सोमवार, 28 फ़रवरी 2022

जेलेंस्की रणधीर 🔱 [ दोहा गीतिका ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🔱 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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युद्ध नाम है नाश का ,नहीं शांति का नाम।

रूसी  यूक्रेनी  लड़े,  हुआ  न युद्धविराम।।


धोखा  दे भड़का दिया, अमरीका  ने  देश,

चार  कदम  पीछे हटा, वादा किया  हराम।


वादा  अपना भूलकर, भड़काई  है  आग,

लड़ो, लड़ो , लड़ते रहो,नहीं हमारा  काम।


अहंकार  विस्तार का, पाले पुतिन  सरोष,

कूद  पड़े  मैदान   में , होती धूम-धड़ाम।


साहस का प्रतिमान हैं,जेलेन्स्की रणधीर,

नहीं छोड़ना देश को, नहीं छोड़ना   धाम।


देशभक्त   रणबाँकुरे,   यूक्रेनी नर  -  नारि,

देश  बचाने  के  लिए ,दौड़े किया प्रणाम।


गोले, तोप,मिसाइलें,सुलगी भीषण  आग,

त्राहि -त्राहि मचने लगी,हुए विधाता  वाम।


पुतिन आज बहरा हुआ,देता बात न  कान,

संहारक  दानव  बना, धमकी का   पैगाम।


'शुभम' ईश रक्षा करें, दुनिया में  हो शांति,

युद्धों का होता नहीं,कभी भला  परिणाम।


🪴शुभमस्तु !

२८.०२.२०२२◆४.४५

पतनम  मार्तण्डस्य।


सजल 🌻

  

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समांत : ऊला।

पदांत : न होता।

मात्राभार :16.

मात्रा पतन: शून्य।

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✍️शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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समय  सदा अनुकूल न  होता

जीवन-पथ नित फूल न  होता


बाधाओं   से   हार    न   मानें

हर  बाधा  में   शूल  न   होता


कर्मठता  में  लक्ष्य    छिपा  है

फल  कर्मों  का  धूल  न होता


मुखड़ों  से मत  धोखा  खाना

हर मुखड़े  पर ऊल   न  होता


वसन-वसन का पृथक मोल है

अवगुंठन  मुख - झूल न होता


कितने   पादप   और   लताएँ 

हर  पादप में   मूल   न   होता


'शुभम' चुभन  देने   वाला हर

मानव शूल   बबूल   न   होता 


ऊल =उल्लास।

मुख-झूल= मुख पर झूलता हुआ वस्त्र।



🪴 शुभमस्तु !


२८.०२.२०२२◆८.३० आरोहणं मार्तण्डस्य।

कर्मठता में लक्ष्य 🪴 [ गीतिका ]

 

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✍️शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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समय  सदा अनुकूल न  होता।

जीवन-पथ नित फूल न  होता।।


बाधाओं   से   हार    न   मानें,

हर  बाधा  में   शूल  न   होता।


कर्मठता  में  लक्ष्य    छिपा  है,

फल  कर्मों  का  धूल  न होता।


मुखड़ों  से मत  धोखा  खाना,

हर मुखड़े  पर ऊल   न  होता।


वसन-वसन का पृथक मोल है,

अवगुंठन  मुख - झूल न होता।


कितने   पादप   और   लताएँ ,

हर  पादप में   मूल   न   होता।


'शुभम' चुभन  देने   वाला हर,

मानव शूल   बबूल   न   होता। 


ऊल =उल्लास।

मुख-झूल= मुख पर झूलता हुआ वस्त्र।



🪴 शुभमस्तु !


२८.०२.२०२२◆८.३० आरोहणं मार्तण्डस्य।

शनिवार, 26 फ़रवरी 2022

घूँघट - पट की ओट [ दोहा ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🧕🏻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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मुख का दर्पण देख कर,होता हर  अनुमान।

दोष औऱ गुण झाँकते,मुख मन की पहचान।


हाव -भाव मुख आँख के,होते हैं  सब  दृष्ट।

उन्हें  छिपाने  के लिए,करता घूँघट    कष्ट।।


जितना छिपे छिपाइए,कर घूँघट  की ओट।

घूँघट-पट में क्यों छिपे,युगल नयन की चोट।


कलिका आधी हो खिली,नहीं बनी हो फूल।

जिज्ञासा  बढ़ती  रहे,आकर्षण  का   मूल।।


नर की कपट-कुदृष्टि से, बचना सदा सकार।

अवगुंठन  झीना  करे,नारी कृत   उपचार।।


नारी  की  रक्षार्थ  ही,नर  का अविष्कार।

घूँघट मुख की ढाल है,नहीं समझना  भार।।


नारी  कोमल फूल है,पुरुष वर्ग   है   भृङ्ग।

अवगुंठन  की कल्पना, देख न होना  दंग।।


घूँघट के इतिहास का,किया 'शुभम' ने शोध।

चलते  में गिरती नहीं,जागृत है  ये  बोध।।


भावों  की रँगरेलियाँ, घूँघट पट की  ओट।

बाहर  ही आती  नहीं,ढूँढ़ें मिले  न   खोट।।


चूड़ी,पायल,माँग की,विविध रूपिणी खोज।

नर ने  नारी के लिए,आनन किया  सरोज।।


नयन बाण आघात का,खतरा भारी   जान।

अवगुंठन से ढंक दिया,नारी-मुख शुभमान।।


🪴 शुभमस्तु !


२६.०२.२०२२◆१०.३०आरोहणं मार्तण्डस्य।


शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2022

सरकारी संत 🐧 [ कुंडलिया ]


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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                        -1-

हम  सरकारी   संत  हैं, रहना हमसे    दूर।

उपदेशक हम  ज्ञान के,करने को  मजबूर।।

करने को  मजबूर,  मलाई आश्वासन   की।

तुम्हें  चटाते  खूब, मिठाई निज भाषन की।।

'शुभम' न  हमको पाप,झूठ की हम बीमारी।

पहले अपनी जाति, संत हैं हम  सरकारी।।


                        -2-

कोई   भी   जाने नहीं, हम सरकारी    संत।

अवगुण  के भंडार हम,धारण पाप  अनंत।।

धारण पाप अनंत, समझना मत हम भोले।

अभिनेताई    नित्य,  बोलते  हैं   अनतोले।।

'शुभम' भिड़ेगा कौन,बुद्धि जिसकी हो सोई।

शिक्षा  से हम  दूर, नहीं समता  में   कोई।।


                         -3-

सरकारी   तालाब   में, मछली हैं    भरपूर।

हर छोटी को खा रही, मछली बड़ी  अदूर।।

मछली  बड़ी  अदूर,चाहते हम  ही जीना।

पीते रक्त अबाध, तानकर अपना   सीना।।

'शुभम'बहाना स्वेद, आम जन की लाचारी।

चाहें धन,पद, मान,  संत   सारे  सरकारी।।


                         -4-

दिन -दिन  तेरे  कान  में,मंत्र फूँकते    संत।

भेजे चुन तालाब में,बहु घड़ियाल सु - दंत।

बहु घड़ियाल सु-दंत,व्यर्थ है पढ़ना   सारा।

बिना पढ़े हर साज,मिला है हमको   प्यारा।।

'शुभम' त्याग स्कूल,रहो नोटों को गिन- गिन।

निखरे तेरा ओज,मंत्र तू जप ले दिन -दिन।।


                         -5-

धुले -  धुलाये  दूध के,सब सरकारी   संत।

आदर्शों  की  लीक पर,चलना ही  है  पंत।।

चलना ही है  पंत,दिखावट विज्ञापन  - सी।

चमक-दमक है बाह्य,विधाता के सर्जन-सी

'शुभम' न आते पास,कभी वे बिना   बुलाए।

सब  सरकारी  संत,  दूध के धुले - धुलाये।।


🪴 शुभमस्तु !


