मंगलवार, 31 जुलाई 2018

सरकारः सरकारस्य भोजनम

रीति पुरातन अब लों चलि आई।
छोटी मछली     बड़ी  नें   खाई।।

जलचर जंगल   नियम   बराबर।
थलचर जीवें   थलचर   खाकर।।

बाज   खाय   पिड़कुली    परेवा।
जान बचावें  निज   कुल   सेवा।।

बिल्ली चूहा   की    बैर   कहानी।
सब  जानें    क्या   और   बतानी?

शेर   खाय     जंगल   के  प्राणी ।
सिंहासन   की    यही   कहानी।।

नेता  नेता     का    है     दुश्मन।
इसीलिए रहता    नित   बनठन।।

माल   बिकाऊ    परदे     परदे।
पहले  कर में रोकड़   भर    दे।।

एक  मेज पर   एक ही    जाम।
एक ही    मुद्दा    एक   मुकाम।।

पर   संसद   में    लड़ते    ऐसे ।
जन्म -जन्म के   दुश्मन   जैसे।।

खों -खों खों -खों   खें-खें खें-खें।
ज्यों   मंडी में      मछली   बेचें।।

तोड़ दिया    मानव   मानवता।
जाति - भेद  कर तोड़ी जनता।।

बना आदमी  शत्रु    मनुज   का।
सिर्फ सियासत की यह कृतिका।।

सरकारें   सरकार    का   भोजन।
चलना नहीं    सात    सौ योजन।।

कुछ  रिज़ॉर्ट में   पिकनिक करते।
कुछ कुर्सी -तलाश      में   रहते।।

रातों   रात      बदलते       पाले।
बहुमत को   पड़   जाते    लाले।।

निष्ठा नामक   कोई   न  चिड़िया।
खुद खाने को  आनन   भिड़ीया।।

'सरकारः    सर्कारस्य    भोजन।'
"शुभम"यही क्या सत अनुमोदन !

💐शुभमस्तु!

©✍🏼डॉ. भगवत स्वरूप "शुभं"

विकास, विकास और विकास

ये विकास का युग है,
हम सब विकासशील हैं
हर क्षेत्र का   निरन्तर   विकास
चाहे नैतिकता का हो सत्यानाश,
नैतिकता हाँफ रही है
कराह     रही        है
पर विकास सुपर सोनिक
विमान   पर   आरूढ़  है,
विकास का फार्मूला बड़ा गूढ़ है,
जो न समझे ये फार्मूला
वह आज  के युग का मूढ़ है,

अब नहीं होतीं छोटी छोटी चोरियां
नहीं  छीने जाते बैलट पेपर
ई वी एम न बैलट बॉक्स,
अब तो केवल और केवल
ऊँची कुर्सी पर फ़ोकस,
कितनी भी सीटें कोई जीत जाए
सरकार तो लाठी धारी की है,
तिकड़म , खरीद फरोख्त
किडनैपिंग सब कुछ जायज ,
युद्ध औऱ सियासत में
कुछ भी  नहीं  नाज़ायज़,
रातों -रात नक्शे पलट जाते हैं
इधर वाले उधर हो जाते हैं,
बे पेंदे के लोटा भक्त नेता
सुबह को इसमें
शाम को उधर नज़र आते हैं।

उन बेचारों की भी मजबूरी है,
यदि उनकी कुर्सी से अधिक दूरी है,
तो घुटघटकर दलभक्त नेता  बनकर क्या करें?
उद्धार जो करना है सात पुश्तों का
तो क्यों न पाले का परिवर्तन करें?
आखिर वे भी देश के
'आदर्श'नागरिक हैं,
और  उन्हें भी अपना और
अपनों का विकास करना है,
एक ही दल में फँसकर
क्या केरियर बरवाद करना है,
सियासत कोई समाज सेवा
तो  है  नहीं ,
स्व-साज सेवा है,
अच्छा खासा उद्योग धंधा है,
पढ़लिखकर कोई क्या कमाएगा
कोई भी बता दे
जो ऐसा बंदा है?
न डिग्री चाहिए
न चरित्र का झमेला,
झूठ , फरेब , गुंडई,
घड़ियाली आंसूं
औऱ हेकड़ी दबंगई,
यही कुछ 'विशेष सद्गुण'
अनिवार्य हैं,
बस दिलवा कर
बगबगे बगुला जैसे वसन
नेता बनना  शिरोधार्य है,
अपना ही विकास नहीं
तो किसका करें,
समाज सेवा के ठेकेदार नहीं
यह भी तो विचार्य है।

विकास की भाषा बदली
परिभाषा भी  बदली है,
समंदर से सिमटकर
आकाश से उतरकर
तिजोरी में आ अटका है,
आप कितना  भी कहें विकास भटका,
यही तो निज विकास का
हल्का -सा  झटका  है।
इसी विकास के बल पर
अमेरिका जर्मन से
टकरा रहा है,
ये बात अलग है
कि खुलकर आने में
वोट की चिलमन में
पड़ौसी से बतियाने में
शरमा रहा है।

💐शुभमस्तु!
©✍🏼डॉ. भगवत स्वरूप",शुभम"


सरकार बचाए रखना

पहले  चोरी   होती      थीं  कारें
अब   चोरी    होतीं   हैं  सरकारें
सोते ही मत    रह     जाना  तुम
निगरानी    पूरी     रखना    तुम ।

मत  रहना    भरोसे    वोटर   के
ई वी एम       या       बैलट    के
ये  कलयुग   है   कलि  चालों का
मानव    की  क्रूर   कुचालों  का ।

परिणाम  -   भरोसे   मत  सोना
कुर्सी   खोए  फिर    मत    रोना
यहाँ   कोई    दूध  से  धुला  नहीं
कोई   सत्य -तुला  पर तुला नहीं।

जिसकी   लाठी  वही  भैंस  रखे
कमजोर  की   लाठी   नहीं दिखे
चित भी    मेरी    पट  भी    मेरी
हट  पीछे      कुर्सी      है   मेरी।

लोकतंत्र    बस       कहने    को
इस  देश   में   केवल   रहने  को
बाकी   सब क्या    है क्या  कहें
मनमानी    को    जनतंत्र   कहें।

ये  लोकतंत्र     या   खेल   बना
झूठा    डकैत ही  अधिक  तना
पूछे    न    प्रबुद्धों   को    कोई
मध्यम     जनता  चुपचुप  रोई।

भेड़तंत्र         का      चमत्कार
जो  जीता    उसकी  हुई    हार
कानून की शरण "शुभम" सत्यं
लोकतंत्र   की     नित   हत्यम।

💐शुभमस्तु!
©✍🏼डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

अतीत

   प्रायः अतीत शब्द का विलोम रूप वर्तमान  लिखा  - सुना जाता है।  लेकिन यदि इस शब्द- पर सुविचारित रूप से दृष्टिपात किया जाय तो इसका तात्पर्य  और भी रोचक हो जाता है। अतीत शब्द  अ+तीत  के संयोग से बना है। यहाँ का अर्थ नहीं और तीत का अर्थ नमी /आर्द्रता है। अर्थात जहाँ नमी न हो, सूखापन हो : वह अतीत है। इस आधार पर अतीत का विलोम हुआ सतीत्स+तीत अर्थात तीत, नमी या आर्द्रता से युक्त, जिसे 'वर्तमान' कहा जाता है। जिसकी तीत चली गई , वही अतीत हो गया। यद्यपि अधिकांशतः जीवन के अतीत या भूत काल की प्रशंसा करते हुए देखे सुने जाते हैं कि पुराने दिन कितने अच्छे थे। थोड़े में सब काम हो जाते थे। संतोष था, सुख था। और थी परम शान्ति, और इसी शांति की खोज करते  करते आदमी आज कहाँ से  कहाँ जा पहुंचा !  शांति की खोज ज्यों ज्यों बढ़ती गई , हम अशांत ही होते चले गए।  भौतिकता वाद बढ़ता गया । ग्रामोफोन , रेडियो और ट्रांसिस्टर के युग के  बाद कम्प्यूटर , मोबाइल , टी वी से भी आगे बढ़कर  नई नई खोजों ने आदमी को आदमी से मशीन बना दिया । शांति समाप्त होती चली गई। मानवीय संबंध स्वार्थपरता और पर पीड़न में में बदलते गए।
आदमी कलों का गुलाम हो गया। इसी को वह तीत मानने लगा , जबकि वास्तविक तीत तो भूत काल (भूत अर्थात जो हुआ या हो चुका ,वही भूत है।जो नहीं  हुआ, वह अभूत है) है। लेकिन चूँकि वह अब नहीं है , पुनः उसका प्रत्यावर्तन सम्भव नहीं है , इसीलिए वह तीत से रहित होने के कारण अतीत कहा गया है। वर्तमान चाहे जितना सूखा हो, तीत रहित हो,  लेकिन वह हमारी आँखों के सामने है, प्रयास करके उसमें तब्दीली या सुधार का जतन किया जा सकता है , इसलिए वही सतीत है।  इसके विपरीत अतीत या व्यतीत काल में परिवर्तन या सुधार का कोई भी प्रयास कर पाना असम्भव है, इसीलिए वह अतीत है।   
   हाँ, लिखते - लिखते  एक शब्द और याद आया व्यतीत। व्य (व्यय)+तीत अर्थात जिसकी तीत व्यय हो चुकी हो, खर्ची जा चुकी हो। माने वही जो अतीत के हैं। जैसे गई हुई तीत नहीं लौटती वैसे ही  गया हुआ समय भी नहीं आता। कितने सार्थक औऱ सटीक हैं  हमारे ये अतीत ,सतीत और व्यतीत । विचार करें तो ये शब्द हमें  बहुत कुछ शिक्षा प्रदान करते हैं। अतीत की धरती पर ही सतीत की नई शिला का न्यास रखा जाता है।  औऱ ये सतीत ही अगले क्षण अतीत बन जाता है।  इसलिए     सतीत  ही अतीत है , वही   भावी   है, आगे होने वाला है।सतीत संभालों तो अतीत और भावी सभी उज्ज्वल।

💐 शुभमस्तु !

