गुरुवार, 30 सितंबर 2021

नवोढ़ा का टाँका 💃🏻 [ चौपाई ]


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✍️ शब्दकार ©

💃🏻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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वधू   नई   श्वसुरालय   आई।

घर -घर   होने  लगी  बधाई।।

कुछ  दिन यों ही  बीते नीके।

जलने लगे दीप   घर घी के।।


पत्नीव्रता  नशे    का   मारा।

लुढ़का तिय-आँचल में पारा।

जो चाहा करने   का  आदी।

छँटी मगज की सारी  वादी।।


आभूषण नित   महँगी साड़ी।

पति पीछे तिय चली अगाड़ी।

माँ से चूल्हा अलग  जलाया।

नहीं चाहिए   माँ  का साया।।


घर में   नव   दीवार  बना दी।

पीहर में   हो   गई    मुनादी।।

भाई   रहा  न   भाई    कोई।

किस्मत मात-पिता की सोई।।


हर कोने   में   चूल्हे   जलते।

देख  विधाता  माथा  मलते।।

क्या मैंने   ही  इन्हें  बनाया?

देखा पर विश्वास न  आया!!


माँ के   पास    न  जाने पाता 

मन ही मन पति घुलता जाता।।

वेतन  सभी  यहाँ पर लाओ।

सासू जी को मत बतलाओ।।


पति जी  पर पत्नी का साया।

माँ-बापू  को  खूब  छकाया।।

ब्याह हुआ  वर -दान हो गया।

कलयुग में पतिमान खो गया।


 छूट गया है   आँचल माँ का।

'शुभम'नवोढ़ा का यह टाँका।

करके ब्याह  खूब  पछताया।

नवयुग की दुल्हनिया लाया।।


🪴 शुभमस्तु !


३०.०९.२०२१◆५.३० पतनम मार्तण्डस्य।

पितर - चिंतन 🍑 [ कुंडलिया ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🍑 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम' 

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                        -1-

सेवा जीवित  की करे, संतति है  वह  धन्य।

मान नहीं पितु-मात का,कहते उसको वन्य।

कहते उसको  वन्य, नरकगामी  वह   होता।

करता जो अपमान,भाग्य भी उसका सोता।।

'शुभम'  पिता  ही देव, पूज्य माता  की मेवा।

मिलती है शत यौनि, करे जो उनकी सेवा।।


                        -2-

मिलता है आशीष शुभ,निज पितरों का मीत

जीते जी जो  मान दे,  होती उसकी  जीत।।

होती  उसकी जीत,पार  करता  भवसागर।

यश की मिलती माल,नाम की प्रभा उजागर।

'शुभं'मुकुलआंनद,सदा शोभित हो खिलता।

पद सेवी पितु मात, हजारों में ही मिलता।।


                        -3-

अपने तन को त्यागकर,जाते जन उस लोक

पितर लोक के वास से, परिजन करते शोक।

परिजन करते  शोक,उन्हें निज  श्रद्धा  देते।

तर्पण कर  तिल नीर,धीर मन में  धर  लेते।।

'शुभं'सूक्ष्म तव देह,दिखाती निशि में  सपने।

शांति शांति हो शांति,पिता माता जो अपने।।


                        -4-

जैसा  बोया   कर्म का,मानव तुमने    बीज।

पौधा  भी  वैसा  उगे,औऱ न कोई    चीज।।

औऱ न कोई चीज,लिखा पल- पल का लेखा

इसी  धरा  पर  फूल, फूलता हमने   देखा।।

'शुभम'  न होती भूल,साथ में गया न   पैसा।

फलता मानव कर्म, वपन जो करता जैसा।।


                        -5-

कहते कन्या-दान  सब,पर होता वर - दान।

मानें  या  मानें  नहीं,यही सत्य  लें  जान।।

यही सत्य  लें  जान, दान करती  है  माता।

नई  बहू  ले  पूत,  बनी  है जननी   दाता।।

'शुभम' मुझे है ज्ञात,पुत्र अपने कब  रहते।

भरती जब निज बाँह,वधू सब ऐसा कहते।।


🪴 शुभमस्तु !


३०.०९.२०२१◆४.३० पत नम मार्तण्डस्य।

सूख गया आँखों का पानी!💦 [ गीत ]


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✍️ शब्दकार©

💦 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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सूख  गया  आँखों  का  पानी,

फिर   प्यासे   क्यों  रोते  हो ?

कीकर  शूल बो   रहे    भू पर,

मनुज  दुखी   क्यों होते  हो!!


जल -  दोहन  कर रहे धरा से,

बहता     नाले  -     नाली  में।

सूख    रही   अमराई    सारी,

नीर नहीं    तरु - डाली   में।।

बहती  धार  भैंस   के  ऊपर,

पड़े  खाट   पर   सोते    हो।

सूख  गया आँखों  का पानी,

फिर क्यों   प्यासे   रोते हो!!


छिड़क रहे नित जहर रसायन,

स्रोत   प्रदूषित    कर    डाले।

पैदावार   बढ़ाने     के    हित,

घोंप    रहे   तन   में    भाले।।

काट-काट  कर  हरे पेड़ नित,

भर -भर   गाड़ी    ढोते    हो।

सूख  गया  आँखों  का पानी,

फिर   प्यासे    क्यों  रोते हो!!


हरियाली का  नाशक  मानव,

कंकरीट    के      जंगल    में।

एकाकी   उदास   फिरता   है,

जूझ रहा   जन   दंगल    में।।

पादप बिना नहीं   हैं   बादल,

अब क्यों   नयन  भिगोते हो?

सूख  गया आँखों  का  पानी,

फिर प्यासे  क्यों   रोते   हो!!


वर्षा  बिना   गया    है    नीचे,

जल   का   स्तर    धरती   में।

अंबर  में  क्या   ताक  रहे हो,

देखो    जाकर     परती   में।।

देह फटी    धरती   माता की,

देखें     कैसे       बोते     हो !

सूख गया  आँखों  का पानी,

फिर  प्यासे   क्यों   रोते हो!!


धरती प्यासी ,  सरिता प्यासी,

प्यासे    पादप, वन,  उपवन।

मोर,पपीहा , हिरन , शेर  भी,

पानी बिना सून जन -  जन।।

'शुभम' झाँक ले पहले भीतर,

लेते   रज   में     गोते     हो।

सूख  गया आँखों का  पानी,

फिर  प्यासे  क्यों    रोते हो!!


🪴शुभमस्तु !


३०.०९.२०२१◆११.४५

आरोहणं मार्तण्डस्य।

तराजू ⚖️ [ अतुकांतिका ]


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✍️ शब्दकार  ©

⚖️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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अपने - अपने हाथों में

लिए खड़े हैं सब तराजू,

अपनी - अपनी  तराजू,

किसी  का  कोई  मेल  नहीं,

 सबने ही समझ रखा है

कोई मजेदार खेल यही,

बटखरे भी सबके 

अलग हैं,

अपने - अपने बटखरे,

जैसे मानव नहीं  हैं वे

लगते हैं  मसखरे! 


तराजू भी अलग

बटखरे भी अलग,

सबके मात्रा मानक भी

दूसरों से सर्वथा अलग,

कोई किसी की नहीं मानता,

यद्यपि स्वयं  भी कुछ      

नहीं जानता,

आने पर समय

अपनी ही तानता,

समझना छोड़कर

तकरार ठानता,

बटखरे जो मेल नहीं खाते,

स्वीकार कैसे करें

अपने अहं से 

नीचे नहीं उतर पाते,

इसलिए शाश्वत सत्य में भी

अपनी ही चलाते।


नई  और पुरानी पीढ़ी का

चला आया अंतराल,

कब कौन भर सका है,

इसीलिए बाप से जना बेटा

बाप का भी बाप 

बनता देखा है:

'तुम नहीं जानते,

जो हमने जाना है,

बापू ये तुम्हारा नहीं

हमारा जमाना है।

छोड़ भी दो न!

अब वे सब पुरानी 

दकियानूसी बातें,

अब न वे दिन रहे

न रहीं वे रातें,

हमारी तराजू अब

लोहे के बटखरों की नहीं है,

ये डिजीटल युग है,

इसकीअलग ही है कहानी 

तुम में 'अकल' नहीं है!'


