रविवार, 31 अक्तूबर 2021

धन वर्षा :अमृत वर्षा 💰 [ व्यंग्य ]

 


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 ✍️ व्यंग्यकार © 

 💰 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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 बचपन से लेकर अभी तक यह सुनता आ रहा हूँ कि दीपावली धन की देवी :लक्ष्मी जी का त्यौहार है।ज्यों- ज्यों बड़ा(आयु से ,बुद्धि से नहीं) होता गया , त्यों - त्यों यह अनुभव किया कि आदमी की धन के प्रति लालसा निरंतर बढ़ती ही चली जा रही है।धन के लालच औऱ तृष्णा के विरुद्ध उपदेश करते- करते कितने ही आशाराम औऱ राम रहीम जैसे 'महान संत'  जन कारागार में (चैन की या बेचैन की) वंशी बजाते हुए वहाँ की शोभा में चार नहीं चौदह चाँद लगा रहे हैं, यह अभी शोध का विषय है।परंतु उन्होंने अपनी सभी सुंदरी शिष्याओं,कुमारियों ,बालाओं, और उनके माता- पिताओं को यही 'सदुपदेश' दिया कि धन का त्याग करो और धन से विरक्त हो जाओ। जितना भी धन है ,हमें दे जाओ। सुखी रहोगे। परिणाम यह हुआ कि आश्रमों में अपार धन वर्षा होने लगी।और उधर उनकी बारहों मास ,365 दिन, चौबीसों घण्टे घनघोर दीवाली मनने लगी ।बाबाजी की दीवाली मनवाने के चक्कर में बहुत से भक्तों के दीवाले निकल गए। 

 यह भी सुना और पढ़ा गया है कि मानव के लिए धर्म ,अर्थ ,काम औऱ मोक्ष ; ये चार ही पुरुषार्थ हैं। परंतु इनमें से सर्वाधिक शक्तिशाली पुरुषार्थ अर्थ अर्थात धन ही है। यदि धन है तो जीवन है, काम भी है।जीवन है तो धर्म है , और मोक्ष तो बेचारा जीते जी किसी ने देखा नहीं है।अब शेष तीन ही रह जाते हैं, जिनकी जड़ें धन की धरती में समाई हुई हैं।धन ही जीवन जीने का प्रमुख आधार भी है।आदर्श वादी संत जन और उपदेशक मन से तो धन ही चाहते हैं ,किंतु दिखावे के लिए धन का विरोध करते हुए देखे जाते हैं। पूजा,पाठ, ग्रंथ,भेंट, फूल, फ़ल, माला ,धूप ,अगरबत्ती आदि सब धन से ही प्राप्त हो पाते हैं। मन की कौन जाने।वह भी मोक्ष की तरह किसी ने देखा नहीं है। इसलिए मन में धन की कामना पालकर भी आप धार्मिक बने रह सकते हैं। धन के प्रति पूर्ण एकाग्रता औऱ समर्पण ही उसे समाज में मुँह दिखाने योग्य रख पाता है। निर्धन को भला पूछता भी कौन है ? 


 सुना है कि लक्ष्मी काली भी होती है।काले कारनामों से काली औऱ गोरे कामों से गोरी लक्ष्मी आती है। पर आज के आदमी को इससे कोई भी लेना -देना नहीं है कि लक्ष्मी का रंग काला है ,गोरा है अथवा लाल है। उसे जिस किसी भी प्रकार से मिले जिस रंग कि भी मिले , लक्ष्मी ही चाहिए। यों तो लक्ष्मी अर्थात धन वर्षा  के अनेक प्रकार के रंग-बिरंगे बादल हैं ,जहाँ से धन - वर्षा हो जाती है। हो ही रही है। जैसे: चोरी ,डकैती,अपहरण,ग़बन ,राहजनी, लूट, मिलावट खोरी,रिश्वत ,कमीशनखोरी, आदि अनेक स्रोत हैं। सड़क,पुल,भवन निर्माण आदि में सीमेंट की जगह बालू से भी लक्ष्मी वर्षा हो सकती है। किंतु ऐसा धन - अमृत कब विष तुल्य बन जायेगा, कहा नहीं जा सकता और वह दुर्घटना, बीमारी, अस्पताल, डॉक्टर, दवाओं की मोरी से निचुड़ जायेगा ,पता नहीं चलेगा !