✍🏼लेखक©
डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

सोमवार, 30 जुलाई 2018

काले गोले

काले गोले बनाने आ गए
बस    हो     गई    शिक्षा
आँख बंद कर गोले बनाओ
यही         है        शिक्षा!!

काला गोला    काला अक्षर
भैंस  बराबर    काक बराबर
इससे  क्या    पड़ता है अंतर
यही तो है नवशिक्षा का मंतर।

 गोला   बनाना   सीख गए तो
आधी   शिक्षा   पूर   गए    वो
कभी  न खोली   पोथी अपनी
 फिर भी फ़र्स्ट डिवीजन आनी  ।

काला  गोला    बड़ा    निराला
सिर्फ इशारे से    चल  निकला
अन्दर   बाहर     उलटा   तवा
भले  बाद  में  कर  दे   तबाह।

न कोई फिटकरी  ना कोई हर्रा
काला    गोला      दौड़े     सर्रा
यही  है काला अक्षर भैंस समान
हाथ उपाधि  की    तीर   कमान।

खुद  नहीं  आवे  गिनती  पहाड़े
बन टीचर   कक्षा    में    दहाड़े
काले  गोले    की   ट्रेनिंग   पाई
तब मास्टरी की नौकरी हथियाई।

जहाँ  से चले वहीं    पर   पहुँचे
काली  परिधि के  बड़ बढ़ चर्चे
दिल  भी काला   मक्कड़जाला
दिखा   हेकड़ी    गरम मसाला।

"शुभम" श्याम  गोले  का जादू,
ना मैने पाई  तुम्हें   मैं क्या  दूँ?
लगाय के गोला   नौकरी  पाई
गोला  - शिक्षा    सदा    सहाई।

💐शुभमस्तु!

डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

हमारी परीक्षा प्रणाली

   कोई जरूरी नहीं कि आप मेरी बात से सहमत हों ,क्योंकि 'मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना'। लेकिन यह बात विचारणीय अवश्य है कि वर्तमान में  यौवन के उभार पर चढ़ रही हमारी 'वस्तुनिष्ठ परीक्षा प्रणाली'देश के वर्तमान और भविष्य के लिए एकदम उचित नहीं है। इससे ज्ञान का विस्तार नहीं , विनाश हो रहा है। अंततः ये प्रणाली लाई ही क्यों गई? इस पर विचार करना बहुत जरूरी है। मेरी अपनी मान्यता ये है कि मानव की सुविधाभोगी और शॉर्ट कट चलने की  प्रवृत्ति का परिणाम है ये वस्तुनिष्ठ परीक्षा प्रणाली , जिससे बड़े -बड़े आई ए एस , आई पी एस और पी सी एस आदि उच्च पदासीन हो रहे हैं। मैं उनकी योग्यता पर कोई प्रश्न चिन्ह लगाने नहीं जा रहा , किन्तु कुल मिलाकर योग्यता परीक्षण का ये तरीका उचित नहीं है। इसी पैटर्न पर स्नातक और परास्नातक स्तर पर भी ऑब्जेक्टिव प्रश्न पूछने की बाढ़ आ  गई है।
   यदि 100 प्रश्नों में से कोई निरक्षर व्यक्ति को भी हल करने को दे दिया जाए तो यदि वह अनजाने ही केवल A , या केवल B या केवल C या केवल D पर ही चिन्हित कर दे तो 35-40 अंक तो  ले ही आएगा। क्या पढ़ाई लिखाई का  मतलब केवल इतना ही है? इससे  कौन से ज्ञान का परीक्षण हो गया? आदमी शॉर्टकट  चलना ज्यादा पसंद करता है। तो क्या शिक्षा में भी , ज्ञान अर्जन में  ही शॉर्टकट चलेगा?
   शिक्षा नीति की गाड़ी का एक्सिलरेटर सियासत के हाथ में है। सियासत और शिक्षा एकदम विरोधाभासी हैं।सियासत नहीं चाहती कि लोग शिक्षित बनें। केवल नारे , बैनर और कोरे प्रचार प्रसार से शिक्षा का विकास नहीं
होने वाला।यदि लोग पढ़ लिख कर योग्य बन गए तो इनकी आवभगत, रैली ,थैली, माला, शॉल, का इंतज़ाम कौन करेगा ? जिसकी जितनी लम्बी पूँछ वह उतना बड़ा सियासतदां। योग्य और स्वावलम्बी व्यक्ति किसी का पिछलग्गू नहीं होता। इसलिए  अल्प शिक्षित , निरक्षर या इसी प्रकार का व्यक्ति उनकी पूँछ की लंबाई  बढ़ाता है। इसीलिए शॉर्टकट परीक्षा पद्धति पर जब विश्वविद्यालयों की एकेडमिक कमेटियां बैठती हैं तो वे भी उन्हीं के इशारे पर निर्णय लेकर वस्तुनिष्ठता को ही  संस्तुत करती हैं। टीचर को पढ़ाना न पड़े, स्टूडेंट को कालेज आना न
पड़े , यही शिक्षा व्यवस्था सबसे अच्छी।
   जब तक विद्यार्थी को गहन अध्य्यन न कराया जाए, तबतक कोरा किताबी ज्ञान किस मतलब का? कालेजों में लैब नहीं , लेब हैं तो समान नहीं ,  सामान है तो दिखावटी और निष्प्रयोजनिय। शिक्षक नहीं ,  शिक्षा नहीं। केवल
कोरी खानापूर्ति।किसी को डिग्री का लालच, किसी को विवाह हेतु दहेज वृद्धि के पट्टे की  जरूरत? न कोई पढ़ाना चाहे औऱ न कोई पढ़ना चाहे। अभिभावक औऱ माता पिता खुश कि बिना स्कूल कालेज भेजे ही डिग्री मिल जाएगी। उसे  भी सब शिक्षा शॉर्टकट से ही मिलने में खुशी है।  विद्यार्थी को कालेज में पहले दिन का मुहूर्त तब निकलता है जब वह प्रेक्टिकल या थ्येरी के पेपर देने जाना हो। उसमें भी मजे की बात ये कि उसे पूछना पड़ता है कि किधर जाना है ? उससे भी बड़े मजे की बात ये  कि उसे अपने विषय की स्पेलिंग भी नहीं आती। ऐसे खड़ा है जैसे लड़की वाले  पूँछ रहे हैं -'लला  कौन सी क्लास में पढ़त हौ'। एकदम सन्नाटा। जैसे अभी बेचारे ने अभी बोलना सीखा भी नही हो! रोटी को ओटी औऱ पानी को पप्पा कहता हो। 
   ये सब किसकी देन है। और उसका परिणाम भोग रही है नई पीढ़ी। ये सब सियासत और सियस्तग्रस्त शिक्षा व्यवस्था का दोष है। प्रश्नपत्रों की संख्या घटाते जाना, वस्तुनिष्ठता बढ़ाते जाना-ये  सभी शिक्षा के विनाश के लक्षण हैं। इतनी मोटी मोटी पोथियाँ क्या इसी लिए हैं?  वर्णनात्मक परीक्षा पद्धति ही सर्वश्रेष्ठ है। ये ग्रेजुएट किस कम्ब
के, जिन्हें एक आवेदन पत्र भरना नहीं आता, लिखना नहीं आता, अपना नाम पता तक सही सही नहीं लिख सकते, किसी भी विषय पर 10 पंक्तियाँ तक नहीं लिख  सकते। बैंक में पैसे निकालने के लिए स्लिप भी भरने में पसीने छूट जाते हैं। ये हाल है हमारी शिक्षा का। फिर अमेरिका और पशिचमी शिक्षा से कैसे होड़ ली जा सकती हैं?फिर क्यों न प्रतिभा पलायन हो। शिक्षाविदों को राजनीतिक कुंडली से बाहर आने की न समझ है न समय है। वे भी लकीर के फकीर बनकर शिक्षा के विनाश के प्रमुख  कारक बने हुए हैं ।

