बुधवार, 30 जून 2021

अम्माजी ने पिल्ला पाला 🐕 [ बालगीत ]

  

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✍️ शब्दकार ©

☘️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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अम्माजी  ने    पिल्ला  पाला।

रंग  गेरुआ   बड़ा   निराला।।


सारे  घर   में   दौड़   लगाता।

उछलकूद कर मन बहलाता।।

बड़े बाल  तन  से   झबराला।

अम्माजी   ने   पिल्ला  पाला।


दूध   पिलाती    मेरी   अम्मा।

दादा कहते  'बड़ा  निकम्मा।।

पिल्ला  यह खाने  का घाला।'

अम्माजी ने   पिल्ला  पाला।।


साबुन से वह   नित्य नहाता।

लघुशंका को   बाहर  जाता।।

गेंद   खेलने   को   मतवाला।

अम्माजी ने   पिल्ला  पाला।।


नहीं   अन्य  को घुसने   देता।

भौंक-भौंक कर घर भर लेता।

पूरे   घर   का   मित्र निराला।

अम्माजी ने  पिल्ला   पाला।।


कहती अम्मा   उसको  शेरी।

लेते  नाम   न   करता  देरी।।

'शुभम' पहनता कंठी माला।

अम्माजी ने  पिल्ला  पाला।।


🪴 शुभमस्तु !

३०.०६.२०२१◆७.००पतनम मार्तण्डस्य।

हाथी आया 🐘 [ बालगीत ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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हाथी  आया    हाथी  आया।

बड़े गाँव  में  हाथी   आया।।


एक  महावत  हाथी के   सँग।

चलने का है बड़ा  अजब ढँग।

थुलथुल हिलता चलता पाया।

हाथी  आया   हाथी   आया।।


खम्भे -  सी  हैं    चारों   टाँगें।

देखें  ज्यों ही हम  सब भागें।।

लंबी    सूँड़   घुमाता   पाया।

हाथी  आया   हाथी  आया।।


 कमरे  जैसा  हाथी  का तन।

कान सूप - से घंटी टन -टन।।

झाड़ू - सी  दुम रहा हिलाया।

हाथी  आया    हाथी आया।।


तवा सदृश गज का रँग काला

दाँत बड़े दो - दो  फुट वाला।।

दर्शन - मेला   हमको   भाया।

हाथी  आया   हाथी   आया।।


केला, गन्ना  , पीपल   खाता।

बड़ी शाख झट खूब चबाता।।

शुभ गणेश को शीश नवाया।

हाथी  आया  हाथी   आया।।


🪴 शुभमस्तु !


३०.०६.२०२१◆६.३०पतनम मार्तण्डस्य।

मंगलवार, 29 जून 2021

भाता मुझको मेरा गाँव 🏕️ [ बालगीत ]


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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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भाता    मुझको    मेरा   गाँव।

वहाँ  पेड़  की शीतल  छाँव।।


शहरों से   अच्छा   है  प्यारा।

नदिया का   शांत   किनारा।।

जाने को  विचलित   हैं  पाँव।

भाता   मुझको  मेरा   गाँव।।


लोग  गाँव   के   भोले  सीधे।

नहीं  लालची धन  पर गीधे।।

नहीं काग - सी  होती  काँव।

भाता   मुझको   मेरा   गाँव।।


अन्न ,फूल,फल की हो खेती।

गाँव धरा  में  सब्जी   जेती।।

होते  हैं   मनहर  सब  ठाँव।

भाता  मुझको   मेरा   गाँव।।


भेड़ ,  बकरियाँ,  भैंसें, गायें।

देतीं  दूध  जिसे  हम  पाएँ।।

नहीं चाय की  मचती  चाँव।

भाता  मुझको   मेरा  गाँव।।


टर्र - टर्र    हैं   दादुर  करते।

कोयल कूके  मोर विचरते।।

गायें   करती हैं   बाँ - बाँव।

भाता  मुझको  मेरा  गाँव।।


🪴 शुभमस्तु !


कलाबाजी बनाम ज्ञान-वमन 📖 [ दोहा ]


              

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✍️ शब्दकार ©

🪢 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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कलाबाजियां शब्द की,करते चतुर सुजान।

कोई समझे या नहीं,फ़िर भी उनकी शान।।


वे  समझें  वे ही लिखें,काव्य बड़ा  ही  गूढ़।

आम  समझ  से दूर है,नहीं समझते  मूढ़।।


केशव को वे कह रहे,कठिन काव्य का प्रेत।

शब्दकोष  लें  हाथ में,समझें कविता -हेत।।


रामचरितमानस लिखा,कविवर तुलसीदास।

घर-घर में जनप्रिय बना,सरस् सुगंध सुवास।


भाषा, शैली ,शब्द  का,हुआ समन्वय  खूब।

रामकथा व्यापक  हुई,ज्यों अवनी की दूब।।


मधु  झरता  है शब्द से,शब्द धनुष - टंकार।

शब्द सुमन-से उर लगें, शब्द हृदय के पार।।


कुछ विशेष के ही लिए,लिखता जो कवि छंद

आम  सुजन का हित नहीं, उर वातायन बंद।


सहज बनें सबके लिए,कृत्रिम नहीं  विशेष।

जन- जन  के उर  में बसें,रखें नहीं  विद्वेष।।


सद  सुगंध  देते नहीं, ज्यों कागज़  के  फूल।

कविता वह  निर्गन्ध है,जो मरमर की धूल।।


कवि   कोई  नेता  नहीं, दुर्लभ की    संतान।

जनहित की कविता करे,सबसे वही महान।।


मत  बनिए  पाषाण- से,बनिए वेला  फूल।

बिखरे  गंध सु-भाव-सी, नहीं रोपिए  शूल।।


ज्ञान- वमन  जो  कर रहे, वे कविता  से  दूर।

कालिदास समझें  स्वयं,निज गुरूर में  चूर।।


भाव - नदी  खारी  नहीं, होती लें यह  जान।

शब्दों की खिलवाड़ की,नहीं दिखाएँ शान।।


सूरदास,  तुलसी   हुए,  जन्मे दास  कबीर।

भावों की सरिता बही,बनकर अमर लकीर।।


'शुभम'सहज कविता करें,बहा भाव रसधार।

शब्दों  से  खेलें  नहीं, बने  न रचना    भार।।


🪴 शुभमस्तु !


२७.०६.२०२१◆२.०० पत नम मार्तण्डस्य।

शनिवार, 26 जून 2021

ग़ज़ल ☘️


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✍️ शब्दकार ©

🦚 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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पलकों   में    छा   जाओ साजन।

उर   में   आ      भरमाओ साजन।।


नदिया      गहरी    नाव  पुरानी,

गोता   प्रणय    लगाओ  साजन।


शूल   सेज    पर   चुभते   तन में,

बाँहों    में   भर     जाओ  साजन।


सावन       आया     बरसीं  बुँदियाँ,

झूला    बाग       झुलाओ  साजन।


सखियाँ     गातीं      मधुर  मल्हारें,

गाकर    गीत    सुलाओ  साजन।


महुआ      टपके      गमकीं  रातें,

अपने      बोल    सुनाओ साजन।


'शुभम'    टपकती    है  औलाती,

इंतज़ाम        करवाओ   साजन।


🪴 शुभमस्तु !


२६.०६.२०२१◆४.००पतनम मार्तण्डस्य।

ग़ज़ल 🎋

 

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✍️ शब्दकार©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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पिया    मिलन    को   चली कामिनी।

चमके      उज्ज्वल     भली दामिनी।।


छनक   न   जाए    रुनझुन  पायल,

हौले     -     हौले     बढ़ी   भामिनी।


रूठ      गए        हैं     प्रीतम   प्यारे,

महक    रही   ज्यों     कली  मानिनी।


कभी   न   मन    में     आया    दूजा,

नहीं     हुई      तिय    छली  गामिनी।


'शुभम'      पतिव्रत      पालन   करती,

पावनता         से        पली  कामिनी।


🪴 शुभमस्तु !


२६.०६.२०२१◆३.३०     पतनम मार्तण्डस्य।

ग़ज़ल 🌴


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✍️ शब्दकार ©

☘️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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लबों     की    तिश्नगी  बयां  नहीं    होती।

दिलों   की    तीरगी   बयां  नहीं    होती।।


लगा     करती   है  दिलों  पर चोट   भारी,

ज़लालत   भरी   ज़िंदगी बयां नहीं  होती ।


बड़ी     बेरुखी     से   चले   गए   हैं   वे,

अपनों की बुरी दिल्लगी बयां नहीं होती।


बदलते   वक़्त   ने   लम्हे  जो दिखाए  हैं,

आप   अपनी  आशवी   बयां  नहीं  होती।


'शुभम'   छँटने   लगा  ज़हर अँधेरा  भी,

लबों  से ख़ुद ये काशवी बयां नहीं होती।


तिश्नगी=प्यास।

तीरगी=अँधेरा।

आशवी =धन्य औऱ विजयी।

काशवी=उज्जवलता।


🪴 शुभमस्तु!


