गुरुवार, 25 अक्तूबर 2018

डबल सिम थ्योरी

   अगर एक काम नहीं करेगी ,तो  दूसरी से हो जाएगा। यदि एक का नेटवर्क  गड़बड़ायेगा तो दूसरी से आश बांधी जा सकती है। उद्देश्य एकमात्र ये कि काम बाधित नहीं होना चाहिए। बात भी सही है। जब देश में मोबाइल की शुरुआत हुई थी, उस समय एक सिम के मोबाइल ही हुआ करते थे। काम भी चलता था एक ही से। पर अब तो दो-दो क्या तीन -तीन भी मिल जाती हैं। कई-कई सेट भी कम पड़ जाते हैं। ज़रूरत जितनी भी बढ़ा ली जाएं,  हमेशा कम ही पड़ती हैं। जीवन की घड़ियाँ निश्चित हैं, इच्छाओं का अंत नहीं है। जीवन को परिभाषित कर दे, ऐसा कोई संत नहीं है।।   
   बचपन में कभी अलीबाबा और चालीस चोर नामक कहानी में सिम शब्द पहली बार पढ़ा और सुना था , वह भी अकेली सिम नहीं, डबल सिम ही थी। सिम सिम खुल जा ,कहते ही गुफा का द्वार खुलता और सिम सिम बन्द हो जा कहते ही बंद हो जाता। कहानी लिखने वाले ने सिम की खोज सैकड़ों वर्ष पहले ही कर दी थी। हम कहते हैं कि ये विज्ञान की आधुनिक खोज है। जी नहीं , कहानी चाहे काल्पनिक हो या यथार्थ पर सिम की खोज तो तभी हो गई थी। हमारे लेखक औऱ सहित्यविद कितने दूरदृष्टा थे, कितने बड़े भविष्यवक्ता थे -इससे स्पष्ट  हो जाता है।
   इसी सिम थ्योरी  को ध्यान में रखते हुए यदि हमारे विद्वान  न्यायाधीशों की टीम ने जब अपना फैसला सुना दिया और एक के साथ एक ही नहीं कितनी/कितने भी रखने की छूट प्रदान कर दी, तो यह भी इस डबल सिम थ्योरी पर आधारित ही प्रतीत होता है। इसकी प्रेरणा भी शायद यहीं से ली गई होगी।  जिसके तहत दकियानूसी प्रथा को समाप्त कर दिया गया। धारा - 497 को रद्दी के टोकरे के हवाले कर दिया गया। अब कोई भी विवाहित पुरूष पत्नी के अतिरिक्त भी अन्य  सहेलियों के  संग संग कर सकता है और  समानाधिकार  की धारा के अनुसार अपने समान अधिकार का "सदुपयोग?" भी कर सकता है।  यही स्थिति स्त्रियों के लिए भी उतनी ही अधिक प्रभावकारी है, जितनी पुरुष के लिए। अर्थात पति के साथ साथ उसके अतिरिक्त सिम उपयोग करने का समान अधिकार प्राप्त है। एक ही सेट में जैसे कई सिम सुशोभित होते हैं , वैसे ही एक ही घर रूपी सेट में  कितने भी सिम रूपी नर नारी बाकायदा क़ानूनन  एक जायज तरीके से सेट  हों तो किसी को भी कोर्ट रूपी सर्विष सेंटर पर जाने की ज़रूरत नहीं होगी। यदि कोई भी शख्स ऐसा महसूस करता या करती है, तो उसकी याचिका प्रथम दृष्टया खारिज़ कर दी जाएगी।
   अलीबाबा से आज तक की सिम की यह विकास यात्रा चोंकाने वाली जरूर लगती है। पर पुराने सहित्य के पन्ने तो पलटिए जहाँ साहित्य, विज्ञान, समाज विज्ञान और विधि शास्त्र सब एक ही घाट पर पानी पी रहे हैं। परम्परा, चरित्र,  अपराध बोध, नैतिकता सब सड़ी-गली गलीज चीजें बनकर रह गए हैं।  अब इन सबका महत्व समाप्त हो
गया है। और सबसे बड़े मजे की बात ये कि हमारे अमेरिकन माइंडेड ब्रेन ने सब मौन और सहज भाव से स्वीकार कर लिया है।  सर्वत्र शांति है, क्या कानून की दहशत है,?क्या देश का इतना  अधिक नैतिक पतन हो चुका है?इसलिए। या हमारा समाज ही ऐसा हो गया है /हो रहा है इसलिए? ये बहुत सारे प्रश्नः हैं जो दिलो -दिमाग को कुरेदते ही हैं। ये डबल सिम थ्योरी  भविष्य को कहाँ ले जाएगी। कहा नहीं जा सकता। हाँ , इतना अवश्य है कि
व्यभिचार को अब शब्द कोष से खत्म करने का क़ानूनन अधिकार प्राप्त हो गया है। जब देश और समाज में व्यभिचार कुछ है ही नहीं , तो क्या शब्दकोश कोई मुर्दों का अजायब घर थोड़े ही है, जो उसमें फॉर्मेल्डिहायड डाल कर प्रिजर्व किया जाएगा?

