   कृतज्ञ  रहना आजीवन,

कभी  नहीं   करना  शोषण।।

प्राणों की भी  आहुति   देकर,

तुझको   देश     बचाना    है।

धरती  पर  क्यों  आया   बंदे!

निज  कर्तव्य   निभाना   है।।


कर्मयोनि    मानव    की  बंदे,

सदा   कर्म   शुभ  ही करना ।

'शुभम'बुरे कर्मों से निशिदिन,

हे मानव ! तू   नित   डरना।।

भोगयोनि है  पशु - पक्षी  की,

पशु न कीट   बन  जाना है।

धरती पर  क्यों  आया  बंदे!

निज   कर्तव्य  निभाना है।।


🪴 शुभमस्तु !


१९.०५.२०२१◆८.४५पतनम मार्तण्डस्य।

पाहन-सा घिस-घिस है जाना ! 🎄 [ गीत ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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पाहन-सा घिस-घिस है जाना।

अपना  दृढ़ कर्तव्य  निभाना।।


जीवन की  सरिता  है  चालू।

घिस-घिस पाहन बनते बालू।

सरिता  का  सौंदर्य  सजाना।

पाहन-सा घिस-घिस है जाना।


लुढ़क  रहे    हैं   धीरे -  धीरे।

कुछ मँझधार पड़े कुछ तीरे।।

बढ़ने का  हर  पल  है  ठाना।

पाहन-सा घिस-घिस है जाना।


कितने  सागर  तक  जा पाते।

बालू बन  कुछ भवन बनाते।।

चलना!चलना!चलना! जाना

पाहन-सा घिस-घिस है जाना।


मानव  बनता   जाता  पाहन।

करता  पाप  व भरता आह न।

मकड़ी   जैसा   ताना - बाना।

पाहन-सा घिस-घिस है जाना।


पाहन   नहीं  पिघलते  पाया।

घिस जाने पर लघुतम काया।

सरिता  के  सँग  गाए  गाना।

पाहन-सा घिस -घिस है जाना।


'शुभम' सीख   बालू  से लेता।

नहीं   बैठकर    अंडे   सेता।।

जग में  जगता  मधुर  तराना।

पाहन-सा घिस-घिस है जाना।


🪴 शुभमस्तु !

१७.०५.२०२१◆२.००पतनम

मार्तण्डस्य।


बुधवार, 19 मई 2021

एक धरा है एक गगन है! 🏕️ [ गीत ]

 

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✍️ शब्दकार©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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एक   धरा  है   एक   गगन है,

सबका     एक      जन्मदाता।

छीना- झपटी  मार  काट कर,

मानव    क्यों   तू    इतराता!!


बड़े   हो  गए  विकट  सपोले,

ज़हर रात -  दिन   उगल  रहे।

सत्ताधारी   बन    जाने    को,

देखो    कैसे    विकल   रहे!!

पत्थर   हैं    जिनके  सीने  में,

निर्मम   है    उनकी     माता।

एक  धरा   है   एक गगन  है,

सबका   एक     जन्मदाता।।


काँटे  से   ही    निकले काँटा,

समय   वही   अब  आया है।

भारत माता  का  उर कोमल,

कैसे   अब     थर्राया     है!!

यहीं जन्म  लेकर  मर जाता,

पीता  जल    भोजन खाता।

एक   धरा   है  एक गगन है,

सबका     एक  जन्मदाता।।


शठ  से  शठता   करनी होगी,

क्षमा   नहीं       कर    पाएँगे।

बढ़ी अगर  थोड़ी ज़बान  तो,

काट   उसे      हम    लाएँगे।।

ये   मानव   दानव  से रिश्ता,

तृण भर   नहीं   निभा पाता।

एक  धरा  है  एक  गगन  है,

सबका    एक   जन्मदाता।।


यमुना   गंगा  का पावन जल,

लाल    नहीं       होने     देंगे।

देखेगा    तिरछी   नज़रों   से,

हम   प्रतिशोध   शीघ्र  लेंगे।।

हिन्दू मुस्लिम   भाई -   भाई,

ये    सब  ढोंग   नहीं  भाता।

एक  धरा    है  एक गगन है,

सबका   एक    जन्मदाता।।


राम कृष्ण की इस धरती पर,

रावण   कंस   न   रह   पाए।

अहंकार   के   पुतले भर वे,

चाह   रहे  जो    छा   जाए।।

एक    द्वार    से  आया  बंदे!

एक  राह  से    ही    जाता।।

एक  धरा  है  एक  गगन  है,

सबका   एक    जन्मदाता।।


न्याय प्रकृति का जिस पल होता,

कोई      नहीं        ठहर     पाता।

गरज   रहा   अंबर   में  बेढब,

मेघों     का  दल     मँडराता।

पवन - झकोरा  उड़ा शून्य में,

देता    मिटा     छली    नाता।

एक   धरा   है  एक   गगन है,

सबका    एक     जन्मदाता।।


आओ  एकसूत्र   में   बंधकर,

नयन -  खुमारी    तोड़ें   हम।

एक - एक  कर  मार  सपोले,

बना देश का  समय 'शुभम'।।

अब तो उसको समझ लिया है

'शांतिदूत'    जो     कहलाता।

एक   धरा   है   एक  गगन है,

सबका    एक     जन्मदाता।।


🪴 शुभमस्तु !