२५.०२.२०२२◆३.०० पतनम मार्तण्डस्य।


गुरुवार, 24 फ़रवरी 2022

समय ⏳ [अतुकान्तिका ]


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✍️ शब्दकार ©

⏳ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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लौट कर

आता नहीं

समय

जो चला गया,

जिसने न समझा

मूल्य उसका

अपने ही हाथों

छला गया,

समय को करने वाला

बरवाद 

किया  है सदा

समय ने ही

बरवाद।


निर्धारित है

हर क्षण,

सृष्टि का कण - कण,

समय के पड़ते

जब चरण,

शक्तिशाली भी

पतित बन

बनते कर्ण।


जन्म या मरण

सबका है निर्धारित

वह क्षण,

जब धरती पर

आना है ,

और कब 

प्राण छूट 

जाना है,

अज्ञात है

अनजान है तू,

कब क्या होना है,

अर्थ नहीं इसका यह

कि तानकर चादर

सोना है।


कर्मरत रह ,

अज्ञान में मत बह,

जो मिले 

उसे सह,

जैसा बोएगा बीज

खिलेंगे वही फूल,

बबूल को बबूल

आम वपन का परिणाम

आम ही आम।


बचपन यौवन

प्रौढ़ता बुढ़ापा,

क्यों खोता है आपा,

जो जितना तापा

भय से वह नहीं काँपा।


कर्मशीलता ही 

जीवन का इतर नाम,

सोते -सोते न हो जाए

जीवन की शाम,

इसलिए समय को

न कर बदनाम,

इस देह को ही

बना ले सुकर्म धाम,

यहीं हैं प्रयाग

हरिद्वार,

भटक मत 

सारा संसार,

यही है

'शुभम' कथ्य का सार।


🪴शुभमस्तु !


📅2022◆10.25 आरोहणं मार्तण्डस्य।

विश्वबंधुत्व 🫂 [ गीत ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🫂 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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आज विश्व  में   बंधु-भाव का,

पतन      दिखाई      देता   है।

अपने  तक   सीमित   है मानव,

बनता       विश्व  -  विजेता   है।।


अपना  उदर   श्वान  भी भरते,

बस   अपने    तक   जीते   हैं।

ऐसे   मानव     देह    धरे   बस ,

अंतर     में     वे     रीते    हैं।।

परहित  में     जीने   वाला  ही,

सबको    अपना      लेता    है।

आज विश्व में  बंधु- भाव का,

पतन     दिखाई    देता   है।।


एक - एक    मिल    ग्यारह  होते,

शक्ति     बहुत    बढ़   जाती  है।

मानव  की   एकता    सदा   ही,

सहज    सुखद  बन   पाती   है।।

जीवों     में     मानव    सर्वोत्तम,

वही     जगत    का      नेता   है।

आज   विश्व में बंधु -भाव का,

पतन      दिखाई       देता   है।।


प्रभु     ने   तुम्हें      बनाया  मानव ,

मानवता        से        जीना     है।

परहित  में  विष   भी   मिल जाए,

उसे    सहज      ही      पीना है।।

नीलकंठ    शिव   बन   जा  मानव,

धरती        का      अभिनेता    है।

आज   विश्व   में बंधु -भाव का,

पतन       दिखाई        देता है।।


सूरज,  सोम,   वायु,  जल, धरती,

बिना       शुल्क    सब    देते   हैं।

गगन, अनल   कुछ   भी  न माँगते,

जग     को      अपना     लेते   हैं।

बूँद    -  बूँद   से     सागर   बनता,

तू    न   अभी    क्यों    चेता   है?

आज   विश्व   में बंधु -भाव  का,

पतन      दिखाई        देता     है।।


तू     प्रहार      पाहन    का करता,

फिर  भी   तरु    फल     देता  है ।

सरिताओं    को       दूषित  करता,

नैया      जलनिधि       खेता    है।।

'शुभम'  नेह   से    जग  को भर  दे,

तू       ही     मीत       सुचेता    है।

आज    विश्व    में  बंधु -भाव का,

पतन        दिखाई       देता    है।।


🪴 शुभमस्तु !


📅 .२०२२◆८.३० आरोहणं मार्तण्डस्य।

त्रिया चरित्रं बनाम पुरुष चरित्रं💃🏻 [ व्यंग्य ]


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 ✍️ व्यंग्यकार © 

 💃🏻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम' 

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             साहित्य मानव - चरित्र का जीवंत इतिहास है ,तो इतिहास मानव -चरित्र का मुर्दा साहित्य है।'महाभारत' में भी कहा भी गया है: 'नृपस्य चित्तं,कृपणस्य वित्तम,मनोरथाः ,दुर्जन मानवानाम। त्रिया चरित्रं, पुरुषस्य भाग्यं, देवो न जानाति कुतो मनुष्य :।।' यही कारण है कि हमारे पुराण, महाभारत, रामायण, कथा साहित्य (कहानी, उपन्यास आदि),नाटक, एकांकी, काव्य (मुक्त ,प्रबंध काव्य, खण्ड काव्य आदि) ,संस्मरण, रेखाचित्र इत्यादि में मानव - चरित्र को विभिन्न कोणों औऱ आयामों से प्रदर्शित औऱ व्याख्यायित किया गया है। स्त्री और पुरुष के सर्वांगीण चरित्र का आख्यान मानव जाति के आदि काल से अद्यतन औऱ सृष्टि के अंत तक भी नहीं हो सका और न ही हो सकेगा। अपने अनन्त आयामों और स्वरूपों में वह अपने विविध रूप बदलता रहेगा।जैसे कोरोना का वायरस अपने नए स्वरूपों में सामने आ रहा है। 'तू डाल -डाल मैं पात -पात' की कहानी की पुनरावृत्ति कर रहा है।उसी प्रकार मानव -चरित्र के विविध नहीं, अनंत आयाम हैं ;जिन्हें विश्व की विविध भाषाओं के साहित्यकार, चित्रकार, मूर्तिकार आदि सभी को अपनी कला -साधना का कच्चा माल मिलता रहेगा।


           मानव (स्त्री औऱ पुरुष) विधाता की सृष्टि के विलक्षण सृजन हैं।विधाता कदाचित एक मानव को बनाने के बाद उसका साँचा तोड़कर फेंक देता है।जितने स्त्री पुरुष ,उतने ही साँचे। एक साथ पैदा होने वाले जुड़वाओं के रूप - स्वरूप ,आकार -प्रकार , गुण - दोष, चरित्र आदि सब विचित्र से विचित्र ही हैं। कहीं कोई पुनरावृत्ति नहीं,पुनराकृति नहीं। समानता नहीं।धन्य हैं विधाता! 


              इतना सब वैविध्य होने के बावजूद कुछ ऐसे तत्त्व भी शोधित गए हैं ,जिनके आधार पर यह मान लिया जाता है कि अरे! वह त्रिया है ; ये सब चरित तो उसमें होगा ही।इसी प्रकार पुरुष की प्रकृति के प्रति भी स्थाई धारणा बन गई है। ऐसी की कतिपय उभयनिष्ठ कलाकारिताओं को दिग्दर्शन किया जाना यहाँ दृष्टव्य है। 


              अब प्रश्न उठता है कि पहले कौन ? स्त्री या पुरुष ? तो दुनिया के प्रचलित नियम के आधार पर स्त्री ही आगे है; तभी तो 'लेडीज फर्स्ट'कहा गया है। उसे सम्मान देने के लिए नहीं, बल्कि उसे मूर्ख बनाकर ठगने के लिए। भले ही उसकी उत्पत्ति पुरुष की बायीं पसली से हुई हो; पुरुष की एकांतिक नीरसता- निवारण, मनोरंजन , सृष्टि के विकास आदि के लिए वह बाद में आई हो।तुलसी बाबा तो अपने रामचरित मानस में कह गए हैं: 'नारि स्वभाव सत्य कवि कहहीं। अवगुण आठ सदा उर रहहीं।' 'साहस,अनृत ,चपलता,माया। भय,अविवेक,अशौच अदाया।' तुलसी बाबा भी बहुत कहना चाहकर भी सब कुछ नहीं कह पाए। त्रियाओं के पेट में बात नहीं पचती ,इसलिए पति को भी उसे रहस्य की बात नहीं बतानी चाहिए। नौ मास के लिए ढाई किलो के टाबर (शिशु) को पेट में रख लेगी ,किंतु एक रहस्य की बात हजम नहीं कर पाती। इससे पुरुष को एक लाभ यह है कि जो बात कहने में स्वयं कोई भय हो ,शंका हो ; उसे अपनी पत्नी या किसी भी नारी को बता दें, सवेरा तब होगा ,जब वह रहस्य की बात जन -जन की जुबान पर इस शर्त के साथ होगी कि 'किसी को बताना मत।' और वह बात 'किसी को बताना मत ' के मंत्र के बाद जंगल की आग बन जाएगी। अगर यही गुण पुरुष में हो तो उसे स्त्रीत्व से असम्मानित करते हुए यही कहा जाता है कि औरतों जैसी बात क्यों करते हैं। 