२६.०६.२०२१◆१.३०पतनम मार्तण्डस्य।

शुक्रवार, 25 जून 2021

  सर्वश्रेष्ठ साहित्य 📒


 [ व्यंग्य ] 


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 ✍️ लेखक © 


 ☘️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम' 


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                सोना कम से कम लोगों के पास कम से कम मात्रा और अधिक महत्त्व की वस्तु है। संभवतः इसीलिए उसका मूल्य भी अधिक से अधिक है।इसी प्रकार संसार में पाई जाने वाली अनेक वस्तुएँ, पदार्थ, व्यक्ति ,कम से कम होने पर अधिक पूज्य और महत्त्व के शिखर पर विराजमान दिखाई देते हैं। जैसे : नेता ,साधु,डाकू, अधिकारी ,हीरो ,हीरोइन, क्रिकेट प्लेयर,पुलिस आदि। 

                 साहित्य भी एक ऐसी ही वस्तु है,जिसका महत्त्व बढ़ाने औऱ उसका बाज़ार चमकाने के कुछ विशेष सूत्र,सिद्धान्त और फॉर्मूले हैं, जिनके आधार पर रातों - रात एक बड़ा साहित्यकार बना जा सकता है औऱ अपना नाम साहित्य के इतहास में स्वर्ण अक्षरों में अंकित कराया जा सकता है। 

           यदि साहित्य सरलता से सबकी समझ में आ गया ,तो उसे उच्च कोटि की श्रेणी में नहीं माना जा सकता। इसलिए सरल भाषा -शैली में लिखा गया ठीक नहीं माना जाता । साहित्य के धुरंधर विद्वान ,समीक्षक और रचनाकार उस साहित्य को ही सर्वश्रेष्ठ मानते हैं ,जो कुछ 'विशिष्ट जन' के ही पल्ले पड़े, सबकी समझ में न आए। सबकी पहुँच में आ गया ,तो लौकी, तोरई की तरह सस्ता हो जाएगा, (यद्यपि लौकी ,तोरई भी अब इतने सस्ते नहीं हैं ,जितना उन्हें कह दिया जाता है ।एक कहावत ही सही।) बाकी लोगों के सिर के ऊपर होकर ऐसे उड़ जाए, जैसे ड्रोन कैमरा ऊपर ही ऊपर निकल जाता है ,पर आम आदमी नहीं समझ पाता कि यह छोटा - सा हवाई जहाज क्या खेल खेल रहा है! 

               गोस्वामी तुलसीदास को ये सूत्र पता ही नहीं था कि वे ऐसा साहित्य - सृजन करते ,जो सबके पल्ले ही नहीं पड़ता। वे सौभाग्यशाली थे कि लोकभाषा अवधी औऱ ब्रजभाषा में लिखकर भी जन जन के प्रिय ही नहीं हो गए ,वरन लोक समाज और प्रबुद्ध वर्ग सबने उन्हें अपने सिर पर बैठाया । क्लिष्ट साहित्य - सृजन साहित्यकार के महत्त्व को कई गुणा अधिक बढ़ा देता है। जब तक कविता को समझने के लिए किसी साहित्यकार को भी शब्दकोश की शरण में न जाना पड़े ! वह साहित्य ही क्या और वह साहित्यकार ही क्या ! क्लिष्ट साहित्य लिखने से साहित्यकार का महत्त्व बढ़ता है। यदि सबकी समझ में आ गया तो उसे 'सस्ती लोकप्रियता 'ही मिलेगी। लेकिन लोकप्रियता जब तक कठिनाई से न मिले मँहगी न हो ,तब तक उसका कोई महत्त्व नहीं। 

                  इसलिए कुछ साहित्यकार जानबूझकर शब्दकोश खोलकर काव्य - सृजन करते हैं,ताकि उसे समझने के लिए भी शब्दकोश खोलना पड़े औऱ शब्दकोश सबके पास होता नहीं, इसलिए उस साहित्यिक और साहित्य का महत्त्व बहुत उच्च तापमान पर पहुँच कर उसे राज्य औऱ सियासती सम्मान प्रदान करने में विशेष महत्त्व बढ़ा देता है। ऐसे साहित्यकार अपने को अपने आप ही विशिष्ट वर्ग की श्रेणी में आगणित करने लगते हैं ,फिर हमारी आपकी क्या हिम्मत कि एक सोपान भी नीचे स्थापित करने की पहल करें? इससे उनके अहंकार का दमन होता है ,और वे अपने अहं के लेबल से एक सीढ़ी क्या एक मिलीमीटर भी कम नहीं दिखना चाहते। 

                यद्यपि साहित्य की पुरानी परिभाषा(सहितस्य भाव:इति साहित्यम) के अनुसार साहित्य वही है ,जो जन- जन का हित करने वाला हो।  किन्तु तथाकथित  'विशिष्ट औऱ  क्लिष्ट साहित्य' भले ही जन -जन का कल्याण न करे ,(जब समझ में ही नहीं आएगा, तो कल्याण कैसे करेगा ? ये कोई एलोपैथी की टेबलेट तो है नहीं , जो उसका विज्ञान न जानने पर भी लाभ न करे। वह अवश्य करेगी।) परंतु नेताओं के मक्खन लगाने के बाद राष्ट्रीय पुरस्कार दिलवाकर ,सवा लाख का चैक मिलवाकर उस "विशिष्ट" का 'विशिष्ट' कल्याण अवश्य करती है। बस आना चाहिए ,मक्खन लगाने का विज्ञान और सही 'फॉर्मूला' !

                    जो क्लिष्ट ,दुरूह और असामान्य को भी समझ ले , वह भी विशिष्ट ही होता है।क्योंकि इस चंचल संसार में सब चीजें सबके लिए नहीं बनी।ढाबे की टूटी हुई मेज पर पी गई चाय औऱ अख़बार का नाश्ता जहाँ दस रुपये में हो जाता है , वही चाय (अथवा उससे घटिया चाय) फाइव स्टार होटल में सैकड़ों रुपये में पड़ती है औऱ पीने वाला खुशी से मूँछों पर ताव देते हुए देता भी है , अंततः वह कोई आम आदमी थोड़े ही है। वह वशिष्ट है।यही उसकी औकात है। भला किसी 'ऐरे गैरे नत्थू खैरे' में वह दम कहाँ ?जो दस की चाय सौ में पी सके, जहाँ अख़बार को छूने के भी पूरे पैसे वसूल लिए जाएँ ! 'विशिष्ट' औऱ 'सामान्य' में यही अंतर है।

            आइए हम भी ऐसे ही 'विशिष्ट'साहित्यकार बनकर क्लिष्ट और दुरूह साहित्य का सृजन करें। अब तो आपको मँहगा शब्दकोश भी क्रय नहीं करना है। बस दस हजारी स्मार्ट फोन खोलिए औऱ गूगल बाबा की शरण में जाइए औऱ विशिष्ट साहित्य सृजन कीजिए , चाहे विशिष्ट समीक्षक बनिए अथवा जो चाहे सो कीजिए।आपका नाम साहित्य के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में अंकित हो ही जायेगा औऱ आप केशव, कालिदास जैसे महान कवियों की पंक्ति में खड़े दृष्टिगोचर होने लगेंगे। 'विशिष्टों' के द्वारा आम को चूसे जाने की परम्परा कोई नई नहीं है।

       🪴 शुभमस्तु !.