१९.०५.२०२१◆५.३०पतनम मार्तण्डस्य।


साबुन 🎐 [ बालगीत ]

 

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✍️ शब्दकार©

🎐 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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साबुन से  विषाणु मर जाता।

इसीलिए  मैं रगड़   नहाता।।


साबुन होता अति  गुणकारी।

होती उसकी महिमा  न्यारी।।

पूरा घर   मुझको   समझाता।

साबुन से विषाणु मर जाता।।


बार -  बार  हाथों  को धोना।

पीना, खाना,  रहना, सोना।।

सब में साबुन स्वच्छ बनाता।

साबुन से विषाणु मर जाता।।


है  विकल्प भी   सेनेटाइजर।

साबुन के  पर  नहीं बराबर।।

मिनट तिहाई भर लग जाता।

साबुन से विषाणु मर जाता।।


झाग  उठाकर   कपड़े  धोएँ।

कोरोना को  जग  से  खोएँ।।

डाल धूप  जो वस्त्र  सुखाता।

साबुन से विषाणु मर जाता।।


साबुन  सब  होते   हितकारी।

रहती  विमुख सभी बीमारी।।

'शुभम'आज सबको बतलाता

साबुन से विषाणु मर जाता।।


✍️ शब्दकार ©


१८.०५.२०२१◆२.००पतनम मार्तण्डस्य।

तितली 🦋 [ बालगीत ]


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✍️ शब्दकार©

🦋 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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रंग -  बिरंगे      पंखों   वाली।

तितली कितनी भोलीभाली।।


रस  लेती  है  फूल -  फूल से।

कभी न रहती पास  शूल के।।

नहीं   बजाती   है  वह ताली।

तितली कितनी भोलीभाली।।


उड़-उड़  मन  को मोहे लेती।

नहीं किसी को वह दुख देती।

घूम रही नित डाली -  डाली।

तितली कितनी भोलीभाली।।


प्रकृति  का   सौंदर्य  बढ़ाती।

उड़ती बैठ - बैठ उड़ जाती।।

देती  नहीं   किसी  को गाली।

तितली कितनी भोलीभाली।।


अपनी धुन में  फुदक रही है।

बागों में वह   कुदक रही है।।

रेशम  जैसे   पंख   कमाली।

तितली कितनी भोलीभाली।।


तितली  अपने  मन की रानी।

रस  पीकर क्यों  पीवे पानी।।

'शुभम'सदा तितली मतवाली।

तितली कितनी भोलीभाली।।


🪴 शुभमस्तु !


१८.०५.२०२१◆११.४५आरोहणम मार्तण्डस्य।

चूहे 🐁 [ बालगीत ]

   

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✍️ शब्दकार©

🫐 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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युग-युग  से हम बिल में रहते।

लोग   हमें   सब  चूहे कहते।।


श्रीगणेश    के    वाहन प्यारे।

चलते  हम  ज्यों  बहे हवा रे।।

उनका  भारी   बोझा   सहते।

लोग  हमें  सब  चूहे  कहते।।


मनुज  हमारी   नक़ल  उतारे।

तलघर- बिल में गए सिधारे।।

सीख मनुज हम से भी लहते।

लोग  हमें  सब   चूहे  कहते।।


हैं   डरपोक   आदमी    सारे।

बिल में   जाते  भय के मारे।।

धरती   के   अंदर   जा रहते।

लोग   हमें   सब  चूहे कहते।।


बिल्ली  मौसी   हमें   डराती।

अवसर पाते ही   खा जाती।।

शरण बिलों की हैं हम गहते।

लोग   हमें  सब  चूहे कहते।।


कुतर-कुतर हम दाना खाएँ।

मोदक का भी भोग लगाएँ।।

चूँ-चूँ ची-ची स्वर हम कहते।

लोग  हमें  सब  चूहे कहते।।


🪴 शुभमस्तु !


१८०५२०२१◆११.००आरोहणम मार्तण्डस्य।

चीनी से अच्छा गुड़ खाना 🎋 [ बालगीत ]


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✍️ शब्दकार ©

🎋 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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चीनी  से  अच्छा  गुड़ खाना।

रोगों   का   घर चीनी  माना।।


प्रकृति ने  दी   हमें   मिठाई।

गाढ़ी   भूरी   हमने     खाई।।

उदर - रोग  सब  दूर भगाना।

चीनी से अच्छा  गुड़ खाना।।


हड्डी   को  मजबूत   बनाता।

रक्त - चाप का दोष  हटाता।।

कमी रक्त की  पूर्ण  मिटाना।

चीनी  से अच्छा  गुड़ खाना।।


जो भी  खाते  खूब  पचाता।

स्वर में सदा  मधुरता लाता।।

भोजन को रुचिपूर्ण बनाना।

चीनी  से अच्छा गुड़ खाना।।


करता है  गुड़  त्वचा  सफ़ाई।

शेष  न   रहें   मुँहासे   भाई।।

ऊर्जा -  स्तर  सदा    बढ़ाना।

चीनी से अच्छा गुड़  खाना।।


देह - थकान  दूर  गुड़ करता।

सर्दी और  ज़ुकाम  सुधरता।।

तन को सक्रिय सुदृढ़ बनाना।

चीनी से  अच्छा  गुड़ खाना।।


नेत्र दिमाग़  सभी  सुख पाते।

जोड़ों के   भी    दर्द  नसाते।।

सेहत का गुड़ 'शुभं' खज़ाना।

चीनी से अच्छा   गुड़ खाना।।


🪴 शुभमस्तु !