शिक्षा   का पतन
इस देश का पतन
नई पीढ़ी का पतन
भविष्य का पतन।

💐शुभमस्तु!
©✍🏼डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

जीजाजी

   जीजी और जीजाजी बहुत प्यारे, मनभावन और उमंग -उत्पादक शब्द हैं।' जीजी 'अर्थात 'प्रकृति' और 'जीजा' अर्थात पुरुष। इन्ही दोनों के संयोग से सृष्टि का सृजन होता है। 'जीजी' शब्द में मानो बार - बार कहा कहा जा रहा हो कि (तू) जी जी , तू जिएगी तो सृष्टि की सर्जना सजेगी, वरना तेरे बिन सृष्टि कहाँ? सृजन कहाँ औऱ कैसे ? तू ही वह कारक है जिससे इस संसार और मानव सृष्टि का सफ़ल शृंगार होना है , हो रहा है औऱ होगा । इसलिए तू जी जी। इस सृष्टि की कारणरूपा तू जी। उधर कानों में एक चंचल माधुर्य घोलने वाला शब्द 'जीजाजी' , कितना आकर्षण ,आत्मीयता और लगाव भरा हुआ है इसमें। पड़ते ही कानों में में एक रस घुल जाता है। इन सम्बोधनों के लिए कोई और नहीं बहन , साली और साले का भी सृजन हुआ है , वरना इनके बिना कौन जीजी और जीजाजी को अस्तित्व में रखता!
   जीजी है इसलिए जीजा भी है। 'जीजा ' यानी तू  भी जीता रह, जब तुम नहीं तो जीजी का क्या? जीजी है तो जीजा तो आवश्यक ही नहीं ,अपरिहार्य है। ये बात अलग है कि जीजी को जीजी और जीजा को जीजाजी कहने वाला/वाली नहीं हों। फिर भी उन दोनों का अस्तित्व है, लेकिन वह रसमयता औऱ निश्छल स्नेहिलता न रह पाए।इसलिए साली औऱ साले का होना भी  ठीक वैसे ही है जैसे मोदक में घृत होने से स्वाद अगणित गुणा बढ़ जाता है। छोटे भाई और बहनें तो बड़ी बहनों को जीजी कहते ही हैं , लेकिन वह एक सामान्य प्रक्रियागत सम्बोधन है ,उसमें विशेषत्व का समावेश उस वक़्त होता है , जब जीजी का विवाह हो जाता है और वह जीजाजी सम्बोधनधारी को अपने जीवन में ऐसे जोड़ लेती है जैसे माधुर्य में स्नेहिलता का समावेश। वे एक दूसरे के अभिन्न पूरक बन एक नए परिवार , नए संसार , नए विचार  और नए संस्कार को जन्म देते हैं। जीजी और जीजाजी - क्या ही रसभरे , मदभरे , हरे हरे  संबोधन हैं।
   आज के युग में अन्य शब्दों की तरह जीजाजी शब्द का अर्थ ह्रास हुआ है। जैसे दादा कितना आदरणीय और सम्मानजनक शब्द था , लेकिन अर्थ - पतन के इस युग में वह भी गुंडों लफंगों के लिए इस्तेमाल होने लगा है। इसी तरह  जीजाजी का शॉर्टकट हो गया :जीजू। भला जो  रस और आनंद की अनुभूति जीजाजी शब्द से होती है , वह  आदरानुभूति जीजू में कहाँ?  जैसे कानों में रस भर दिया गया हो। विपरीत लिंग मुखारविंद से सुनने को मिले तो कहना ही क्या! एक अपनत्व, स्नेहिलता , सम्मान और न जाने कितनी गूढ़ता का वाचक है 'जीजाजी'। औऱ अब तो हद ही हो गई , उसके अंग्रेजीकरण ने शब्दार्थ और उसके निहितार्थ का सत्यानाश ही कर दिया , नए जमाने के साले जीजाजी को जीजू  भी नहीं भाई साहब कहने लगे। भला रिश्ते क्यों न ठंडे पड़ें ! सब आत्मीयता ही खत्म हो गई। ऐसे कर दिया जैसे जैसे किसी सड़क पर चलते राहगीर से कह रहे हों : ए भाई! जरा हट के चलो। रस में नीरसता घोलने की की सीमा का अतिक्रमण ही कर दिया। रसमयता भंग हो गई। नया जमाना क्या कुछ नहीं कर दे ! रिश्तों को जिंदा रखिए , यदि जीजी और जीजाजी को जिंदा रखना है। तभी 'जीवन' , जो 'जीने' का 'वन ' है , बचेगा।

💐शुभमस्तु !

✍🏼लेखक  ©
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

तुम क्या जानो बीती बातें

तुम क्या     जानो बीती बातें,
भीगे     दिन और गीली  रातें,
रिमझिम बुँदियों की बरसातें,
प्रकृति- पुरुष  रहते  मदमाते,
चातक-चोंच   बून्द दो स्वातें,
तुम  क्या जानो  बीती  बातें।

वृक्ष - लताओं   में  हरियाली,
पड़ते  झूले   अमुआ  डाली,
बढ़ा पेंग    झूली सब  आली ,
नरम घास मखमल सी सारी,
चुहल ठिठोली    मीठी  बातें,
तुम क्या जानो.......

जुगनू    लालटेन    ले  आया,
झींगुर  ने     संगीत   सुनाया,
टर - टर  दादुर  ढोल बजाया,
दीप -  नेह    परवान  चढ़ाया,
काली   घटाटोप   घन   रातें,
तुम क्या जानो .......

वीर   बहूटी     शरमाती    है,
मखमल लाज मरी   जाती है,
लाल  रेशमी  रंग    चमकाती,
रेंग -   रेंग   धरती   पर जाती,
ना  दिन झुलसे   उमसी  रातें,
तुम क्या जानो....

सावन  भादों   रिमझिम  बरसे,
प्रोषितपतिका  पिय  को तरसे,
पपीहा कोकिल   उर   में हरषे,
मोर -  मोरनी   क्रीड़ा    करते,
बीत   गईं     मनहर  बरसातें,
तुम क्या जानो ....

पकी    निबौली  टपके  जामुन,
झूले   राधा    अमवा -  कुंजन,
झोटा  दे   रहे    कान्हा  सांवल,
पेंग     बढ़ाते    दे  - दे   झोटन,
वे दिन   लौट   नहीं   अब पाते,
तुम क्या जानो....

कजरी   औऱ  मल्हारों  के  दिन,
रिमझिम मंजु  फुहारों  के  दिन,
बूरा  खाने -  खिलाने   के   दिन,
श्वसुरालय  में    जाने   के   दिन,
सलहज साली   की   प्रिय  बातें,
तुम क्या जानो .....

सास   ससुर   साले    पद  पूजें,
कुशल-क्षेम   सादर   सब   बूझें,
घेवर -  साली     खीझें  -  रीझें,
पर     जीजाजी   नहीं   पसीजें,
गोपनीय     वे    सारी      बातें,
तुम क्या जानो ....

सुबह   जाएँगे   लेकर   घर  को,
कहे सास पूछो   जी   ससुर को,
ससुर  कहें    सासू  की   चलती,
वे ही    जानें   लली  - गमन की ,
किससे    अनुमति   लेकर जावें,
तुम क्या जानो....

"शुभम" वक़्त  बदला सब बदला,
बादल   भी   है   बदला बदला,
जो दल  सहित वो बादल होता,
ना बिखरा   कोई   बादल होता,
 ना  वे    बादल    ना   बरसातें,
तुम  क्या  जानो    बीती  बातें।।

💐शुभमस्तु  !

✍🏼रचयिता  ©
डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

रविवार, 29 जुलाई 2018

वे बरसात के सुंदर दिन

बीत गए वे बरसात के सुन्दर दिन
झरा करती थीं बुँदियाँ नन्ही छिन छिन,
पखवाड़े महीने भी नहीं दिखते देवता सूरज
तनी रहती थीं घनी मेघ की चादर निशि दिन।।

खेत मेड़ों पर वीर बहुटियों की मखमल,
कच्चे आँगन में रेंगते केंचुए रलमल,
गिजाई गलियों में घासों पे गिज़ गिज़ करती,
मेढकियोँ   के संग  पोखर में मेढ़क चंचल।।

रात-रात भर नर मेढकों की टर टर
उधर आसमा से बुँदियाँ झर- झर
उतर आए शिवग्रीवा से नाग विष धर
काटकर मेड़ों को बज रहा पानी भर भर।।

मेड़ों पे उगी मकियाँ छतों पर गगनधूर
कुकुरमुत्ते कूड़े पर झुंड भरे  गुरूर
कच्ची दीवारों मुँडेरों  पनारों पर मखमल
बहा करते नदी नाले  यौवन से पूर।

बाजरे अरहर के खेतों में भरा पानी
धूप निकली तो गल गए पौधे हानी
निकालना पड़ रहा है पानी फ़सल से बाहर
रात-रात भर टपक रहे छ्प्पर छानी।

छतें कच्ची टपकता टपका टप टप
खेल रहे उधर बच्चे आँगन में छप छप
नाव कागज़ की बना तैराते रहे पानी में
नहा रहे नग्न बदन भले छूटे कंप कंप।

इधर से उधर सरकाते रहे खटिया अपनी
इधर टपका तो उधर सरकी खटिया अपनी
खाट सरकाते गुज़र गई बरसात की रात
कोई गिला शिकवा भी नहीं कि भीगी खटिया अपनी।

ओढ़ बोरी को निकल पड़ा किसान वहाँ
आधी रात में ही कटी न हो मेड़ जहाँ
निकल न जाए कहीं भरे खेत से पानी
बांध धोती को कमर में  चिंता थी वहाँ।

चमकती बिजली गड़गड़ाते घनघोर मेघ
कांप जाता था हिया भीगी थी देह
लबालब तलैया तालाब रास्ते दगरे
झींगुरों की झंकार रात्रि -सन्नाटा बेध।

चिपकती हुई साड़ी में रोप रहीं थीं धान
 ठंडक न कंपन न देह गाढ़ा परिधान 
कन्धे से मिला कंधे चलती पति संग
 भोजन ब्यालू का भी करतीं इंतजाम।

उछलते कूदते बच्चे नहाते नंगी देह सभी
न सर्दी की शिकायत न ज़ुकाम होता था कभी
फटे कपड़ों में ही चले जाना विद्यालय
भीगते जाना औ' आना बिना छाते के सभी।

बोरियाँ ओढ़े छिपाए बस्ते बगलों में
हो गए मस्त रस्ते में देख बगलों में
केंचुए कीड़े खाते हलों के पीछे दौड़ते बगले
चील कौवे भी आहार ढूंढते संग बगलों में।

रात में पंखधारी दीमक चींटे सूर्यास्त हुआ
दीप की लौ पे परवाना जीवनास्त हुआ
प्रेम की ख़ातिर मर जाने का नाम परवाना
कीड़े मकोड़ों का जहाँ पावस -मस्त हुआ।

कोई रपटा कोई फिसला कोई सराबोर हुआ,
रिमझिमाती बरसती बुँदियाँ में भोर हुआ
न कहीं सूरज न खिली धूप की गुनगुन
गली आँगन में किलकते  बच्चों का शोर हुआ।

कहाँ गईं वे बरसातें  रातें वे बरसते दिन
अब तो जवानी में ही बुढ़ापे के ये दिन
न झर झर न कलकल न मेघ बिजली पानी
लौट नहीं पाएंगे शुभम, अब वे हर्षते दिन।।

💐शुभमस्तु !

✍🏼रचयिता ©
डॉ.भगवत स्वरूप शुभम

ऐसी भी नारी!???