सुनकर  हर बाप

बेटे का व्याख्यान,

नहीं बाँचता अपना पुरान,

मौन रह रहकर सुनता है,

मन ही मन हँसता है,

अपना ही सिर धुनता है,

नैतिकता, आदर्श ,मनुष्यता

सब किताबी बातें हैं,

जैसे भी  हो 

अपना उल्लू सीधा,

नए युग की सौगातें हैं,

मात्र दो दशकों में

नई पीढ़ी ने जो जाना है,

सात दशकों के बाद 

इन्हें लगता फटा-पुराना है,

हमारी ही औलाद 

हमारे  परदादा नाना हैं।


रिफाइंड,रासायनिकों से

बने नए दिमाग़,

नवेलियों के सुहाग,

करते जा रहे

घरों के विभाग,

बटखरे जो डिजिटल हैं,

ये इंसान नहीं

 रोबोटिक कल हैं,

सोच - सोच कर 'शुभम'

पीढ़ी पुरानी ,

सिर धुन रही है,

जहाँ भी देखो 

उलटी गंगा बह रही है।


🪴 शुभमस्तु !


३०.०९.२०२१◆९.४५ आरोहणं मार्तण्डस्य।


बुधवार, 29 सितंबर 2021

क्या समझेगा पेड़ को! 🌳 [ अतुकांतिका ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम' 

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आदमी को काष्ठवत

चीर देने वाला मानव ?

नहीं समझता मूल्य 

मानव और मानवता का,

पर्याय है जिसका 

हर कर्म निर्मम दानवता का,

उससे क्या कोई भी 

अपेक्षा  शेष है?

मानव के देह में

छिपे हुए 

 किसी भेड़िया का वेष है!


जीवों का विराट संसार,

जल,थल ,नभ में

 जिसका विस्तृत प्रसार,

वनस्पतियाँ पेड़, पौधे, लताएँ,

क्या किसी भी मानव को

कभी भी सताएँ ?

अपनी बुरी करनी से

मानव को  कभी तड़पाएँ ?

अपनी किसी करतूत से

मानव अभी तक 

नहीं लजाए!

हाय! हाय!! हाय!!!


लेते हैं तरुवर भी आहार,

पीते हैं जल 

करता देह में संचार,

साँस भी लेते छोड़ते हैं,

नाराज होते हैं

तो मुख भी मोड़ते हैं,

सोते जागते हैं

हँसते रोते हैं, 

मात्र एक वाणी से

वे सभी गूँगे हैं,

मगर नहीं तुम्हारी तरह

आँखों को मूँदे हैं।


पालने से लेकर

श्मशान की भूमि तक,

पेड़ों की लकड़ी के

कृतज्ञ हो तुम,

सुहाग की सेज,

पढ़ने की कुरसी मेज,

खाट पर ठाठ बाट,

कपड़ा या मोटा टाट,

अन्न,दाल, रोटी,

फल,  फूल,,सब्जी,

सब कुछ पेड़ों से ,

भैंस ,गाय, बकरी से दूध,

ऊन भी उतारी गई भेड़ों से,

किन्तु सब भुला दिया,

हे मूढ़ मानव!

निज स्वार्थ में क्या किया ?

तू जीते हुए भी 

जिया न जिया,

सब बराबर किया!


कटते हुए पेड़ों का

चेहरा उदास है,

मानव ने स्वयं किया

अपना ही सत्यानाश है,

कहीं लंबी -चौड़ी सड़कें,

दस बीस मंजिली इमारतें,

कंक्रीट के घने जंगल,

कैसे हो तुम्हारा मंगल,

अतिवृष्टि  कहीं अनावृष्टि,

बिलखती हुई सृष्टि,

ओस चाटने से

 नहीं  होती तृषा की तुष्टि,

पेड़ों में नहीं 

अपने ही पैरों में

कुल्हाड़ी मार रहा है,

बेहतर है यह कहना कि

कुल्हाड़ी में  ही पैरों को 

दनादन मार रहा है!

स्वयं ही अपने अस्तित्व को

संहार रहा है!

हे 'शुभम'!  ये मानव क्यों

हा दैव! हा दैव!! 

पुकार रहा है।


🪴 शुभमस्तु !


२९.०९.२०२१◆.२.०० पतनम मार्तण्डस्य।

शारदीय पंच शब्द- शृंगार 🌼 [ दोहा ]


 [क्वार,कार्तिक,मास,मुकुल, मंजुल]

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✍️ शब्दकार ©

📖 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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क्वार मास सित रंग के,वन में फूले   काँस।

श्राद्ध पक्ष के भोज को,उछले जन नौ बाँस।।


विमल शरद की चंद्रिका,नव रातों का मास।

विजयादशमी क्वार में,सुखद पूर्णिमा हास।


ज्योति पर्व दीपावली,कार्तिक का उपहार।

उर का हर तम दूर कर,गहें ज्ञान का सार।


कार्तिक चातुर्मास का,अंतिम पावन मास।

देव -तत्त्व  सुदृढ़ बने, पाता सत्त्व   सुबास।


षडऋतु  बारह मास में,राजा  मास वसंत।

पावस  रानी   सोहती, अंकुर उगें    अनंत।


महिमा है हर मास की,फागुन के दिन चार।

सावन में तिय कर रही,साजन से  मनुहार।


नील मुकुल खिलने लगे,अपराजिता सु-बेल

विष्णुप्रिया मोहक सुघर,करती तरु चढ़ खेल


मानव के इस मुकुल का,मोल न जाने मीत।

विकृत अंग न मिल सकें,समय रहा है बीत।


मंजुल   मानव - देह की,रक्षा   मानव - धर्म

मन को पावन कर'शुभं',कर मानव हित कर्म


मंजुल पौधे जीव सब,प्रकृति दत्त उपहार।

मानव नित रक्षा करे,यही कथ्य  का  सार।


क्वार   कार्तिक   मास में,

          खिलते   मुकुल अनेक।

निशि   में   शारद  -  चंद्रिका,

         मंजुल    तमज  -  विवेक।।

★★★★★★★★★★★★★★

क्वार=आश्विन,शरद ऋतु का प्रथम माह।


कार्तिक=शरद ऋतु का द्वितीय माह।


मास=महीना।


मुकुल=कली, देह।


मंजुल= सुंदर, सुरम्य, मनोहर ।

★★★★★★★★★★★★★★★


   🪴शुभमस्तु !


२९.०९.२०२१◆ ६.३०आरोहणं मार्तण्डस्य।


मंगलवार, 28 सितंबर 2021

वृक्षालाप 🌳 [ बालगीत ]

  

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✍️ शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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हम  सब   तरु    गूँगे      होते    हैं।

कटने   पर    हम    भी   रोते    हैं।।


अपने    सुत   की    तरह पालते।

मतलब   हो    तो   चीर  डालते।।

पौध    लगाते,    क्यों   बोते   हैं?

हम  सब    तरु    गूँगे   होते  हैं।।


पाला    -  पोसा      हमको सींचा।

हत्या     कर      दिखलाते नीचा।।  

हम   भी   जगते    या   सोते  हैं।

हम    सब     तरु   गूँगे  होते  हैं।।


फूल    और     फ़ल    हमसे लेते।

पाँचों   अपने       अँग    भी देते।।

रहते    पंछी      पिक     तोते   हैं।

हम   सब     तरु    गूँगे   होते   हैं।।


लकड़ी    काम     हमारी  आती।

पलने  से    मरघट   तक जाती।।

गाड़ी   में     भर  - भर   ढोते   हैं।

हम   सब     तरु    गूँगे   होते   हैं।।


हम   पेड़ों     से  मानव  -  जीवन।

बनते    सुंदर    खेत ,  बाग़, मन।।

'शुभम'     हर्ष - मुक्ता    पोते  हैं।

हम    सब    तरु    गूँगे  होते हैं।।


🪴 शुभमस्तु !