३१.०३.२०२१◆९.४५आरोहणम मार्तण्डस्य।

बालू और समय 🕰️ [ कुंडलिया ]

 

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✍️ शब्दकार©

🌻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                         [1]

बालू-सा नित फिसलता,समय सलोना मीत।

ज्यों मुट्ठी  बालू भरी, जाती पल  में    रीत।।

जाती   पल  में  रीत, रिक्त कर दोनों   होते।

औरों  को   दें  दोष, लोग  जो रहते   सोते।।

'शुभम'समय के साथ,चला चल मानव सालू।

दुहराता  इतिहास, नहीं यदि फिसले  बालू।।


                         [2]

बालू का कण-कण गहें,पल -पल आठों याम

समय सदा गतिशील है,पल भर नहीं विराम।

पल  भर नहीं  विराम,आपदा लगती   भारी।

कटे  न  काटे शाम, लगी  हो जब   बीमारी।।

'शुभम' सुहागी   रात, ढुलकती  जैसे आलू।

छिपती   घाटी   बीच,सरकती जैसे    बालू।।


                         [3]

बालू   जैसा   रूक्ष   है,  आलू जैसा  गोल।

सरक रहा है पल सदा,समय बड़ा अनमोल

समय बड़ा अनमोल,रोक कोई  कब पाया।

ढलता  साँचे बीच,समय ने जगत  बनाया।।

'शुभम ' समय  है ईश,नहीं वह वानर  भालू।

करता  जो   उपयोग,बनेगी मक्खन   बालू।।


                         [4]

बालू  की  दीवार - से,  रिश्ते मिलते   धूल।

स्वार्थ भाव पर जो टिके,देते हैं बस  शूल।।

देते  हैं   बस  शूल, कष्ट ही देते  मन  को।

नहीं  प्रेम  का भाव, महत्ता देते धन   को।।

'शुभम' आज के लोग,बहुत ही बेढब चालू।

होते   वे   भूसात,  सरकती  जैसे    बालू।।


                        [5]

बालू पाहन से बनी,घिस-घिस सरिता- धार।

जल को लेती अंक में,ज्यों शिशु अंक सँवार।

ज्यों शिशु अंक सँवार,खिलाती  कोई माता।

लुटा रही वह प्यार,बनाता सजल  विधाता।।

'शुभम' भवन  का मूल,धरा ऊँची  या ढालू।

साथ सुघर  सीमेंट,सुदृढ़ बनती तब  बालू।।


🪴 शुभमस्तु !


१७.०५.२०२१◆१.००पतनम मार्तण्डस्य।


ऊपर देने के लिए! 🌳 [ कुण्डलिया ]


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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                        -1-

ऊपर  देने  के  लिए ,लेते  नित  उत्कोच।

शुद्ध वायु को बेचते,किंतु समझ है पोच।।

किंतु  समझ   है पोच, दबा के लेते   पैसा।

लूट   रहे   हैं लोग,समय आया  है   ऐसा।।

'शुभम'मनुज की देह,घूमते हिंसक भू पर।

कहते  देना  दाम, हमें  जाकर के ऊपर।।


                         -2-

ऊपर  जा  देना पड़े, सबको पूर्ण  हिसाब।

चित्रगुप्त  की  है  खुली, पूरी एक  क़िताब।।

पूरी  एक  क़िताब,  हाल सब लिखते  तेरा।

अमिट कर्म का लेख,नहीं कह सकता मेरा।।

'शुभम' न होती भूल,किया करता जो भू पर।

मिलता है परिणाम,सभी को जाकर  ऊपर।।


                         -3-

ऊपर  वालों  की  लगी, लंबी एक    कतार।

कोई   चढ़ता  यान  में ,कोई मँहगी   कार।।

कोई   मँहगी  कार, दुपहिया कोई   चढ़ता।

ले - ले कर उत्कोच,दिनों दिन ऊपर बढ़ता।।

'शुभम 'डकैती आज,बदलती सूरत भू पर।

चित्रगुप्त  की  दीठ, न  बचता कोई  ऊपर।।


                         -4-

ऊपर  वाले के लिए,सब जन एक  समान।

नग्न देह जाना पड़े, तज कर तीर - कमान।।

तज कर  तीर-कमान,न चलती  नेतागीरी।

जिसके हैं सत काम,'शुभम' होता वह मीरी।

अनुशंसा  का  खेल, चला करता है  भू पर।

केवल कर्म प्रमाण, जीव जब जाता ऊपर।।


                         -5-

ऊपर  जाना  चाहता, करता कारज    नीच।

कीचड़ के संस्कार को, भाती काली कीच।।

 भाती   काली  कीच,  ऊपरी करे   कमाई।

दुख   भोगे  संतान, कष्ट  में रहे    लुगाई।।

'शुभम'हिए की बंद,आँख मानव की भू पर।

नहीं  मनुज अनजान, चाहता जाना ऊपर।।


🪴 शभुमस्तु !