ये औरतें वही हैं , जिनके कारण सास ससुर वृद्घ आश्रम भेजे जाते हैं। ये ही वे देवियाँ हैं , जिनको पूजा जाता है और उनका ये राक्षसी रूप देख और सुनकर मन घृणा से भर - भर जाता है। पल में माशा और पल में तोला की कहावत का साक्षात रूप हैं ये। पति की माँ इनकी कुछ नही ,और अपनी मां माँ है।  यह भी आज की नारी का वास्तविक स्वरूप है।अपनी विलासिता में इनकी सास खटाई है, और अपनी  माँ घेवर की मिठाई है। वाह ! री
नारी। क्या इसीलिए 'प्रसाद' जी ने लिखा था:-

नारी   तुम केवल श्रद्धा हो
विश्वास रजत नग पगतल में,
पीयूष स्रोत -सी बहा करो,
जीवन के सुंदर समतल में।

*ऐसी नारियों के लिए तो लिखना चाहिए:*

नारी   तुम    चंडी चुड़ैल हो
कलयुग     के   घर  - घर  में,
सासुजी   को   भी   माँ मानों
मत नरक बनाओ  घर-घर में।

पति   की  माँ     दुश्मन  तेरी
तेरी   माँ   ही    केवल माँ है,
क्या तेरी  सास   भी ऐसी थी
लेती  तू   उसका   बदला  है?

धिक्कार     तुझे     तू  नारी है
इसलिए  तू नर पर भी भारी है,
सासु   से इतनी   जलन   भरी
तव    नारी -जीवन   ख्वारी है।

वृद्धाश्रम     की तू  जड़ सारी
तेरे   ही   कारण    बने   हुए,
पति का जीवन भी नर्क किया
तेरेे     तेवर   नित    तने हुए।

तू उस    पति की मजबूरी है
जो बेबस  रहता    साथ तेरे,
तू उसके   बच्चों की   जननी
जिसके   हाथों    में हाथ तेरे।

तू जहर  भारी  गोली कड़वी
लेना  पति   की   मजबूरी है,
उसके दिल से   तो पूंछ जरा
जिससे  कितनी  मज़बूरी है।

क्या  बीतेगी  उसके दिल पर
जिसकी माँ का अपमान करे,
वह पूरा   जोरू    का गुलाम
इस  बेइज्जत का  मान करे।

वह     देवी है     वह    पूजनीय
जो सासु को  समझे अपनी माँ,
निज ससुर  को पिता मानती जो
घर में न कभी  उसके कां -कां।

धन्य शुभम    वह घर होगा
जिस    घर  सन्नारी  वास करे,
वह घर ही  होगा    स्वर्गधाम ,
शुभ लाभ सहित उल्लास भरे।

💐शुभमस्तु!

✍🏼लेखक ©
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

शनिवार, 28 जुलाई 2018

उत्थान -पतन

किसी पर्वत पर चढ़ना अर्थात आरोहण अर्थात उत्थान जितना कठिन है , उससे अधिक सरल है उससे उतरना अर्थात अवरोहण अर्थात पतन। इसी प्रकार जीवन में भी उत्थान पतन चलते रहते हैं। गिरने में पल नहीं लगता।और ऊपर उठ कर आगे बढ़ने में दांत खट्टे हो जाते हैं ।
   केवल सामने वाले को गलत सिद्ध करना बड़ा ही आसान है , किन्तु अपना दामन जो अपने सबसे करीब है ,उसमे झांकना ही  नहीं चाहते। अगर तनिक एक बटन खोल कर नीचे को झाँककर देख लें तो गलतियाँ हों ही न।यदि एक गलत व्यक्ति के एक हज़ार समर्थक हो जाएं तो इसका  अर्थ  ये  नहीं हो सकता कि ये सही है। सत्य बात सदा सत्य ही रहती है, उसके लिए  समर्थन जुटाने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती । ये ठीक है कि आज के युग में सत्य पाँव पाँव चलता है और असत्य विमानों में सैर करता है , लेकिन इसका मतलब ये नहीं हो सकता कि सत्य असत्य हो जाएगा। जब असत्य औंधे मुँह उसी जमीन पर सत्य के चरणों मे पतित होता है तो उसे अपनी औकात मालूम हो ही जाती है।असत्य क्षणजीवी होता है औऱ सत्य चिर जीवी होता है, अमर होता है। इसीलिए कहा जाता है "सत्यमेव जयते"।सत्य ही ईश्वर है। सत्य में भगवान निवास करते हैं।   
   आदमी का अहंकार उसे नीचे झाँकने से रोकता है, इसलिए सौ झूठे समर्थकों की भीड़ जुटाकर वह अपने सत्य पर समर्थन की मोहर लगवाना चाहता है।ये भी सच है कि आज सत्य के समर्थक उंगलियों पर गिनने लायक हैं , और झूठ और झूठों की रैलियां निकल रही हैं। इसका मतलब ये नही कि सच अपने पथ से डगमगा जाए।
   भीड़ का मतलब सत्य नहीं है। भीड़ का कोई व्यक्तित्व नहीं है। अपनी आत्मा को मारकर यदि झूठ का साथ तो हर आम आदमी   दे सकता है, परन्तु सत्य का साथ देने के लिए  उच्च मनोबल का स्वामी होना आवश्यक है।अपनी आत्मा की आवाज भी सुनना चाहिए। जिसने स्व -आत्मा की आवाज को नहीं सुना ,  उसमें और मानवेतर  प्राणियों में क्या  विभेद  रह गया? इसलिए मित्रो !मानव बनें और आत्मा की आवाज़ सुनें फिर न तो आपको अपने गले में झाँकने के लिए ही कहा जायेगा और न ही आप किसी इज़्म या  किसी झूठी दलबन्दी के चक्कर में अंधभक्त बनकर झूठी बातों और झूठे लोगों का अन्ध-समर्थन ही करेंगे।

" सत्य   की   छाँव
जीवन    की   राह,
झूठों    का    नारा
कोरी   वाह ! वाह!!"
अहंकार   की धरती
झूठ  पर  पाँव धरती,
सत्य   से   घृणा   है
न गरेबान   झाँकती।"
सत्य      की      जय
असत्य    का विनाश,
सत्य    खुला    हुआ
असत्य का पर्दाफ़ाश।"

  💐शुभमस्तु!
©✍🏼डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

क्या यही सतयुग है ?

   कुछ लोगों को ये कहते हुए सुना गया है और पत्रिकाओं में भी लिखा गया है कि ये सतयुग चल रहा है। कितना विरोधाभास है वर्तमान युग और ऐसे महापुरूषों के कथन में! आदमी आदमी को खा रहा है, चबा रहा है , फिर भी सतयुग आ रहा है। नेता , अधिकारी, कर्मचारी , कर्मचारी -सब आम आदमी को खाने को  तैयार , फिर भी सतयुग की सरकार। नित्य प्रति दृष्ट अदृष्ट बलात्कार, नारी पर महा अत्या - चार -फिर भी सतयुग की भरमार।केवल और केवल पैसा कमाने की होड़, उसके लिए चाहे अनाचार के पार करने पड़ें कितने मोड़, माता पिता ,बाप बेटे, भाई बहन, पति पत्नी , स्वामी सेवक आदि सभी के सम्बंध कैसे चल रहे हैं ,ये किसी से छिपा नहीं है।फिर भी ये सतयुग है? घोर कलयुग का अभी तो आरम्भ भी नहीं है। आये दिन प्राकृतिक आपदाएं जन -धन की हानि कर रही हैं, यहाँ भी हमारी ससमजिक, राजनीतिक बनावट और बनावट जिम्मेदार है। सब जानते और देखते हुए  भी हम आँखें बंद किए बैठे हैं। यदि हजार करोड़ लोग भी अनीति के समर्थक हो जाएं तो भी क्या
महाभारत टल सकता है? सत्य की ही सदा जीत होती है, होती रही है और होती भी रहेगी। दबाव , अनीति औऱ अनाचार की धरती पर टिकी हुई राजनीति कभी देश का भला  नहीं कर सकती। खरीद -फरोख्त की सियासत देश को सैकड़ों वर्ष पीछे रसातल में ले जा रही है। पर उन्हें तो केवल अपना झंडा ऊँचा करने से मतलब।दिखावटी नारों से देश नहीं चलता।जहाँ जीवन का हर क्षेत्र भृष्टाचार से दुर्गन्धयुक्त है , वहाँ कोई बतला दे कि इनमें से कौन  दूध का धुला है? बातों के बताशे खिलाने से मुँह  मीठा  नहीं हो सकता। मूर्खता अपनी पराकाष्ठा पार कर चुकी है। इंसान का नैतिक पतन इतना अधिक हो चुका है कि जिसकी भी दुम उठ जाती है , मादा ही निकलता है- चाहे वह  देश का  बड़े से  बड़ा अधिकारी हो, सांसद, विधायक , मंत्री, न्यायविद, पुलिस , सिविल सर्विस मेन-मौका हाथ लगने पर चूक नहीं सकता।
   इस देश में सिर्फ और सिर्फ वही ईमानदार , नैतिकता वान और श्रेष्ठ पुरुष /स्त्री है, जिसे मौका नहीं मिला । यदि उसे मौका मिलता ,तो वह भी  वही करता , जो यत्र तत्र सर्वत्र हो रहा है।  आज जो कुछ भी देश की राजनीति, प्रशासन, समाज, धर्म के क्षेत्र , क्या सतयुग यही है। कोई किसी की सुनने , मानने को तैयार  नहीं है।राजनीति के चरणों तले प्रशासन मजबूर है। बिना राजनीतिक रिमोट के एक एफ आई आर भी नहीं लिखी जाती।और बड़े -बड़े खूनी , बलात्कारी, रिश्वतखोर, डकैत ,  भृष्ट लोग एक फोन की घन्टी पर ही मुक्त कर दिए जाते हैं। सब कुछ एक  ही छत्रछाया में हो रहा है। क्या यही सतयुग के लक्षण हैं ? ये भी पूर्णतः सत्य है कि
"जासु राज प्रिय  प्रजा   दुखारी।
सो नृप अवशी नरक अधिकारी।।"
पर यहाँ तो बहुमत का खेल है, सच  कहने   वालों  की जेल है।। ये बहुमत कितने कारनामों का फल है! उनके लिए तो हरिद्वार का गंगाजल है। उसकी शीतलता में गोते लगाए जा। सतयुग आ गया है नारा लगाए जा।