                 स्त्रियाँ अपने रूप सौंदर्य , उसकी देख भाल, स्व सजावट ,घर की सजावट आदि के प्रति आशा से भी ऊपर तक चैतन्य रहती हैं। इसलिए शृंगार तो मानो उनका स्वभाव ही बन गया है। इसलिए पुरुष ने नारी को सोने - चाँदी की शृंखलाओं में कैद करने में सफलता पा ली। नारी में निर्लज्जता का भाव पुरुष से आठ गुना अधिक बताया गया है।भले ही पुरुष में नारी से 100 गुना अधिक विद्यमान हो। इसको नारी का सहज आभूषण भी बताया गया है।यदि ये नहीं ,तो कुछ भी नहीं। मानवेतर जीवों मोर, मुर्गा, मेढक, शेर ,गौरैया आदि में नर - नारी से अधिक सुंदर माना गया। इसके विपरीत पुरुष नारी सौंदर्य पर मरता मिटता हुआ देखा गया। 


            त्रिया चरित्र औऱ चाल अपने हर रंग में पुरुष से अलग ही हैं। स्त्री चाहे जैसे वस्त्र धारण कर ले , जाते हुए पीछे से ही जाना जा सकता है , गमन करने वाला पुरुष नहीं, नारी है।उसके हाथ ,पैर और कटि का विशेष हिल- डुल संचलन उसकी एक अलग ही छवि बनाता है। यही छवि उसकी पहचान बन जाती है।विधाता ने नारी कंठ को एक अलग पहचान दी है। पुरुष का कंठ भारी औऱ भर्राया हुआ।वह कोकिल कंठी है,यद्यपि कोकिल नर है ;मादा नहीं।पर सुंदरता के  नाम पर कोयल को नारी बना दिया गया है। 


                  जब चरित्र की बात होती है तो पुरुष ने नारी को ही चरित्र की मालिकीयत प्रदान कर रखी है। यद्यपि पुरुष सौ गुना अवगुण संपन्न हो, किन्तु उसकी चरित्र हीनता के चर्चे भी नहीं होते।'हम आह भी भरते हैं तो हो जाते हैं बदनाम, वे कत्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता।' दुनिया भर के चकला घर पुरुषों के ही कारण फूल - फल रहे हैं। यदि चरित्र की शिथिलता की बात आती है ,तो पुरुष स्त्री से मीलों आगे हैं।'लडक़ी वो अचार की मटकी हाथ लगे कीड़े पड़ जाएँ!' पुरुष लगाए दाग देह पर और स्वयं सीधे बच जाएँ। क्या बिना पुरुष कोई भी नारी दूषित हो सकती है ? कदापि नहीं।पूरक जैविक अनिवार्य ता से पुरुष साफ बच कर निकल जाता है। पुरुष का हर ढोंग प्रत्येक अर्थ में नारी को अधोगामी बनाता आया है। आज भी बना रहा है। इसीलिए उसने नारी पर अनेक प्रतिबंध : घूँघट, हिज़ाब, पर्दा ,गहने, बिंदी , सिंदूर , क्रीम, पाउडर,लिपस्टिक, माँग,हाई हील उपानह ; सब ठगी के उपकरण।मानो वह दोयम दर्जे की नागरिक हो।पुरुष हजार गुनाह करे ,फिर भी दूध धुला। नारी आंशिक भी अपने खूँटे से हिल जाए, तो पापिन, दुष्चरित्र,वेश्या, कुलक्षणी , नगरवधू और न जाने क्या -क्या ? पुरुष के खुलेआम अत्याचार की इन्तहां। पैर की जूती ,किसने बनाया, पुरुष ही ने न? 


 🪴 शुभमस्तु !


 २३.०२.२०२२◆ ५.४५ पतनम मार्तण्डस्य। 


बुधवार, 23 फ़रवरी 2022

कुहू -कुहू की टेर 🌳 [ कुंडलिया ]


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✍️ शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                        [1]

फूली -  फूली  हर  कली, आएँगे   ऋतुराज।

डाल-डाल सजने लगी,नव पल्लव का साज।

नव पल्लव का साज,खिली पाटल की डाली

महक रहें हैं  बौर, बाग का प्रमुदित    माली।

'शुभम' सुमन की शाख, भृङ्ग की टोली झूली

आयँगे  प्रिय  कांत,यौवना मन   में    फूली।


                        [2]

खिलती नभ में चाँदनी,फागुन का शुभ मास

सखी,सखी से कह रही,मन में रख  विश्वास

मन में  रख  विश्वास,सजन तुझको   पाएँगे

मिटे विरह का  ताप,लौट शुभ दिन   आएँगे

'शुभं'सुखद परिणाम,सोम से रजनी मिलती

लेता है निज अंक, चंद्रिका हँसती  खिलती


                        [3]

करती कोकिल बाग में,कुहू- कुहू  की टेर।

प्रोषितपतिका  के हिए,विरह करे   अंधेर।।

विरह  करे  अंधेर,रात भर नींद  न  आए।

दिन भर उर बेचैन,सेज नागिन डस  जाए।।

'शुभम' जवानी बैर, कर रही बाला  डरती।

अंग-अंग में आग,दहन कामिनि का करती।


                        [4]

होली  में ऋतुराज ने, ऐसा किया   धमाल।

खिलती कलियाँ देखकर,बुरा हॄदय का हाल

बुरा हृदय का हाल,महकता तन-कुसुमाकर।

प्रमुदित भौंरा आज,फूल का मधुरस पाकर।

'शुभम'बजें ढप-ढोल,कसक उठती है चोली।

रोली,रंग,गुलाल,खेलते हिल- मिल   होली।।


                        [5]

पीले  पल्लव   झर रहे,करती ऋतु   शृंगार।

लाल लाल कोंपल खिलीं,आने लगी बहार।।

आने  लगी  बहार,नीम, पीपल,  वट    सारे।

 बदल रहे तन-वेश, नदी के स्वच्छ  किनारे।।

'शुभं'चले ऋतुराज,सुमन हैं अरुणिम नीले।

कर लें स्वागत आज,पुहुप गेंदा  के  पीले।।


🪴 शूभमस्तु !


२२.०२.२०२२◆१०.००

पतनम मार्तण्डस्य।

मंगलवार, 22 फ़रवरी 2022

होली आई 🎊 [बाल कविता ]


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✍️ शब्दकार ©

🎊 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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होली    आई ।

रँग भर  लाई।।


चुन्नू    आओ।

चंदन  लाओ।।


अपनी   टोली।

खेले     होली।।


फ़ाग     सुनाएँ।

मिलजुल गाएँ।।


ढप जब बजता।

ढप -ढप करता।।


बजें       मजीरे।

धीरे      -  धीरे।।


ढोलक    बोली।

खेलें      होली।।


सब    हमजोली।

लें   रँग    रोली।।


कविता     आई।

गुड़िया     आई।।


हेमा        दुबकी।

ज्योती   मटकी।।


साईं        आओ।

क्यों    शरमाओ!!


भारत      भैया ।

ला पिचकरिया।।


खुशी    बुलाती।

छाया     आती।।


कहाँ     जानवी।

मैं न    जानती।।


अमोल    आया।

ओशी     लाया।।


खाय     मिठाई।

होली     आई।।


🪴 शुभमस्तु  !