१६.०५.२०२१◆४.००पतनम मार्तण्डस्य।

ग़ज़ल 🌳


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✍️शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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यादों  की    तस्वीर   आदमी।

पीर  कभी  बे -पीर  आदमी।।


मेरा    मेरी    के       घेरे    में,

गैरों  को    शमशीर   आदमी।


लगा  मुखौटा  साथ  मुसीका,

बरसाता  मुख - तीर  आदमी।


आदर्शों  की   बात जुबां   पर,

बनता  आलमगीर    आदमी।


शव  से उठा  कफ़न  जो बेचे,

कैसा  बद  'बलबीर'  आदमी।


बुरे  वक़्त    को  लगा भुनाने,

हरण कर  रहा  चीर  आदमी।


'शुभम' थूकता   ऐसे  नर पर,

मिटा  रहा  तक़दीर   आदमी।


🪴 शुभमस्तु !


१६.०५.२०२१◆९.००आरोहणम मार्तण्डस्य।

रिश्वत का तंबू सजा 🐟 [ दोहा ]


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✍️ शब्दकार ©

🐟 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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कौन मनुज नर देह में,कौन हिंस्र पशु कीट।

पहचाने जाते नहीं  ,करे सत्य  की बीट।।


ऊपर   वाला  माँगता,  देना  है    उत्कोच।

ग्रीवा  कटे  गरीब  की , नहीं हिए में सोच।।


सबके  ऊपर  जो  रहे, उसका नहीं  विचार।

अपने  ऊपर देखते,अब के नर  या  नार।।


वेतन  की   चादर  तनी,निकलें बाहर  पाँव।

रिश्वत  का तंबू सजा,ढँके शहर  सब  गाँव।।


शव से उतरे कफ़न को,फ़िर -फ़िर बेचें लोग।

नैतिकता   सब  मर गई, भोगे कर्ता  भोग।।


मुखड़ा  मानव का लगा,भीतर गिद्ध शृगाल।

जैसे  भी हो धन मिले, फूटा मनुज कपाल।।


भुना  रहा  मजबूरियाँ,मानव कैसा  नीच!

कमल नहीं उगना  यहाँ, कीच रहेगी  कीच।।


कोरोना  के  नाम  पर,मचा रहे  जो  लूट।

क्षमा  न  होगा कर्म फ़ल,नहीं मिलेगी छूट।।


जाने  पर  माने  नहीं,सुना न ऐसा   मूढ़।

चंदन-टीका  के तले,  मगज़ भरा है कूढ़।।


सौ की दवा  हज़ार  में,लौह पात्र में वायु।

नित्य  लुटेरे  लूटते, नर - नारी की   आयु।।


पुण्य  कमाने  की घड़ी,नर भरता घट पाप।

'शुभम' जलाएगा  उसे, देगा जो    संताप।।


🪴 शुभमस्तु !


१५.०५.२०२१◆४.३० पतनम मार्तण्डस्य।

ऊपर वाले को(?) देना है 🕺🏻 [ व्यंग्य ]


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✍️ लेखक © 


🕺🏻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम' 


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                 ऊपर वाला !ऊपर वाला !!ऊपर वाला!!!ऊपर वाले का इतना अधिक महत्त्व यदि किसी ने जाना और पहचाना है तो वह मानव ही है।अरे!वही मानव ,जिसमें मानवता कूट - कूट कर भरी है। दानव तो किसी को अपने से ऊपर मानता ही नहीं , जो ऊपर वाले को समझेगा,जानेगा, मानेगा!यदि ऊपर वाले को किसी ने महत्त्व दिया है ,तो वह जीव मानव ही है।वह ऊपर वाले को कभी भूलता ही नहीं।


             दवाओं के मनमाने दाम लेने पर , ऑक्सीजन के आसमानी दामों में ब्लैक करने पर,मेडिकल स्टोर, नर्स, डॉक्टर,शव वाहन के चालक परिचालक, श्मशान की लकड़ी आदि अंतिम संस्कार सामग्री बेचने पर, रेमडेसीवर आदि जीवन रक्षक दवाएँ, इंजेक्शन आदि में एक के पचास वसूलने पर, इन सबको ऊपर वाले को देना पड़ता है।हर नीचे वाला अपने ऊपर वाले को दे रहा है अथवा पहुँचा रहा है।इसलिए चोरी, ब्लैक मार्केटिंग, मजबूरों का गला काटना,किसी के द्वारा नहीं ले पाने की सामर्थ्य नहीं होने पर उनकी हत्या कर देना इनका धर्म हो गया है।