💐शुभमस्तु !

✍🏼©लेखक
डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

ए पूर्णिमा के चाँद

     ए पूर्णिमा के चाँद 
     तू चारु  भी चंचल भी
    शरद के श्री गणेश का
    आनन्द भी
    अति  शांत मौन
    अमंद भी
     जल थल अम्बर में 
     छाया प्रकाश
    प्रकृति के पत्र-पत्र पर
    प्रसरित उजास
    मानों अधरों पर
   निखरा नव मूक हास,
   चाँदनी भी साथ -साथ
   तेरे  पारित: आस पास।

  चाँदनी बिना चाँद क्या !
  चाँद बिना नहिं चाँदनी
  परस्पर  का प्रणय उज्ज्वल
   सीमा नहीं बांधनी ,    
  क्वार की क्वारी चाँदनी
  करती - सी मनुहार तव
  प्रणय  में अनुरक्त प्रिया
  चाहत नहीं  कोई हो रव,
निश्छल निर्मल धवल  चाँदनी
अविकल अविरल चन्द्र रश्मियां
पूरक एक दूजे के दोनों
शरमाती मदमाती  रम्या।
💐शुभमस्तु !

✍🏼© रचयिता 
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

कौन किसको टहला रहा है?

   सुबह -सुबह  कुछ कुत्ते और कुछ आदमी (औरतें भी) सड़कों पर देखे जाते हैं। लेकिन जब भी उनको देखता हूँ तो ये समझना मुश्किल हो जाता है कि आदमी कुत्ते को टहला रहा है या कुत्ता आदमी को टहला रहा है? आदमी ने कुत्ता पाला है या कुत्ते ने आदमी को पाल लिया है? प्रथम दृष्टया देखने पर लगता है कि जो आगे है वही मालिक है और जो पीछे -पीछे घिसट रहा /रही है , वही अनुगामी है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि कुत्ता मालिक है और आदमी उसका अनुगमन करने वाला उसका  पालय। इस प्रकार कुत्ते और आदमी का पालक और पालय का सम्बंध है। कुत्ता रुका कि आदमी रुका। कुत्ता चल पड़ा तो आदमी भी चलने लगा। कुत्ते को •••••••लगी तो वह बिना आदमी (पालय/अनुगामी ) को पूछे हुए रुक गया। आदमी को भी रुकना पड़ा, रुकना पड़ेगा , क्योंकि कुत्ता उसका अनुगमन नहीं कर रहा है, वह स्वयं उसका अनुगामी है।  पीछे पीछे तो आदमी को ही चलना है कुत्ते के। जो दिख रहा है, वैसा नहीं है कि जंजीर कुत्ते के गले में बँधी दिखाई दे रही है, पर असलियत में बंधा हुआ आदमी है। जैसे नेता के पीछे पब्लिक, वैसे कुत्ता के पीछे आदमी। नेता अनुगम्य ,मालिक। जनता अनुगामी , बन्धित। कुत्ते के रुकने और चलने के अनुसार ही आदमी का रुकना या चलना है। कुत्ता आदमी का गुलाम नहीं, आदमी कुत्ते का गुलाम है। यदि राह चलते /टहलते आदमी का कोई दोस्त मिल गया तो रुक कर परस्पर दो बातें करना  कुत्ते ही इच्छा पर   निर्भर करता है, आदमी की इच्छा पर नहीं। यदि कुत्ता नहीं रुकता तो यही कहना पड़ता है कि दोस्त फिर मिलेंगे, ये हमारा डॉगी नहीं मान रहा /रुकने की इजाज़त नहीं दे रहा।  अच्छा दोस्त बाय !बाय!! औऱ वे कुत्ते के पीछे खिंचे चले जाते हैं। ये है मालिक और  नौकर/गुलाम का एक  दैनिक सड़कों पर देखा जा सकने वाला दृश्य!  जो दिखता , वह नहीं होता और जो होता है, उसे आदमी समझ नहीं पाता। बस यही कुत्ते औऱ आदमी की स्थिति हमारी और हम सबके दिमाग की है। हमारा मन -मष्तिष्क हमें जो आदेश करता है , हम वही करते हैं। हम जो चाहते हैं , वह हमारा मन -मष्तिष्क  नहीं करता। जब होना यही चाहिए। हम कुत्ते के  अनुगामी बने हुए हैं , जबकि हमारे मन -मष्तिष्क रूपी श्वान को  हमारा अनुगमन करना चाहिए।  यहाँ भी कुत्ता स्वामी है , औऱ आदमी उसका दास बना हुआ है।
   हमारे मन के दो   भाग होते हैं:चेतन मन और अवचेतन मन। चेतन मन से संसार की हर बात,  अनुभूति का ज्ञान प्राप्त करते हैं। जब कोई बात या अनुभूति हमारे चेतन मन में बार -बार आघात करती है तो वह बाई डिफॉल्ट वहीं स्थित होकर श्थिर हो जाती है। जब भी जाने अनजाने वह बात या अनुभूति हमारे  सामने आती है , वह हमारे अवचेतन मन से निकल कर उसीके अनुसार चलने को बाध्य कर देती है। जैसे विज्ञापन में एक ही विज्ञापन विभिन्न चेनल पर बार -बार दिखाया जाता है । तो हमारे दिमाग के अवचेतन में वह बस जाता है,और अच्छी न होते हुए भी हम वह वस्तु बाज़ार से खरीद लाते हैं। विज्ञापन का यही मानव - मनोविज्ञान है।  धीरे -धीरे एक छोटी सी चीज हमारे अवचेतन में पक्की सड़क बना लेती है।  स्वप्न भी इसी मानव मनोविज्ञान पर आधारित हैं।
    आदमी अपनी सोच से ही अज्ञानी - बुद्धिमान , अमीर - गरीब , मजबूत -कमजोर, सम्पन्न- विपन्न,  बनता है। क्योंकि हमारा मन रूपी श्वान हमारा मालिक बना बैठा है और हमें टहला रहा है। जबकि हमें अपने मन-मष्तिष्क का मालिक होना चाहिए।  इसीलिए तो उचित ही कहा गया है: मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।पारब्रह्म को पाइये मन ही कि परतीत।।