२८.०९.२०२१◆१०

१५ पतनम मार्तण्डस्य।

सोमवार, 27 सितंबर 2021

देश चलाते दारूबाज 🍻 [ दोहा ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🥃 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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देश चलाते हम सभी, मिलकर    दारूबाज।

बाँध रहीं निज शीश पर,सरकारें निज ताज।


यदि  पीना  हम छोड़ दें,चलें नहीं   सरकार।

दारूबाजों   का   करें,बीमा  हम     बेज़ार।।


ठेके  सब सरकार के, हम सब  उनके  संग।

जिस दिन पीना छोड़ दें, बदले उनका रंग।।


हम मरते  पीकर  सुरा, करके घर बरबाद।

भूखे   घर  वाले   रहें,  सरकारें  आबाद।।


गिरते-पड़ते  हम चलें,कँपते थर-थर   पाँव।

ठेके  से  घर को गए,मिले नहीं  घर  गाँव।।


नाली - नाला   रोड  ही,मरने के  सब  थान।

औंधे मुँह ज्यों ही गिरे,निकले पल में जान।।


सभी पियक्कड़ जान लें, करनी है हड़ताल।

जब तक हो बीमा नहीं,पीना मत तत्काल।।


ठेके  होंगे   बंद   जब,  मिले नहीं  राजस्व।

हाथी   का  चूहा बने,खच्चर होगा    अश्व।।


कूकर   जैसे  हम मरें,पी-पी रोज़   शराब।

सरकारें    पूँछें   नहीं,  मिटे हमारी   आब।।


करें  कमाई  नित्य जो,लगा रहे    हम  दाँव।

बच्चे  नंग-धड़ंग  हैं,शहर  देख  लो गाँव।।


पत्नी पर  साड़ी नहीं, नमक न घर में तेल।

घर में  होती  रार नित,दंपति हम   बेमेल।।


नवाँ  महीना चल   रहा,पत्नी भी   बेज़ार।

जनसंख्या  है  बढ़ रही,  दारू का यह सार।।


पहले भी दो-चार  हैं,जिन पर नहीं क़िताब।

फटी  चड्डियाँ  पहनते,पीता पिता   शराब।।


नित  पत्नी को पीटते,पीकर ख़ूब   शराब।

सरकारें  सुनती नहीं, कहतीं हमें  ख़राब।।


बोतल या अद्धा मिले, 'शुभम' चाहिए  छूट।

बीमा भी दस लाख का, चप्पल पाँव न बूट।।


🪴 शुभमस्तु !


२७.०९.२०२१◆२.३० पतनम मार्तण्डस्य।


सजल ❇️


समान्त :  इत।

पदांत:      है।

मात्रा भार: १६

मात्रा पतन:नहीं है।

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✍️ शब्दकार ©

☘️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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कर्मठता   में    सबका    हित  है।

किसे  नहीं  यह   बात विदित  है।।


कामचोर    वह     जन   होते   हैं ,

पर धन   हरने   में  ही    चित  है।


बिना   स्वार्थ    वह      देता रहता, 

मिलता   उसको  सब  कुछ नित है।


वे   बालक     क्या     पढ़ पाएँगे,

जिनका   इधर - उधर  ही चित है।


नेता   जी   का     उर    है  काला,

पहने  तन  पर   कपड़ा  सित  है।


सेवक   बनते    वे      जनता  के,

आँगन   उनका  विशद अमित है।


'शुभम'  सहजता  में  वह  जीता,

जीवन  शोभनीय   नित  ऋत  है।


🪴 शुभमस्तु !


२७.०९.२०२१◆१०.३० आरोहणं मार्तण्डस्य।


रविवार, 26 सितंबर 2021

ग़ज़ल 🥁

 

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✍️ शब्दकार ©

🌅 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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तने    हर    तरफ़   भाले  हैं।

हर   दिशि   कड़े  कसाले हैं।।


सच    बैठा     है    मौन  धरे,

पड़े    जीभ    पर   ताले   हैं।


बीमारी     का   जोर      बढ़ा,

हर    घर   में   ही   जाले   हैं।


एक   ओर   है    आग   जली,

उधर    कूप     हैं     नाले  हैं।


करें     शिकायत    औरों   से,

झूठे  सपने        पाले        हैं।


बाहर     से      लगते    साधू,

मन  में  गरम     मसाले    हैं।


एक टाँग  पर   खड़े  'शुभम',

भीतर     काले -   काले    हैं।


🪴 शुभमस्तु !


२६.०९.२०२१◆४.४५ पतनम मार्तण्डस्य।

ग़ज़ल 🔔

 

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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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नजरों  का   संसार  निराला।

तेरा -  मेरा    प्यार   निराला।


नजरों  में  नफ़रत  का दरिया,

मिलता  भी   उपहार निराला।


नयन -झील  में  डूब गया जो,

पा उर   का  इतवार  निराला।


धोखा,छल,फ़रेब  की दुनिया,

फूलों  में   भी   खार निराला।


बिना साँस  के क्या जीवन है,

साँसों  का    व्यापार  निराला।


काम  - भाव   से मानव  आया ,

कितना   मारक     मार निराला।


'शुभम'   छिपाता   है  परदे में,

सभ्य   हुआ    व्यवहार निराला।


🪴 शुभमस्तु !


२६.०९.२०२१◆२.००पतनम मार्तण्डस्य।

गुरुवार, 23 सितंबर 2021

बेटी के प्रति 🪅

  

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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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अपने   पिता   के   बाग  की,

बेटी   तू   नन्हीं    पौध     है।

रोपूँ   वहाँ   शुभ    बाग़    में,

कर्ता   लिखी   जो  औध है।।


फूले -  फले    हे   आत्मजे!

मेरा   सजल   आशीष    है।

उस वंश की   विकसे  लता,

जिस पर कृपामय   ईश है।।


कर्तव्य   अपना   कर   रहा,

जो    है   यथासम्भव   मुझे।

मत  भूलना माँ - जनक को,

हम भी   न   भूलेंगे    तुझे।।


दो कुलों    की  ज्योति बेटी,

दो   कुलों  का    मान    तू।

वह ज्योति  नित जलती रहे,

आँगन की   मेरे   आन  तू।।


आशीष  के   शुभ  शब्द   दो,

तुझ  पर  निछावर  कर रहा।

तेरा    पिता    नेहिल   सुता!

क्यों अश्रु झर-झर झर बहा।।


 🪴शुभमस्तु  !

२३सितम्बर २०२१◆५.१५पतनम मार्तण्डस्य।

गूँगे बोल नहीं पाते हैं!🙉 [ गीत ]


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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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गूँगे    बोल   नहीं    पाते    हैं,

बहरे  भी   कब   सुनते     हैं!

जिनके  दोनों   नयन  नहीं  हैं,

एक    सहारा     चुनते    हैं ।।


अपनी धुन में मस्त  सभी  हैं,

कौन  किसी   की  मान रहा।

जो   मेरा   संदेश   पढ़   रहा,

अज्ञानी    वह   गया  कहा।।

तंतुवाय - से  वे   सब  चादर,

खोए -    खोए     बुनते    हैं।

गूँगे  बोल  नहीं     पाते     हैं,

बहरे  भी   कब   सुनते   हैं!!


उपदेशक,पंडित,  ज्ञानी  भी,

शिक्षक, वैद्य , हक़ीम   खड़े।

नेता ,  दानी , चमचे  भी   हैं,

भरे    भगौने   लिए    अड़े।।

कवियों में दूल्हा वे किसको,

मिलकर    सारे   चुनते   हैं?

गूँगे   बोल   नहीं   पाते    हैं,

बहरे  भी  कब    सुनते   हैं!!


मंचों   पर    चौपालें   लगतीं,

मीन -  मेख      वाहा - वाही!

सीख समीक्षक की भी भारी,

आपस  में     चाहा -  चाही।।

नौसिखिया शरमाते   मन  में,

अपना  ही   सिर   धुनते   हैं।

गूँगे  बोल    नहीं     पाते   हैं,

बहरे  भी  कब    सुनते   हैं!!


कोई   जोकर   जोक  सुनाता,

कोई    ज्ञान    बघार      रहा।

कोई बना चिकित्सक अनपढ़,

साधू    देश    सुधार    नहा।।

रक्त , दाम की माँग  चल रही,

मन ही  मन   जन   घुनते  हैं।

गूँगे    बोल     नहीं   पाते   हैं,

बहरे  भी   कब    सुनते   हैं!!


अपनी -  अपनी   बजा रहे हैं,

ढपली सब स्वर  साज बिना।

नहीं  दूसरे  की   कुछ  सुनते,

रहते   सबसे   सदा    घिना।।

मौन  साधकर  पढ़  तो  लेते,

धागा  एक   न    बुनते     हैं।

गूँगे  बोल     नहीं   पाते   हैं,

बहरे  भी   कब    सुनते  हैं!!


मिलता पानी नहीं अतिथि को

लिए   मोबाइल   घायल - से।

पड़े हुए  सब   यहाँ   वहाँ  वे,

झनक  न  आती   पायल से।।

संक्रामक बीमारी   घर -  घर,

नहीं  किसी  से     रलते    हैं।

गूँगे   बोल   नहीं    पाते    हैं,

बहरे  भी  कब    सुनते    हैं!!


मोबाइल  की  इस डिबिया ने,

ऐसा   जाल     बिछाया    है।

बच्चे  से   लेकर    बूढ़े   तक,

सबको  ही    भरमाया     है।।

चहल -पहल लूटी हर घर की,

सन्नाटे   ही      पलते      हैं।।

गूँगे   बोल   नहीं     पाते   हैं,

बहरे  भी   कब   सुनते    हैं!!