              ये ऊपर वाले भी कितने बेहया ,बेशर्म और मानव के नाम पर कलंक हैं कि इन्हें उस ऊपर वाले का होश ही नहीं है,जो सबसे ऊपर है।सबसे ऊपर वाला उत्कोच नहीं लेता। किसी को क्षमा भी नहीं करता।उसकी अदृश्य आँखों से कुछ भी छिपा हुआ नहीं है।उसके सी सी टी वी कैमरे हर जगह लगे हुए हैं। सारे दृश्य उनमें सुरक्षित हो रहे हैं। जब ये नीचे वाले मानव नामधारी देवताओं के पुजारी, मंदिर मस्ज़िद, चर्च के अधिकारी वहाँ पहुँचेंगे, तो किस ऊपर वाले को क्या क्या पहुँचाया : का हिसाब गिन-गिन कर लिया जाएगा। किसके ऊपर कौन है !ये तो पहुँचाने वाले अच्छी तरह जानते हैं।ऊपर वाले को देना है ,इसलिए सामने वाले का गला घोंटना उनका अनिवार्य धर्म है।मेडिकल स्टोर से हॉस्पिटल , हॉस्पिटल से शव वाहन और श्मशान / कब्रिस्तान , सब जगह ऊपर वाले बैठे हुए हैं। ऊपर वालों की सूची इतनी छोटी भी नहीं है ,वे विधान सभा, लोक सभा और न जाने कहाँ विराजमान हैं।यदि इन ऊपर वालों के पास उनके हिस्से का नहीं मिलता तो वे अपने नीचे वाले को डंडे का दंड देने से भी नहीं चूकते। 


             सुना है ईमानदारी के मामले में चोर बहुत ईमानदार होते हैं। वे अपने हर ऊपर वाले को उसका शेयर पूरी ईमानदारी से औऱ समय पर पहुँचा देते हैं। ईमानदारी हो तो चोरों जैसी। चोरों औऱ उत्कोच ग्राही ' भले मानुषों ' की ईमानदारी सराहनीय है। वे अपने हर ऊपर वाले का पूरा सम्मान करते हुए उनका पूरा ध्यान ही नहीं रखते , वरन उनके बीबी - बच्चों की सेवा, उनकी सब्जी ,दूध, दाल , फल ,कपड़े आदि का भी अपने परिवार से भी ज़्यादा ध्यान रखते हैं।आख़िर उन्हीं की छत्रछाया में ही तो उन्हें नीचे से सत्य औऱ ईमान की खुलेआम हत्या करके अपनी रोटी - रोजी कमानी है। 


            नियमित वेतन से क्या होता है! ठाठ बाट की जिन्दंगी बिताने के लिए 'ऊपर की कमाई' एक अनिवार्य धर्म है।किसी का कोई काम करो तो उसकी अंगुली पकड़ कर पहुँचा नहीं ,गर्दन ही पकड़ लो ,तभी कुछ निकल सकता है। तेल तो तिल से निकलेगा न! जिसका भी काम करो ,उसे मूँड़ ही डालो।भैंस समेत खोया करना ही जरूरी है। आख़िर बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाएगी! उसे हलाल तो होना ही पड़ेगा। इसी प्रकार के आदर्श वाक्य हर नीचे से ऊपर वालों को रटे हुए हैं।जिनकी आदर्श-पटरी पर चलना उनका पवित्र धर्म है।भला आजकल की मँहगाई के जमाने में एक वेतन से काम भी कहाँ चलता है? इसलिए ऊपरी कमाई का जरिया होना उनके लिए लाज़मी है।


      हर ऊँट समझ रहा है कि वही सबसे ऊपर है।इसीलिए वह उड़ता है आसमान में,नहीं जानता कि वह किसी भू पर है। मान बैठा है बस वही पवार सुपर है।पर सुप्रीम को भूल बैठा है, क्योंकि अपने में रस्सी की तरह ऐंठा है, भले ही वह बहुत निम्न है,हेटा है। देह से आदमी है ,परंतु रँग बदलता हुआ करकेंटा है। पता नहीं कब कौन- सा रंग बदल ले! कभी साँपनाथ तो कभी नाग नाथ।उसे है केवल पैसे का भरोसा ,उसी का साथ! दिखाई नहीं देता उसे अपना सही पाथ।कभी मेज के नीचे ,कभी किनारे से ,कभी किसी कौने में,पटाना जानता है दूसरे नर देह को वह अँधेरे में।पर अब तो खुलेआम 'खेला' हो रहा है।आदमी कहने भर को आदमी है , वह पाषाण का ढेला हो रहा है।किसी का सिर फूटे या जान जाए!पर वह अब नहीं वैसा कि किसी की मजबूरी मान जाए!भले ही बकरे की जान जाए , पर उसे खाने का 'सवाद' कहाँ आए? 