 २५.०६.२०२१◆१०.४५आरोहणम मार्तण्डस्य। 


  

आदमी का आदमी आहार है! [ लेख ]


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 ✍️ लेखक © 

 🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम' 

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                एक प्राचीन उक्ति बहुत प्रसिद्ध है : ' जीवः जीवस्य भोजनम ' ।यों तो प्रत्येक जीव सुरक्षित रूप से जीने के लिए जीवन - संघर्ष करता है। करना भी चहिए। क्योंकि 'जीवन ही संघर्ष है।' और 'संघर्ष ही जीवन है।' फिर क्यों न उसे जीने के निरंतर जूझना पड़ेगा! 'जीवः जीवस्य भोजनम' कथन के आधार पर ही लोकोक्ति बन गई कि 'हर छोटी मछली बड़ी मछली का आहार है।' यह मात्र एक कहावत ही नहीं ,प्रत्यक्ष रूप में देखा भी जाता है।

        संसार में कुछ जीव ऐसे भी हैं ,जिनमें अपनी संतान के प्रति भी मोह ममता नहीं होती। जैसे सर्पों की कुछ प्रजातियों में मादा साँप अपने ही अंडे बच्चों को खा जाती है।इसी प्रकार बहुत से अन्य जीव भी हैं ,जो अपनी औरस संतान को अपना आहार बना लेते हैं।शेर,चीते,हिरन, खरगोश आदि को अपना आहार बनाते हैं। चूहा बिल्ली का आहार है। मांसाहारी जीव यदि जीव को खाते हैं,तो यह उनकी प्रकृति के अंतर्गत है।किंतु जो जीव अपनी प्रकृति के विरुद्ध आहार करता है ,उसकी क्या कहिए। ऐसे जीवों में मनुष्य का स्थान सबसे ऊपर है। यद्यपि जीव विज्ञान के सिद्धान्त औऱ दाँत , आँत आदि की रचना प्रणाली के अनुसार मनुष्य एक शाकाहारी जीव है, किन्तु आज सारा संसार जानता है ,क्या कुछ भी ऐसा है ,जो उसकी आहार -सूची में शामिल न हो। अपने ही पड़ौसी देश चीन में कुत्ते ,बिल्ली, गधे ,घोड़े, बिच्छू, साँप, चमगादड़ ,मेंढक और न जाने क्या - क्या जीव उसकी रसना के ग्राहक हैं। 

            यह तो हुई अन्य जीवों औऱ मनुष्य के सामान्य आहार की बात।सबसे बुद्धिमान औऱ प्रज्ञावान समझे जाने वाले आदमी ने अपने ही तरह के आदमी को भी खाने से नहीं छोड़ा है। वह   अपने    अस्तित्व    को बचाने के लिए मनुष्य को ही खा रहा है।

       बड़ी मछली के द्वारा छोटी मछली को खाने की बात कहना कोई कहावत मात्र नहीं है। इसी प्रकार अपनी अभिजात्यता के नशे में झूमता हुआ मानव भी नहीं चाहता कि उसके सामने कोई दूसरा जिंदा रहे। बड़ा नेता छोटे नेता के पर काट कर उसे ऊँची उड़ान भरने के लिए रोक रहा है।यदि उसका स्तर औऱ लोकप्रियता बढ़ गई तो उसकी सत्ता और आसन छिन सकता है।इसलिए समय - समय पर अपनी कर्तनी से उसके पंख कतरता रहता है। अधिकारी, कर्मचारी, अमीर, कवि , साहित्यकार सभी अपने से छोटे के प्राणों के ग्राहक बने हुए हैं। वे नहीं चाहते कि कोई भी उनके समकक्ष हो अथवा उनसे आगे बढ़ सके।इसलिए वे उन्हें हतोत्साहित करने, उन्हें हेय बताने, उनकी नैतिक हत्या कराने और कभी - कभी जैविक हत्या कराने से भी नहीं चूकते। अपने ही भाई- बंधु को मारकर अथवा मरवा कर उसकी लाश पर अपनी विलासिता की ऊँची मंज़िल का निर्माण करना ही उनका 'पवित्र' ध्येय है। एक देश दूसरे को खाना चाहता है। एक वर्ग दूसरे वर्ग को, तथाकथित उच्च वर्ण अपने से नीचे के वर्गों को गाजर - मूली की तरह खा जाने को आतुर हैं। नतीजा है जातीय,मज़हबी दंगे ,सड़कों पर खून - खराबा, नगर- गांव में अत्याचार, ग्राम प्रधानों के द्वारा विरोधियों की हत्याएँ, नेताओं के द्वारा नेताओं के ऊपर अनैतिक आरोप ,(जैसे कि वे सब गौमाता के दूध के धुले हुए हैं।), दूसरे की मां बहनों के साथ दुराचार ,बलात्कार, अपहरण, रिश्वत देकर वोटों को खरीदना, ये सभी मानव के द्वारा मानव के आहार के लाखों उदाहरण हैं। वाह रे! प्रज्ञावान मानव , तू धन्य है। मुखौटों के अंदर बेशर्म भी है। धर्म के नाम पर अधर्म की खेती यदि कहीं होती है ,तो वह मानव मात्र के द्वारा ही होती है। मात्र मानव के द्वारा ही होती है। पशु-पक्षी धर्म का ढोंग नहीं करते। इंसान कपड़ों के भीतर भी उतना ही नंगा है ,जितना अपने हमाम में।

            आदमी को जंगल के हिंसक जानवरों से उतना खतरा नहीं है ,जितना एक पड़ौसी को दूसरे पड़ौसी से, एक वर्ण को दूसरे वर्ण से , एक नेता को दूसरे नेता से, एक धर्म को किसी दूसरे धर्म/मज़हब से, एक दल को दूसरे दल से, सरकारों को विपक्ष से, विपक्ष को सरकार से अपने अस्तित्व का भयंकर ख़तरा है। कोई शांति औऱ संतोष से जिए तो कैसे जिए ! आदमी के बड़े -बड़े हिंसक जबड़े मानव जाति को लील जाने के लिए हर समय तैनात हैं। अब मानव और पशुओं में कोई अंतर ही समझ में नहीं आता । वह धर्म का लबादा ओढ़े हुए है, पशु बेचारे देह से भी नग्न औऱ बुद्घि से भी नग्न। इसीलिए पहले के लोग कह गए हैं :'आदमी पहले पशु है ,बाद में मनुष्य।' पर मेरी मान्यता है कि मानव मानवत्व के खोल में पशुओं से भी अधिक पतित औऱ हेय है। पशु आदमी की तरह ढोंग तो नहीं करते ।वे जैसे हैं ,वैसे ही हैं। औऱ देखें उधर वे बड़ी- बड़ी मछलियाँ मगरमच्छ बन गई हैं ,औऱ उनके जबड़ों में , अमाशय में , आँत में यहाँ तक कि मल मूत्र में भी मानव औऱ उसके अंश ही हैं। 

 🪴 शुभमस्तु !

 २५.०६.२०२१◆७.३०

 पतनम मार्तण्डस्य।


बुधवार, 23 जून 2021

मानव, पहले मानव है ? 🦢 [ व्यंग्य ]


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 ✍️ लेखक © 

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                कहा जाता है कि 'मानव पहले पशु है ,बाद में मनुष्य।' किन्तु मुझे इसके ठीक विपरीत ही प्रतीत होता है।अर्थात 'मानव पहले मनुष्य है ,बाद में पशु है।' हो सकता है बहुत पहले जब मानव - सभ्यता का विकास नहीं हुआ था, अथवा वह अपने शैशव काल में रही होगी ,तब मनुष्य, मनुष्य कम ; पशु ही अधिक रहा हो। क्योंकि उसका रहन - सहन, आसन, असन, वसन, व्यसन ,आहार, निद्रा , देह - सम्बन्ध आदि सभी क्रिया -कर्म पशुओं जैसे ही रहे हों, लेकिन शनैः - शनैः विकसित सभ्यता ने उसे पशु से उठाकर मनुष्य की पंगत में बिठा दिया हो।कौवे से हंस, गधे से गाय, बिच्छू से मधुमक्खी,नाली के कीट से फलों की गिड़ार, उल्लू से गरुण, मेढक से घड़ियाल बना दिया हो।

            आज मनुष्य पशुओं से बहुत आगे निकल चुका है। अब वह गुफ़ाओं, बिलों और पेड़ों पर अपने घर- घोंसले बनाने के बजाय ऊँची -ऊँची अट्टालिकाओं और बहु मंजिला भवनों में निवास करता है।पशु, पक्षी , कीड़े - मकोड़े, बेचारे वहीं के वहीं रह गए और वह पशु से मनुष्य बन गया।बंदर आज भी बंदर है, गधा आज भी गधा है, गाय-भैंस आज भी गाय -भैंस ही बने हुए हैं।नाली का कीड़ा आज भी नाली में और सुअर आज भी नाले में किलोलें करते हुए देखे जा सकते हैं। पर वाह रे !मानव, तारीफ़ है तेरी की तू कहाँ से कहाँ पहुँच गया! तू कभी गीदड़ की तरह गुफ़ावासी था , अब महलवासी हो गया। बनैले हिंसक शेर , चीते ,भालू आदि से जान बचाने के लिए भय वश तू पेड़ों पर घोंसले बना कर रहता था , अब एअर- कंडीशंड कमरों में विलास करता है।अब तू पशु नहीं है , न पक्षी और न ही कोई कीड़ा मकोड़ा ।(यह अलग बात है कि कुछ मानव देहधारी प्राणी आज कीड़े-मकोड़ों, कुत्ते ,बिल्लियों की जिन्दगी से भी बदतर जीवन जी रहे हैं।) आमतौर से मानव तिर्यक औऱ इन यौनियों से बहुत ऊपर जा चुका है।