🪴 शुभमस्तु !


२३सितम्बर२०२१◆१२.१५पतनम मार्तण्डस्य।

वैदेही 🧡🧡 [ अतुकांतिका ]


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✍️ शब्दकार  ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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विदेह हो तुम

अदृष्ट निराकार,

चर्म-चक्षुओं के उस पार,

पूरित तुम में 

तत्त्व भरित  सार,

महिमा अपार।


मेरे अंतर्मन में

नित नए -नए  रूपों में

बदल-बदल कर

अदृश्य वसन,

बिना किसी यत्न,

अवतरित होती हो,

भावों के राग में

डुबोती हो।


लगता नहीं

मुझे तुम कभी सोती हो?

सोती है मेरी देह,

निस्संदेह,

अनवरत अनथक 

जागती होती हो।

सोच भी नहीं पाता मैं

कि तुम मेरी हो,

हाँ ,हाँ तुम मेरी हो।


तुम्हीं ने दी हैं

मुझे कितनी कविताएँ,

कितने लेख 

कितनी नव रचनाएँ,

कितने ग्रंथ, खंड काव्य

महाकाव्य ,

जितना भी था मुझसे संभाव्य,

बन गया है आज 

वही मेरा सौभाग्य,

किन्तु सदा मौलिक ही,

कभी कोई बासीपन नहीं,

पुनरावृति नहीं,

सदवृत्ति ही बही,

जो भी बात तुमने  कही।


मैं भी क्या हूँ!

एक खोखला ढोल ही तो!

तुम्हारा ही नृत्य साज बाज,

ध्वनि संयोजन का राज,

रस, अलंकार, छंद,

गीतों के बोल 

नव बंध,

मात्रा स्वर व्यंजन,

जैसे उछलते हुए खंजन,

लय गति प्रवाह

 तुम्हारी ही शुभ वाह !वाह!!

सब तुम्हारा ही तो है।


कहते हैं सब

रचना मेरी है,

परन्तु यथार्थ है यही

कि तुम्हारे बिना

सब अँधेरी ही अँधेरी है,

मेरी ये छोटी सी बुद्धि

तुम्हारी चिर चेरी है।


तुम हो यों तो 

सबके ही पास,

पर वे सब हैं बड़े उदास,

उन्हें नहीं है तव आभास।।

 पूज्या माँ वीणावादिनी ने

सबको नहीं दी वह कला,

कि उनका एक भी वाक्य

रचना में  नहीं ढला,

सभी हो जाते यदि 

मानव कवि,

नहीं बना सकता

हर व्यक्ति स्वयं को हवि।


वैज्ञानिकों ने खोज डालीं

रहस्य की खोज,

भूगोल खगोल में 

हर रोज़,

नहीं होती कहीं

वैज्ञानिकों की फौज,

कवियों का भी

 वही हाल है,

उनमें से अकिंचन 'शुभम' भी

एक नन्हीं दाल है।


शत - शत नमन करता है

तुम्हारा ये 'शुभम',

प्रार्थना है यही 

न हो तुम्हारी कृपा

कभी भी कम,

जन्म जन्मांतर तक

तुम्हारी साधना आराधना

करता  रहूँ,

जीव मात्र की 

हित साधना में रत रहूँ,

ऐ ! मेरी उरवासिनी,

वैदेही कल्पने!


🪴 शुभमस्तु !


२३ सितम्बर २०२१ ◆९.५५आरोहणं मार्तण्डस्य।

बुधवार, 22 सितंबर 2021

पत्थर के प्रभु 🛕 [ बालगीत ]


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✍️ शब्दकार ©

🛕 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

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पत्थर के प्रभु अगर न होते।

तुमसे हम   बतियाते  होते।।


मंदिर में  जब   हम  जाते हैं।

बात  न अपनी कह  पाते हैं।।

दिखे  न हमको  हँसते- रोते।

पत्थर के प्रभु अगर न होते।।


भोग  नहीं   तुम  थोड़ा खाते।

फिर भी तुम प्रसाद खिलवाते।

पता नहीं  कब जगते - सोते।

पत्थर के प्रभु अगर न होते।।


मूर्तिकार   ने   तुम्हें   बनाया।

लोगों ने फिर   खूब सजाया।।

स्नान   कराते   दे - दे    गोते।

पत्थर के प्रभु अगर न होते।।


वसन रजत- भूषण  पहनाते।

इत्र  लगाकर  भी   महकाते।।

बजते घंटे    ले -  ले    झोंटे।

पत्थर के प्रभु अगर न होते।।


धूप दीप की ज्योति जलाकर।

करते हम  आरती   उजागर।।

'शुभं' न खुश फिर भी तुम होते।

पत्थर के प्रभु  अगर न होते।।


🪴 शुभमस्तु !


२२.०९.२०२१◆६.१५पतनम मार्तण्डस्य।


शहीद भगत सिंह 🤺 [ गीत ]


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✍️ शब्दकार ©

☘️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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भगत सिंह की अमर शहादत,

करते     भारतवासी    वंदन।

चूम  लिया  फाँसी  का फंदा,

बनी देश की   माटी   चंदन।।


बंगा   ग्राम  जिला  लायलपुर,

में  जन्मा   वह  पूत  देश का।

प्रांत धरा   पंजाब   जन्म  की,

साक्षी थी वह सिक्ख वेश था।

क्रांति  प्रणेता  देशभक्त   वह,

करता है जन- जन अभिनंदन।

भगत सिंह की अमर शहादत,

करते    भारतवासी    वंदन।।


धनी कलम का चिंतक लेखक

पत्रकार   वह   महामना  था।

देशप्रेम   का   लावा   उसकी,

रग-रग में सरि सा उफना था।

नहीं चैन  से   सोता  था  वह,

नहीं फ़िरंगी  लगते  प्रियजन।

भगत सिंह की अमर शहादत,

करते    भारतवासी    वंदन।।


किया  कठिन   विद्रोह  देश में,

 काकोरी   में   लूट   खज़ाना।

नाम  उज़ागर   किया भगत ने, 

निर्भय  वीर सिंह  जग जाना।।

जलियाँवाला    बाग  कांड से,

जलने लगा  देह का कन-कन।

भगत सिंह की अमर शहादत,

करते   भारतवासी     वंदन।।


बिस्मिल  राजगुरू   का साथी, 

भगत सिंह रसगुल्ला प्रिय था।

बड़ा  शौक  फिल्मों  का उसको,

देशप्रेम  रत उसका हिय था।।

उड़ा  दिया   सांडर्स  फेंक बम,

धीर   वीर   भारत  का   है धन।

भगत सिंह की अमर शहादत,

करते    भारतवासी    वंदन।।


स्वर्ण अक्षरों     में   अंकित वह,

 भगत   सिंह का नाम अमर है।

अंतिम  साँसों   तक   जो  जूझा, 

अग्निशिखावत किया समर है।।

साथ  दिया   आज़ाद   वीर ने,

नहीं जानता  है  यह जन- जन।

भगत सिंह की अमर शहादत,

करते    भारतवासी    वंदन।।


🪴 शुभमस्तु !


२२.०९.२०२१◆११.४५आरोहणं मार्तण्डस्य।


शब्द आधारित सृजन 🌸 [ दोहा ]


(चंपा, परिमल,मकरंद,कली,प्रभात)

             

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✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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चंपा  खिलती  बाग  में,लेकर रूप  सुगंध।

मोहक पीले पुष्प पर,अलि को है प्रतिबंध।।


चंपा राधा  रूपिणी, भ्रमर कृष्ण का भक्त।

इस  मर्यादा  हेतु ही,भ्रमर न हो अनुरक्त।।


परिमल तेरे रूप का, मादक विमल अपार।

 हम भँवरे  आए  हुए, पीने रस   की  धार।।


परिमल में विद्वान सब,चर्चा कर सुविचार।

श्रोता जन  को  मोहते,  करते  ज्ञान प्रसार।।


बेला की कलिका खिली,मीठा नव मकरंद।

परिमल से आकृष्ट हो,अलि झूमे स्वच्छंद।।


लोभी   मैं  मकरंद का,आया   तेरे  पास।

भौंरा  बोला  पुष्प से,सत्य, नहीं  परिहास।।


कली-कली खिलने लगी,हुई सुनहरी भोर।

पादप  पर   करने  लगे,सारे पक्षी    शोर।।


अभी कली  फूली नहीं, आकर्षण -आगार।

जब  बन  जाए  फूल तू,हमें हनेगा   मार।।


रूपसि  तेरे रूप का,मधु लावण्य  प्रभात।

फूले रूप - तड़ाग में,'शुभम'रूप जलजात।।


नव प्रभात कर भानु से,लिखता है शुभवार।

कहता नहीं उदास हो,'शुभम' न होगी हार।।


चंपा परिमल ले खड़ी, किंतु नहीं मकरंद।

ये प्रभात भी सोचता,कली खिली स्वच्छंद।


🪴शुभमस्तु !