२२.०२.२०२२◆ ७.१५ आरोहणं मार्तण्डस्य।

सोमवार, 21 फ़रवरी 2022

अर्थ से अर्थी तक 💰 [ व्यंग्य ]

 


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 ✍️ व्यंग्यकार© 

 💰 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम' 

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                 पृथ्वी लोक में मानव के चार पुरुषार्थों के अंतर्गत धर्म के बाद 'अर्थ का' दूसरा स्थान है। धर्म किसी के वश का हो या न हो, किंतु अर्थ सबके वश में है अथवा यों कहिए कि सभी को अर्थ ने अपने वश में किया हुआ है।एक नन्हें मानव - शिशु को यदि कागज का एक टुकड़ा दें तो यह आवश्यक नहीं है कि वह उसको ले।वह ले भी सकता है और नहीं भी ले सकता है। इसके विपरीत यदि उसे कोई नोट दिया जाए ,तो वह तुरंत मुट्ठी में भींच लेता है औऱ सहज ही आपको पुनः वापस भी नहीं करता। यही तो अर्थ की क्षमता है। यही अर्थ की महती शक्ति है। 

         इस धरती पर क्या नर और क्या नारी, क्या धनवंत और क्या भिखारी ,क्या राजा और क्या रंक ; सबके लिए है अर्थ का मधु दंश। भले ही यह दंश बनकर धारक को डस ले अथवा उसकी आवश्यक आवश्यकता बन कर उसका जीवन बन जाए! कुछ भी कर सकता है। अर्थ एक ऐसी चादर है, जो काले को गोरा बना दे। काली लड़की को स्वर्ग की अप्सरा का सम्मान दे दे। गोबर पर गिरे तो उसे कलाकंद बना डाले।अर्थ सारे दोषों को ढँककर किसी भी व्यक्ति अथवा वस्तु को कंचन सदृश चमक प्रदान करने की क्षमता रखता है।

              अर्थ की महिमा सारा संसार गाता है।उससे लाभ उठाता है। किसी सिनेमाई गीत की पंक्ति 'बाप बड़ा ना भैया, सबसे बड़ा रुपैया ' : इसी बात की पुष्टि करती है।लोगों को यह भी कहते हुए देखा जाता है कि 'बाप बेटे का भी हिसाब होता है। मानवीय सम्बंधों को अच्छा या बुरा बनाने में अर्थ की अहम भूमिका है।यदि बाप अपने दो चार बेटों में जिसे अर्थवन्त बनाए रखे उसके लिए उनका बाप बहुत अच्छा है , अन्यथा केवल अर्थ के लिए कलयुग के अनेक सपूत कपूत बन गए हैं। नाराज पुत्रों द्वारा खेत ,घर ,संपति आदि का उनकी इच्छानुसार यदि आवंटन नहीं हुआ ,तो पल भर में ही सारे आदर्शों को खूँटी पर टाँगकर बाप को स्वर्ग लोक की यात्रा कराने में देरी नहीं करते। यदि आई हुई पुत्रवधू को श्वसुर जी से अर्थ नहीं मिलता तो उनके लिए उन्हें रोटी तक देना निरथर्क मान अघोषित ,कभी -कभी घोषित करके बहिष्कृत भी कर दिया गया है । 

          धर्म भी बिना अर्थ के नहीं हो पाता।इष्ट देव की फूल माला, प्रसाद, मंदिर का निर्माण,पूजा, हवन सामग्री, आरती , दक्षिणा आदि में अर्थ की महती भूमिका है।इनमें कोई भी वस्तु या कर्म अर्थ बिना निरर्थक ही है।धर्म के लिए अर्थ की वैसाखी अनिवार्य है।कहना यही चाहिए कि बिना अर्थ के धर्म एक कदम भी आगे नहीं बढ़ता।

                     तीसरे पुरुषार्थ 'काम' के लिए भी अर्थ एक मजबूत सहारा है।कामनाओं की पूर्ति घर को चलाना, विवाह,शादी, रसोई ,वस्त्र, गृह निर्माण: सबमें अर्थ एक जीवंत तत्त्व है। जीजाजी जब तक अर्थ से सालियों को प्रसन्न नहीं कर लेते तब तक जीजी के घर में उनका प्रवेश नहीं हो पाता। इसलिए वे उनके जूते चुराकर अन्यत्र छिपा देती हैं।जब उनका पर्स अर्थवान हो जाता है ,तभी उन्हें मार्ग दिया जाता है।यहाँ भी पूरी ब्लैकमेलिंग चलती है ; वह भी अर्थ से।

              बस एक ही परुषार्थ 'मोक्ष' के लिए अर्थ आवश्यक नहीं है। 'स्वार्थ' में भी अर्थ पूरी तरह रमा हुआ है। यदि स्वार्थ से अर्थ निकाल दिया जाए तो बचता भी क्या है, जो बिना इसके निरर्थ ही है।अब देखिए इस 'निरर्थ ' में तो वह जबरन घुसा हुआ है। जब 'परमार्थ' की बात करते हैं, तो वह भी अर्थ से अछूता नहीं है।खेती, व्यवसाय, नौकरी, सेवा, पुण्य ,पाप; कोई भी हो; मैं अथवा आप ,सब में अर्थ रमण कर रहा है।अरे !उसने 'व्यर्थ ' को भी वृथा नहीं रहने दिया ! कोई 'समर्थ 'होगा तो क्या वहाँ अर्थ नहीं होगा? अवश्य होगा। 

                       दहेज के भूखे भेड़ियों ने तो अर्थ से मानवीय जगत को नरक बना कर रख दिया है। जहाँ अर्थ की अतिशयता है, वहाँ मानव और मानवता का कोई मूल्य नहीं है। 'दुल्हन ही दहेज है ,' का नारा झूठा सिद्ध हो चुका है।बिना 'दहेज - अर्थ' (जो नोट, सोना ,चाँदी, गहने , वस्तु , सामग्री के रूप में भी है) के दूल्हा या दूल्हे का बाप , कोई भी संतुष्ट नहीं होता। श्वसुरालय में भी बहू दर्शन से पूर्व सास, ननदों और पड़ौसियों द्वारा दहेज- दर्शन का चलन है। बहू के मुखारविंद का प्रथम दर्शन ;चाहे सास करे , पड़ौसी करें ,सम्बन्धी करें, अथवा सुहाग सेज पर स्वयं दूल्हा ही क्यों न करें, अर्थ की रिश्वत तो देनी ही पड़ती है। अर्थ में वह चमत्कारिक शक्ति है ,जो काली दुल्हन को भी मेनका औऱ रम्भा बना देती है।इतनी शक्ति तो 'गोरी बनाव केंद्रों' के रसायनों में भी नहीं है। 

           संसार में होने वाली अनेक लड़ाइयां भी जर ,जोरू औऱ जमीन के लिए होती चली आ रहीं हैं।वह लड़ाई चाहे राजा से राजा की हो , देश से देश की हो, बाप से बेटे की हो, पति से पत्नी की हो, वेतन भोगी , व्यवसायी , कारीगर, कर्मचारी ;किसी से किसी की हो , वहाँ सर्वत्र ही अर्थ तत्त्व ही मूल कारक है।यहाँ तक कि मनुष्य के शरीरान्तरण के बाद अर्थी भी अर्थ से ही सार्थक होती चली आई है। शवाच्छादन, घृत, पुष्प, धूप, चंदन, काष्ठ सबमें अर्थ ही अर्थ है। जीवन विरक्त साधु संतों की उदर पूर्ति क्या बिना अर्थ के कभी हुई है। जन्म से मृत्यु पर्यंत एकमात्र अर्थ ही प्राण है। अर्थ ही त्राण है। अर्थ के लिए तो मानव ने देवी लक्ष्मी को यह पवित्र अधिकार दिया ही हुआ है,कि वे हमारे घर पर अर्थ वर्षा करती रहें।ज्ञान - देवी हों चाहे नहीं हो, पर अर्थ की देवी अवश्य ही हों।उनके जाने वे उल्लू पर बैठ कर आवें या कैसे भी आवें, पर आनी चाहिए। इसके लिए वर्ष में अर्थ वर्षा के लिए दीपावली का एक विशेष पर्व भी मनाया जाता है। लक्ष्मी काली हों या गोरी ,पर आनी ही चाहिए। साधन कैसा भी हो, पर आनी लक्ष्मी (अर्थ) ही चाहिए।इसलिए चोर ,डाकू, जेबकट, राहजनी कर्ता, गबनी, बेईमान, ईमानदार ,धर्मी ,अधर्मी;किसान, मजदूर, अपनी -अपनी अर्थ - देवी की पूजा करते हैं। मिले ,चाहे छप्पर फाड़ कर दे, चाहे आँगन में बिना पसीना बहाए दे। काम से दे ,या हराम से दे। पर दे। 

 🪴शुभमस्तु !