                     आज जंगली जानवरों, चिड़ियों , जलचर जीवों, कीड़े -मकोड़ों, दीमक , चींटी , चींटे में जो एकता ,संगठन औऱ प्रेम संबंध मिलता है ,वह मनुष्य जाति से विदा हो चुका है। आप जानते ही हैं कि अब वह प्रबुद्ध मानव है।अब उसे अन्योन्याश्रित जीवन जीने की क्या आवश्यकता ? वह अब कमजोर थोड़े ही है ,पशुओं ,पक्षियों की तरह! वह बुद्धि बल औऱ देह बल में इनसे आगे निकल कर केवल अपने परिवार ,संतान ,और कुटुम्ब के लिए ही जीने में जीवन की सार्थकता मानता है। उसे अब अपने स्वार्थ में दूसरे के सहयोग की भी आवश्यकता नहीं है। वह अकेले जीने में खुश ही नहीं, संतुष्ट भी है।उसे अपने छोटे से घरौंदे के घेरे में ही रहना और जीना पसंद है।

                     अब आज का मानव एकता में नहीं ,विभाजन में विश्वास करता है। इसलिए उसने वर्ण- भेद, जाति- भेद, भाषा -भेद, क्षेत्र -भेद ,प्रदेश -भेद, जनपद -भेद, नगर -ग्राम -भेद, और न जाने कितने भेद में विभाजित होकर खंड - खंड होकर जीने को ही सुखी जीवन की आधार शिला माना है। मुँह से एकता, अखण्डता, संगठन के गीत गाने वाला मानव इन सब को केवल आदर्श की किताबों, उपदेशों, कविताओं और गीतों में लिखकर रखता है, लेकिन वास्तविकता ठीक इसके विपरीत है। उसे प्रेम के बजाय लड़ना अधिक पसंद है। तभी तो महाभारत और दो - दो विश्वयुध्द हुए । तीसरे विश्वयुध्द की तैयारी में बारूद के ढेर पर बैठकर परमाणु बम बनाकर उस 'शुभ पल' की प्रतीक्षा में उतावली से बैठा हुआ है। खून -खराबा देखने में आनन्द लेना ,मनुष्य की हॉबी है। तभी तो मरते हुए आदमी को बचाने के बजाय उसके वीडियो बनाना, फ़ोटो खींचना उसे ज्यादा पसंद है। उसे किसी के मरण को अपना प्रिय उत्सव बनाना उसका बहुत ही रोचक कर्म है। कहीं आग लगे, दुर्घटना हो , किसी के प्राण निकलने वाले हों, तो वह सबसे पहले अपना मोबाईल निकाल कर पत्रकार की भूमिका में आकर उसे प्रसारित करना अपना धर्म समझता है। उसका यह कृत्य उसे पशुओं से भी बहुत ऊपर उठा देता है। 

               चील ,कौवे, गौरैया, मोर , कोयल, हंस आदि पक्षी, गधे ,घोड़े , गाय बैल, भैंस, बकरी ,भेड़ आदि पालतू पशु, शेर ,चीते , हिरन, खरगोश, सर्प ,गिरगिट , चींटे ,दीमक, चमगादड़, मक्खी , मधु मक्क्खी, भौरें, तितलियाँ आदि कभी रंग भेद या जाति के लिए एक दूसरे के खून के प्यासे नहीं देखे गए। बेचारे इतना वृहत दिमाग़ कहाँ रखते    हैं कि वे महायुध्द कर अपनी अभिजात्यता सिद्ध करें! यह  तो 'अति बुद्धिमान' मानव ही है कि वह छोटी - छोटी बात पर दूसरे मज़हब,जाति औऱ वर्ण के रक्त का प्यासा बनकर उसे चाट जाने में ही अपने को उच्च मानता है। 

                 मानव को ब्राह्मण,क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्णों में विभाजित होकर उसे बड़े गर्व की अनुभूति होती है। अपने को उच्च और अन्य   को हेय मानकर उसे    निम्न  सिद्ध करने में बड़ा आनन्द आता है। इसी प्रकार ईसाई, यहूदी , मुस्लिम,औऱ न जाने कितने मानव विभंजक रूप हैं ,जो नहीं चाहते कि दुनिया में शांति रहे। उसे लड़ने-लड़ाने में जो आनन्द आता है , वह कहीं भी नहीं मिलता। लड़ाने वाले लड़ाकर आनन्द मनाते हैं। 'अति बलशाली 'लड़कर अपनी मनः शांति मनाते हैं, अपने अहंकार में मिट जाना सहर्ष स्वीकार है मानव को, किन्तु शांति प्रियता उसे कायरता का पर्याय प्रतीत होती है। 

            युद्धप्रियता मानव का प्रिय 'खेला'  है। यही उसकी प्रियता का मेला है । आख़िर मानव भी तो लाल रंग का चेला है।अब वह चाहे साड़ी में हो या माँग में, चूड़ी में हो या दिमाग़ में,रक्त में हो या अनुरक्ति में (प्रेम में, मनुष्य प्रेम का रंग भी लाल मानता आया है , वही रंग शृंगार का भी है।)।इसीलिए किसी युग के राजा लोग युद्ध में लाल खून की नदी बहाकर दूसरे राजा की पुत्री या रानी को छीनकर लाल लाल जोड़े में लाल शृंगार की लाल-लाल सेज पर सुहाग रात मनाते थे। 

                   'विनाश काले विपरीत बुद्धि' के सिद्धांत का उद्घोषक और मान्यता देने वाला मानव इसके विपरीत चलना ही उचित मानता है। आप तो जानते ही हैं कि इनके सिद्धांत केवल उपदेश, ग्रंथों की शोभा बढ़ाने और दूसरों को बताने ,(स्वयं करने के लिए नहीं),अपने धर्म की शेखी बघारने, अपनी अभिजात्यता का डंका पीटने-पिटवाने औऱ प्रदर्शन के लिए ही तो हैं। अब पशु-पक्षी बेचारे क्या जानें ये आदर्शों की 'ऊँची - ऊँची बातें' ! आइए हम सब सब आपस में लड़ें ,कटें, मिटें और पशु - पक्षियों के ऊपर अपने मानव - साम्राज्य की आवाज़ बुलंद करें। अंततः मानव पहले मानव है , बाद में पशु भी हो सकता है। जब मानव होने पर उसका ये हाल है ,तो पशु होने पर क्या हाल होगा ,कल्पनातीत है। भले ही वह कोयल के कलरव, मोरों की मेहो !मेहो !! गौरैया की चूँ -चूँ , कौवों की कांव - कांव ,शहर - शहर या गाँव -गाँव में कोई भी उसे सुनने मानने वाला न हो।

 इसीलिए तो मैंने कहा कि 'मानव पहले मानव है , बाद में पशु।'

 🪴 शुभमस्तु ,! 

 २३.०६.२०२१◆११.१५आरोहणम मार्तण्डस्य।

इंद्रधनुष 🌈 [बालकविता ]


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✍️ शब्दकार ©

🌈 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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सात   रंग  की   पाँती   सोहे।

वक्र,गगन  में दृग  मन मोहे।।


यह  शुचि इंद्रधनुष कहलाता।

हम सबका वह मन बहलाता।


सुबह  पश्चिमी  नभ  में होता।

संध्या   वेला   पूर्व    उदोता।।


पहला   रँग   है   जैसे  बैंगन।

कहें बैंगनी  घर के सब जन।।


फ़िर नीले   की   आती  बारी।

ज्योंअलसी की पुष्पित क्यारी


आसमान का रँग अब आता।

नयनों को  है कितना भाता।।


हरे रंग का  फ़िर क्या कहना!

हरित विटप का बहता झरना।


नीबू   जैसा  रँग  अति पीला।

नारंगी - सा    वर्ण   रसीला।।


अंतिम  लाल  रंग  मन भाया।

नभ  में इंद्रधनुष शुभ छाया।।


🪴 शुभमस्तु !