२२.०९.२०२१◆७.०० आरोहणं मार्तण्डस्य।


मंगलवार, 21 सितंबर 2021

  झूठा पुराण बनाम जैसी बहे बयार ⛵

 [ व्यंग्य ] 

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 ✍️ व्यंग्यकार ©

 ⛵ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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        अथ  'झूठा पुराणम' प्रारभ्यते ।

          हमारी हिंदी में एक प्रसिद्ध कहावत है :'जैसी बहे बयार पीठ तब तैसी दीजै'।इस छोटी - सी कहावत में बड़े - बड़े सत्य छिपे हुए हैं। आज के युग में इसकी प्रासंगिकता में कई गुणा वृद्धि हुई है और निरंतर गुणात्मक रूप से अनवरत वृद्धि का स्तर ऊपर चढ़ता जा रहा है।हम जमाने के साथ कदम से कदम मिलाते हुए अग्रसर होने में कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ रहे हैं।छोड़नी भी नहीं चाहिए। 

          सच को कभी भी बिना सोचे समझे मत बोलिए।यदि आपके दुर्भाग्यवश आपने ऐसा कर दिया तो आपको पछताने के अतिरिक्त कुछ भी हाथ नहीं लगेगा।इसलिए सच को इस प्रकार डर- डर कर बोलिए, जैसे आप कोई पाप कर्म करने जा रहे हैं। यदि किसी ने आपको सच बोलते हुए देख लिया अथवा पकड़ लिया तो कितने भी झूठ बोलकर भी आप बच नहीं सकेंगे।इसलिए धोखे से भी सच को अनायास जुबां पर मत लाइए ।

              अरे!क्या आप ही अकेले सत्य हरिश्चंद्र की औलाद हैं कि आपने सच बोलने का ठेका ले रखा है? सच को तो स्वप्न के लिए भी बचा कर अपनी तिजोरी में मत रखिए। आपको यह भी अच्छी तरह से मालूम है कि राजा हरिश्चन्द्र ने ऋषि विश्वामित्र को अपना सम्पूर्ण राजपाट दान में दे दिया था। उनका वह स्वप्न भी स्वप्न नहीं रहा । सुबह होते ही वह सच साबित हो गया! औऱ राजपाट लेने के लिए सच में ऋषि विश्वामित्र जी राजदरबार के सामने उसे ग्रहण करने के लिए उपस्थित हो ही गए न? फिर क्या ! स्वप्न में किया गया वादा राजा हरिश्चन्द्र को पूरा करना पड़ा। कहाँ लोग कहते हैं कि सपने तो टूट जाने के लिए ही होते हैं। वे कभी सच नहीं होते।देखा!सपना भी सच हो गया और सच का नतीजा भी देख लिया। राजा, राजा नहीं रहे, सत्य के कारण भिखारी बन गए।क्या आप ऐसे सत्य का साथ देकर भिखारी बन जाने के लिए तैयार हैं?

                 इसलिए सच से सदा सावधान रहें।सच बोलना,सच को धारण करना, सचाई की सीख देना ,सचाई का अनुगमन करना : ये सब कुछ छोड़ ही दीजिए।ये सब इतिहास की बातें किताबों में पढ़ने में ही अच्छी लगती हैं। इन्हें तो इतिहास के साथ ही दफना दीजिए । पूर्व में ही कही गई कहावत को मन - मस्तिष्क में धारण कर लीजिए : 'जैसी बहे बयार.....' 

             आप देख,सुन और समझ रहे हैं कि झूठ का बोलबाला है। सच का मुँह काला है। अतः मित्रो ! झूठ को ही जीवन में सर्वांगीण रूप से धारण करें। उसी के सपने देखें।झूठ बोलने के लिए कुछ भी सोचने-समझने की आवश्यकता नहीं है।इसलिए धड़ल्ले से झूठ की मूठ में समा जाइए।झूठे लोगों का अनुसरण ,अनुगमन करने में ही (आपकी अपनी कल्याण की परिभाषा के अनुसार) आपका कल्याण है। जब सच रहा ही नहीं ,तो उसकी परिभाषा भी बदल गईं ।इसलिए जैसी जमाने की हवा चल रही है, उसी के साथ उड़ते रहना, चलते रहना,अनुगमन करना यही सर्वाधिक श्रेयस्कर है। 

          झूठ की एक विशेषता यह भी है कि एक बोलो ,सौ बोलो ,हज़ार बोलो : वह झूठ नहीं लगता। वह सच का भी परबाबा बन जाता है। वह जीवंत होकर विश्वास का बीजारोपण कर देता है। इसलिए सर्वांश में झूठ को आज भगवान मान लीजिए। इसलिए थोड़ा नहीं , जी भरकर झूठ ही झूठ बोलें। यदि विश्वास नहीं हो तो हाथ कंगन को आरसी क्या! ज्यादा दूर नहीं जाना, अपने चारों ओर खड़े नेताओं ,सियासतदानों औऱ सियासती दलों को देख लीजिए कि वे किस बेशर्मी से वे झूठ का दामन थामकर " देश का कल्याण ?" करने में लगे हुए हैं। वे जितना भी झूठ बोलते हैं ,वह जनता में सैकड़ों गुनी रौशनी फैलाता है। फिर वह मानव नहीं ,देव दूत बनाकर पचास किलो की माला से पूजा जाता है। उसकी हड्डी,माँस, रक्त ,मज्जा,त्वचा आदि के भार के बराबर तराजू में तोला जाता है। ये सब कमाल एक मात्र झूठ का ही तो है।

        आज का आदमी बहुत बुद्धिमान है। वह बिना स्वार्थ के किसी के कटे हुए पर स्व- मूत्र विसर्जन भी नहीं करता। फिर आप उससे क्या आशा बनाए रखकर अपने विश्वास की मंजिल खड़ी कर सकते हैं? वह झूठ का पक्का अनुयायी बन चुका है। सारे खोंमचे, चमचे , भगौने बस झूठ की 'मधुर' खीर की हँड़िया में आकंठ निमग्न हैं। उन्हें पूर्ण विश्वास है कि एक मात्र सहारा अब 'झूठ भगवान' का ही बचा है। इसलिए उनके धर्म, कर्म, व्यक्ति, समाज, उत्सव, दंगल, सर्वत्र झूठ का साम्राज्य है।नौकरी में 'अन्य आय' (इसे आप अन्याय न समझें), उत्कोच, व्यापार में मिलावट, सब कुछ झूठ की आधार -भूमि पर ही तो प्रतिष्ठित है।

             झूठ के बिना हानि ही हानि है। आज झूठ , झूठों, झूठनुयायियों का युग है। सच औऱ सचाई के रास्ते पर चलकर महक दुमहले बनाना तो दूर की टेढ़ी खीर ही समझिए, आपको दो वक्त के निवाले के भी लाले पड़ जाएंगे। इसलिए यह तो मानना ही पड़ेगा : 

  झूठ बिना जीवन नहीं,झूठ आज भगवान।

 झूठ बिना मिट जाएगी, मानव तेरी शान।।    


  खाना पीना पहनना,   रहना सहना झूठ।

 झूठ छोड़ तुमने दिया, जाए किस्मत रूठ।।


 झूठ पाप होता नहीं, झूठ  आज है पुण्य।

 नेता जी से पूछ लें,   कर देंगे अनुमन्य।।


 एक  नहीं   दो  भी  नहीं, बोलें  झूठ हज़ार। 

 मान बढ़े  संसार  में, देखें   नित्य बहार।।


 झूठे नित फल फूलते, चमके जग में नाम। 

 अखबारों में छप रहे,करता जगत प्रनाम।।


 चलिए सबके  साथ ही ,जैसी    बहे    बयार। 

 शेर बने तनकर रहें,मिलता 'शुभम' पियार।। 


 झूठों का  अनुगमन कर ,चलें भेड़ की चाल। 

 देखेगा संसार सब,   जब   हों  मालामाल।। 


 इति झूठा पुराणम समाप्यते। 


 🪴 शुभमस्तु ! 