 २१.०२.२०२२◆५.३०पतनम मार्तण्डस्य।



ऋतुराज वसंत [ दोहा ]



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  ✍️शब्दकार  ©

🌻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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फागुन आया  झूम के,झोली में  भर   फूल।

जड़-चेतन में चेतना,ऋतु वसंत  का  मूल।।


पीले पल्लव  जो  हुए,झर-झर झरते   नित्य।

अवनी पर बिछ सोहते,प्रखर तेज आदित्य।


चैत्र  और  वैशाख   में, आता कंत     वसंत।

स्वागत  करने के लिए,पादप पुष्प   अनंत।।


सरसों  नाचे  खेत  में,चना, मटर,    गोधूम।

हिला कमर नित नाचती, अरहर प्यारी झूम।


महके  पाटल  बाग  में,रँग पीला    रतनार।

ग्रीवा में  ऋतुराज  की,गेंदा सुमन    बहार।।


नर-नारी  की  देह में,  जागा काम    अमंद।

विरहिन पिय की आस में,पढ़ती है रतिछंद।


भौंरा करता डाल पर,भूँ- भूँ स्वर   गुंजार।

मधु रस पीना चाहता, पाता पाटल  प्यार।।


बदल-बदल कर फूल का, आसन चूसे सार।

तितली  झूमे  बाग  में,  वासंती   उपहार।।


बूढ़े  पीपल के  हुए,लाल अधर  हे   मीत।

बौराए  हैं  आम भी, नीम निभाए    रीत।।


ले  गुलाल निज हाथ में,जाती बाला   एक।

मुख पर मलती रंग भी,मिला मीत जो नेक।।


ढप ढोलक बजने लगे,गूँज उठे     मंजीर।

होली में नर -नारियाँ, भूल गए उर  -  धीर।।


सरिता से सागर कहे,मंद - मंद क्यों  चाल!

बोली सरिता लाज से,जाती निज ससुराल।।


यौवन की  वासंतिका,कलियाँ खिलीं अनेक।

देह दमकती  रूपसी,अड़ी पड़ी निज टेक।।


मन  यौवन  के रंग  में,रँगा हुआ    सर्वांग।

वृद्ध -  गात की कामना,बदल रही है  ढंग।।


आओ  सब स्वागत करें,आया कंत   वसंत।

मर्यादा  भूलें    नहीं,  दोहे 'शुभम'    भनंत।।


🪴 शुभमस्तु !


२१.०२.२०२२◆१०.००आरोहणं मार्तण्डस्य।

 स्वर -हार चाहिए 🪴

         🦚 सजल  🦚

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समांत: आर।

पदांत: चाहिए।

मात्राभार: 16

मात्रापतन: शून्य।

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✍️ शब्दकार ©

🪦 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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मानव - उर  को प्यार चाहिए

हरा - भरा   संसार     चाहिए


स्वर  के   बिना नहीं है वाणी

व्यंजन को स्वर -हार  चाहिए


भले न दिखते  चर्म - चक्षु  से 

सम्बन्धों   को   तार   चाहिए


बातों  से यदि  बात न  बनती 

अरिदल को असिधार चाहिए


नाच   उठेगी   सरसों   पीली

वासंती     उपहार     चाहिए


होली  नहीं   रंग   से    होती

रंग -  रँगीली    नार   चाहिए


गल्प  अकेले   कब  होती है

समभावी  दो - चार   चाहिए


चाहें  यदि  सम्मान जगत में

प्रेम भरा   व्यवहार   चाहिए


भावों का  जब   सागर  उमड़े 

सजल 'शुभम'उर-द्वार चाहिए


🪴शुभमस्तु !


२१.०२.२०२२◆६.००आरोहणं मार्तण्डस्य।

शुभम उर-द्वार चाहिए ❤️ 🌻 गीतिका 🌻

 

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✍️शब्दकार ©

☘️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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मानव - उर  को प्यार चाहिए।

हरा - भरा संसार     चाहिए।।


स्वर  के   बिना नहीं है वाणी,

व्यंजन को स्वर -हार  चाहिए।


भले न दिखते  चर्म - चक्षु  से,

सम्बन्धों   को   तार   चाहिए।


बातों  से यदि  बात न  बनती, 

अरिदल को असिधार चाहिए।


नाच   उठेगी   सरसों   पीली,

वासंती     उपहार     चाहिए।


होली  नहीं   रंग   से    होती,

रंग -  रँगीली    नार   चाहिए।


गल्प  अकेले   कब  होती है,

समभावी  दो - चार   चाहिए।


चाहें  यदि  सम्मान जगत में,

प्रेम भरा   व्यवहार   चाहिए।


भावों का  जब  सागर  उमड़े ,

सजल'शुभम'उर-द्वार चाहिए।


🪴शुभमस्तु !


२१.०२.२०२२◆६.००आरोहणं मार्तण्डस्य

आया फागुन मास 🎊 [दोहा गीतिका ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🎊 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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झोली भर -भर रंग  की,आया फागुन  मास।

सुमनों पर भौंरे  उड़े,लेकर मधु की  आस।।


कोकिल कूके बाग में,विरहिन के  उर  हूक, 

पिया गए  परदेश को,आए घर  क्यों  रास?


सरसों नाचे झूम के,अरहर रह - रह   मौन,

गेहूँ  की  बाली  कहें, महुआ भरे    सुवास।


कलशी सिर धर नाचती, अलसीआलस छोड़

चना -मटर बतिया रहे,हरी- हरी नम घास।


प्रोषितपतिका बाट में,पंथ रही  नित  जोह,

चंदा के सँग चाँदनी,करती तन  - विन्यास।


होली रँग का पर्व है,निशि भर होता फ़ाग,

ढप-ढोलक की तान में,खोया काम -विलास।


झाँझ मंजीरा  झूमते, बतियातीं  करताल,

देवर  से  भाभी  करें, बहुअर्थी   परिहास।


पिचकारी कर ले चली,साली घर  के  द्वार,

जीजाजी रोली मलें,नाक गाल  में   वास।


रँग गुलाल  की धूम में,नहीं रही   पहचान,

चंदन,रंग, अबीर के,सजते शुभ अनुप्रास।


🪴 शुभमस्तु !


१८.०२.२०२२◆१०.००पतनम मार्तण्डस्य।

गुरुवार, 17 फ़रवरी 2022

सूरज -चाँद 🌕 [ बाल कविता ]


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✍️शब्दकार ©

🌞 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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सूरज  के हिस्से  दिन  आया।

निशि-अँधियारा शशि ने पाया।


सूरज   देता   तेज    उजाला।

चमकाता चंदा   तम  काला।।


संग उषा   के   सूरज  आता।

साथ  चाँदनी  चाँद  सुहाता।।


डरते   सूरज   चाँद   अकेले।

चलते सँग में  नारी ले -  ले।।


उषा विदाकर रवि को जाती।

साथ चाँदनी सदा  निभाती।।


अँधियारे  से    सूरज   डरता।

अतः उषा का सँग वह करता।


किंतु औऱ  भी   डरता   चंदा।

चले  चाँदनी  के  सँग   मंदा।।


उदय काल से साथ  निभाती।

उगती भोर-किरण तब जाती।


सूरज जब  अस्ताचल  जाता।

चंदा  उदयाचल  पर  छाता।।


 🪴शुभमस्तु  !


१७.०२.२०२२◆४.३०

पतनम मार्तण्डस्य।

पाटा संस्कृति:पाटाचार 🏕️ [ दोहा ]

 

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 ✍️शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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बीकानेरी   महल   के ,बाहर पाटा   एक।

बिछा द्वार के पास ही,बैठे पुरुष  अनेक।।


पाटा  पर बैठे  हुए ,बतियाते  कुछ   लोग।

खेल  ताश के   खेलते,नहीं कर रहे    योग।।


काम न कोई पास हो,पाटा पर  दो - चार।

बैठे  गपियाने  लगे,  पास -पड़ौसी    यार।।


संस्कृति  बीकानेर  की,पाटा पर   आसीन।

हर्ष  मेल  में   मित्रगण,करते बात  नवीन।।


पाटा  संस्कृति -तत्त्व है,करते  सब सम्मान।

पूर्वजों  के कर्म का ,थल यह एक   महान।।


पाटा से   आगे  चले,  वृद्धा सत्तर    साल।

अवगुंठित  होकर  बढ़े,घूँघट बड़ा  निकाल।।


पाटों  पर  बैठे  हुए,हों यदि युवा    अनेक।

फिर भी वृद्धा मान से,सदा निभाती   टेक।।


आजीवन  पाटा  बिना,हुआ न  होता  काम।

जन्म-मृत्यु के मध्य में,शुभ संकुल का नाम।


घर,मंदिर,मुंडन, ब्याह, सब में पाटा एक।

बहु उपयोगी है 'शुभम',करता काम अनेक।।


पाँच औऱ  आधी सदी,की यह प्रथा  महान।

बीकानेरी  ख्याति  का,करता पाटा   गान।।


धर्म,कर्म,ज्योतिष सहित,पंचायत या बंज।

पाटा  पर आसीन हो,खेलें जन   शतरंज।।


🪴शुभमस्तु !