             जंगल के नरभक्षियों औऱ मानव में केवल देह का भेद है।शेर, चीता, भालू, लकड़बग्घा, ईमानदार नरभक्षी हैं।लेकिन आदमी आदमी को ही 'ऊपर वाले को देना है,' के नाम पर दिन दहाड़े खा रहा है। सबसे ऊपर वाले को भी कुछ देना है ,यह भूले जा रहा है।वहाँ न पैसा चलता है , न उत्कोच, न नेतागिरी न गुंडागिरी, न सिफ़ारिश , गुजारिश। वहाँ तो बस चलती है सचाई खालिश।नहीं चलती वहाँ कोई तेल मालिश। 


 🪴 शुभमस्तु ! 


 १५.०५.२०२१◆३.४५पतनम मार्तण्डस्य। 


मुसीका 😷 [ बालगीत ]


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✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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जब से मुँह पर लगा मुसीका।

रहता सबको ध्यान  उसीका।


होठों की   मुस्कान   छिपाई।

यह बचाव की अटल दवाई।।

रोग न होता  मीत किसी का।

जब से मुँह पर लगा मुसीका।


कानों की   खूँटी  पर लटका।

नाक और मुँह पर है अटका।।

नर - नारी  का  बना सलीका।

जब से मुँह पर लगा मुसीका।


चोर ,शाह  सब  इसके अंदर।

लगता   मानव   जैसे  बंदर।।

मुखड़ा लगता फीका -फीका।

जब से मुँह पर लगा मुसीका।


छान - छान कर हवा डालता।

थोड़ी - थोड़ी घुटन सालता।।

सब कहते  हैं  उसको  नीका।

जब से मुँह पर लगा मुसीका।


बैलों  से    मानव   में  आया।

विवश हुआ तो मास्क लगाया।

'शुभम'हितैषी बना सभी का।

जब से मुँह पर लगा मुसीका।


🪴 शुभमस्तु !


११.०५.२०२१◆९.४५आरोहणम मार्तण्डस्य।

हवा भी हवा हो रही 🌳 [ अतुकान्तिका ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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पानी तो पानी 

उसकी अलग ही कहानी,

अब हवा भी

हवा हो रही,

आदमी के जिंदा रहने के लिए

दवा हो गई।


पुड़ियों में आटा,

भरता हुआ सर्राटा,

बोतल, थैली में पानी,

मची हुई  खींचातानी,

अब शुद्ध हवा पर ताले,

प्राण बचाने के लाले,

आदमी मौत के हवाले,

पहले ही कहा था,

अरे ओ नादान!

पर्यावरण बचा ले,

पर कहाँ कब कोई माना?

अब किसे देता है ताना,

जब मुश्किल हो गया

जान भी बचाना,

क्या आ गया है जमाना!


बनावटी का शौक चर्राया,

आदमी कृत्रिम की ओर धाया

ये ले अब बनावटी

सिलिंडर में भरी ऑक्सीजन,

जब जाने लगा तेरा तन,

डूबने लगा है मन,

अब चाहिए 

असली ऑक्सीजन!

काम नहीं आएगी

तेरी आधुनिक गन,

दूषित जो किया है

अपने जीवन का धन,

मंगल ,चाँद ,शुक्र के यात्री

कहाँ तक बचाएगी 

तुझे तेरी धात्री धरती,

वह स्वयं तेरे

 पाप-बोझ से मरती!

बेचारी क्या करती!

मौन मूक माँ तेरी,

दुःखी है निज 

अंतर में घनेरी ।


बनाई छोड़ी गई गैसें,

नहीं बचा पाएँगीं तुझे ऐसे,

इधर पादपों की कटान,

उधर  रो रहे हैं श्मशान,

कैसे करें शव -दाह,

देख सुनकर ही

निकल रही है अपनी आह,

अंततः क्या है 

मनुज तेरी दूषित चाह!


ठोंकता अपनी ही पीठ,

आदमी, आदमी नहीं रह गया

बन गया अपने ही पैरों को

काटने वाला विषज कीट,

विष बनाया है

तो पिएगा  कौन!

अरे मूढ़ अब क्यों

हो गया है मौन?

हवा के लिए

उड़ने लगी हैं

चेहरे की हवाइयाँ,

कम पड़ रही हैं

 प्राण- रक्षक दवाइयाँ!

अब भी लौट कर आ जा,

यदि तुझे चाहिए 

प्राणवायु ताज़ा,

तो जीवन में कुछ

हरे पौधे तो लगा जा।


मत मार तू

अपने पैरों में कुल्हाड़ी,

लगा ले 'शुभम' कभी

हरी -हरी बाड़ी,

नहीं तो ये मानवता

ये ज़िंदगी 

रह जायेगी 

ठाड़ी की ठाड़ी,

चलानी है

 यदि सकुशल 

जिंदगी की गाड़ी,

तो सचेत हो जा,

जाग जा रे नर मूढ़!

यही है तेरी जिंदगी

का रहस्य कोई गूढ़।


🪴 शुभमस्तु !