 २१.०९.२०२१◆६.३० पतनम मार्तण्डस्य।

सियासी दाँव 🎺 [ मुक्तक ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🎺 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                       -1-

घिरे   हैं   मेघ     अंबर   में गरजते,

रँग बदलते गेरुआ  रक्तिम सुलगते,

सभी की चाह  है ढँकना  धरा को,

सियासी दाँव से पल -पल सरकते।


                       -2-

लटकी जलेबी रसभरी मीठी गरम है,

मतमंगताओं  को  लुभाती है नरम है,

करतूत इनकी जानती है ख़ूब जनता,

सियासी दाँव में नेता सभी बेशरम हैं।


                       -3-

सियासी    दाँव   जनता  पर चलाते,

गोलियाँ   मीठी     खिलाकर लुभाते,

पट्टियाँ पहले बँधी जिनके नयन पर,

जिता मतदान से   जन बिलबिलाते।


                        -4-

चाल  को  ही  दाँव  कहता है जमाना,

सियासी   दाँव   का   मत  है  बहाना,

दाँव में क्या  झूठ  क्या  सत 'शुभम' है,

नीर   हो   या   पंक   उनको नहाना।


                       -5-

सियासी  दाँव  है छल- छद्म भारी,

मत  समझना  नीर  में  पद्म क्यारी,

बाद  खाने   के  पता,  धोखा लगा  ,

कौन  कम है पुरुष या सलज नारी।


🪴 शुभमस्तु !


२१.०९.२०२१◆११.४५ आरोहणं मार्तण्डस्य।

स्वेद बहाकर पेट पालता 🌾 [ गीत ]


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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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स्वेद  बहाकर   पेट    पालता,

रिक्शा    भले     चलाता   है।

एक   पैर    से   आगे   बढ़ता,

दंड  -   सहारा     पाता    है।।


चोरी  करता  नहीं  किसी की,

अपने  श्रम का    संबल    है।

दिन भर  सड़क नापता लंबी,

चलती -फिरती वह  कल है।।

यद्यपि पद  के बिना जी रहा,

तनिक    नहीं   घबराता   है।

स्वेद   बहाकर   पेट  पालता,

रिक्शा    भले   चलाता   है।।


भावी  को    देखा   है किसने,

कब  किसके सँग  क्या होना।

वज्र  गिरे यदि मानव तन पर,

पड़ता  जीवन   भर    रोना।।

चोंच -  चोंच  को दाना  देता,

सबका     एक  विधाता   है।

स्वेद  बहाकर   पेट   पालता,

रिक्शा   भले  चलाता    है।।


अपने  इस तन  मन  से मित्रो,

कष्ट   किसी  को    मत  देना।

सदा  गरीबों  का  हित करना,

आह  किसी   की  मत लेना।।

बुरी  आह  से  सार  भस्म हो,

सब   स्वाहा   हो   जाता   है।

स्वेद   बहाकर   पेट  पालता,

रिक्शा   भले    चलाता   है।।


हो  सकती  विकलांग देह तो,

आत्मा   सदा   अखंडित   है।

अजर -अमर अविनाशी होती,

युग -  युग महिमामंडित  है।।

है   अज्ञान  मूढ़    तू   मानव,

तन   को   देख   घिनाता  है?

स्वेद  बहाकर    पेट  पालता,

रिक्शा   भले    चलाता   है।।


आएँ   'शुभम'  बढ़ाएँ  अपने,

दोनों   कर     भर   अलिंगन।

हर गरीब के सत  सहाय बन,

यथाशक्य निज तन मन धन।

अपने  को   मत   माने  कर्ता,

कर्ता   प्रभु    कहलाता    है।

स्वेद  बहाकर   पेट  पालता,

रिक्शा    भले   चलाता   है।।


🪴शुभमस्तु !


२१.०९.२०२१◆९.३०आरोहणं मार्तण्डस्य।

सोमवार, 20 सितंबर 2021

माँ 🧕🏻 [ कुंडलिया ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🪦 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                       -1-

माँ  की  ममता- मापनी,बनी नहीं  भू  मंच।

संतति का शुभ चाहती,नहीं स्वार्थ हिय रंच

नहीं स्वार्थ हिय रंच,सुलाती शिशु को सुख से

गीले  में सो  आप,भले काटे निशि दुख से।।

'शुभं'न उपमा एक,नहीं माँ सी जग झाँकी।

जनक पिता का त्याग,श्रेष्ठतम ममता माँ की


                       -2-

जननी  माँ प्रभु रूप हैं,धीर नेह  का   धाम।

सदा बचाती शीत से,लगे न अतिशय घाम।।

लगे न अतिशय घाम,सँवारे संतति  अपनी।

सबसे  प्रिय संतान,एक ही माला   जपनी।।

'शुभम'दया संचार,किया करती दुख हरनी।

संस्कार  भांडार, मात  मेरी  माँ     जननी।।


                       -3-

आया  सुत  घर लौटकर, बाहर से  कर देर।

माँ  ने  पूछी   कुशलता,  कैसे हुई    अबेर।।

कैसे   हुई   अबेर,  बहुत  तू भूखा    होगा।

कर ले भोजन पूत,कहाँ भीगा तव    चोगा।।

'शुभम' बदल परिधान,नहीं मैंने कुछ खाया।

मिली मुझे अब शांति, पूत मेरा घर आया।।


                       -4-

देती  जननी  जन्म  जो, पालनहारी  मात।

देता है यदि कष्ट सुत,सँग उसके अपघात।।

सँग उसके अपघात, झेलता सौ-सौ  रौरव।

बनता काला  कीट, नसाता अपना  सौरव।।

'शुभम' सदा ही मात,अंडवत संतति  सेती।

पहुँचाए बिन घात,जननि माँ सुख ही देती।।


                        -5-

माता जननी  धाय का,उऋण नहीं  है नेह।

बिना लिए  प्रतिदान वह,बरसाती नित मेह।।

बरसाती नित मेह,महकती जीवन - क्यारी।

खिलते सुमन अपार, अजब है माता  नारी।।

'शुभम'न बनें कपूत,सदा माँ को जो ध्याता।

हर लेती हर  दाह,पूजता जो निज  माता।।


🪴 शुभमस्तु !


२०.०९.२०२१◆३.००पतनम मार्तण्डस्य।


सजल 🪦

 

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समांत :  आने ।

पदांत  :    में।

मात्रा भार:20

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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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समय     लगता     है   गरिमा बढ़ाने  में।

बात    बिखरती    हुई      को  बनाने में ।।


मात्र   मुखड़ा   नहीं     तुम सजाया करो,

वर्ष   लगते    हैं  चरित    को सजाने   में।


एक     यात्रा     कठिन     है जीवन  तेरा,

सारा       जीवन     लगा    दे  तपाने   में ।


संस्कारों        की     खेती   होती   नहीं,

सहस्त्र    सदियाँ   लगा तू निभाने   में।


सुमन  संग     शूलों     को   दिया   है हमें,

महक    आती    है   तप   के खजाने    में ।


एक -  एक     क्षण    जोड़ क्षणदा   बनी,

मिलता  है सदा   सुख  जाग जाने      में।


मत  'शुभम'   भूल  जाना आचरण कभी,

जिंदगी    बीतती      घर    बसाने     में ।


🪴 शुभमस्तु !


२०.०९.२०२१◆११.०० आरोहणं मार्तण्डस्य।


शनिवार, 18 सितंबर 2021

प्यास, प्यासा और प्याऊ💦 [ दोहा -गीतिका ]


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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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पानी  पीकर चल दिया,बुझा कंठ की प्यास।

छोड़ी प्याऊ दूर पथ,सत्य, न समझें  हास।।


तृप्ति  हुई अंजलि बँधी,खुले हाथ के बंध,

प्याऊ वाले को मिला,अलग तृप्ति आभास।


शीश हिला संकेत था, अब रोको जलधार,

प्यास बुझी है कंठ की,उर में हुआ उजास।


प्यासे पथिकों को मिले,जब मनचाहा नीर,

जीवन की बँधती  रहे,जीने के हित आस।


यदि प्यासा  पौधा मिले, मुरझाए  हों  पात,

जलसिंचन मत भूलना,जल जीवन की श्वास


जाति न होती प्यास की,याद रखें यह बात,

करनी अपनी भूलकर,करना नहीं  उदास।


'शुभं'स्वाति की आस में,चातक अति बेचैन,

प्यास  बुझाएँ  मेघ  दल,पूरा है   विश्वास।


🪴 शुभमस्तु !