१७.०२.२०२२◆ २.३०पतनम मार्तण्डस्य।

बुधवार, 16 फ़रवरी 2022

महुआ महके मदन का🌳 [ दोहा ]


[मध्वासव,विजया,मदिर, अंगूरी,मन्मथ]

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✍️ शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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          ❤️ सब में एक❤️

मध्वासव तव नयन का,पीकर  उर  बेचैन।

गजगामिनि कामिनि शुभे,चैन नहीं दिन-रैन।

छुआ न  तेरी  देह को,फिर भी मैं  मदमत्त।

बाले! मध्वासव प्रिये,करता मन अनुरक्त।।


विजया माँ के चरण में ,नित नत मेरा शीश।

कृपा करें निज भक्त पर,गौरी शिव जगदीश।

जब से तन तेरा छुआ,विजया बना अनंग।

महुआ महका मदन का,उर में उठी तरंग।।


मदिर-मदिर गजगामिनी, मारक तेरी चाल।

जब देखा मम चक्षु ने, बुरा हृदय का हाल।।

दंत - रोग,छाले, दमा,गठिया, कुष्ठ,  खराश।

मदिर रोग हरता सभी, करके  उर में आश।।


अंगूरी- सी  देह  में, कटि लचकाती   नारि।

हरती उर की शांति को,मुख मयंक अनुहारि।

अंगूरी के  स्वाद का, बिना किए   ही  पान।

देख प्रिया के नयन दो, 'शुभम'करे अनुमान।


कोकिल  कूके  बाग  में,आया मधुर   वसंत।

मन्मथ मन मथने लगा,अभी न आए कंत।।

रतिपति मन्मथ देवता,अबला विरहिनि नारि

तंग नहीं  इतना करो, बहता दृग  से  वारि ।।


              ❤️ एक में सब❤️

अंगूरी    विजया   सभी,

                      मदिर     बनाएँ    देह।

मध्वासव क्यों  कम रहे,

                       मन्मथ    मथे  स-नेह।।

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मध्वासव = मधु की सुरा।

विजया= दुर्गा, भाँग।

मदिर= मद से भरा, लाल खैर।

अंगूरी =अंगूर निर्मित सुरा, अंगूर की लता के सदृश।

मन्मथ = कामदेव, अत्यंत आकर्षक।

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🪴 शूभमस्तु !


१६.०२.२०२२◆आरोहणं मार्तण्डस्य।

आया वसंत फूले पलाश ❤️ [ अतुकांतिका]

 

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✍️ शब्दकार ©

🌹 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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जंगल में 

खिल उठे पलाश,

डाल -डाल पर 

लाल -लाल 

प्रेम के रँग का हुलास,

अदृश्य है   हरित 

पल्लव दल का उजास।


आ गया वसंत,

छा गया वसंत,

विदा हो गए हैं

शिशिर हेमंत,

हवाएँ भी रँग भरी,

कानों में भरतीं फुरहरी।


पलाश 

 किसी गमले का

 गुलाब नहीं,

वन की धरती

औऱ नभ में  छाया,

नहीं है लालच

प्रेमिका के जूड़े  में

गूँथे जाने का,

किंशुक के लाल

मखमली शोले 

जैसे भू अंबर में

जलते गोले।


होली के रंग,

विपुल औषधियाँ,

इसी टेसू से 

होकर निर्मित 

करते जन कल्याण

ऋतुराज वसंत का

अभिनंदन स्वागत वन में।


आओ 'शुभम'

हम सब भी पलाश

के सुमन बन जाएँ,

जीवन के पतझड़ में

प्रेम का अरुण वर्ण

खिला पाएँ,

धरती से अंबर तक

इस जीवन को महकाएँ।


🪴 शुभमस्तु !


१५.०२.२०२२ ◆ आरोहणम मार्तण्डस्य.

शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2022

राधेश्याम पधारे 🦚 [ सायली ]


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✍️ शब्दकार ©

🦚 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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ब्रज

कुंज में

निशि रम्य में

बज रही

मुरली।


जहाँ 

राधे वहीं

हैं श्याम प्यारे

होते न

न्यारे।


श्याम

नंदगाँव के

बरसाने की राधा

होती लीला

निर्बाधा।


आया

मादक फागुन

रँग रस लाया

राधे, श्याम

सजाया।


  टेर

 वंशिका की

सुन गोपी गोप

त्वरित वन

धाए।


बिना 

राधे के

श्याम आधे से

बँधे धागे -

से।


प्रतीक

प्रेम के

परम् पावन राधे-

श्याम के 

युगल।


🪴 शुभमस्तु !


११.०२.२०२२◆४.३०प.मा.

पुराने चावल ! 🌾 [ अतुकांतिका ]


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✍️ शब्दकार ©

🌾 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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ऐ पुराने चावलो!

तुम कितनी ही

बालियाँ मलो,

अतीत के गुण गाओ,

अपनी सफेदी को बखानो!

कहते रहो 

कि हमने 

पिया है कितना

कितना दूध घृत छाछ,

धूप में नहीं 

सफेद बनाए हैं

अपने ये बाल!

जिया है हमने

अपना अतीत विकराल;

कहते रहो।


कहते रहो,

कौन सुनता है तुम्हारी!

धान के इन लहलहाते

पौधों के समक्ष,

देख ही लो न ?

प्रत्यक्ष,

पयाल (प्यार) शून्य

सूखे पड़े धान के

 ढेर को,

वर्तमान में हो रहे

अंधेर को।


रेडीमेड का जमाना है,

ऑन लाइन मंगवाना है,

जैसा भी हो

सब अंगीकृत करना है,

अपने बुजुर्गों की

एक  नहीं

कान धरना है,

कौन पूछता है

तुम्हारा पुराना अनुभव!

अब नहीं रहा है

अब ऐसा कुछ सम्भव!

खूँटी पर ही टाँग लो इसे,

वहीं अच्छा लगता है,

आ गई न

कोई नए जमाने की बहू,

तो घर से आँगन तक

बजेगी उसी की

 कुहू -कुहू,

तुम्हारे अनुभव के

पिछौरे को 

बाहर कबाड़ घर में

फिंकवा देगी,

तुम्हारी मजबूत 

खूँटी की जगह

हेंगर सजा देगी!


रोपी है

अभी नई पौध,

कर रही उसी 

धरती पर मौज,

कहती है :

'अभी आप नहीं जानते,'

ये नई हवा है,

जिसके हम गवाह हैं,

छोड़ दो बीती 

पुरानी बातें,

गए वे जमाने!

वे गीत अब

हो गए पुराने!

सब धान 

बाईस पंसेरी

 नहीं बिकते,

पुराने चावलों

के दिन

अब नहीं टिकते!

इसलिए ऐ 'शुभम'

न ज्यादा बोलो

न ज्यादा सुनो!

डेढ़ चावल की 

खिचड़ी स्वयं ही बनाओ

स्वंय ही  खाओ।


🪴 शूभमस्तु !


११.०२.२०२२◆१.००प.मा.

गुरुवार, 10 फ़रवरी 2022

शिक्षा 🖋️🖋️ [ मुक्तक ]

  

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✍️ शब्दकार ©

🖋️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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सीखने     को   रवि सितारे,

चंद्र,   सरिता ,  सिंधु ,  तारे,

रात- दिन   रहते    समर्पित,

ग्रहण कर शिक्षा न प्यारे?1।


विस्तीर्ण  हो  आकाश  जैसा,

अनवरत हो निज श्वास जैसा,

हर  ओर है शिक्षा  तुम्हारे,

बढ़ता  रहे तू  घास  जैसा।2।


सुमन    सिखलाते    हँसाना,

नवल   कलियाँ    मुस्कराना,

पवनवत   गतिशील   रह  तू,

शिक्षा यही जग  हँसाना।3।


कनक में  शिक्षा   सुहागा,

हार   में   शिक्षा    सु- धागा,

गगन में  वह   नीलिमा - सी,

जो न ले वह नर अभागा।4।


शिक्षा बिना नर  श्वान जैसा,

मनुज   वह    हैवान   जैसा,

सत्य  को    पहचान    लेता,

शोर  में  मधु  गान  जैसा।5।


🪴 शूभमस्तु !