०७.०५.२०२१◆६.२५आरोहणम मार्तण्डस्य।

ग़ज़ल


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✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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श्मशान की लकड़ियों पर बेईमान आदमी।

अपने  ही  कटवाता  ख़ुद कान    आदमी।।


लाशों    को   ढोने  के  मनमाने  दाम   ले,

जिंदों   का  माँस  नोंचता शैतान   आदमी।


मौसम्बी, नीबू , संतरे  अदृश्य कर   दिए,

दिन - रात  लूट  में  मग्न हैवान  आदमी ।


आपदा   को   दाम  में  बदले हुए   है   जो,

दो  पैर  काली  बुद्धि  की पहचान  आदमी।


मज़हब   की  खा  सौगंध  दुर्गंध   फेंकता,

माथे के टीके  की दिखाता शान   आदमी।


गीत   देश   गान   के  बोल वंदे    मातरम,

पापों  की  टकसाल  है  या खान  आदमी।


'शुभम'  आज  देख तो बंगाल - हाल क्या,

खो  दे न  कहीं अपनी   ही पहचान आदमी।


🪴 शुभमस्तु !

०६.०५.२०२१◆७.००पतनम मार्तण्डस्य।

ग़ज़ल


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✍️ शब्दकार ©

🌴 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

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याद   फिर से  तिरी  आ गई,

बेसबब    और   तड़पा   गई।


आज  देखा   है सपना  हसीं,

ख्बाब में   बेवफ़ा    छा  गई।


 चाँदनी    रात   की    बेबसी , 

मेरे   हिस्से  में   अब    आ गई।


अब नहीं है  किसी  की फ़िकर,

मेरा  दिल   कोई   भरमा गई।


कँपकँपी   से   मैं    थर्रा  गया,

सारी रग -  रग  को गरमा गई।


रात    काली  न   काली  रही,

रोशनी उनके  आने से  आ  गई।


आँख  खुलती 'शुभम'  अब नहीं,

नींद    ख्वाबों   को   भरमा गई।

 

🪴 शुभमस्तु !


०६०५.२०२१◆५.४५आरोहणम मार्तण्डस्य।


बुधवार, 5 मई 2021

गिद्ध - बाजार 🦅 [ दोहा ]


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✍️ शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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जीवित जन को खा रहे,वर्तमान में  गीध।

कौन नहीं पहचानता,चलें नाक की सीध।।


गिद्धों को बस चाहिए, जीवित ताजा माँस।

सीता या पद्मावती, चलती हो बस   साँस।।


गीधों  के  अवतार को, पहचाना   है    देश।

नोंच-नोंच नर खा रहे,बदल-बदल कर वेश।।


कोई  ठेले   पर  खड़ा,रहे देश कुछ    ठेल।

गिद्धों  के बाज़ार  में,अवसर का  है  मेल।।


दूध  मिलाया  नीर  में,गए गीध सब  गीद।

धनिए में धनियाँ कहाँ, मिले गधे  की लीद।।


लोहे  के  पर लग गए,गीध बने नभ - यान।

पाँव नहीं अब भूमि पर,बहरे उनके  कान।।


था जटायु बस एक ही,नहीं लिया अवतार।

श्रीराम  के  अंक में, गया मोक्ष  के   द्वार।।


इस  कोरोना - काल में,गीधों की  है   बाढ़।

कितने ही बहुरूपिए, लुंचक माँस  प्रगाढ़।।


गीध-वेश पहचानना,'शुभम'न संभव आज।

कोई   है   दूकान   में,   पहने कोई    ताज।।


अपने - अपने  ढंग से ,नोंच रहे  हैं  माँस।

गीध सभी इस देश के,बंद कर रहे   साँस।।


गली, मुहल्ला,सड़क पर,मंचों पर हैं  गीध।

लेताजी तो जा रहे,ठीक नाक की   सीध।।


🪴 शुभमस्तु !


०५.०५.२०२१◆१२.४५ पत नम मार्तण्डस्य।

आज का मानव कैसा! 🪢 [ कुंडलिया ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                      -1-