२२.०६.२०२१◆११.४५आरोहणम मार्तण्डस्य।

राष्ट्र -धर्म कैसे निभे! 🎋🌾 [ दोहा ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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उदर,वंश, निज जाति की,चिंता में रत लोग।

राष्ट्र - धर्म  कैसे  निभे, सबसे पहले   भोग।।


जाति,  वर्ण  के  भेद  से ,  टूट रहा  है  देश।

राष्ट्र - धर्म  कैसे   निभे,दूषित उर - परिवेश।।


योग - दिवस  की  रस्म में,डूब गए  आकंठ।

राष्ट्र -  धर्म  कैसे  निभे, योगी, भोगी,  लंठ।।


एक  दिवस  है  योग  का,शेष सूपड़ा  साफ़।

राष्ट्र - धर्म  कैसे  निभे,रोग न करता  माफ़।।


मैं  ऊँचा   सब  नीच हैं,अहंकार  का  रोग।

राष्ट्र - धर्म कैसे  निभे, खंड - खंड हैं लोग।।


चार  बैल  मति - फूट   में,फूटे उनके भाग।

राष्ट्र - धर्म  कैसे  निभे,डसे जा   रहे  नाग।।


चार  वर्ण  बदरंग  हो,खंड - खंड मति भिन्न।

राष्ट्र - धर्म  कैसे निभे,मति चारों  की खिन्न।।


छिलका  लिपटा  संतरा,बाहर से   है एक।

राष्ट्र-धर्म कैसे निभे, फाँकें भिन्न   अनेक।।


टर्र - टर्र  सबकी  पृथक, नहीं एक  संगीत।

राष्ट्र - धर्म कैसे निभे,मिले न मन का मीत।।


झूठी, थोथी   एकता, का करते   गुणगान।

राष्ट्र - धर्म  कैसे  निभे,नेता यहाँ    महान।।


मत,सत्ता,पदवी मिले,यही 'शुभं'शुचि मन्त्र।

राष्ट्र -  धर्म  कैसे  निभे,ऐसा यह  जनतंत्र।।


🪴 शुभमस्तु !


२१.०६.२०२१◆११.००आरोहणम मार्तण्डस्य।


रविवार, 20 जून 2021

ग़ज़ल 🌴

  

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✍️ शब्दकार©

🌻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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काले  दिल  वालों  से ख़तरा,

दुश्मन की चालों   से  ख़तरा।


जिनके   भीतर   जंग लगी है,

बंद  पड़े   तालों    से  ख़तरा।


घर  में  रहें   विभीषण   जैसे,

ऐसे  घर    वालों  से   ख़तरा।


तन के गोरे   मन    के   काले,

गिरगिटिया  खालों से ख़तरा।


पीकर  दूध  ज़हर    ही उगलें,

दाढ़ी   के   बालों   से  ख़तरा।


शांतिदूत  के परचम - वाहक,

पापी परकालों   से    ख़तरा।


'शुभम' मुखौटे    वाले   धोखे,

छिपे   हुए   गालों  से ख़तरा।


🪴 शुभमस्तु !


२०.०६.२०२१◆२.३०आरोहणम मार्तण्डस्य।

ग़ज़ल 🌳

 

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✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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जागो  देश  पुकार   रहा   है।

तू  क्यों  हिम्मत हार  रहा है।।


महाबली   तू    हनुमत  जैसा,

मन ही मन सत मार  रहा  है।


कर ले  याद  अतीत हिन्द का,

सूर्योदय    का  द्वार   रहा  है।


तू  अपना अस्तित्व  बचा  ले,

नित प्रति जग को तार रहा है।


नहीं  भुजाओं  में बल कम है,

दुश्मन  को  तू  खार   रहा है।


भोथी कर  तलवार  न अपनी,

हितकारी   दो  धार   रहा   है।


'शुभम'उठ खड़ा हो कटि कस ले,

तू   जगती   का   प्यार    रहा है।


🪴 शुभमस्तु !


२०.०६.२०२१◆२.००आरोहणम मार्तण्डस्य।

माँ 🏕️ [ मुक्तक ]


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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                      -1-

मेरे अस्तित्व का हर कण तुम्हारा है,

तुम्हीं कारण तुम्हीं से तन हमारा है,

मेरे मन में सदा जागृत जीवंत हे माँ!

तुम्हीं ने मेरे संस्कारों को सँवारा है।

  

                        -2-

माँ  का  दूध  ही है रक्त  मम तन का,

माँ का  वजूद    सर्वस्व   मम मन का,

माँ हो तुम्हीं मम भाव कल्पना वाणी,

माँ हो तुम्हीं सर्वोच्च इस तन कन का।


                        -3-

जीवंत  स्नेह   का रूप मेरी जननि माँ है,

सदा  ही  निवारे  कष्ट  वही मेरी  माँ  है,

सोते  जागते  सदा  साक्षात आँखों   में,

जीवन का दृढ़ कवच एक वह मेरी माँ है।


                          -4-

पिता अगर  आकाश धरा है मेरी  माता,

व्यापक पिता महान धैर्य है जननी माता,

माँ की तुलना नहीं किसी से भी हो पाती,

मैं  शिशु हूँ नादान स्नेह- आँचल है माता।


                          -5-

संस्कार  शिक्षा   की   पहली गुरु  माता  है,

होती संतति सुखी जननि को जो ध्याता है,

माँ  की  समता में न टिका है कोई  भू  पर,

सुत 'शुभम' का  अपनी माँ से ये  नाता  है।


🪴 शुभमस्तु !


१७.०६.२०२१◆१०.३०आरोहणम मार्तण्डस्य।

एक हिमालय एक तिरंगा🇮🇳 [ गीत ]


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✍️ शब्दकार ©

🇮🇳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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तार -  तार   भारत   माता के,

वसन  फटे  हैं  बिखरे   बाल।

आँखों  पर  संतति पट  बाँधे,

देखो  ये   माता    के  लाल।।


एक  हिमालय   एक  तिरंगा,

एक    मात्र    पावन    गंगा।

क्लीव हो गया  मानव  कैसे,

जिसे  देख   लो   है   नंगा।।

ढोंग  दिखाता  केसरिया का,

वृथा ठोंकता  है  नर  ताल।।

तार -  तार  भारत  माता के,

वसन  फ़टे  हैं बिखरे  बाल।।


वीरों का  इतिहास थाम कर,

उसको  शर्म     नहीं   आती।

संभा जी   रणवीर  शिवा जी,

की  करनी  क्या सिखलाती।।

ऋषियों का वंशज कहलाता,

आँसू  रोते भर -  भर गाल।।

तार - तार  भारत    माता के,

वसन  फ़टे हैं  बिखरे  बाल।।


केरल का  क्या  हाल हुआ है,

देख - जान  कुछ   सोचा   है?

टाँगों  में जो   हरा -  हरा   है,

जटिल  बड़ा  ही  लोचा  है।।

नेता   को  बस  वोट  चाहिए,

जड़ें  खोदता    तेरा   काल।

तार - तार   भारत  माता  के,

वसन फ़टे  हैं  बिखरे  बाल।।


आग लगी   बंगाल  धरा  पर,

नयन   बंद   कर   बैठे    हो !

चीत्कार  सुन कर  भी  बहरे,

राजनीति -  गृह   पैठे    हो!!

कहाँ गई   सब   ऐंठ हेकड़ी,

मंद पड़   गई   तेरी    चाल।

तार  -  तार  भारत  माता के,

वसन  फ़टे  हैं  बिखरे  बाल।।


भुना  रहे  अतीत   का  गौरव,

नाम   बेच  कर    खाते    हो !

सत्ता  पद हासिल   करने को,

जनता   को    भरमाते   हो !!

जुबां  काट  लेते  हो  सत की,

दिखलाता  जो सच्चा   हाल।

तार -  तार   भारत   माता के,

वसन  फ़टे हैं   बिखरे  बाल।।


क्रीत  मीडिया   टी.वी. चैनल,

खबरें छाप    रहे    अखबार।

वे तव   इच्छा   के   गुलाम हैं,

रहते   हैं जो   अश्व -  सवार।।

जनता तड़प रही मछली-सी,

छ्द्म  आँकड़ों के सब जाल।।

तार -  तार   भारत माता के,

वसन फ़टे  हैं  बिखरे  बाल।।


शुभ का श्रेय शीश निज बाँधा

कुत्सित   कर्म    पराए  नाम।

अपनी पीठ   आप   ही ठोंकें,

करते  औरों   को   बदनाम।।

'शुभम'  युगों  से जो पाया है,

वह सब अपने  नाम बहाल।।

तार -  तार  भारत   माता के,

वसन   फ़टे  हैं  बिखरे बाल।।


🪴 शुभमस्तु !