१०.०२.२०२२◆१.३० 

पतनमं मार्तण्डस्य।

वातायन उर के दृग दोनों !🐒 [ गीत ]


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✍️ शब्दकार ©

🐒 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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वातायन  उर  के   दृग  दोनों,

भावों  के  आने - जाने  के।

जिनसे प्रविष्ट  हो  प्रेम - भाव,

अंतर  में  गहन समाने    के।।


कपि - शावक नहीं छोड़ता है,

पल भर को माँ के आँचल को

मानव के नयनों  में   घुस कर,

वह भी पढ़ता सनेह  छल को।

मानवी -  प्रेम   के   वशीभूत,

आते   ढँग  उसे  रिझाने  को।

वातायन  उर  के   दृग दोनों,

भावों  के आने - जाने  के।।


नारी  माँ   के  कर  दूध  पिए,

बोतल में जब  वह   डाल रही।

हठ कर  के  पीने  लगा   वहीं,

सुंदर गिलास  से  धार  बही।।

आँचल में शावक छिपा लिया

आचरण  नेह  सिखलाने  के।

वातायन  उर  के   दृग दोनों,

भावों  के आने - जाने के।।


रति हास्य शोक या भय वत्सल,

उर  में  दस  भाव  सदा  रहते।

उत्साह  क्रोध   विस्मय विराग,

नित भाव जुगुप्सा  के बहते।।

सुत,शिष्य नेह  वाचक वत्सल,

पशु, खग को  प्यार जताने के।

वातायन  उर  के   दृग दोनों,

भावों के आने - जाने  के।।


वानर  क्या  सिंह, सर्प   कोई,

घातक से  घातक जीव सभी।

आँखों  से    नेह   झाँक  लेते,

भय देख न आते  पास कभी।

उर का  हर  भाव  गूढ़तम  है,

ये   बोल   बताते    गाने   के।

वातायन उर  के  दृग दोनों,

भावों  के आने - जाने के।।


आओ   बाँटें   हम  प्रेम  सदा,

ठगने का  भाव   न आ  पाए।

क्यों मनुज देह धर मानव की,

अपने  गौरव   पर   इतराए !!

शुभता ही 'शुभम' बाँट जग को,

कर काज  न  दृग झुक पाने के।

वातायन  उर  के  दृग दोनों,

भावों  के आने - जाने के।।


🪴 शुभमस्तु !


१०.०२.२०२२◆११.००आरोहणं मार्तण्डस्य।

स्पर्श 🥇🥇 [ अतुकांतिका ]


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✍️ शब्दकार ©

🥇 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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पूछता हूँ

देह की पंच कर्मेंद्रियों में

सबसे विशालकाय

है कौन सी ?

कोई देखती है

सुनती है कोई,

और सूँघती है कोई,

स्वाद लेती मुँह के मध्य

रसना,

पर सबसे वृहत है

त्वचा ,

नख से शिखा तक

एक त्वक आवरण सजा,

जिसके अंदर  देह के

हर अंग को रचा।


सद्य: प्रसविनी माँ 

के लिए 

अपनी संतान का स्पर्श !

देता है तन- मन को

निःशब्द हर्ष , 

किया है उसने

जीवन -मृत्यु से

कठोर संघर्ष !


प्रीतम के लिए

निज नवोढ़ा का स्पर्श,

कामदेव के पुष्पबाण का

लोमहर्षक आकर्ष,

दो चुम्बकों का 

उत्तर दक्षिण का

 मिलन - क्षण,

रोम - रोम में

विलोड़न स्फुरण,

जीवंत हो उठता

तन- मन का

कण - कण।


उष्ण - शीतल

मसृण - रुक्ष,

अवर्णनीय अनुभूति,

अंतराल के बाद 

मिले हुए

जनक का सुत के

ललाट का 

सुखद  स्पर्श!

शब्दातीत !

सर्वथा शब्दातीत !!


दंपति का

देह से देह का 

सम्पूर्ण स्पर्श!

दो देह एक प्राण,

वाणी में नहीं

कोई भी प्रमाण,

समस्त विश्व से

अनजान !

न कहीं कोई ध्वनि

नहीं कोई भान,

मात्र अघोषित चमत्कार,

दो से तीन बनने का

प्रकृति का आविष्कार!


स्पर्श में है 

धृतराष्ट्र का

भयंकर भीम  

(दु:) भाव !

वीभत्स कुभाव।

बूढ़े का सहारा

उसका सुपूत,

 उसके 'शुभम' स्पर्श 

में ही बसा है, 

जिसे उसकी रुक्ष

अँगुलियों का स्पर्श

बखूबी पहचानता है।


🪴 शुभमस्तु !


०९.०२.२०२२◆१.३० 

पतनम  मार्तण्डस्य।

कुसुमाकर - सी कामिनी 🌹 [ दोहा ]


[कुसुमाकर,वसंत,पलाश,सेमल, महुआ]

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✍️ शब्दकार ©

🌹 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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        🌻 सब में एक 🌻

कुसुमाकर-सी कामिनी,करे रात अभिसार।

अवगुंठन में सोहती,कल्लोलित कचनार।।

अगवानी आओ करें,कुसुमाकर की मीत।

सुमनों से अलिदल कहे,रंग लाल या पीत।।


यौवन की कलियाँ खिलीं,जागा देह वसंत।

देख रूप  तव सुंदरी,मोहित हैं सुर , संत।।

बूढ़ा पीपल हँस रहा,लाल अधर की कांति।

सरसों नाचे खेत में,शुचि वसंत की शांति।।


रँग ले फागुन आ गया,फूले फूल   पलाश।

होली हँस-हँस खेलता,प्रमन खुला आकाश।

गाल  गुलाबी  हो गए, दृष्टि हो गई    लाल।

नव पलाश उर में खिले,करते कंत धमाल।।


आया नहीं वसंत भी,सेमल - विटप बहार।

एक न पल्लव पेड़ पर,खिलते सुमन हजार।

लगता वन में लग रही,लाल भड़कती आग।

लपटें अंबर में उठीं,सेमल अरुण  सुराग।।


महुआ - सी गदरा रही,कामिनि  तेरी  देह।

महके घर आँगन सभी,मधु का  बरसे  मेह।।

कोकिल कूके बाग में,महुआ की  मधु गंध।

गमक रही वन शैल पर,बनें नहीं नर  अंध।।


        🌻 एक में सब 🌻

महुआ  सेमल महकते,

                     खिलते  सुमन पलाश।

आया कंत वसंत शुचि,

                 कुसुमाकर न निराश।।


🪴 शुभमस्तु !


०९.०२.२०२२◆८.००आरोहणं मार्तण्डस्य।


ब्रज कौ वसंत 🌻🌹 [ सवैया ]


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✍️ शब्दकार ©

🌻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                        -1-

वन       बागनु     में       ढूँढ़ि      लियौ,

मोहि  नाहिं    मिलौ  ऋतुकंत पियारौ।

खेतनु     में    सरसों   न   खिली   है,

आम    की    कुंजनु      कूकनु   वारौ।।

फागुन  -     चैत       में      रेत    उड़े,

रँग     गुलाल   कित     विदा बिचारौ।

होरी   में    गोरी     न    भीजि    सकै,

रति  -  काम  कौ  कैसौ  खेलु बिगारौ।।


                        -2-

अगवानी      करौ    चलि    कें   उतकूँ,

जित    आय   रहौ    ऋतुराज हमारौ।

 नर     कोकिल     कूकि      रहौ अमुआं,

अति    शीतल  गर्म  न  मौसम  प्यारौ।।

अँग -  अंगनु   हूक -  सी जागी    सखी,

बिनु   पिय   दिखत   दिवस  में    तारौ।

हों   तौ   चोली    कसी   हू मसोसि  रही,

जिय    कामु    सतावै    हमें बजमारौ।।


                        -3-

लिपटी     लचकाती    लता तरु     सों,

अमुआं   मजबूत  तनौ   ही खड़ौ   है।

श्रुति    बंद      रहें     मुख    मौन   रहै,

पथरा    बनि    कें   निरमोही बड़ौ   है।।

लचकाय       हलाय         रही  करिहा,

नहिं    देखतु  नैन   मही   में गड़ौ    है।

शरमाय   कें      बाँहनु    आमु   कसौ,

शुचि  काम कौ कामु बड़ौ ई कड़ौ   है।।


                        -4-

घर     छोड़ि      चली    सरि गिरि   सों,

अभिसार     की      दीपशिखा  जलती।

दिन -  राति   रुकै    न     डिगै   कबहूँ,

सोवै     न     बढ़े       अपगा  चलती।।

पिय    सिंधु     हिलोरें    भरै हिय   में,

मरजाद        नहीं         छोड़े   इतनी,

भुजबंध   में     बाँधि   लई  कसि    कें,

विलपाय     लई            देही  अपनी।।


                        -5-

कदली    वन   में   मति   जाउ   सखी,

लुकि   बैठौ   है  कुंजनु   में  वनमाली।

दल     पाटल     भीजि      गए  सिगरे,

बजवानी  नहीं   वहि   के कर   ताली।।

रस   चूसि    रहे     अलि   दल  साँवल,

नहिं  मानति  जाय    कें  देखि  सखी।।

पिउ   -   पिउ     करै      सारंग  'शुभम',

मधुमाखी     रहीं     जु  मँडराय  रखी।।


🪴 शुभमस्तु !