💐शुभमस्तु!
©✍🏼डॉ. भगवत स्वरूप"शुभं"

भैंस की सवारी

सत्ता         की      कुर्सी 
भैंस   की      सवारी   है
कभी        तुम्हारी      है
कभी      हमारी         है।

बात   लाठी       की   है
लठाधारी      की       है
कुल  बात    इतनी    सी
भैंस  की   सवारी की है।

कभी       तुम     पीओ
कभी   हम   भी   पी लें
कभी     तुम    निचोड़ो
हम   भी      जी     लें।

चोरी       का        गुड़ 
ज्यादा   मीठा  होता है,
ईमानदारी    का    गुड़
बड़ा    सीठा   होता है।

भेस       की       रौताई
भैंस  की  सवारी    से है
भैंस      की        खवाई
दिन   की   दिवारी से है।

जो    भैंस    पर   चढ़ेगा
दूध  भी वही  पी पाएगा
उसकी सानी   में   भला
कौन      जी      पायेगा।

छाछ   पीने     वाले  भी
कतारों    में    सजे    हैं
उम्मीद  में कटोरा लिए
कर    रहे      मज़े    हैं।

गाढ़ा     दूध     तो   बस
कुछ की    ही विरासत है
सत्य  कहने     वालों की
आफ़त   ही   आफ़त है।

गांव    में       रहना    है 
तो हाँ जू हाँ जू कहना है
भेड़ों    को  तो    हमेशा 
कुएँ   में   ही   रहना  है।

कुर्सी    के        चारों   पाए
जिसने भी     खरीद    पाए
चैन की    नींद     सोना   है
"शुभम" क्या कोई कर पाए।

💐शुभमस्तु!
©✍🏼डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

जिसकी लाठी उसकी भैंस

   सत्तासीन व्यक्ति सत्ता का मालिक है। सत्ता एक लाठी है , जिसका 'सत 'से अधिक सम्बन्ध 'सताने ' से है। जो सता कर कुर्सी रूपी भैंस को अपने साथ ले जाकर अपने  खूँटे से बांध देता है। भैंस काली होती है, किन्तु वह गाढ़ा और सफेद 'दूध' देती है।दूध पौष्टिक होता है। भैंस को सताने से गाढ़ा दूध निकलता है, दूध को सताने से दही, और दही को सताने से मक्खन और मक्खन को सताने से सारतत्त्व घृत निकलता है, जिस घृत को पाने की होड़ हर भैंस मालिक  को  होती है और वह उससे प्राप्त भी करता है , अन्यथा वह भैंस पालता ही क्यों है ! दूध पीने और घृत खाने के लिए ही न!
   यही सब आज की सियासत है। जहाँ केवल भैंस प्राप्त होनी चाहिए, चाहे जैसे भी हो। साम, दाम ,दंड और भेद। इन 'चतुर 'नीतियों से कुर्सी रूपी काली भैंस को हथियाया जाता है। चित भी मेरी पट भी मेरी, अंटा मेरे बाप का।क्या यही न्याय है?ऊपर से नीचे तक यही हो रहा है। बड़े बड़े लाठीधारी यही कर रहे हैं। तो छोटे लाठीधारी क्यों न करें , क्योंकि उन्हें भी तो काली भैंस का दूध घृत पीना खाना है। सबका एक ही लक्ष्य ,एक ही उद्देश्य। भैंस हथियाना और दूध पीना।सत्ता से सत्य तो कब का विदा हो चुका है। केवल और केवल   सताना ही मुख्य आधार है। वही अंतिम अस्त्र  भी है। इसलिए कहने वालों ने सही कहा है:-

जिसके हाथ  में होगी लाठी
भैंस   वही     ले    जाएगा।
सता न पाएगा जो   जन को
खड़ा   खड़ा      तरसायेगा।
भेड़तंत्र   तंत्र   में  भेड़ों पर
लाठी की क्या रही जरूरत।
एक बोल में भेड़ बेचारी  को
लिए     कूप     में    जायेगा।

सत्य   की  सदा जय हो!
अंधकार   का   नाश हो!!
💐शुभमस्तु!
©✍🏼डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

धौंस , धमकी ,धक्का

धौंस ,      धमकी     या   धक्का
नोट    बंद  करो    या    सिक्का
काठ की हांडी चढ़ती है एक बार
एक बार वक्त बदलता है सबका।

अपनी हदों के पार तो मत जाओ
अपनी जुबाँ तलवार  ना  बनाओ
क्या पता ऊँट की करवट क्या हो
किसी को भी इतना ना सताओ।

सभी के    सिर में   एक दिमाग  है
जोआदमी की अस्मिता काभाग है
अस्मिता परपत्थर नचलाओ मित्रो
किसीका दुर्भाग्य किसीका सुभाग है।

लेने के लिए  जुबाँ  शहद हो गई 
कीचड़ उछाल  के लिए ज़हर हो गई
इतना भी नीचे गिरना कोई अच्छी बात नहीं
आम आदमी के लिए कहर हो गई।

ये पब्लिक  है   सब  जानती   है
तुम्हें भी उन्हें भी   पहचानती  है
अपनी औकातअब क्या दिखाते हो
ये चार छलनियों में तुम्हें छानती है।

अब कुछ बताने को शेष नहीं रहा
तब से अबतक"शुभम" बहुत सहा
इतना भी मत बढ़ो  आगे कि हद टूटें
बहुत समझ लेना जो थोड़ा कहा।

💐शुभमस्तु!
©✍🏼डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

गौरैया दम्पति

एक गौरैया दम्पति ने
मेरे घर की लता-कुंज में
बनाया है अपना घोंसला
तिनका -तिनका जोड़कर,
हरे -हरे पत्तों के बीच
अपने प्रेम -जल से सींच
एक -एक तिनका जोड़ा
कुछ ही दिनों में
बन गया आरामगाह
गृहस्थी  का  बसेरा,
रखे गौरैया ने 
दो छोटे -छोटे अंडे,
सिलेटी छींट से
सज्जित  तिनकों के गद्दे,
कुछ ही दिनों में
नन्हे -नन्हे  परविहीन बच्चे,
लगे चिचियाने
बहुत ही प्यारे सच्चे,
खोलकर अपनी नन्ही
लाल चोंचें,
माँगते खाने को
माँ से पिता से
बिना सोचे,
दौड़कर जाता चिरौटा
चिरैया भी,
लाकर चोंच में अपनी 
बारी -बारी से
करते खिदमत
श्याम गौर  लघु गौरैया  की।

एक दोपहरी में
बुरी तरह चीखने सी
लगीं दोनों चिड़ियाँ,
अंदर से बाहर
दौड़कर देखा मैंने
घोंसले के पास से
दो बड़े बाज 
निकल भागे,
घोंसले में छा गए सन्नाटे
 गौरैया -दम्पति उदास
कोई भी नहीं आया पास
घोंसला शान्त
फ़टी हुई चोंच लिए
दम्पति उद्भ्रांत,
दस मिनट के बाद 
बच्चे चहचहाए,
मानो मेरे प्राणों में
प्राण आए,
नर पास आया 
मादा भी आ गई
बच्चों को देख
फूली न समाई,
तभी मैंने कुछ
रोटी के कण बिखेरे ,
चिड़ा और चिड़ी ने
कण उठाए
और तीनों बच्चों की
चोंचों में लगाये,
उन पांचों की खुशी से
मैं आल्हादित था,
मानो युगल की दुआओं
के मैं काबिल था।
उनकी खुशी 
मेरी खुशी थी,
क्योंकि खगशावक खुश थे
और उनके मम्मी पापा भी।

💐शुभमस्तु!
©✍🏼डॉ. भगवत स्वरूप",शुभम"

विरोध के लिए विरोध

   हमारे यहाँ कुछ लोगों को विरोध के लिए विरोध करने में बड़ा मजा आता  है। एक सज्जन ने तर्क दिया है कि हमारे देश में मदर्स डे मनाने की क्या जरूरत है? यहाँ तो हर दिनमां का है , क्योंकि यहाँ बच्चे माता पिता के साथ रहते हैं ।विदेशों में वे अन्यत्र पलते हैं , कभी कभार ही माँ बाप से मिलते हैं , इसलिए वे मातृ दिवस मानते हैं। यहाँ कोई जरूरत नहीं। आदि आदि।     
   हमारे देश में गुरु पूर्णिमा , शिक्षक दिवस , आदि अनेक ऐसे अवसरहैं , जब हम अपने गुरुजन का सम्मान करते हैं , तो क्या गुरु को सम्मान देने का एक ही दिन है। शेष दिनों में उन्हें गाली दी जाए, अपमान किया जाए, नकल  न कराए तो पीटा जाए! गुरुतत्व भी तो हमारे जीवन के प्रतिक्षण और प्रतिदिन का अनिवार्य तत्व है। इसी प्रकार और भी बहुत से दिन हो सकते हैं।
   मां बाप को वृद्धआश्रम में बिठाने वाले भी तो इसी देश में रहते हैं। वे क्या मनाएं! मेरा कहने का अर्थ मात्र इतना है कि लोग अपनी "अतिबुद्धिमत्ता" का प्रदर्शन करने के लिए लोगों की आस्था औऱ श्रद्धा पर प्रहार करते हैं। हर व्यक्ति अपने पूज्य माता पिता के सम्मान के लिए स्वतंत्र है। यदि कोई अच्छी बात हमने पश्चिम से अपना ही ली तो कौन सा पहाड़  टूट पड़ा। जो भारतीय संस्कृति का ककहरा भी नहीं जानते , वे विरोध के नाम पर विरोध करके अपने को अति ज्ञानी सिद्ध करने में लग जाते हैं। अरे भाई! ये संस्कृति समन्वय की है, मेल की है,जोड़ने की है ,तोड़ने की नहीं।  इसलिए यहाँ मातृ दिवस मनाना कोई अनुचित कार्य नहीं है।