१२.०६.२०२१◆५.४५पत नम  मार्तण्डस्य।


🏔️🇮🇳🏔️🇮🇳🏔️🇮🇳🏔️🇮🇳🏔️

ग़ज़ल 🪴


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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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देश    मेरा    सो    रहा   है।

देख  लो क्या   हो  रहा है!!


कौन    कहता   है   तिरंगा,

तीन  टुकड़े    हो    रहा  है।


रँग   हरा    बद  रूप   नीचे,

अब   तिरंगा   रो   रहा   है।


सोया  हुआ   हिंदू  न जागा,

बीज   खंडित   बो  रहा  हैं।


 मर  रहा   है 'वर्ण'  में   रँग,

अस्मिता निज  खो  रहा है।


रंग    केसरिया    न   बाकी,

रस्म    कोरी    ढो   रहा  है।


सुन 'शुभम'  भावी भयानक,

अश्क   से  मुख  धो रहा  है।


🪴 शुभमस्तु !


१२.०६.२०२१◆४.४५ पतनम मार्तण्डस्य।


देखो बादल बरस रहे हैं ⛈️ [ बालगीत ]


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✍️ शब्दकार ©

🌳 डॉ भगवत स्वरूप 'शुभम'

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देखो   बादल   बरस  रहे  हैं।

पेड़,  लताएँ   सरस  रहे  हैं।।


ठंडी  हवा   साथ    में  लाए।

बरस रहे मन को अति भाए।।

गड़-गड़ कर वे  गरज  रहे हैं।

देखो   बादल  बरस  रहे  हैं।।


पौधे  झूम - झूम  कर  नाचें।

ज्यों ग्रंथों  के  पन्ने     बाँचें।।

सभी  परस्पर  परस   रहे हैं।

देखो  बादल  बरस   रहे हैं।।


तड़तड़ करके बिजली चमके।

चाँद न सूरज भी अब दमके।।

नहीं  बाग- वन  तरस  रहे हैं।

देखो    बादल  बरस  रहे हैं।।


श्वान,कीर ,पशु ,खुशी मनाते।

सब किसान मन में हरसाते।।

हल-बैलों सँग निकल रहे हैं।

देखो  बादल  बरस  रहे  हैं।।


बूँद - बूँद   भू   पीती  पानी।

पहने  नारी   साड़ी  धानी।।

गर्मी  के फ़ल विरस रहे हैं।

देखो  बादल  बरस  रहे हैं।।


🪴 शुभमस्तु !


१२.०६.२०२१◆४.३० पतनम मार्तण्डस्य।

वर्षा ऋतु है आने वाली 🌧️ [ बालगीत ]


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✍️ शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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वर्षा  ऋतु   है   आने   वाली।

छाएगी     सुंदर    हरियाली।।


देखो  उमड़   रहे   हैं  बादल।

साथ  घूमते  उनके दल बल।।

घटा  छा रही  नभ  में काली।

वर्षा  ऋतु  है  आने   वाली।।


लू - लपटें  अब  बंद  हो गईं।

तपन  भानु  की मंद सो गईं।।

हवा  बह रही  शांत निराली।

वर्षा  ऋतु  है  आने  वाली।।


पके  आम  बगिया में टपके।

आँधी  आई हम सब लपके।।

दौड़  लगाते   बजती  ताली।

वर्षा  ऋतु  है  आने  वाली।।


उधर कूकती कोकिल प्यारी।

मधुर सुरीली  बोली  न्यारी।।

नहीं किसी  को  देती गाली।

वर्षा ऋतु  है   आने  वाली।।


भर   गर्मी  से धरती प्यासी।

छाई उस पर सघन उदासी।।

झूम  उठेगी   डाली - डाली।

वर्षा ऋतु है   आने   वाली।।


 🪴शुभमस्तु !


१२.०६.२०२१◆३.४५ पतनम मार्तण्डस्य।

कैसे गीत सुनाएँ! 🎋 [ गीत ]


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✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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मानवता   का  मातम  छाया ,

कैसे   गीत     सुनाएँ     हम।

मानव  रक्त  पिए मानव का,

घर -आँगन  में   काला  तम।।


भगवानों   की   पगड़ी   धारे,

चूस   रहे    नर   को   हैवान।

अस्पताल  के   नर्स , डाक्टर,

गुरदे   बेच     रहे     शैतान।।

हवस कनक धन भरने की है,

चहुँ दिशि बढ़ा   हुआ है गम।

मानवता  का  मातम  छाया,

कैसे  गीत     सुनाएँ    हम।।


बाहर  से  वे  दिखते  मानव,

पर   भीतर   दानव    काले।

फँसा शिकंजे में   इंसाँ  को,

मुँह पर श्वेत   मास्क  डालें।।

दिन भर छुरे गलों  पर फेरें,

ठोक  रहे  वे    अपने  खम।

मानवता  का मातम छाया,

कैसे  गीत    सुनाएँ    हम।।


निर्धन  प्राण     बचाए   कैसे,

धनाभाव     आड़े       आए।

निर्ममता  की  हदें   तोड़कर,

दानव   सभी    खड़े   पाए।।

प्राणवायु  को   रोक   मारते,

रोगी  सब   हो   जाएँ  कम।

मानवता का   मातम  छाया,

कैसे    गीत  सुनाएँ    हम।।


श्मशानों  में    लगीं   कतारें,

घर - घर  आँगन   हाहाकार।

नेता  और  प्रशासन    बहरे,

क्या करले चौकस सरकार।।

संजीवनी   कहाँ   से   लाएँ,

निकल  गया  है   सारा दम।

मानवता  का मातम  छाया,

कैसे  गीत    सुनाएँ    हम।।


देशद्रोह   की  सजा  एक ही,

मृत्युदंड      इनको      देना।

नेता ,अधिकारी    या   कोई,

नहीं क्षमा का   शम   लेना।।

अय्यासी   में  जो  निमग्न हैं,

उनका जाए  कभी    न तम।

मानवता  का मातम  छाया,

कैसे  गीत    सुनाएँ    हम।।


सबको  जल्दी   मची   हुई है,

शव  पर  लात   लगा   बढ़ते।

सीढ़ी  बना   आदमी  की  वे,

ऊपर   की   मंजिल   चढ़ते।।

नारी  स्वयं सौंपकर  निजता,

नृत्य , गीत  में रम पम- पम।

मानवता  का   मातम  छाया,

कैसे   गीत     सुनाएँ    हम।।


मानव को अब पशु कहना भी

पशुओं  का   भारी  अपमान। 

हत्या ,    लूट,   चरित्रहीनता, 

के नारी -  नर अब के खान।।

'शुभमआज किस गुण से मानव,

बना   हुआ   नित   एटम - बम।

मानवता  का  मातम छाया,

कैसे   गीत    सुनाएँ   हम।।


🪴 शुभमस्तु !


११.०६.२०२१◆१२.३०पतनम मार्तण्डस्य।

तेरी राह निहारूँ❤️ [ मुक्तक ]


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✍️ शब्दकार ©

❤️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                   -1-

प्रियतम   तेरी   राह   निहारूँ,

पलक -युगल से नित्य बुहारूँ,

नयन  थके  मम   तकते  राहें,

पर न कभी  साहस  मैं  हारूँ।


                 -2-

दिवस   न चैन  रैन नहिं निंदिया,

भावे  नेंक  न  काजर ,  बिंदिया,

तुम प्रियतम  शृंगार  'शुभम' हो,

चीर  देह    के     मेरे   चिंदिया।


                 -3-

सखी    हमारी    झूला   झूलें,

हम कैसे   निज   प्रीतम  भूलें,

आकर प्रिय तुम पींग बढ़ाओ,

मन ही मन हम प्रमुदित फूलें।


                 -4-

सावन   आया    पड़ी   फुहारें,

वन - उपवन   में   हरी   बहारें,

काम    सताए   आग   लगाए,

तन-मन धधक-धधककर जारें।


                 -5-

प्रियतम - तन  की गंध सुहावे,

सुमन-सुगंध न मन  को भावे,

स्वेद  तुम्हारा   मुझको अमृत,

प्रियाविरहिणी निशिदिन गावे


                 -6-

श्याम   पुकारे   राधा  - राधा,

नेह - मिलन  में  कैसी  बाधा,

वंशी  टेर     मचाए     प्यारी,

योग-मिलन का कान्हा साधा


                  -7-

तुमको प्रणय   पुकार  रहा है,

वर्षों   बीते    बहुत    सहा है,

आकर दो  दर्शन प्रिय साजन,

नयन -  कोर   से नीर बहा है।


🪴 शुभमस्तु !