१८.०९.२०२१◆११.३० आरोहणं मार्तण्डस्य।

शुक्रवार, 17 सितंबर 2021

चूड़ियों की खनक पावन 🌉 [ गीत ]


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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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चूड़ियों   की  खनक  पावन,

पायलों  की   झनक झाँझन,

छा रही है।

देह     के      वातायनों    से,

चाँदनी   सुरभित   घनों   से,

आ  रही है।।


कमल-दल सज्जित ऋचा सी

भोर   की   पावन    प्रभा सी,

झाँकती  हो।

आगमन   से    पूर्व   सजनी,

पोंछ  कर  से  श्याम  रजनी,

आँकती  हो।।

भंगिमा      कैसी     निराली,

चाँद  से    तुमने      चुरा ली,

भा  रही है।

चूड़ियों  की   खनक   पावन,

पायलों  की   झनक  झाँझन,

छा  रही  है।।


एड़ियों  में   शुभ   अलक्तक,

रजत में नव   जड़ित मुक्तक,

तारकों  से।

कदलि के  तरु- थंभ दो  - दो,

चल   रहे    स्फूर्त    हो -  हो,

सारकों  से।।

आम्र   की  नव   गंध  मादक,

खींचती सी   सोम     धारक,

 भा रही  है।

चूड़ियों   की   खनक   पावन,

पायलों   की  झनक   झाँझन,

छा  रही है।।


क्षीण   कटि   कामायनी  सी,

पृष्ठ   गुरुतर    करधनी   की,

रंगशाला।

नाभि -निधि में क्या छिपा है,

दृष्टि   में   कितना   दिखा है,

गुप्तहाला।।

दृष्टि  पयधर   के  युगल  पर,

छा गई   है   भ्रमर बन   कर,

आ रही है।

चूड़ियों   की   खनक  पावन,

पायलों  की  झनक   झाँझन,

छा रही है।।


रूप   उज्ज्वल   साधना  सा,

मन   करे     आराधना   का ,

क्या  बताएँ।

नयन,मुख ,कच की न समता,

नव   कपोलों    में   सुभगता,

क्या  जताएँ।।

धड़कनें    छिपती   नहीं  हैं,

देह   मेरी    में     कहीं    हैं,

गा  रही  हैं।

चूड़ियों  की  खनक  पावन,

पायलों की  झनक  झाँझन,

छा  रही है।।


परस  की  उर -  कामना है,

रसवती      संभावना     है,

पास   आओ।

उष्ण     आलिंगन    समाएँ,

देह  दो    इक   प्राण   पाएँ,

रुक न जाओ।।

'शुभम' चुम्बक   साधना की,

प्रीतिं   की    आराधना   की,

भा  रही है।।


🪴 शुभमस्तु !


१७.०९.२०२१◆१.००पतनम मार्तण्डस्य।

गुरुवार, 16 सितंबर 2021

कवियों का देश 🛋️ [ गीतिका ]

 

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✍️ शब्दकार ©

👑 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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यदि    कवियों   का  देश धरा पर   होता।

एक   अकिंचन   ये   भी  उनमें   होता।।


कुछ   कहते  मैं   बड़ा सभी से  कविवर,

दो    पाटों   के    बीच  पिसा   मैं   होता ।


मीन  - मेख    में  लगे   सभी कवि   होते,

कविता    सोती    तान  यही सब   होता।


कवियों   की   भरमार   ग़ज़ब ही    ढाती,

लठामार     होली     का   हुल्लड़   होता।


कौन    समीक्षा    करता किसकी  रचना,

स्वयं   शीश   पर   पगड़ी कसता  होता।


अलंकार ,   रस,   छंद    कौन बतलाता,

करे      वर्तनी      शुद्ध     न कोई    होता।


इसका    झोंटा     उसके   कर  महकाता,

दृश्य     देखने   योग्य   सभा का    होता।


दर्पण   सम्मुख     खड़ा सुनाता   कविता,

बंद   कक्ष    में   गीत    गा  रहा     होता।


खुजली    का   उपचार जीभ की   करता,

एक      अकेले     का   सम्मेलन     होता।


छपवा      पत्र   प्रमाण    टाँगता   घर    में,

लेता     शॉल    ख़रीद   महाकवि    होता।


एकल      हेकड़  -   मंच    सजाए   जाते,

'शुभम' पीठ निज थपक  सुकवि वह होता।


🪴 शुभमस्तु !


१६.०९.२०२१◆७.३० पतनम मार्तण्डस्य।

तुम्हें बता तो दूँ 🥀 [ व्यंग्य ]


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 ✍️ व्यंग्यकार © 

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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 मेरे हिंद देश वासियो! 

 हिंदी भाषा भाषियो!! 

 आज मेरा तुम सबसे संवाद बहुत आवश्यक हो गया है।तुम लोग इस भ्रम में कदापि मत रहना कि वर्ष में एक बार 'हिंदी दिवस' अथवा 'हिंदी पखवाड़ा' मना लेते हो ,तो मैं तुम्हारी बहुत बड़ी कृतज्ञ हो जाऊँगी ? बहुत अधिक प्रसन्न हो जाऊँगी ? माना कि इक्कीसवीं सदी चल रही है। तुम भी बीसवीं या इसी सदी में पैदा हुए होगे।लेकिन मेरा जन्म तुमसे कई शताब्दियों पहले हुआ है। मेरे सामने तुम अभी कच्चे हो, बच्चे हो। लेकिन इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि तुम मनमानी करोगे ! और मुझे भी हास्यास्पद बना डालोगे। अन्य भाषा बहनों के बीच मेरी भद्द करा डालोगे।

              आज तुम अपनी उच्च भारतीय संस्कृति को भी भूलते जा रहे हो। माना कि युग बदल रहा है। युगानुकूल परिवर्तन भी होते हैं , होते रहे हैं और होते भी रहेंगे।लेकिन क्या एक प्रश्न का उत्तर तुम मुझे दे सकते हो? क्या युग और समय बदलने पर तुमने अपने माँ - बाप को भी बदल लिया है ? किसी अन्य को यह मान्यता प्रदान कर दी है? तुम कहोगे कि 'ऐसा कैसे हो सकता है ! भला माँ - बाप भी बदले जाते हैं ? ' जब माँ-बाप नहीं बदले जाते तो क्या तुम्हारी माँ जैसी माँ की बोली , माँ की भाषा ;जिसे तुम मातृभाषा ! मातृभाषा !! कहते हुए ,उसके गीत गाते हुए ,उसकी प्रशंसा में कसीदे काढ़ते हुए नहीं अघाते , उसका पीठ पीछे क्या सामने भी जी भरकर अपमान करते हुए भी नहीं लाज आती ?

               अब तुम्हारा उत्तर यही होगा कि 'हमने ऐसा क्या किया है कि आपका इतना अपमान हुआ है?' तो मेरी वेदना भी सुनो। तुमने अपने कपड़े बदले। धोती, कुर्ता, पायजामा, कमीज़, साड़ी, सूट ,सलवार में आ गए। तुम सुविधाभोगी हो न ? जिसमें सुविधा लगी ,वही बिना सोचे - समझे पहन डाला,कर डाला । वाहवाही लूटने को गले में डाल ली माला।भले ही संस्कारों का निकल जाए दिवाला।माँ - बाप चीखते -चिल्लाते रहे। तुम बहरे बने गुल खिलाते रहे।तुम्हें देख - देख कर तुम्हारे ही कुछ माँ-बाप भी तुम्हारे ही रँग में रँग गए।तुम पश्चिम के अंधे अनुकरण में टाइट जींस, टॉप, स्कर्ट , लहँगे की बहन और पायजामे की उतरन पिलाजो, लैगी,फ़टी ,उधड़ी, चिथड़ी जींस और न जाने क्या -क्या ले आए? इसी प्रकार खान -पान और रहन - सहन में भी क्या से क्या बन गए ? पर क्या तुम्हें अपनी माँ समान हिंदी को नग्न करने में भी तुम्हारी आँखें लज्जा से झुक नहीं सकीं? मेरे भी वस्त्र उतार दिए ,औऱ बिना सिर की रोमन भाषा के कपड़े मुझे बलात लाद दिए! जिसके लिए मैं न तैयार थी , न हूँ और न रहूँगी। क्या मैं निर्वसना थी,जो रोमन- वसन से लज्जित कर रहे हो ? मेरी भी अपनी एक वेशभूषा है ।जिसे नहीं जानते हो तो बतला भी दूँ? उसका नाम है देवनागरी । जी हाँ, देवनागरी। 

            जहाँ तक पीछे जाकर विचार करती हूँ तो मुझे प्रतीत होता है कि पर्दे पर नंगा नाच करने वाले अभिनेता , अभिनेत्रियां, उनके निर्देशक , निर्माता, विज्ञापन कर्ता - यही सब लोग दोषी हैं। क्योंकि वे अंग्रेज़ी में अंग्रेज़ी से हिंदी सिखा सकते हैं, पढ़ा सकते हैं।अब उनकी नकल में , क्योंकि वे ही तो तुम्हारे आज के आदर्श पुरुष औऱ महा नारियाँ हैं। उन्हीं से खिलतीं तुम्हारे हृदय की क्यारियाँ हैं! ये तो तुम निश्चित करो कि तुम भेड़ हो अथवा बकरियाँ हो ! 