उसकी  नज़रों  से नहीं,बचता कोई   काम।

चाहे   परदे  में करो,  चाहे खुलकर  आम।।

चाहे खुलकर  आम,बुरा अच्छा सब  जानें।

दिखे न प्रभु की आँख,भाव की डंडी तानें।।

'शुभं'कर्म का फूल,खिले तब निकले सिसकी

सौ का नीबू एक ,नज़र है सब पर  उसकी।।


                      -2-

बोया बीज  बबूल  का,लगें न मीठे  आम।

काँटे ही पथ में मिलें,करुणा करें  न राम।।

करुणा   करें  न  राम,दाम ही ईश्वर    तेरा।

छूटेंगे  जब   प्राण, मुक्त  होगा तब    घेरा।।

'शुभं'न जाए साथ,कनक तज जब तू सोया।

फ़लते  वही  बबूल, बीज  जो तूने   बोया।।


                       -3-

कर्ता  ख़ुद  को मानता,प्रभु कर्ता  को भूल।

करनी का फ़ल जो मिले, हिल जाती है चूल।

हिल  जाती  है  चूल,याद आ जाती    नानी।

लगे प्यास जब तेज़, बूँद भर मिले न पानी।।

'शुभम'  दे  रहा दोष,कर्म की गागर    भर्ता।

मानव  बनता  ईश,जानता प्रभु   ही  कर्ता।।


                        -4-

लिखता  अपने नाम में,नर करता शुभ काम।

बुरा थोपता गैर को,जिसका कटु  परिणाम।।

जिसका कटु परिणाम,झेल पाना क्या संभव

अखबारों  में  नाम, छपाता बनता   दुर्लभ।।

'शुभम' ईश के धाम,जीव हर नंगा   दिखता।

शुभ कर्मों का श्रेय,नाम वह अपने लिखता।।


                        -5-

जलता मानुष देखकर,परयश निधि परकाज

बिना आग  बिन धूम के,छीने वह पर ताज।।

छीने वह पर ताज,सुलगता भीतर  -  भीतर।

भखना चाहे आम,स्वयं हो चाहे    कीकर।।

'शुभम' मीत  को मीत, देख लें कैसे  छलता।

पशु से गर्हित काम,मनुज करता नित जलता


🪴 शुभमस्तु !


०५.०५.२०२१◆ १०.३० आरोहणम मार्तण्डस्य।

रविवार, 2 मई 2021

ज्ञान - दान की बाढ़🤳 [ दोहा ]


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✍️ शब्दकार©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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ज्ञान बाँटने  की लगी, पढ़े-लिखों  में होड़।

चुरा - चुराकर बाँटते, ज्ञान सभी जी तोड़।।


स्वयं  कभी  करते नहीं,औरों को दें  ज्ञान।

ज्ञानी  ऐसे  देश के, इन  पर हमें  गुमान।।


लूट  मची  है  ज्ञान  की,लूट सके तो लूट।

लूट न  पाया  ज्ञान  जो, हो जाएगा   हूट।।


व्हाट्सएप पर ज्ञान की,आती है नित बाढ़।

जनसेवा  में  व्यस्त हैं,  दुखती अपनी दाढ़।।


मुखपोथी  पर  भेजते, बना वीडियो  लोग।

कर  दें   छूमंतर  सभी, कोरोना  का  रोग।।


चिड़ियों  जैसी  ट्वीट का, देते छोटा   मंत्र।

परहित में  टुटिया  रहा, भारत का जनतंत्र।।


करनी  कड़वी  माहुरी,कथनी जैसे    खाँड़।

नौटंकी   में  गा   रहा,  जैसे कोई    भाँड़।।


देख - देख  नित ज्ञान का,मोबाइल भंडार।

बिना  किए ही   हो रहा,अपना बेड़ा   पार।।


मंचों  पर  देखो  खड़ी, दो- दो सौ की भीड़।

पर्वत की  वनभूमि पर, खड़े हुए ज्यों चीड़।।


मास्क   लगाने  के  लिए,देते पर  उपदेश।

स्वयं  खड़े नंगे  बदन,धर ज्ञानी  का  वेश।।


जारक की चोरी करें,निज रक्षा का स्वार्थ।

नाम  छपा  अख़बार में,करते वे   परमार्थ।।


माहुरी =विषैली।

जारक= ऑक्सिजन।



🪴 शुभमस्तु !


०२.०५.२०२१◆३.३०पतनम मार्तण्डस्य।


शनिवार, 1 मई 2021

सरसों फूले खेत में 🌻 [ दोहा - ग़ज़ल]

 

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✍️ शब्दकार©

🌻 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

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असमय पीला  क्यों  पड़ा, मानव तेरा पात।

चिंतन का यह बिंदु है,देता अघ    आघात।।


बुरे  समय   में मौन ही,उत्तम एक    उपाय, 

सोच समझकर बोलना, बस आशा की बात।


उपवन  उजड़ा  देखकर, कलियाँ  हैं बेचैन,

दिन  में  भी  छाई  घनी, कैसी काली   रात!


किसको  हम  आरोप  दें, कौन नहाया  दूध,

भाँग कूप में जब पड़ी,क्या शह है क्या मात!


गेहूँ  के  सँग घुन पिसें, जग जानी ये रीति,

धुआँ उड़े सबको लगे,फैली जगत बिसात।


सोच न दूषित कीजिए,मन में हो शुभ भाव,

भाषा सदा सकार की,रखना सत अवदात।


'शुभम'सभी निरोग हों,सबका हो   कल्याण,

सरसों  फूले  खेत में,विकसे मानव    जात।


🪴 शुभमस्तु !


०१.०५.२०२१◆६.००पतनम  मार्तण्डस्य।

ग़ज़ल 🌳


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✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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दर्द का दायरा  तेज बढ़ता गया।

गैर पर दोष  इन्सान मढ़ता गया।।


अपना  भी    गिरेबाँ  जरा झाँकिए,

और के शीश पर यार  चढ़ता गया।


आपदा को कमाई का जरिया बना,

दूसरों  के  लिए  मंत्र   पढ़ता गया।


पाप  की खाद से रोग फूला फला,

 रँग  महल पाप के ही  गढ़ता गया।


जैसा बोया  'शुभम' कटना है वही,

छ्द्म  द्वारों  से  मनुज  कढ़ता गया।


🪴 शुभमस्तु !


०१.०५.२०२१◆३.००पतनम मार्तण्डस्य।


किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...