💐 शुभमस्तु!
©✍🏼डॉ.भगवत स्वरूप "शुभम"

राजकीय सम्मान

   देश का राष्ट्रध्वज देश की  मान -मर्यादा ,आन  -मान और शान का प्रतीक है। उसके साथ मनमाना व्यवहार करके उसका अपमान करना उचित नहीं है। इसका सुनिश्चित विधान होना चाहिए कि कि किस व्यक्ति का अंतिम समय में राजकीय संम्मान किया जाए। जो सैनिक अपने घर -परिवार को सैकड़ों हज़ारों किलोमीटर की दूरी पर छोड़कर देश सेवा में अपने जीवन का बलिदान करने के लिए रात दिन तैनात रहते हैं , उनमें और अन्य
क्षेत्रों में कार्यरत नागरिकों , कलाकारों , नेताओं, बुद्धिजीवियों में कुछ तो अंतर होगा। प्रत्येक नेता या कलाकार या खिलाड़ी को भी ये सम्मान देना उचित नहीं है। सम्बंधित के द्वारा देश के लिए कीये गए त्याग और बलिदान के फलस्वरूप ही उन्हें तिरंगे से आवृत कर सम्मानित किया जा सकता है।  सियासी चालों और चापलूसियों के आधार पर भी पद्मश्री और पदम् विभूषण बाँट दिए जाते हैं । माना कि देश सेवा अनेक प्रकार से की जा सकती है। एकं अन्नदाता सारे देश की अन्न ,फल ,फूल, सब्जी, दुग्ध आदि का उत्पादन कर अपना सारा जीवन होम देता है। जब हम जय जवान , जय किसान का नारा लगाते हैं तो उस किसान की सेवा को क्यों  उपेक्षित कर दिया जाता है, क्या उसकी देश सेवा किसी सैनिक द्वारा की गई सेवा से कम महत्वपूर्ण है? किसी किसी कृषक को सामान्य कफ़न भी मयस्सर नहीं होता और महलों में रहने वाले अरब पतियों को तिरंगे के कफ़न में लपेटा जाए , ये कहाँ तक उचित है।
   इसलिए  देश में किस व्यक्ति के अंतिम संस्कार में  तिरंगे  का उपयोग क्या जाए , इसका मानक पूर्व निर्धारित होना चाहिए। इसे इतना  सस्ता और घटिया मानसिकता के दायरे से बाहर निकाल कर तिरंगे को तिरंगा ही रहने दें , उसे मामूली कफ़न के दर्जे से बाहर किया जाए।
   आज के युग में इस विषय पर चिंतन ,मनन और मंथन अपरिहार्य हो गया है। केवल सफेद कुर्ता पायजामा सिलवाकर पहन लेने से हरेक नेता देश भक्त और बलिदानी नहीं हो जाता , इसलिए सभी नेताओं के अंतिम संस्कार में उनके शव को तिरंगे में लपेटना तिरंगे का बहुत बड़ा अपमान है। देश की तीनों सेनाओं के शहीदों के लिए उचित माना जा सकता है। मेरी अपनी दृष्टि में उनके संम्मान के लिए भी और अच्छा विकल्प खोजे जाने की आवश्यकता है।सस्ती लोकप्रियता के लिए तिरंगे की अस्मिता पर आघात नहीं किया जाना चाहिए।
   
इति शुभम।
✍🏼डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

गुरुवार, 26 जुलाई 2018

रूठना-मनाना

जिसके मनाने वाले हों
वही रूठा करते हैं,
मोबाइल  का जमाना है
कौन किससे  रूठेगा ,

इसलिए रूठना मना है,
भाग्यशाली है वह
जिसका मनाने वाला बना है।

रूठने -मनाने का अपना
अलग   ही     आनन्द है,
जैसे मानवती नायिका का
एक  अपना ही    छंद  है,

रूठ जाने में प्यार  की
ताज़ा   खुशबू है,
कोई अपना भी है
इसकी भी  हाँ-हूँ है,

स्वार्थपरता ने उड़ा दी
प्यार की महकती हवा,
अकेलेपन की अब तो
मोबाइल है  दवा ,

रूठने में कितने कितने
ऊपरी ठनगन ,
मनाने के भी हुनर
न जानें सब जन।

जिनके पांवों में
कभी फ़टी हो बिवाई,
जान पाते हैं वही
किसी की पीर पराई।

पीर की अपनी 
अलग ही मिठास है,
रूठ जाने की पीर में
प्यार का आभास है।

वो पीर पैदा करो कि
कोई हमें मनाए,
तभी तो रूठ जाने का
आनन्द कमाएं।

आज भी जिंदा है
वही रूठना -मनाना,
बशर्ते दिल में हो
वही नज़रिया पुराना।

पत्नी का पति से
प्रेयसि का प्रिय से
रूठना -मनाना ही
तो जान डाल देता है,
वरना "शुभम" कौन
आज  किसे मान देता है!

💐शुभस्मस्तु!

रचयिता ©
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

बुधवार, 25 जुलाई 2018

सौंदर्य

   माँ को अपना एक आँख का बेटा भी संसार के सभी लड़कों में सर्वप्रिय , सर्वश्रेष्ठ और सर्व सुंदर होता है। भले ही उसका दर्शन दुनिया के लोगों का शगुन बिगाड़ देता हो। उन्हें असुंदर लगता हो। एक ही व्यक्ति या वस्तु एक के लिए सर्वसुन्दर और अन्य के लिए पूरी तरह असुंदर। फिर सुन्दरता का मानक क्या हुआ? सुंदरता व्यक्ति सापेक्ष नहीं, मनः स्थिति के सापेक्ष होती है। इसीलिए  कोई चीज किसी को बहुत सुंदर लगती है तो किसी को उसमें कोई सौंदर्य ही दिखाई नहीं देता। अर्थात सौंदर्य मन का विषय है।मनोगत है।  यही कारण है कि हम  जिसके प्रति आसक्त होते हैं , वह हमें प्रिय लगता है, सुंदर दिखता है । लेकिन जब हमारी आसक्ति कम हो जाती है तो उसमें कमियां ही कमियाँ ही नज़र आने लगती हैं। आसक्ति समाप्त  होने पर मित्र शत्रु बन जाता है। उसकी सारी अच्छाइयां बुराईयों में बदल जाती हैं। वह पूरी तरह असुंदर हो जाता है।
   अपने को सुंदर दिखाने के लिए लिए  पुरुष और महिलाएँ अनगिनत प्रकार के बाहरी सौंदर्य प्रसाधन प्रयोग करते हैं। इससे  देह की चमड़ी अपने वास्तविक रूप को छोड़कर कृत्रिम रूप धारण कर लेती है औऱ संबंधित व्यक्ति आईने के सामने खड़े होकर अपने को सुन्दर मानने लगता है। लेकिन उसका ये बनावटी सौंदर्य क्या सबको आकृष्ट कर सुंदर लगता है? कोई आवश्यक नहीं है।तन को तो अस्थाई रूप से बदल सकते हैं , लेकिन क्या मन को भी बदल पाते हैं? नहीं न !
   जब मानव का आंतरिक  सौंदर्य क्षीण होने लगता है , तब वह बनावटी साधनों की ओर आकर्षित होकर क्रीम , पाउडर, लिपस्टिक  , परफ्यूम आदि साधनों को सुंदरता का साधन मानकर ऊपरी चमक -दमक में घुस जाता है। कभी कभी इन साधनों की अतिशयता से सौंदर्य विकृत हो जाता है और आदमी भ्रम में जीने लगता है कि वह सुंदर लग रहा है। यह असली सौंदर्य नहीं है। कोयल और कौआ काले होते हैं , लेकिन वसंत ऋतु आने पर जब कोयल की मधुर वाणी गूँजती है , और कौआ कांव - 2 करता है तो कोयल की प्रियता कई गुना बढ़ जाती है और कौआ उतना प्रिय नहीं लगता।  इससे यह स्पष्ट हुआ कि गुण ही सौंदर्य का कारण है।
   सौंदर्य किसी मजबूरी का नाम नहीं है। कुछ लोग कहते हैं की अमुक स्त्री या पुरुष हमें बहुत अच्छा लगता है, लेकिन ये नहीं पता कि क्यों ?  इसमें भी कोई न कोई अज्ञात आंतरिक कारण छिपा हुआ है। भले ही हम उसे न समझ पाए हों, या व्यक्त करने की क्षमता न हो। सौंदर्य आंतरिक होता है , बाहरी नहीं। बाहरी सौन्दर्य अस्थाई और अस्थिर होता है। परिवर्तनशील है। जब  शारीरिक रूप से व्यक्ति कमजोर होता है , तभी वह आवरण  रूप कुछ ऐसा आच्छादन करने लगता है , जिससे उसकी वह कमी नज़र नहीं आए। लेकिन शेर की खाल ओढ़कर गीदड़ शेर नहीं बन सकता। उसकी पोल जल्दी ही खुल जाती है। जैसे नज़र की कमजोरी चश्मे से छिपाई जाती है, गंज को विग के नीचे गोपन किया जाता है ,चेहरे के धब्बे औऱ श्यामलता क्रीमों से दूर करने का असफल प्रयास किया जाता है। लेकिन आज तक संसार की कोई भी क्रीम किसी को गोरा बना सकी है? नहीं। फिर भी आदमी अपने को भ्रम में डालकर पोते जा रहा है। जबकि उसे मालूम है कि ये सब झूठ है। झूठे विज्ञापनों के  आकर्षण में जान बूझकर उल्लू बनता है। और प्रतिवर्ष हजारों टन क्रीम पाउडर देह पर पोतकर धो दिया जाता है। पूँजीपतियों के कारखाने कैसे चलेंगे ?इसी तरह ही तो।  स्वतः भरम में रहकर जीना और ओवर शो करना आज के इंसान का दैनिक क्रम बन गया है।  यदि यह मान लिया जाए कि किसी क्रीम  आदि से कोई गोरा हो जाए । उस स्थिति में उसका चेहरा तो गोरा बन जाए और शेष जिस्म यथावत सांवला या काला ही रह जाए तो उसका सौंदर्य चार चाँद वाला न होकर एक चाँद वाला भी नहीं रहेगा। क्योंकि अधिकांषतः महिला या पुरुष केवल चेहरे को ही चमकाते हैं, शेष जिस्म पर कौन लगाता है!  यदि ऐसा होने लगे तो दाल ,सब्जी और आटे से अधिक क्रीम की जरूरत होगी, जो कुछ पाउच या डिब्बियों में न आकर ड्रमों में लानी पड़ेगी। फिर तो गली गली फेस क्रींम नहीं, बॉडी क्रीम के कारखाने ऐसे खुल जाएंगे , जैसे। आटे की चक्कियाँ। खाने से ज्यादा चमकाने  की चिंता में  चंचल नर नारी जीवन ही कुछ औऱ हो जाएगा। सुंदरता इन शीशियों , पाउचों या डिब्बों  में नहीं है । हमारे आपके गुणों और अंतर में है। जिसे पहचानने की ज़रूरत है। मानव की दृष्टि में है।स्वार्थ में नहीं, परमार्थ में है। स्वहित में नहीं, जन हित  में है।