 लक्ष्मी अर्थात धन की सवारी उल्लू कहलाता है। कहने का अर्थ यह है कि जिसमें जितना अधिक उल्लूपन है , उतना ही बड़ा धन वर्षा का अधिकारी है। कलयुग में धन ही अमृत है। इसलिए इसे अमृत वर्षा भी कह सकते हैं।जब आदमी को अमृत ही मिल गया , फिर तो वह अमर हो गया। पर क्या कीजिए : 

 अमर सिंह तो मर गया,लक्ष्मी माँगे भीख। 

 उपदेशों से ज्ञान ले,मान बड़ों की सीख।।

 ज्ञानी महा पुरुषों से यह भी सुना गया है कि 'जब आवे संतोष-धन सब धन धूरि समान।' इससे यही लगता है।कि सोने - चाँदी के धन के अलावा भी कुछ और भी धन के प्रकार हुआ करते हैं। पर ऐसे कितने महापुरुष/महानारियाँ हैं ,जिन्हें किसी अन्य प्रकार की धन - वर्षा से तृप्ति होती हो।संतोष भी भला कोई धन है ! यह तो बे-दाँत वालों का हलुआ  , जब काला ,पीला ,सफेद नहीं ,तो इससे से काम चलायें। अरे भला ! सन्तोष से किसके पेट का गड्ढा भरा है ? सबको अपने घर में धन की अपार वर्षा चाहिए ही। चाहे उसके कर्म भले ही कितने पातालदर्शी हों। 

 बिना पसीना बहाए , बिना दिमाग लगाए, सबको धन की वर्षा चाहिए। इतना सुनते ही एक बोल पड़ा : 'क्या चोर ,मिलावटखोर, रिश्वतखोर ,राहजन, गबनकर्ता ,लुटेरे, डाकू :इन सबको दिमाग नहीं लगाना पड़ता ? जरूर लगाना पड़ता है । ' बीच में उसकी बात कब प्रतिवाद करते हुए मैंने पूछा: ' किंतु किसी की आत्मा पर छुरी चलाकर । यदि इससे ही तुम्हारी आत्मा प्रसन्न रहती है ,तो ऐसी लक्ष्मी क्या परिणाम देगी।भविष्य ही बताएगा।' बेचारे के पास इसका कोई उत्तर नहीं था। प्रायः लोग ऐसी ही धन लक्ष्मी की वर्षा की चाहत में जीते-मरते हैं। लक्ष्मी का वाहन उल्लू जो है !

 🪴 शुभमस्तु ! 

३१.१०.२०२१  ७.३० पतनम मार्तण्डस्य.


शनिवार, 30 अक्तूबर 2021

गीतिका 🪔


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✍️ शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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सबकी  नहीं      दिवाली   है।

हाथ न   पैसा    गाली     है।।


पौधे    कुछ     हैं      मुरझाए,

सूख   रही    हर   डाली    है।


रोज    सींचता     पौधों   को,

वही  बाग़   का    माली    है।


पर  धन   पर   जो   इतराता,

बजा   रहा   नित    ताली  है।


भरा    प्रदूषण  यहाँ -   वहाँ,

जलती   जहाँ    पराली    है।


महलों    में     बरसे    सोना,

अँधियारी   में      चाली    है।


ज्योति - पर्व  में    क्या  खाएँ,

जिनकी   थाली   खाली    है!


सूनी    चाकों     की     बस्ती,

हर    दीवाली    काली      है।


'शुभम'  विदेशी    दिये   जले,

उनकी     बात   निराली    है!


🪴 शुभमस्तु !