                  आप में से अधिकांश ने देवनागरी को खूँटी पर टाँगकर रोमन की स्कर्ट पहना दी है।    'लघुकाट' के लालचियो! अब न रही हिंदी औऱ तुम्हारे द्वारा मार डाली गई देवनागरी भी देवलोक को विदा कर दी गई ! अंततः मेरी हत्या क्यों कर रहे हो। हिंदी दिवस पर 'हिंदी डे' मनाते हो, झूठी औऱ खोखली औपचारिकता निभाते हो और माँ को छोड़ फ़िरंगिनि मौसी की देह सहलाते हो! मुझे सरेआम नंगा कर रोमन - वसन पहनाते हो। हिंदी सीखने, पढ़ने, लिखने में नाक कटती है न तुम्हारी! इसलिए हिंदी का सभा- चिंघाड़ू भाषण करने वाला भीषण वक्ता अपने बच्चों को कॉन्वेंट में पढ़वाता है। हिंदी- भाषी पिछड़ा कहलाता है! क्यों न तुम जैसों को भाषाद्रोही कहा जाए? भाषाद्रोह भी देशद्रोह से कम नहीं है। 

          सही अर्थों में देखा जाए तो तुम्हें न हिंदी आती है और न कोई अन्य अंग्रेज़ी ,संस्कृत ,उर्दू आदि ही। खिचड़ी आती है। हिंग्लिश से शान बढ़ जाती है । दिखावा करने में कुशल हो न! बस इसी दिखावे में वाह वाही लूटना ही तुम्हारा उद्देश्य है।न घोड़े बन पाए और न गधे ही ,खच्चर बने रह गए। गंगा में कितना जल निकल चुका ,कितने खच्चर बह भी गए! अधकचरा ज्ञान सदैव घातक ही होता है। अपने पैरों में अपने आप ही कुल्हाड़ी मार रहे हो ,तो शौक से मारो। फिर मत कहना कि बताया नहीं था। मैं हिंदी ,तुम्हारी माँ की वाणी ;तुमसे ,अपनी ही संतति से तनिक भी प्रसन्न नहीं हूँ। मेरा ,अपनी मातृभाषा हिंदी का गला ही घोंटते चले जा रहे हो। कॉन्वेंट के बच्चों के माँ-बाप उस समय कितनी बेशरमी से मुस्कराते हुए गर्व से सीना फुला लेते हैं ,जब उनका बच्चा कहता है , हिंदी गिनती नहीं आती ,अंग्रेज़ी की पूरी आती है। 'आई कैन स्पीक इन इंग्लिश'. अरे बेशर्मों! चुल्लू भर .........में डूब कर मर क्यों नहीं जाते ! अपने को कहते हो हिंदुस्तानी! हिन्दू , हिंदी ! और गुलाम हो फ़िरंगिनि के ! क्या यही सनातन संस्कृति है ? यही तुम्हारा सनातन वैदिक धर्म है? 'ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार' गाने/ रटने वाला बच्चा क्या संस्कार देगा? हे हिंद देश के वासियो ! तुम्हें धिक्कारने के अतिरिक्त मेरे पास कोई दूसरा शब्द नहीं है।

          देश के दुर्भाग्य या उसके अपने सौभाग्य से यदि थोड़ी बहुत फ़िरंगिनि भाषा सीख भी ली ,तो मोबाइल पर संदेश लिखने में हिंदी तो भूल ही जाता है। वह या तो हिंदी कुंजी पटल को कठिन बताकर या अंग्रेज़ी का रॉब मित्रों में मारने के लिए YOU को 'U' ,QUE को 'Q', है को H, हैं को HE, FOR को 4, साथ को '7', तेरह को '13', बारह को '12' लिखने लगता है। ये किस भाषा का जन्म हो रहा है, समय ही बताएगा। 

                इतना अवश्य है कि पतन इसी तरह होता है। ये सब पतन के लक्षण हैं।चाहे वस्तु हो या व्यक्ति ; ऊपर उठने में समय लगता है , गिरने में न्यूनतम समय ही लगता है। जैसे पूत के पाँव पालने से बाहर निकल जाते हैं, वैसे ही पूत - पूतनियों (पूतनाओं न समझें) के पाँव तो पालक औऱ पालने को लतिया - लतिया कर तोड़-फोड़ डालने में ही दिख रहे हैं। भविष्य के गर्भ में क्या छिपा हुआ है , भविष्य ही भविष्य में उसका भविष्य बताएगा । 

 🪴 शुभमस्तु ! 

 १६.०९.२०२१.◆१.४५ पतनम मार्तण्डस्य। 

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डेंगू से है जंग हमारी 🦟 [ बालगीत ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🌿 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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डेंगू   से   है    जंग    हमारी।

करें   हराने    की     तैयारी।।


स्वच्छ  रखें  अपना  घर पूरा।

रहे पास  में   एक   न   घूरा।।

करें  सुबह  से   सब   तैयारी।

डेंगू    से    है   जंग  हमारी।।


फ़िर भी यदि बुख़ार आ जाएँ

तुलसी दल की चाय  बनाएँ।।

पिएँ  पपीता -  रस  भी भारी।

डेंगू   से   है    जंग   हमारी।।


मत  भूलें  मैंथी   का   काढ़ा।

हल्दी  डाल   दूध  लें  गाढ़ा।।

बीमारी  पर   हम   हों  भारी।

डेंगू    से    है  जंग   हमारी।।


पत्ते  नीम  पेड़  के   पा   लें।

रख  पानी  में ख़ूब  उबालें।।

घर वाले  सब  पिएँ सँभारी।

डेंगू   से   है  जंग   हमारी।।


तेल  नारियल  नित्य  लगाएँ।

खुली देह सब ढँककर जाएँ।।

यह बचाव की   शुभ  तैयारी।

डेंगू   से     है  जंग   हमारी।।


🪴 शुभमस्तु !


१६.०९.२०२१◆७.१५ आरोहणं मार्तण्डस्य।

बुधवार, 15 सितंबर 2021

लघुकाट' हिंदी 🪂 [ अतुकांतिका ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🪂 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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छोड़कर क़मीज़ शर्ट, 

पहन लिए टॉप-स्कर्ट,

बन गई है स्मार्ट, 

देख- देख हम होते हर्ट,

हिंदी कर रहे नित फ्लर्ट,

चला जाए भले सब गर्त!


प्रेम है उन्हें हिंदी से,

नुक्ता कहें या बिंदी से,

घृणा है किसी अहिंदी से,

तभी भरता है उनका

'विशुद्ध'   'हिंदी मन' ,

जब लिखते हैं विज्ञापन में,

मोबाइल में लिपि रोमन में,

वाह रे! मेरे हिंदी - धन।


हिंदी को पहना दी

फिरंगियों की उतरन,

टॉप -स्कर्ट 'लघुकाट'

बड़ा है बहुत 

'लघुतम'  का ठाठ,

'क्यू'  के लिए  'Q'

'यू'  के   लिए  'U',

अपने ही हाथों

अपनी  ही मात,

कहाँ रह गई 

तुम्हारी हिंदी- मात।


वर्तनी पर चल गई

रोमन की कर्तनी,

लगता है इनको 

हिंदी नहीं बरतनी, 

मौसी के इश्क में

माँ की करी खतनी।


यही तो आज 

हिंदी के लाड़ले हैं,

देशी गुड़ को छोड़

गोरी खांड़ के निवाले हैं,

हिंदी से हिंदी में ही

शरमाते हैं,

फ़िरंगिनी पर रात- दिन

मरे जाते हैं,

आती नहीं मातृभाषा 

अपनी ही हिंदी।


हिंदीभाषी ही बिखेर रहे,

छोटी -छोटी चिंदी,

'शुभम' होगा क्या ?

इन स्वार्थी हिंदियों का,

'लघुकाट' में नग्न

नन्हीं -नन्ही बिंदियों का।


🪴 शुभमस्तु !


१५०९२०२१◆ १.००पतनम

मार्तण्डस्य ।

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...