💐 शुभमस्तु !

✍🏼लेखक ©
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

मंगलवार, 23 अक्तूबर 2018

मी टू [Mee Too] अग्नियान

   मी टू कोई अभियान नहीं, अग्नियान है। जिसमें नारी स्वयं चिल्ला  चिल्ला कर कह रही है कि अमुक पुरुष ने उसके साथ इतने वर्ष पहले वह वह कृत्य किया था , जो  एक पति- पत्नी के मध्य होता है। उस वक्त उन्हें तरक्की की सीढ़ियां चढ़नी थीं, इसलिए मुँह नहीं खुला और साहस आया है कि सहज स्वीकृति का ढोल पीट पीटकर उदघोष किया जा रहा है।अब क्या उल्लू सीधा हो गया। काम निकल गया। बहादुरी दिखाने का अच्छा मौका है। दिखा लो। वैसे भी हमारे महाकवि गोस्वामी तुलसीदास ने अपने रामचरित मानस में  सोलहवीं सदी में लिख दिया है:

नारि स्वभाव सत्य कवि कहहीं।
अवगुण आठ सदा उर रहहीं।।
साहस अनृत चपलता माया।
भय अविवेक अशौच अदाया।।

नारी में साहस तो पुरुष की अपेक्षा अधिक है ही। इसलिए उनमें आज साहस का जागरण कुछ अधिक ही हो गया है। अनृत का अर्थ अन+ऋत' जो ऋत नहीं अर्थात झूठ । चपलता और माया (जो नहीं है, वही माया है। मा=नहीं, या= जो) अर्थात वह भी झूठ ही हुआ। सचाई तो है ही नहीं कहीं। उधर अविवेक भी आग में घृत के समान अर्थात क्या कहें क्या न कहें उसको सोचने समझने की सामर्थ्य से शून्यता। आदि आदि। दस बीस तीस वर्ष के बाद ये आग के वाहन यानी यान पर सवार होकर चलना कोई बहुत बुद्धिमता पूर्ण निर्णय नहीं कहा जा सकता।
   पश्चिम की नकल और अंधानुकरण पर जहां किसी भी स्त्री को कितने भी पुरुष साथी बदलने की आज़ादी है। वहाँ सुबह से शाम तक विवाह और तलाक दोनों सम्भव है। उन देशों के लोगों की नकल पर इतनी बोल्डनेस परिवार, समाज,राष्ट्र, धर्म, संस्कृति और सभ्यता सबके लिए महा घातक प्रयास है। जिस स्त्री को अपने पति, परिवार ,धर्म और समाज के विवेक का ध्यान होगा , वह कभी भी ऐसी बोल्ड स्वीकृति नहीं देगी। जो नारियाँ
इसके विपरीत चरित्र की स्वामिनी हैं, वे ही कोर्ट से न्याय की तलाश औऱ अपने साहस की दुंदुभी बजाती नज़र आ रही हैं। किसी पुरुष के ऊपर कीचड़ उछालने से हो सकता है ,उनका कुछ भला हो रहा हो।
   सहमति और जबरदस्ती में बहुत बड़ा अंतर है। अब कैसे सिद्ध किया जाए कि सहमति से हुआ या बलपूर्वक। यदि सहमति से  हुआ तो कोई गुनाह नहीं, वैसे वही आज माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने पत्नी के किसी परपुरुष से सहमति के आधार पर सहज यौन संबंधों को जायज , बाकायदा धारा 497 को समाप्त करते हुए  वैध बना दिया है। अब तो स्त्री के लिए भाड़ में जाए पति औऱ परिवार, अब तो वह वही कर सकेगी जो वह चाहेगी। इसमें उसकी राह में कोई पति, बच्चे, सास,ससुर, रिश्तेदार नहीं कह सकते कि बहू तू ऐसा क्यों कर रही है।