०७.०२.२०२२◆ ७.००

पतनम मार्तण्डस्य।


मंगलवार, 8 फ़रवरी 2022

हे सूर्य देव ! हे ज्योति पुंज!🌞 [ गीत ]

 

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✍️ शब्दकार !©

🌞 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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हे    सूर्य   देव !    हे   ज्योति  पुंज!!

हम     तुमको    शतशः नमन करें।

तुमसे      ही    रक्षित     है  जीवन,

त्रय     ताप     हमारे    शमन करें।।


जड़ -  चेतन     लता    विटप सारे,

रवि    से  ही     जीवन   पाते   हैं।

हे   भानु,    भास्कर,    अर्क , हंस,

हम  हरि   को  अर्घ्य    चढ़ाते  हैं।।

युग-युग  तक ज्योति  दान कर  के,

नभ  में    हे   अरुण!   सदा विचरें।

हे     सूर्य देव !    हे     ज्योति  पुंज!!

हम    तुमको    शतशः   नमन करें।।


फल,  अन्न,   प्रसून,   तुम्हीं  से  हैं,

हीरक,     मोती ,    चाँदी ,  सोना।

अंकुरित   बीज    हे     विश्व मित्र,

हरिताभ   तरणि    से   भू - कोना।।

हर      तमस      मिटाते  अंशुमान,

जो      अंधकार      में   सभी तरें।

हे   सूर्य  देव  !     हे   ज्योति पुंज!!

हम    तुमको   शतशः   नमन करें।।


तुम   जहाँ   वहीं     पर  जीवन   है,

हे  तपन,   दिवाकर ,  भग ,  पतंग।

बहतीं    निशि   दिन   सब सरिताएँ,

यमुना,    कावेरी ,     सिंधु  ,    गंग।।

कारण  दिन  के  दिनमणि दिनकर,

अपना   प्रकाश  प्रभु  कम   न  करें।

हे   सूर्य     देव !    हे   ज्योति पुंज!!

हम   तुमको     शतशः    नमन  करें।


नभ  -  मंडल   में  नित  गमन सदा,

कहलाते      आक       विहंगम तुम।

हर   पाप  -   पुण्य   के    दृष्टा  हो,

आजीवन   उऋण    न    होंगे हम।।

हर     ज्ञान     गूढ़     विज्ञान  तुम्हीं,

हे   सहस   किरण   हम  चरण वरें।

हे   सूर्य   देव !   हे      ज्योति पुंज!!

हम    तुमको    शतशः   नमन  करें।।


सहधर्मिणि       संज्ञा     छाया  तव,

संतति  सुत  यम - शनि   हैं सविता।

प्रद्योतन       तुमसे      प्राची     में,

नित     गाते      हैं   विहंग कविता।।

प्रातः    वेला     में       उषा -  रश्मि,

नित  'शुभम'   रूप   रख  कर विहरें।

हे   सूर्य   देव !     हे    ज्योति   पुंज !!

हम   तुमको     शतशः    नमन  करें।।


🪴 शुभमस्तु !


०८.०२.२०२२◆१.००पतनम मार्तण्डस्य।


सोमवार, 7 फ़रवरी 2022

सजल


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समांत  :'आया'।

पदांत:    वसंत।

मात्राभार:16.

मात्रा पतन: शून्य।

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कोकिल      बोला   आया वसंत

जड़ - चेतन    में      छाया वसंत


पीली   -   पीली       फूली सरसों

वन -  उपवन     को भाया वसंत


बूढ़े    पीपल      के   अधर लाल

मधुकर   ने     नित    गाया वसंत


मंथर  -  मंथर     अभिसार    हेतु

सरिता      ने        अपनाया  वसंत


तन-मन की कलियाँ खिलीं -खिलीं

मादक       सुगंध       लाया  वसंत


होली       की        धूमधाम   न्यारी

ढप  -    ढोलक   ले   ताया  वसंत


ऋतुपति    का     स्वागत चलो   करें

वह      देखो         मुस्काया   वसंत


वल्लरी    आम्र    से   लिपट     गई

महुए       में       कुचियाया   वसंत


माघी      पंचमी      'शुभम'      आई

वाणी     -   वंदन       पाया   वसंत


🪴 शुभमस्तु !

०७.०२.२०२२◆६.१५ आरोहणं मार्तण्डस्य।



रविवार, 6 फ़रवरी 2022

कौन यहाँ रहने को आया! ❇️ [ गीत ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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कौन  यहाँ  रहने  को  आया !

विदा हो गया समय बिताया!!


किए   गर्भ   में   कितने वादे।

बदल दिए  फिर नेक  इरादे।।

माया ने नित जीव   लुभाया।

कौन यहाँ  रहने  को आया!!


खेल - खेल में बचपन  बीता।

यौवन काम - कला ने जीता।।

कामिनि का मादक तन भाया

कौन  यहाँ  रहने  को आया!!


दो  से  तीन ,तीन  से कितने!

नहीं   सोचता  बढ़ते   इतने!!

घर -परिवार  बढ़ा  ही  पाया।

कौन यहाँ रहने  को  आया!!


पढ़ता  नहीं   वेद  या  गीता ।

आधा  जीवन   बीता  रीता।।

धन,पद,यौवन मद इठलाया।

कौन यहाँ  रहने  को आया।।


यश, सम्मान- नदी मतवाली।

लहरें   ऊँची  उठीं  निराली।।

यौवन - मंत्र  तंत्र  पर  छाया।

कौन यहाँ रहने  को  आया।।


अहंकार  का   बोझा   भारी।

मात्र दीखते धन,यश ,नारी।।

ज्यों सुमनों पर अलि मँडराया

कौन यहाँ  रहने  को  आया।।


यौवन   गया    प्रौढ़ता   छाई।

तन की  शक्ति  गई  मुरझाई।।

इन्द्रिय बल नित क्षीण कराया

कौन  यहाँ  रहने को आया।।


श्वासों का हिसाब गिनती का।

निकल गया पल प्रभु विनती का।

एक  न  गीत  ईश  का  गाया।

कौन  यहाँ  रहने  को आया!!


बिस्तर    बँधा    हुई   तैयारी।

श्वास - संपदा  विदा  हमारी।।

अंतिम शब्द राम  कब आया!

कौन यहाँ  रहने  को  आया।।


🪴 शुभमस्तु !


०६.०२.२०२२◆४.१५

 पतनम मार्तण्डस्य।


सुमनों की सुगंध 🥀🌹 [ बालगीत ]


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✍️ शब्दकार ©

🌹 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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सुमनों की सुगंध अति भाती।

किंतु कहाँ  से  उनमें  आती।।


गेंदा,  पाटल,  जूही    मिलते।

कुंद, चमेली , चंपा  खिलते।।

कमल कुमुदिनी सर मुस्काती

सुमनों की सुगंध अति भाती।


सरसों,   सूरजमुखी   फूलते।

रस पी   भौंरे   वहाँ   झूलते।।

रजनीगंधा  निशि   महकाती।

सुमनों की सुगंध अति भाती।


गुडहल,  गुलबहार   या  चेरी।

खिलती प्रातः मॉर्निंग ग्लोरी।।

कलगी,वाटर लिली  सुहाती।

सुमनों की सुगंध अति भाती।


कंद,   जीनिया ,टेसू   महके।

तितली उड़े मंद कुछ कह के।

मन ही मन वह गुनगुन गाती।

सुमनों की सुगंध अति भाती।


माटी   एक   रंग   हैं  कितने!

फूलों में  जो  खिलते  इतने।।

जाड़ा ,  गरमी  या  बरसाती।

सुमनों की सुगंध अति भाती।


🪴 शुभमस्तु !


०५.०२.२०२२◆८.३० 

पतनम मार्तण्डस्य।

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...