११.०६.२०२१◆१०.००आरोहणम मार्तण्डस्य।

पुष्प 🌹🌹 [ मुक्तक ]


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✍️ शब्दकार ©

🌹 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                     -1-

मैं  जगत-हित  के लिए खिलता रहा,

शाख   पर  बहुरंग   में  हिलता रहा,

पुष्प हूँ अपनी महक जग में बिखेरूँ,

बाग, वन   में मैं  सदा  मिलता  रहा।। 

     

                     -2-

कसमसाती  हरित  घूँघट  में कली   है,

मुस्कराती   पुष्प  में     कैसी ढली   है,

देखकर   भँवरे   तितलियाँ छा    गए,

'शुभम' नयनों  में लगे कितनी भली  है ।


                        -3-

रमणियों   के  केश  का गजरा बना मैं,

कंचुकी   पर   हार    लहराता तना   मैं,

पुष्प  मैं वीरों  के  सिर   पर सोहता  हूँ,

देशभक्तों    के   हृदय  होता घना    मैं।


                       -4-

पुष्प , नीबू, आम   के  फ़ल के लिए  हैं,

संतरा ,जामुन   सकल कल के  लिए हैं,

जूही , बेला,  कुंद,  गेंदा  की महक   से,

'शुभम' जो  मदहोश जो प्याले  पिए  हैं।


                        -5-

देव - देवी  शीश   पर  नव पुष्प  चढ़ते,

कर  सुगंधें  पान   वे  हैं   प्रमन  बढ़ते,

खिलती  कली  उर  की  सुमन स्पर्श से,

पुष्प  बद-आरोप   पर  सिर  न   चढ़ते।


🪴 शुभमस्तु !


१०.०६.२०२१◆११.४५ आरोहणम मार्तण्डस्य।

शब्द 🔔 [अतुकान्तिका]

 

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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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शब्द ब्रह्म है,

शब्द से सृष्टि का

 सृजन है,

समाया है शब्द में काल,

शब्द ही अमृत  सदा है

शब्द विष भी  रहा है।


शब्द से ही प्रेम

नेह, ममता,प्रणय,

शब्द ही क्रोध, 

घृणा का निलय,

शब्द ही स्वर्ग

औऱ नर्क भी वही।


शब्द है संगीत,राग

कविता ,

मधुर सुर ताल,

वही अम्बर और सविता,

नारी का नृत्य भी

शब्दों पर मचलता।


हमारे वेद,उपनिषद ,पुराण

गीता ,रामायण, बहु ग्रन्थ,

शब्द से पूरित अंबर, सागर,

धरती,पंच महाभूत,

सब कुछ शब्द से ही अनुस्यूत।


तोल- तोल कर बोल,

शब्द है अनमोल,

शब्द की महिमा अपार,

शब्द सृष्टि का आधार,

विविध प्रकार,

'शुभम' के शब्द-उद्गार

प्रयास यही कि

रहें उदार, 

नमन हर शब्द को

जो दिया माँ सरस्वती ने,

रचा गया छंद में

अथवा मुक्त,

शब्दों में रहता 

सदा अनुरक्त,

 वही करता रचना में व्यक्त।


 🪴 शुभमस्तु!


०८.०६.२०२१◆८.५५आरोहणम मार्तण्डस्य।


शब्दाधृत सृजन 🎨 [ दोहा ]

 

           (धरती,हरियाली,पर्यावरण,कोरोना,कहर)     

           

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✍️ शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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धरती   हमको   धारती,  मौन धीर    भंडार।

उऋण नहीं होना कभी, बनें न वसुधा-भार।।


धरती  माता  पूज्य  है, आजीवन  हे  मीत।

कष्ट न दे माँ को कभी,बनें न जन विपरीत।


सघन लताएँ कुंज द्रुम, हरियाली के धाम।

देते  वर्षा   मेघ  वे,  शीतल छाया,  घाम।।


नयनों को सुखकर सदा, हरियाली हर वार।

पौधे  रोपें  भूमि   पर,करना नहीं  विचार।।


मन  का  पर्यावरण  भी,पहले कर लें शुद्ध।

ज्ञान तभी बाँटें  यहाँ, बनकर मीत प्रबुद्घ।।


सुधरे पर्यावरण क्यों, जब उर ही  है चोर।

पंच तत्त्व दूषित किए, कैसे हो शुभ भोर।।


कोरोना  के कहर का ,मानव कारण  मूल।

निज  अंतर  देखा  नहीं,देता बाहर  तूल।।


कोरोना  चेतावनी, मनुज-परीक्षा-काल।

पावनता ही रोग की ,एक सुदृढ़ है ढाल।।


कहर-कहर क्यों कह रहा,पहले भीतर झाँक

भीतर जो मैला भरा,उसको तो  नर  आँक।।


आती  हैं  बहु आपदा,कारण मानव  जात।

तूफानों  में  हो  रही, कहरों की  बरसात।।


आओ   धरती   में  भरें हरियाली  भरपूर।

सुधरे  पर्यावरण   भी,क्रूर कहर   हो   दूर।।


🪴 शुभमस्तु  !


०७.०६.२०२१◆९.३० आरोहणम मार्तण्डस्य।

रविवार, 6 जून 2021

दो रोपे दो सौ कटे 🌳🌳 [ दोहा। ]


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✍️ शब्दकार ©

🌳 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

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कागज़   पर   पौधे  लगे,भरे पड़े  अख़बार।

धरती  बंजर   रो  रही, सूखी आँसू  धार।।


पौधा  कर में थामकर,लेकर विशद   जुलूस।

पौधारोपण को चले,रक्त मनुज  का  चूस।।


आँख   मारते   कैमरे,   देख अधर मुस्कान।

सेवक   गड्ढे   खोदते,  नेताजी की    शान।


पौधा   कर  में  सोहता, लगे न माटी  धूल।

नेताजी  बचते फिरें,न हो परस  की  भूल।।


फ़ोटो  में  मुस्का   रहे, ख़बर छपी अख़बार।

पेड़  लगाया  एक ही, सौ का किया प्रचार।।


चमचा  स्तुति  कर   रहे, चमची गाएँ  गीत।

पुष्पहार  गल   सोहते, नेता धरम -  पुनीत।।


बंजर  ऊसर  शेष  क्यों,रहते भू   पर  आज।

पौध  प्रेम  से  रोपते,लोग  आँकड़े - बाज।।


पाँच  जून  को रोप तरु,आया लौट न  एक।

देख - भाल  पानी  नहीं, लोग बड़े  हैं  नेक।।


पनप  सके  होते अगर, आरोपण  के  पेड़।

वर्ष - वर्ष  क्यों रेंकती, मेला -नाटक भेड़।।


जंगल  सब  प्रभु ने दिए,मानव लेता काट।

फ़र्नीचर ईंधन बना,लगी विनाशक - चाट।।


दो  रोपे  दो सौ   कटे,सूखा पड़ा  अकाल।

'शुभम'शून्य में ताकता,फूटा मानव -भाल।।


🪴 शुभमस्तु !


०५जून २०२१◆११.३० आरोहणम मार्तण्डस्य।

नाटक 🌱🌱 [ अतुकान्तिका ]

 

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✍️ शब्दकार©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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चलो कर ही लें

फ़िर एक बार

पौधे लगाने का नाटक,

खोल ही डालें अपने

उच्च ज्ञान के फाटक,

भूलकर सब कुछ

करें बस पर्यावरण पर त्राटक।


हाथ में ले लें

हरा यूकेलिप्टस ,शीशम

या पीपल का हरा -हरा पौधा,

जैसे रण क्षेत्र में स्टेनगन

लिए कंधे पर 

खड़ा हो एक योद्धा।


खोद रहे हैं मजदूर

बड़े -छोटे कुछ गड्ढे,

खड़े हैं पास में कुछ

जवान, बच्चे कुछ बुड्ढे,

मुस्कराते हुए 

रख रहे हैं गड्ढे में 

पारिजात का एक पौधा,

पर हमने उन्हें 

कैमरे की ओर मुस्कराते

बड़े धैर्य से देखा,

इतने में इशारा हुआ

पानी लाओ,

नाज़ुक है ये पेड़

धीरे-धीरे से गिराओ,

नौकर पानी गिरा रहा है,

नेता नज़र उठाए 

मुस्करा रहा है,

पौधे की ओर भला 

देखे भी कौन!