💐शुभमस्तु!

✍🏼लेखक ©
डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

रविवार, 22 जुलाई 2018

कीचड़

कौन कितना कीचड़ उछाल पाता है
अपनी सियासत  का रंग निखार पाता है।

दूध से धुलकर  वो  निकला घर से बाहर
शाम को कीचड़ में तन सान लाता है।

झाँककर  क्यों देखता नहीं गरेबां अपना
बाहर निकलते ही क्यों उफ़ान लाता है।

किसके कीचड़ की महक ज्यादा महकती है
ये  अखबार और मीडिया बताता है।

बिक गया हो  मिडिया जब दलदल में
कोई पैमाना है जो सच दिखाता है!

दिखाता है मीडिया जो उसे  भाए
शेष सब  कुछ को दबा जाता है।

आदमी के मन को भांप पाया न कोई
एक्जिट पोल भी "शुभम" बिक जाता है।

💐शुभमस्तु!
©✍🏼डॉ.भगवत स्वरूप"शुभं"

दल दल की कहानी

दल  दल   की    कहानी   है
किसको  क्या    बतानी   है।।

हाथों   में      लगा    कीचड़
दिल के   भी    वही   भीतर
बाहर   से      श्वेत     धारण
जन  -जन   को   जतानी है।
दल दल   की    कहानी    है।।

चुपचाप   न        रहना    है 
कुछ    कहते       रहना    है
सच   से   जो   दूर     कोसों
यही    मन   में    ठानी    है।
दल दल  की    कहानी    है।।

बांटो     और     राज   करो 
चाँदी   के     मुकुट      धरो 
कथनी  करनी     न    मिले
ये   भी   तो     बतानी    है।
दल दल   की   कहानी     है।।

नारी     और       नारों   का
मधुयुक्त         प्रहारों     का
बहका -बहका   कर    लूटो
मूर्ख    जनता      बनानी है।
दल दल की     कहानी   है।।

पढें -लिखे    न    कोई   भी 
जनता   रहे   ये  सोई     ही
बस    बिगुल   बजे    ऊँचा
सुर्खियाँ     दिखानी      हैं ।
दल दल   की    कहानी है।।

आँसू    भी      पौंछने    हैं
सूजे   भी        घोंपने    हैं
वाणी    में   शहद   रिसना 
सियासत की ये कहानी है।
दल दल की  कहानी   है।।

पद  - सत्ता     रहे    हाथों
जातियों   में   देश    बांटो
ऊंच - नीच का  भेद   बढ़ा
तभी   वोट    बनानी    है।
दल दल  की   कहानी  है।।

घोंघे   भी    मीन    मेढक 
खुशबू से  बदन   को ढक
संलिप्त    पंक      पुष्पित
नीला    हरा     धानी    है।
दल दल  की   कहानी  है।।

ऊपरी       दिखावा      हो
रैली    का     बुलावा    हो
भाड़े  से     भीड़    भरकर 
बस    ट्रेन     चलानी    है।
दल दल   की  कहानी  है।।

कोई   न     सुपर   इतना
नेता हो   अपढ़  कितना !
बढ़े   पूँछ    मूर्खजन   से
ये   नीति     पुरानी    है।
दल दल  की  कहानी है।।

आना   है    पीछे   आओ
माला भी    साथ    लाओ 
"शुभम" सम्मान हमारा है
ये   भी       समझानी   है।
दल दल की   कहानी  है।।

💐शुभमस्तु!
©✍🏼डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

घने जंगल

घने   जंगल    सिमटते  जा रहे हैं
आदमी   के   बुरे  दिन आ रहे हैं।

वर्षों की तपस्या से लगे थे वृक्ष जो
आदमी के हाथ  कटते  जा रहे हैं।

ईंट पत्थर के मकां से मोह  इतना
कैद  कमरों हुए  हम  जा  रहे  हैं।

ए सी ,कूलर ,फैन की कृत्रिम हवा
मर्ज़ तन  में रोज़ बढ़ते  जा रहे हैं।

प्लास्टिक रबर के पुष्प बेलें छा  गए
घर की  शोभा  बढ़ाए  जा  रहे हैं।

कलकल सुहातीअब न नदियों की हमें
लीड  कानों में  लगाए  जा  रहे हैं।

ज़िंदगी नकली जिए जाते हैं हम अब
नित प्रकृति से दूर हटते जा रहे हैं

सबको खिलौने की बड़ी चाहत बढ़ी
अपने सीने से लगे  बतिया रहे हैं।


पेड़ पौधों  की   दवा   होती  हवा
नित नए बहु मर्ज़ बढ़ते जा रहे हैं।

सिर्फ अपना ही "शुभम" चिंतन प्रबल
निज स्वार्थ में जन लिप्त होते जा रहे हैं।

💐शुभमस्तु!
©✍🏼डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

डिबिया-कुण्डली

●1●
बोली   डिबियादास से
डिबियादासी        एक ,
इतना भी मत  लीन हो 
काम करो    कुछ  नेक ,
काम करो   कुछ   नेक 
भुलाए तुम डिबिया में,
सब्जी    रही  न   दाल
लुभाए तुम डिबिया में,
सुनकर डिबियादास ने
घर की खिड़की खोली,
'जाता      हूँ     बाज़ार'
जब डिबियादासी बोली।

●2●
पहुँचा जब     बाज़ार  में 
डिबियादास         महान ,
एक किलो धनिया मिरच
आलू     ढाई   सौ    ग्राम  ,
आलू      ढाई     सौ ग्राम 
पुदीना       आध    पंसेरी,
जब  लौटा   निज    धाम 
हो   गई   रात      अँधेरी,
डिबिया    में   थी   मगन  
न   घर   में    झाड़ू  पौंछा,
डिबिया    चलती      रही 
बाइक पर जब घर पहुंचा।

●3●
पुदीना     मिर्चें   काटकर 
सब्जी     द ई        बनाय,
भोजन जब    करने   लगे  
थू -थू        थूकत    जांय,
थू -थू        थूकत     जांय 
परस्पर   दोष        लगावें,
डिबिया   में        तल्लीन  
आपने    होश        गँवावें ,
किसको    सनकी     कहें  
हाथ   जो  लगा    नगीना ,
आलू        पछता       रहे 
खा   रहे    मिरच   पुदीना।

●4●
डिबिया   की अनुपम  कथा 
सब   सुन      लो   सरकार,
बैठक    में     मेहमान     हैं 
कोई        न         पूँछनहार,
कोई           न       पूँछनहार 
हारकर        मांगा    पानी,
'तू दे दे '  की बहुत देर तक
चली                    कहानी,
कोई   न    आया       बाहर
चले    लेकर  निज  डिबिया,
भुला        दिया       आचार
मरी      सम्मोहक   डिबिया !!

●5●
बेटा -बेटी       सब    मगन
डिबिया   में       दिन -रात,
खुद में    ही     खोए   पड़े
कोई न   किसी   के   साथ,
कोई   न   किसी   के साथ
गई  सब    रौनक  घर  की,
सन्नाटा       पसरा      पड़ा
न   चर्चा    इधर- उधर  की ,
उजड़     रहे        घर -बार 
कोई   बैठा     कोई     लेटा,
डिबियादास            महान 
पिता -माता      बहु    बेटा।

●6●
पेपर    देने    जब      चला 
डिबिया   ले      ली    हाथ,
पापाजी        कहने     लगे 
मोबाइल        क्यों    साथ!
मोबाइल      क्यों       साथ 
पुत्र      पेपर     में      तेरा !
हेल्प   करेगा    पापा   मेरी
वहाँ                       घनेरा,
व्हाट्सअप पर मिल जाते हैं
"शुभम"                 हैल्पर,
बहुत  इज़ी हो    जाता    है
तब          देना          पेपर।।

🙏 शुभमस्तु
©✍🏼 डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

डिबिया-दास

 ये खिलौना जो मेरे हाथ में है
आप   सबके   भी  साथ में है
इसके बिना काम नहीं चलता
सोते-जगते दिवस  रात में  है।

मुँह भी नहीं है   मगर बोलता है
नहीं हैं   चरण मगर   डोलता है
सुनता भी है ये बिना  कानों  के
कभी कुनेन कभी मधु घोलता है।
            
खो जाए गर खिलौना खो गया सब कुछ
रह जाए घर कहीं तो पास नहीं है कुछ
नहीं चलता कोई काम बिना इसके
पास रह जाए तो मिल गया सब कुछ।
                 