   एक तो करेला फिर  नीम चढ़ा  इधर विवाहेतर यौन संबंधों को स्वेच्छाचारिता की बलिवेदी पर होम किया गया , और अनैतिक सम्बन्ध क़ानूनन जायज़ करार दिए गए। और दूसरी ओर नारी के अविवेकी माया शील साहस ने उसे चपलता की हदें पार करने की हिम्मत दे दी। सिक्के का दूसरा पहलू ये है कि जिस साहस की बात आज कुछ नारियों में उभरी है, काश वही साहस कुछ या अधिकांश पुरुषों में आ जायँ, तब क्या होगा। वे भी कहने लगें कि मेरे ऐसे अवैध संबंध फलां फलां स्त्रियों के साथ हुआ करते थे। तब क्या देश और समाज में आग नहीं लग जाएगी? लोग अपनी पत्नियों को घर से बाहर का रास्ता दिखाने लगेंगे। तलाक के मामलों से कोर्ट भर जाएंगे।उनकी बेटियां  औऱ बेटे अपने पिता से नफ़रत करने लगेंगे। अच्छा आप ऐसे थे? आप चरित्र कितना गंदा है।आपको जीने का अधिकार नहीं है। आदि आदि। पर पुरुष का विवेक इस सबको स्वीकार करने की अनुमति
नहीं देता। उसे अपने परिवार , समाज और मर्यादा की फिक्र है। आज भी भारतीय  पुरुष की नैतिकता उतनी नहीं गिरी है। धारा 497 की अकाल मौत ने तो सारी नैतिकता की धज्जियां ही उड़ा के रख दीं हैं। अब क्या है?
आदमी को कुत्ता, बिल्ली, सुअर, गधा, घोड़ा की श्रेणी में खड़ा कर दिया गया है। कुछ भी करो, किसी के साथ करो, कहीं भी करो। कोई बैरियर नहीं, कोई स्पीड ब्रेकर नहीं। अनैतिकता औऱ पाशविकता की गाड़ी बेरोक टोक कहीं भी ले जा सकते हैं। पुरुष भी स्त्री भी। नो लाइसेंस नो सर्टिफिकेट, नो करेक्टर, नो चेकर, नो इंस्पेक्टर। न समाज के विरोध की चिंता न पति या पत्नी के विरोध का कोई अर्थ। कुछ भी करो न पाप न अपराध।
न कानून डर न पुलिस का खौफ़। ऐसी स्वचेच्छाचार आज़ादी फिर कहाँ मिलेगी।
   इन दोनों अग्नियानो में हमारी सरकार कम दोषी नहीं है। इस नैतिक पतन का सारा श्रेय सरकार का ही है। वह मौन धारण किए बैठी है। शर्माधीश और धर्माधिकारी मौन स्वीकृति दे रहे हैं। कहीं कोई आवाज नही। साई बाबा के विरोध में बोलने वाले कहाँ चले गए? धर्म में विष वपन करने वाले आस्था पर पत्थर प्रहारी अब चुपचाप कानों में तेल डालें बैठे हैं। कहाँ चली गई उनकी नैतिकता औऱ वेद पुराणों की दुहाई। सारे कुओं में भाँग घोल दी गई है। जिससे विद्वान न्यायाधीश भी अछूते नहीं हैं। अन्यथा ऐसे विनाशकारी निर्णय, देने और देश की मर्यादा, संस्कृति, सभ्यता, नैतिकता औऱ धर्म को नष्ट करने की इज्जाजत किसी  को भी नहीं है। किसी को भी नहीं है।

💐 शुभमस्तु !