३०.१०.२०२१◆६.३० 

पतनम मार्तण्डस्य।


गीतिका 🍀

  

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✍️ शब्दकार ©

🐒 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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देश     कौन    पहचाना    है।

भारत     माता     माना   है।।


साड़ी     खींच    रहा    कोई,

रूपसि    का      दीवाना   है।


लूट      मचाता      है    नेता ,

वह    तो    घाघ    पुराना  है।


धन    के     लालच   में  डूबा,

समझा     लूट - खजाना   है।


देशभक्ति      का    नारा   ही,

उसका     छद्म     तराना   है।


बाहर   लकदक   बगुला - सा,

भीतर      काला     बाना   है।


आदर्षों      की     बात    करे,

स्वयं   राम   बन    जाना   है।


बनते   मिट्ठू    मियाँ    सभी,

किंतु   ग़ज़ब    ही  ढाना   है।


अति - रावण  हर  गली बसे,

रावण  उन्हें     जलाना    है।


🪴 शुभमस्तु !


३०.१०.२०२१◆ ६.००

पतनम मार्तण्डस्य।

चारों ओर गुलेल 🎣 [दोहा - गीतिका ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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मँहगाई  की  मार  से,निकल रहा  है  तेल।

दीवाली  कैसे  मने, जले  दियों की   रेल।।


अंधे  नेता-भक्त  जो,खुले न जिनके  नेत्र,

मरता देख गरीब को, समझ रहे  हैं  खेल।


राजनीति  के  पंक से,  उगता पंकज   लाल,

जनता - नेता का कभी,नहीं हो  सका  मेल।


पेटरॉल  के  दाम  से,  पेट  कर  रहा   रॉल,

बोझिल  डीजल की दरें, गाड़ी बनी ढकेल।


भाषण  में   रस  घोलते, नेता बड़े   महान,

मरते नित्य किसान क्यों, मँहगाई को झेल।


हाँ जू! हाँ जू!! जो करे,वही देश  का  भक्त,

वचन  सचाई  के कहे,दिया जेल  में   ठेल।


जनता मछली देश की,होती नित्य  शिकार,

धागे  में  आटा  लगा , फँसा दिखाते   खेल।


वाणी  का  अधिकार  भी,नहीं तुम्हारे   पास,

कान खोलकर सब सुनें, करना तुम्हें  डिरेल।


जन -विकास के नाम पर,अपना ही उद्धार,

'शुभम' पीत भय से हुआ,चारों ओर गुलेल।


🪴 शुभमस्तु !


३०.१०.२०२१◆२.३० आरोहणं मार्तण्डस्य।

शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2021

बहाना 🚪 [ अतुकांतिका ]

 

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✍️ शब्दकार ©

📜 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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बहाना 

एक धोखे की टटिया है,

बहानेबाजों की सोच

बड़ी घटिया है,

डुबा देता वह सत्य की

सदा से लुटिया है,

झूठ के हाथ में

सत्य की चुटिया है।


चली अभिसार को

प्रेयसि करके एक

सुंदर - सा बहाना,

मुझे है आज अभी

अपनी सहेली के घर जाना,

यथार्थ था परंतु

यही कि उसे करना था

प्रेमी के सँग नाच - गाना,

अपने अभिसार का

ताता - थैया मचाना,

कहलाता है यही

मीत पावन बहाना।


राजनीति का बहाना

एक सुंदर निशाना,

आम जनता को

पीसना पिसवाना,

विकास की दुहाई

बढ़ा रही नित मँहगाई,

अतीत का कर्ज़,

बढ़ा रहा जनता का मर्ज़,

मर्जी उनकी,

बहाने की चर्खी 

असली या फर्जी,

नेताओं की खुदगर्जी,

निपट नहीं पाना,

एक से एक 

नवीनतम बहाना।


संतति के

 माता- पिता को,

कर्मचारी के 

स्व अधिकारी को,

शिष्य-शिष्याओं के

शिक्षक को,

हजारों बहाने,

निरंतर बहाने।


नदियों में अपने

घर का कचरा बहाना,

कारखानों का मलवा

सरिताओं सरों में लुढ़काना,

मुर्दों की राख अस्थियाँ

गंगा में बहाना,

फिर सरकारों का 

प्रदूषण - विनाश का बहाना।


गोबर पर तरतीब से

मक्खन क्रीम से सजाना,

जैसे काली दुल्हन को

ब्यूटी पार्लर में सजाना,

एक से एक अनेक 'शुभम'

सजे - धजे   हैं  बहाना,

बहाना ही बहाना !