बिना इसके उदास दिन भर रहते
न होते संवाद न किसी से  कहते
दिल की धड़कनबन गया खिलौना
ऊबते भी तो नहीं साथ रहते रहते
                
व्यापार इसी से    डकैती चोरी भी
इसी में बैंक बटुआ भी तिजोरी भी
गीत संगीत सिनेमा फिल्में इसमें 
कम्प्यूटरभी इसमें है यहीं टीवी भी
                    
इश्क मोहव्वत दुश्मनी रार सभी
पढ़ाई फ़ोटो सेल्फी का आधार यही
मनोरंजन का  भण्डार  वीडियो मनहर
अपनों को चाह पाने का संसार सभी।
                 
मत होना गुलाम इस खिलौने के
मोह में  न मर जाना  अनहोने के
किसी चमत्कार से न कम मगर क्या!
मशीन नहीं बनना है इंसान होने से

नम्बरों ने पहचान   मिटा दी तेरी
एक नम्बर से नहीं ज्यादा कीमत तेरी
जड़ों के साथ जड़ हो गया इंसां
नहीं संभला तो हो चुकेगी देरी।
             
दूर वालों को निकट बुलाता  है
दूरी को समेट     पास  लाता है
आमने -सामने ज्यूँ बात होती है
परायों को भी निज    बनाता है।
                
खेलना है खिलौने से खूब खेलो
इसकी कीमत पे मुश्किलें मत झेलो
अधीन इसको अपने बनाकर चलना
नहीं तो रोग के पापड़ भी तुम   बेलो।

सभी हैं घर में मगर चुप क्यों हैं
खोए हैं खिलौनों में सभी चुप यों हैं
एक छत के नीचे भी संवाद नही कोई
ये खिलौने के रोगी हैं  गुप्चुप यों हैं
              
आया मेहमान सभी खिलौने में मगन
न पानी न नाश्ता न भोजन का जतन
दुआ सलाम करना भी दूभर ऐसा
बड़े -बड़े भवनों में शांति का शयन।
                   
बैठकों में भी सभी खिलौनों में बिज़ी,
छूट जाते हैं धुन में संबंध निजी,
कोई किसी की भी परवाह नहीं करता
रह ही जाती हैं महफ़िल सजी की सजी।
                 
"शुभम"इस खिलौने ने ठग लिया इंसां,
हो गया है" डिबिया -दास" अच्छा इंसां,
ये कौन सी संस्कृति की पछुआ चली
लुट गया है  मशीनों के हाथों इंसां।

शुभमस्तु
©✍🏼डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

पैजामा' बनाम 'पेटीकोट'

कुछ लोगों के लिए 
राजनीति एक पैजामा है,
जो ऊपर से तो एक
पर थोड़ा आगे बढ़ने पर
द्वेत है, 
यानी ऊपर अद्वेत 
नीचे द्वेत , 
ये द्वेत अद्वेत का 
चक्कर बड़ा विकट है,
द्वेत अद्वेत के
अति निकट है।

इसमें घुसूं
या उसमें
यही सोचना 
समझना है , 
आखिर तो
कुर्सी की
मंजिल तक 
जा पहुंचना है।
पैजामे के एक
खोल में जा 
घुसना है ,
जरूरत पड़ी तो
लौटकर दूसरे
खोल में जा पहुंचना है,
एक से दूसरे की यात्र
यही राजनीति है,
जहाँ न कोई राज है
न नीति है,
ये अपनी अपनी
मनप्रीति है।

एक और राजनीति है
पेटीकोट राजनीति,
बस एक बार 
घुस गए तो 
घुस गए, 
फिर नहीं निकलना है, 
कोई पैजामा थोड़े ही है
जो एक खोल से
दूसरे की यात्रा करना है, 
कोई स्थायित्व ही नहीं,
राजनीति हो तो 
पेटिकोट राजनीति
जिसमें स्थायित्व भी
आराम भी 
इधर से उधर
अंदर  ही अंदर
चाहे नाचो कूदो
धमाल करो या 
कोई काला या
सफेद कमाल करो,
हाँ , भई 
राजनीति करो तो
पेटिकोट राजनीति करो,
वरना पैजामे की 
राजनीति वाले तो
चुल्लू भर चाय में
अपना उद्धार करो।
हाँ , पैजामा राजनीति
में अगर बर्वादी है
तो आज़ादी  भी है,
अगर इधर से मन भर
जाए तो उधर सरक जाओ
और यदि मिल जाए
मंत्री पद 
फिर क्या बल्ले ही बल्ले!!
पेटिकोट वाले रह जाते
हैं निठल्ले।
हाँ , पतिव्रता की तरह
पवित्र है पेटिकोट  राजनीति
पर क्या पतिव्रत ही रखना
होता तो 
राजनीति में ही क्यों जाते?
क्या और कोई 
मंज़िल न थी! 
ना भाई हमें तो
पैजामा राजनीति ही
सुहाती है, 
जिसमें कुर्सी की मंजिल
जल्दी मिल जाती है।
यहाँ कोई सती 
थोड़े होना है ! 
हमें तो बस 
जल्दी से जल्दी
नाम और नामे की
तिजोरी पाना है।

अब तो ही तय कर लीजिए
कि
कौन पैजामा (पैरों का जामा अर्थात वस्त्र)
की राजनीति में 
अपनी टाँगें फंसाये है
और  कौन 
पेटिकोट राजनीति में
आकंठ  धँसाये हैं,
मैं किसी 'आडवाणी,'
या 'अजित' का नाम लूँ।
पेटिकोट राजनीति समर्पण 
की है,
और पैजामा राजनीति
मौका -दर्शन की है।
जैसी चले बयार तबहिं
तेसों रुख कीजै।
पेटिकोट की  पराधीनता
में मत  छीजे।

शुभमस्तु।
©✍🏼डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

स्वयं बदलाव अपेक्षित है

   सबकी सोच और विचार करने की क्षमता अलग -अलग है। किसी की सोच को किसी पर थोपा नहीं जा सकता।अपने अंदर अनेक कमियाँ होने के बावजूद सामने वाले में अनेक कमियां निकल देना मानव स्वभाव है।यदि हमें किसी में कमियाँ निकालने का अधिकार है तो उनमें सुधार का विनम्र सुझाव भी होना चाहिए। वैसे तो प्रत्येक व्यक्ति किसी के सुझाव और मत को मानने और न मानने के लिए स्वतंत्र है किंतु अच्छे सुझाव का स्वागत अवश्य होना चाहिए।
   हम चाहते हैं कि दुनिया बदले , लेकिन जब तक हम अपने स्वभाव, आदत, चिंतन और चाहत में बदलाव लाने की नहीं सोचते तब तक किसी और में बदलाव की सोचना सर्वथा निर्रथक है। हम यदि अपने अंदर बदलाव ला सकते हैं तो ये जमाना, ये संसार ,ये समाज और सामने वाला हर व्यक्ति बदल जाएगा।
  समय और परिवेश के अनुरूप अपने को ढालते हुए बदलाव ले आना मानव की एक खूबी है। वह व्यक्ति वंदनीय और सराहनीय है ,जो समयानुरूप अपने में बदलाव ले आता है। अधिकतर लोग पिछलग्गू रहकर जीने में अपने को अधिक सुरक्षित अनुभव करते हैं। उन्हें एक सघन वटवृक्ष की छाँव चाहिए , अपनी सोच और दिमाग पर जोर न पड़ जाए , यदि ऐसा हो गया तो उनकी भेड़चाल का क्या होगा! इसीलिए लोग धार्मिक संगठनों, राजनीतिक दलों , सामाजिक संगठनों तथा अन्य अनेकानेक संगठनों  में मात्र भीड़ बढ़ाने का काम करते हैं। और लोकतंत्र का दूसरा नाम "भीड़तंत्र", या "भेड़तंत्र "ही तो है। जिसमें आदमी बिना सोचे विचारे केवल अन्ध समर्थन ही तो करता है। कर रहा है। इसीलिए देश के लोकतंत्र का विकास नहीं हो रहा है।अपने चिंतन की चरखी को बंद कर दिया गया है। यहाँ तक कि उसमें सिंहावलोकन रूपी मोबिल आयल भी नहीं डाला गया। जंग लग चुका है बिना चिंतन -चरखी को चलाये। मानव -बुद्धि जड़ता वाली स्थिति में है। इसलिए पीछे पीछे चलने में ही बुद्धिमता समझते हैं। यही जीवन जीने का शार्ट कट पथ है। और प्रायः शॉर्टकट चलना सबको अच्छा लगता है। चाहे उस पथ पर चलने में भले ही नैतिकता , चरित्र , देशभक्ति , सामाजिकता आदि की धज्जियाँ क्यों न उड़ जाएं!  हम नैतिकता के न तो पुजारी हैं और न रक्षक ही। हम तो केवल मूक दर्शक और वीडियो निर्माता आलोचक और प्रदर्शक हैं।  इसी कारण से देश क्या , समाज क्या , धर्म क्या , राजनीति क्या , हम सभी पतन के गर्त में स्वयं कूद रहे हैं।
   आवश्यकता है केवल आत्म चिंतन और स्वयं में बदलाव लाने की। अंधे लकीर के फकीर बनने की नहीं। तटस्थ भाव से चिन्तन, मनन और मंथन की। आत्मानुशासन की,  डंडा -शासन की नहीं। देश के हर अच्छे और सच्चे नागरिक को इस सबकी आवश्यकता है।  छेद में उँगली फंसाकर उसे बड़ा और बड़ा करना तो सभी जानते हैं। परंतु सिलना नहीं सीखा। सरौते ही सरौते हैं, कैंचियां ही  कैंचियां हैं, पर सुइयां बहुत कम हैं। हमें  कैंची ,सरौते नहीं बनना है , हमें बनना है सिर्फ  सुइयाँ , सुइयाँ ,सुइयाँ धागे सहित।

 शुभमस्तु।
©✍🏼डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...