✍🏼लेखक ©
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

रविवार, 21 अक्तूबर 2018

मी टू ! मी टू !! मी टू !!!

मी टू !      मी टू !!    मी टू !!!
किस  किस को  कोर्ट घसीटू।

तब था वसन्त  अब पतझड़
क्यों   कीचड़   उधर  पछीटू?

 खरबूजा    गिरे     छुरी   पर 
उस  छुरी  पे   दोष   मढ़ी दूँ?

 या   छुरी     गिरे    खरबूजा 
फिर भी   मैं ही    कटनी   हूँ।

हर    हाल    कटे    खरबूजा 
फिर   क्यों  बिंदास बनी  हूँ?

 ये     पुरुष    परुषतावाचक 
मैं    कोमल  कांत    कली हूँ।

एक  हाथ   न   बजती  ताली
ये बात  न    क्यों   समझी हूँ?

क्या  दूँगी  प्रमाण  साक्षी  में
क्या तथ्य   जुटा   सकती हूँ?

सहमति   थी   या जबरन था 
कैसे  क्यों  कह  सकती   हूँ? 

सबला   हूँ  तो  क्या   उनको 
झूठे    फँसवा    सकती   हूँ?

बिंदास   बोल   की    चिनगी
सर्वस्व    जला   सकती    हूँ?

डाले     अतीत     पर   परदा 
अब  तक  न भुला सकती हूँ?

मैं     शील     लाज की    सीमा 
पल भर में   जला    सकती  हूँ?

सोचूँ     सोचूँ        फिर   सोचूँ 
तब  "शुभम" बना सकती हूँ।

💐 शुभमस्तु !

✍🏼©रचयिता
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

बस वासना का द्वार मैं

तुम   परिधि   हो   मैं  केंद्र हूँ
नन्हा - सा     छोटा    बिंदु हूँ।

क्षेत्रज्ञ       तुम   मैं   क्षेत्र  हूँ
मस्तिष्क   तुम    मैं   नेत्र हूँ।

आकाश    तुम    मैं  इंदु  हूँ
कलंकित ही सही पर चंद हूँ।

किसने  किया  मैं  क्या कहूँ 
सहमति कभी बल  भी सहूँ।

सहमति रही  फिर ज्वार क्यों
केवल पुरुष  पर  भार  क्यों?

दूधों     पले   तुम   भी  नहीं
दूधों    धुली    मैं   भी नहीं ।

बस  भावना    का   फ़र्क़   है
मी टू  का   ये    निष्कर्ष    है।

पराशर    मुनि   की    नाव  में 
कुहरे   की     गहरी    छाँव में।

सत्यवती की  भी सहमति रही 
जो   व्यास   की    जननी रही।

विश्वामित्र    की    मैं    मेनका 
अविचल तपस्या  -  व्रत डिगा।

मम   पहल  का   सब खेल था
प्रकृति -  पुरुष का   मेल   था।

अहिल्या -संग शाचिपति इंद्र ने
जो छल किया  वह अक्षम्य थे।

सहमति   नहीं    बलात्कार  था
नर   इंद्र   को     धिक्कार   था।

संग   वासना   के    वश   हुआ 
मुर्गा   बना     छल  बल किया ।

देवर्षि नारद मोहिनी -आसक्त थे
सक्षम   भी   और    सशक्त   थे।

निश्चय   मैं      केवल   देह     हूँ
हर   पुरुष     का      सन्देह   हूँ।

हर   युग   में    मैं  ही  छली गई
सहमति   या   बल  से दली  गई।

नहा  धो के    तुम   हुए   दूर  ही
धोखे     मैं         मजबूर       ही।

नैतिकता   की  सब    धज्जियाँ
उड़    रहीं      ज्यों     तितलियाँ।

न्यायाधीश    के     दरबार    में
बस   वासना     का    द्वार   मैं।

व्यभिचार   अब  तो  कुछ नहीं 
किसी को  बुलाओ  सब  सही।

पत्नी   भी    जाए    भाड़   में
क्यों खोजें   धुँधली   आड़  में।

पति का न   मतलब अब  रहा 
पत  ही   गई   तो   क्या   रहा?