बहाना ही बहाना!!


🪴 शुभमस्तु !


२९.१०.२०२१◆११.१५ आरोहणं मार्तण्डस्य।


बुधवार, 27 अक्तूबर 2021

दिया 🪔🪔 [ बालगीत ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🪔 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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दिया,  तेल ,बाती  का  नाता।

मेरे  मन को अतिशय भाता।।


माटी   गूँथ   कुम्हार   बनाए।

गर्म अवा  की  आग पकाए।।

दिया लाल रँग का बन जाता।

दिया, तेल, बाती का   नाता।।


देता  ज्योति  दिया  कहलाए।

निशि के तम को दूर  हटाए।।

प्रतिपल  सबक मुझे दे जाता।

दिया, तेल, बाती का  नाता।।


हर पल  बाती  घटती  जाती।

जल-जलअपनी देह नसाती।।

बूँद - बूँद  कर  तेल  जलाता।

दिया,तेल, बाती  का  नाता।।


एक बार  बस  आग  छुआते।

चुकता तेल  न दिया बुझाते।।

सुख की नींद सुलाकर जाता।

दिया,तेल,बाती   का  नाता।।


जब संध्या का तम हो जाता।

तम में कुछ भी दृष्टि न आता।

दिया रात को नित चमकाता।

दिया,तेल, बाती  का  नाता।।


भोजन कर   हम  करें पढ़ाई।

होती छत पर  नित्य  चढ़ाई।।

'शुभम'उजाला सुखद सुहाता

दिया, तेल, बाती  का  नाता।।


🪴 शुभमस्तु !


२७.१०.२०२१◆४.००

पतनम मार्तण्डस्य।

कामिनी शब्द- शृंगार 💃🏻 [ दोहा ]


(शृंगार, घूँघट, प्रीति, कामिनी ,नयन)

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✍️ शब्दकार ©

💃🏻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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सुंदर  गुण  शृंगार हैं,  सभी   सजाते   देह।

कर्कश  घरनी  यदि रहे,नरक बनाती  गेह।।


गोरे  रँग  के रूप पर,मर मत जाना    मीत।

शुभ गुणधारिणि नारि से,गृह शृंगार सुरीत।।


घूँघट के   पीछे छिपा,कैसा रूप -  कुरूप।

जब तक घूँघट में रहे,समझें अंधा    कूप।।


घूँघट मिथ्या  आवरण,हटा उसे   दे   मीत।

 भेद रूप का जान ले,कर पाए तब   प्रीत।।


आनन देखा नारि  का, कर बैठा नर प्रीति।

भेद चरित का जब खुला,भरी हृदय में भीति


खोलें आँख विवेक की,करनी है  यदि प्रीति।

देख कामिनी - रूप को,भूल न जाना नीति।।


काम भरी है कामिनी,अंधा होता     काम।

मद उतरे जब काम का,दिखने लगते  राम।।


एक कामिनी गर्भिणी,करे दृष्टि   का   पात।

होता अंधा  नाग भी, विष  भी होता   मात।।


नयन-दृष्टि   में प्रेम है,घृणा,क्रोध  या नेह।

क्षण-क्षण बदले रूप को, नयननीर का मेह।


चार नयन जब से जुड़े, हुई प्रेम  की   वृष्टि।

बदल गया संसार ये,अलग सजी  नव सृष्टि।


नयन कामिनी के युगल,

              जगा रहे  उर- प्रीति।

घूँघट से शृंगार की, 

                    नई नहीं है नीति।।


🪴 शुभमस्तु !