अगले दिन पानी 

लगाने के नाम पर

रह गए सब मौन।


पौधे लगा दिए गए,

रस्म अदायगी हो गई

पौधारोपण की,

मना लिया गया

पर्यावरण दिवस।


उसके बाद 

कितने जून पाँच,

कहते हुए

 नाटक का साँच,

निकलते गए,

 अब  वहाँ  न

पौधे थे  न गड्ढे।


काश यदि पौधे

पनप गए होते,

तो पर्यावरण प्रेमी

रह जाते सभी रोते-रोते,

पुनः अगले वर्ष 

नाटक कैसे  होता?

बनाना था जंगल,

किन्तु जंगल का

ऊसर कैसे होता!

घड़ियाली आँसुओं से

नेता जी क्यों रोता?

अपने कुर्ते की

सफ़ेद आस्तीन को

नेत्राम्बु से क्यों भिगोता!



🪴 शुभमस्तु !


०४.०६.२०२१◆१२.४५पतनम मार्तण्डस्य।

धरती का आँचल 🌳 [ अतुकान्तिका ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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धरती का पावन आँचल

हरियाली से भरा-भरा,

पादप कुंज लताओं का

साम्राज्य सदा से है गहरा।


थल ही नहीं

सिंधु, पर्वत पर

तरह -तरह के वृक्ष प्रमन,

बढ़ा रहे सौंदर्य अहर्निश

खिलते पल्लव और सुमन,

प्रभु की कितनी सोच गहन।


पर्वत झरते

बहती नदियाँ

सागर प्रियतम की ही ओर,

चहकी चिड़ियाँ

कोयल ,मुर्गे रंग बिरंगे

पंक्षी रंगीं कपोत, मोर,

नदियों का कलरव 

लगता प्रिय कानों को

मत कहना शोर।


हंस,काग, गौरैया ,

नभ में उड़ते कितने कीर,

तोता, बुलबुल, श्यामा

है कितना अभिराम दृश्य,

 अघाते नहीं नयन ,

अजब  है

 पंचभूतमय सृजन,

शब्दों में है वर्णन

 पूर्ण असंभव,

कर्ता का यह अद्भुत खेल।


आते - जाते मौसम

ऋतुओं का अविरल चक्र

हजारों रंग हजारों फूल,

करीलों की झाड़ी में

टेंटी फ़ल के संग 

अपत्री शूल,

कहीं रज, बालू,

पाहन, गेरू, खड़िया

मरमर, झीलें, पोखर,

ताल, सृष्टि बेमिसाल।


कर्ता का शृंगार,

मानव को उपहार,

उजागर  शुभ आभार,

नमन करता है 'शुभम'

तुम्हें प्रभु बारंबार।


🪴 शुभमस्तु !


०३.०६.२०२१◆७.००पतनम मार्तण्डस्य।

प्रणय 💖 [मुक्तक]

  

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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                  -1-

प्रणय  से  हम  तुम  जुड़े हैं,

एक पल  भी  कब   मुड़े  हैं,

सृजन का  चुम्बक  प्रणय ये,

शून्य   के  नभ  में   उड़े   हैं।


                   -2-

तुम  प्रणय   की  रागिनी  हो,

श्रेय  की   प्रिय  भागिनी  हो,

शून्य  था  उर   बिन   तुम्हारे,

ओज   की   सौदामिनी   हो।


                   -3-

जब    प्रणय   में  साथ   होते,

जागते   हैं     हम   न    सोते,

इतर   लोकों   में भ्रमण  कर,

नव   सृजन   के   बीज  बोते।


                   -4-

तन,   हृदय   की   साधना  है,

प्रणय   भी     आराधना     है,

प्रणय    से   ही  नारि-  नर हैं,

सृजन  की  शुभ   भावना  है।


                   -5-

दृष्टियाँ     जब     चार  होतीं,

प्रणय   का    संचार     होतीं,

प्राण  दो   मिल   एक    होते,

दो    गले    का  हार    होतीं।


                     -6-

प्रणय    गूँगा     मौन    होता,

शब्द भी   फिर   कौन  होता?

बोलता  होता    प्रणय     जो,

लग  न   पाता    गहन  गोता।


                     -7-

प्रणय  है  तो   पास   भी  आ,

लाज   से   तू    दूर   मत  जा,

पलक   दो   झुकने  लगीं तव,

है  'शुभम'  ये   प्रणय -आभा।


🏕️ शुभमस्तु !


०३.०६.२०२१◆९.३० आरोहणम मार्तण्डस्य।

मंगलवार, 1 जून 2021

अजगर काम न करने जाता 🥨 [ बालगीत ]


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✍️ शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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अजगर  काम न करने जाता।

पड़ा-पड़ा  धरती पर खाता।।


बिना काम  तन मोटा  होता।

खरहे ,चूहे   खाकर   सोता।।

सरक-सरक थोड़ा बढ़ पाता।

अजगर काम न करने जाता।।


सभी   जानते  अजगर भारी।

मोटा   हो    जाना   बीमारी।।

आलसियों से किसका नाता!

अज़गर काम न करने जाता।।


बड़ी  देह   दिमाग़  है  छोटा।

कर्म करे तो   करता  खोटा।।

जैसा   अज़गर   वैसी  माता।

अज़गर काम न करने जाता।।


देख देह   भय   से  डर जाते।

कदम न पास कभी फटकाते।

रूप नहीं अज़गर   का भाता।

अज़गर काम न करने जाता।।


श्रमकर्ता हम सब बन जाएँ।

मानव तन को नहीं लजाएँ।।

'शुभम'जोड़ श्रम से नित नाता।

अज़गर काम न करने जाता।।


🪴शुभमस्तु !


०१.०६.२०२१◆२.०० पतनम मार्तण्डस्य।

बढ़ा रहा पापों की गठरी 🥭 [ गीत ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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बढ़ा  रहा  पापों   की   गठरी,

कहता  पुण्य    कमाता     है।

अखबारों    में   ख़बरें   देखो,

फ़ोटो     भी     छपवाता  है।।


रक्तदान   का   बने   वीडियो,

रक्त    चूसता      परदे      में।

जाड़ों   में   कंबल   बँटवाता,

केले   बँटें      मदरसे      में।।

सड़क किनारे कोढ़ी के  सँग,

छायाचित्र     खिंचाता     है।

बढ़ा  रहा  पापों  की  गठरी,

कहता  पुण्य    कमाता   है।।


सेवक का शोषण नित करता,

नहीं   समय    से   दे   वेतन।

दृष्टि   बुरी   घर  की  बाई पर,

लेश  नहीं   उर   में    चेतन।।

आँख बचाए  निज पत्नी की,

अधोवस्त्र    दिलवाता       है।

बढ़ा  रहा   पापों   की  गठरी,

कहता  पुण्य     कमाता   है।।


धूल झोंक चख दुग्ध -पात्र में,

देखो   भैंस      दुही    जाती।

शुद्ध दूध  की  कपट-कहानी,

रंग  एक   दिन   दिखलाती।।

पानी   से   जो  दाम कमाया,

पानी  -  सा    बह   जाता है।

बढ़ा रहा   पापों  की   गठरी,

कहता   पुण्य   कमाता   है।।


गर्दभ - लीद मिली धनिए में,

धनिया   ही   कहलाती    है।

हल्दी,मिर्च, मसालों  में  जब,

सब कलई   खुल   जाती है।।

खोवा में   मैदा ,रिफाइंड का,

मेल   नहीं   छिप   पाता   है।

बढ़ा   रहा   पापों  की गठरी,

कहता  पुण्य   कमाता    है।।


जिसको जग भगवान मानता,

बना   कसाई     काट     रहा।

ब्लैकमेल   कर   लूट   मचाई,

रक्त   मनुज   का  चाट रहा।।

नर्स,चिकित्सक वस्त्र बगबगे,

पल भर    नहीं    लजाता  है।

बढ़ा   रहा   पापों  की गठरी ,

कहता    पुण्य   कमाता   है।।


मृत मानव का कफ़न खींच कर,

दूकानों   पर       बेच     रहा।

देख मृतक के परिजन -आँसू,

नहीं  पिघल तव हृदय  बहा!!

ऐम्बुलेंस का   चालक  कपटी,

प्राणवायु        हटवाता     है।

बढ़ा  रहा   पापों  की गठरी ,

कहता  पुण्य    कमाता   है।।


मान आपदा को शुभ अवसर,

नर- पिशाच  नर  बना यहाँ।

रक्त,माँस, धन हज़म कर रहा

सत्य, शिवम अब शेष कहाँ?

'शुभम'आदमी का अरि नर ही

शव  पर   सेज   सजाता   है।

बढ़ा  रहा   पापों   की  गठरी,

कहता   पुण्य   कमाता   है।।


🪴 शुभमस्तु !


०१.०६.२०२१◆१.००पत नम मार्तण्डस्य।

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...