नर मादा   का   केवल खेल है
नहीं    होनी   कोई    जेल  है।

कुत्ते    बिल्लियाँ     घोड़े  गधे
मानव  भी   उस   पलड़े  सधे।

विवाह  का   क्या   अर्थ  अब
अब   हो   गया है   व्यर्थ  सब।

पति   के   लिए   पत्नी    नहीं 
पत्नी के   हित पति  भी  नहीं।

बस    आदमी      औरत  बचे 
संग     उसका       जो     रुचे।

 गधी - गधे       घोड़े -  घोड़ियाँ
त्यों     मर्द - औरत     श्रेणियाँ।

क़ानून    भी   तो     मर   चुका 
पशु - आचार का  फाटक खुला।

मर      गई        हर     नैतिकता
जी      रही      है       भौतिकता।

क्या  हश्र    हो   भवितव्य   का
अब  तक न   मानव  बन सका।

पशु   था  ये   इंसां   पशु ही रहा
पशु  से    न   ऊपर     जा  रहा।

💐शुभमस्तु  !

✍🏼©रचयिता

डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2018

अब आई असली आज़ादी

   अब व्यभिचार अपराध नहीं है। व्यभिचार को अपराध मानने वाली  धारा :497 अब मननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा असंवैधानिक ठहरा दी गई है। पुरुष और स्त्री को बराबरी के अधिकार के अंतर्गत अब यौन स्वायत्तता भी प्राप्त हो गई है। विवाह के बाद चाहे पुरूष कितनी भी स्त्रियों को अंकशायिनी बनाये, अब कानूनन जायज है।इसी प्रकार कोई स्त्री भी यदि विवाह के बाद अपने कितने ही पुरुष मित्रों से सम्बंध बनाये ,तो इसमें कोई पति न रोक सकता है। न हस्तक्षेप कर सकता है और न कोर्ट में  ही याचिका दाख़िल कर सकता है। क़ानूनन अधिकार जो मिल गया। अब तो पति के सामने पत्नी और पत्नी के सामने पति अपने -अपने विपरीत लिंगी मित्रों के साथ अपनी इच्छापूर्ति करके संतुष्टि प्राप्त कर सकेगा।
   पशु पक्षी और मानव में अब कोई फ़र्क नहीं रह गया। सामाजिक सिद्धान्त औऱ उसूलों की बात ही खत्म कर दी गई। अब विवाह संस्था का क्या मतलब रह गया? जब विवाह के बाद उन्हें व्यभिचार में ही लिप्त रहना है, तो हमारे प्राचीन परम्परागत सिद्धांत हवा कर दिए गए। अब थाने में दरोगा जी भी नहीं सुनेंगे। कहेंगे -अरे भाई मननीय सर्वोच्च न्यायालय ने ही धारा -497 समाप्त कर दी तो अब यह अपराध नहीं, अधिकार है। बराबरी का अधिकार।कुत्ते बिल्लियों जैसा अधिकार।तुम कोई पत्नी के मालिक तो हो नहीं, औऱ न ही वह तुम्हारी प्रोपर्टी है।
पता नहीं प्रधान न्यायाधीश ने कहा है कि धारा 497  लिंग आधारित  घिसी -पिटी सोच है,जिससे महिला की गरिमा पर चोट होती है। इस धारा में सम्बंध बनाने के लिए पति की सहमति  या सुविधा  एक तरह से पति के अधीन बनाती है। ये धारा अनुच्छेद 21 में मिले स्वतंत्रता और जीवन के अधिकार का उल्लंघन करती है। जस्टिस आर एफ नरीमन ने अपने फैसले में कहा है कि 'महिला उस पति पर मुकदमा नहीं कर सकती , जो दूसरे की पत्नी से सम्बंध बनाता है। जिस महिला से उसके पति ने सम्बन्ध बनाये हैं , उसके खिलाफ भी पत्नी कुछ भी नहीं कर सकती।' अब वह बात पुरानी नहीं , व्यर्थ की बात हो गई कि पति की चहेती से पत्नी उसकी पत्नी चुटिया पकड़कर कहे कि चल निकल तूने ही मेरे पति और गृहस्थी को बरवाद किया है। अब सब जायज है। क़ानूनन व्यभिचार  को मान्यता प्राप्त है।
    आज पश्चिम की नकल में हम कहाँ जा रहे हैं। वर्जिनिटी और कौमार्य की महत्ता पर तुषारापात हो गया है। अब पुरुष या नारी के चरित्र के कोई मानी नहीं रह गए। अब क्या जरूरत रह गई स्कूल कालेजों में चरित्र प्रमाण पत्र लेने की? उसकी कोई उपयोगिता व्यर्थ कर दी गई है। विवाह के महत्व और पवित्रता का मान भंग हो चुका है।अब कैसा पतिव्रत ? कैसी पतिव्रता?कैसी पवित्रता ? कैसी करवा चौथ और किस किस के लिए? और अगर है तो पता नहीं चेहरा किसी का छलनी में देखा जा रहा है और लंबी उम्र की कामना किसी औऱ के लिए । जब विवाह संस्था पर ही पत्थर पड़ गए तो एक इंसान औऱ पशु में अंतर ही क्या रह गया !  एक औपचारिकता के नाम पर बैंड बजवा लो, खुश हो लो , सेहरा बांधों, बारात ले जाओ, सुहागरात भी मना लो, लेकिन उसके बाद न मना कर पाओगे न रोक टोक कर पाओगे। कहाँ जा रही हो?/कहाँ जा रहे हो? कब आओगे ?कब आओगी? उससे क्यों मिलती हो?/ क्यों मिलते हो। वह घर पर क्यों आता है?/आती है? तुम उसके पास क्यों जाती हो?/ क्यों जाते हो।जैसे  बहुत सारे प्रश्न स्वतः समाप्त हो गए हैं। क़ानूनन समाप्त कर दिए गए हैं।  धारा-497 पूर्णतः दकियानूसी हो गई। चरित्र, पवित्रता , शील , सदाचार , पातिव्रत , पत्नीवृता , सब ढकोसले हो गए।  खुली छूट। पूरी तरह मनमानी  और स्वेच्छाचार की आज़ादी। आख़िर क्या होगा इस देश का। अब सीता ,सावित्री जैसी महान नारियां केवल उदाहरणों और किताबों में दम घुट घुट कर रहेंगी।राम, लक्ष्मण, विवेकानन्द,जैसे महान चरित्र  इतिहास बन जाएंगे। अब हम अमेरिका होने की डगर पर हैं। तो इतना आदर्श का पोटला तो विसर्जित करना ही पड़ेगा। परिवार, धर्म, पावनता, गृहस्थी , सब टूट टूट कर बिखर जाएंगे। धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो - ये केवल नेताओं के नारों की तरह धीरे धीरे दम तोड़ देँगे। प्राणियों में सद्भावना क्यों और कैसे रह जाएगी?  इतिहास अपने को दुहराता है-ये कहा जाता है। मनुष्य भी पहले पशु है, बाद में मानव। अब वह केवल पशु ही रह जाएगा। क्योंकि उसे अपने इतिहास को दुहराकर पुनः आदिम अवस्था की ओर जाने का कानून बना लिया है।अरे भी सुप्रीम तो सुप्रीम होता है। अब सुप्रीम का विरोध करके जाओ तो जाओ कहाँ? कोई परमात्मा की सुप्रीम सत्ता का विरोध कर पाया है? इसी तरह इस देश का सुप्रीम भगवान कोर्ट है। वह जो भी फैसला कर दे। मानना हमारी बाध्यता होगी। अन्यथा उसके उल्लंघन का आरोप माथे पर चिपका दिया जाएगा।
   मुझे आश्चर्य तब हुआ जब 28 सितंबर 2018 के अखबारों में  ये पढ़ने को मिला" विवाहेतर सम्बन्ध अपराध नहीं" । तो ऐसा लगा कि इस देश के सारे नैतिकता वादियों, धर्म के ठेकेदारों , समाज सुधारकों , नेताओं, विधायकों, सांसदों, मंत्रियों, प्रोफेसरों,  बुद्धि जीवियों को जैसे साँप सूंघ गया। सबकी बोलती बंद हो गई। थोथी सी हलचल हुई और सब सहज स्वीकार लिया गया कि चलो भाई अच्छा हुआ। न कोई सती बोली, न कोई सता। न पति बोले और पत्नियां भी लापता। सुप्रीम कोर्ट के ख़िलाफ़ कौन बोले? सब की बोलती बंद। एक राहत की सांस लेकर सब
शांत हो गया। मैं इस प्रतीक्षा में इसी उधेड़बुन में रहा कि तीन हफ्ते तक कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं दिखाई सुनाई पड़ी। थोड़ी बहुत टी वी पर  कह सुन लिया। और सब स्वीकार। नक्कारखाने में  तूती की आवाज भला कौन सुनता है! पर कोई बात बात नहीं। तूती अपनी आवाज़ करेगी औऱ जरूर करेगी।नैतिकता की रक्षा के लिए
, विवाह संस्था की सुरक्षा के लिए विवाहेतर सम्बन्ध को अपराध न मानना उचित नहीं है। नहीं है। नहीं है। मनुष्यता को भाड़ में नहीं झोंका जा सकता।  ये गलत है। नितांत गलत है।

💐शुभमस्तु!

✍🏼लेखक©
 डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

धारा करवा 4 समाप्त

धारा करवा चौथ अब लागू नहीं है
पश्चिम की हवा ने इंडिया में कही है.

पति के अलावा सब जायज़ हैं साथी
पत्नी के लिए पति बाधा नहीं है.

किसी को बुलाओ किसी के घर जाओ
व्यभिचार अब अपराध ही नहीं है.

एक हो तो मनाएँ करवाचौथ भी खुशी से
क्वार के बौरायों को क्या कुछ कमी है!

संपत्ति नहीं पत्नी कोई किसी भी पति की
मेरी नहीं न्यायविदों की कही है.

शादी शुदा का बस लाइसेंस ले लो
जो मर्ज़ी में आए वही करना सही है.

निभा लो भले चाहे रिश्ते पुराने
नए 'गर बना लो मनाही नहीं है.

बराबर का दर्जा है औरत मरद का
पत का पतन भी बराबर सही  है.

पत तो गई अब पत्नी पति से,
वाइफ -हसबैंड ही कहना सही है.

पता है "शुभम" हम हो गए अमरीका
दकियानूसी वे बातें मुनासिब नहीं हैं.

💐शुभमस्तु!
✍🏼रचयिता
©डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

अगर 'वही बात' मर्द कह देता

अगर 'वही बात' कोई मर्द कह देता,
तो जमाना उस मर्द को क्या क्या न कह देता।

बराबर का जमाना तो बराबरी की बात तो हो,
अगर बिंदास है औरत तो क्या मर्द सह लेता?

अगर मुँह खोलकर दो चार नामों को-
मर्द कह देता, तो कोई कैसे सह लेता?

लोग तो उस जान के ग्राहक ही बन जाते,
कोई कोर्ट क्यों जाता हाथ कानून गह लेता!

लज्जाशीलता शर्म ओ हया की दीवार टूटी है,
बेबाकियत के नाम पर क्या क्या न हो लेता!

जो जिन्न बोतलबंद था देखो तमाशा अब,
उठी जिसकी भी दुम ऊपर वो गर्दन झुका देता।

चौगुनी लज्जा किसी औरत में मर्दों से,
वह चाणक्य भारत का यूँ ही न लिख देता।

मर्द चुप आज भी खुद को बचाने में,
चौगुनी लज्जा का हस्र क्या ये सब होता?

बगबगे कपड़ों  से ढँके अब सड़क पर आओ,
रजामंदी नहीं थी या कोई यूँ ही बक देता !

 हम जा रहे किस ओर छाया अँधेरा है,
पश्चिम की नकल में क्या क्या न हो लेता।

💐शुभमस्तु!

✍🏼रचयिता©
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

गढ़े हुए मुर्दे

गढ़े  हुए  मुर्दे  उखड़ने  लगे हैं,
पड़े हुए  थे पर्दे उघड़ने लगे हैं।

तब शर्म थी अब विदा हो गई है,
खुलेआम इक़रार  करने लगे हैं।

मजबूरी रही या चढ़नी थी मंज़िल,
चुपचाप थे अब   बिफरने  लगे हैं।

बड़ा आसान अब मर्द को फंसाना
जवानी के   तजुर्बे उभरने लगे हैं।

जानते हैं सुबूत अब मिलना नहीं है
दिल में जो आए कहने लगे हैं।

धुआँ जो उठा है तो रही आग होगी
हम मक़सद की माथापच्ची में लगे हैं।

जमाने के नए रंग अब रूबरू हैं,
कौन क्या कह दे हम डरने लगे हैं।

'मी टू' का मीटिंग से रिश्ता करीबी
बिंदास बोलों के खरबूजे पके हैं।

बुरे हादसे जो हुए थे  कभी कुछ,
बेलगाम" शुभम" अब दहने लगे हैं।।

💐शुभमस्तु!

✍🏼रचियता ©
डॉ.भगवत स्वरूप"शुभम"

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...