२७.१०.२०२१◆११.००आरोहणं मार्तण्डस्य।

मंगलवार, 26 अक्तूबर 2021

नारद जी संदेश लाए हैं! ⛰️ [ व्यंग्य ]


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✍️ व्यंग्यकार ©   

⛰️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम' 

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 इधर एक सप्ताह से अधिक समय हो गया ,ब्रह्मलोक में देव ऋषि नारद जी का पदार्पण नहीं हुआ था।यह विचार करते हुए प्रजापिता ब्रह्मा जी कुछ अनमने और उदासीन भाव से उद्विग्न मन बैठे हुए थे।इतने में ही क्या देखते हैं कि विधाता पुत्र नारद जी वीणा की मधुर ध्वनि का गुंजार और नारायण हरि! नारायण हरि!! का कीर्तन करते हुए उनके कक्ष_ में आ_ उपस्थित हुए । उनका शुभ- आगमन देखकर ब्रह्मा जी के मस्तक से चिंता की रेखाएँ क्षण भर में विलीन हो गईं और चेहरा और युगल नयन नव विकसित प्रातः कालीन अरविंद पुष्पवत खिल उठे। औपचारिक नमन - वंदन और कुशल - क्षेम के उपरांत पिता- पुत्र में विचारों का आदान - प्रदान कुछ इस प्रकार हुआ।

 ब्रह्मा जी : अरे पुत्र नारद !तुम विगत एक सप्ताह से कहाँ चले गए थे ? मैं बहुत ही चिंतित हो गया था। लोक-परलोक के शुभ समाचार बताओ कि कहाँ क्या हो रहा है? 

 नारद जी: जी पिता श्री ! आपने सही सोचा।विगत एक सप्ताह से मैं पृथ्वी लोक में स्थित देश भारत ; जिसे अतीत में पहले जम्बू द्वीप और तत्पश्चात आर्यावर्त कहा गया है ; के पद - भ्रमण पर था।वैसे मेरे लिए यह कोई बहुत बड़ा देश नहीं है, किंतु वहाँ के निवासियों के लिए बहुत ही विशाल और व्यापक है। क्योंकि वहाँ के लोग इतने आलसी ,प्रमादी और अशक्त हैं कि उन्हें पाँच सौ मीटर तक सब्जी लाने भर की शक्ति उनके पैरों में नहीं है। उनके युवा तो इतने अशक्त ,शिथिल, शुष्क , हीन और क्षीण बल हैं कि इतने से काम के लिए लौह - अश्वों, जिन्हें वे अपनी भाषा में मोटर साईकिल कहते हैं ; का सहारा लेते हैं। 

  ब्रह्मा जी : किसी देश की युवा पीढ़ी की ऐसी दशा निश्चित ही चिंतनीय है पुत्र! उस देश की जनता और शासन प्रशासन की क्या दशा है ? सब कुछ सकुशल, व्यवस्थित औऱ सुरक्षित तो है ! नारद जी: ऐसा ही तो नहीं है ।तभी तो मुझे इतना भ्रमण करना पड़ा और आपके दर्शन करने के लिए इतना विलम्ब हुआ। वहाँ की दारुण दशा देखी नहीं जाती। 

 ब्रह्मा जी : पुत्र नारद ! स्पष्ट रूप से खोलकर बताएँ।

 नारद जी : समाज, सियासत, शिक्षा, शासन, प्रशासन ,कर्मचारी,राजस्व अधिकारी, पुलिस, व्यापारी - कहीं भी देखिए ; सब के सब ही अर्थ के लोभी जन ,येन - केन- प्रकारेण ; अर्थ को लूटने में लगे हुए हैं। नीति अनीति ,सुनीति कुनीति , चरित्र आदि सब कुछ अर्थार्जन के दाँव पर लगा हुआ है।

 ब्रह्मा जी: बहुत बुरा हाल है। अति निंदनीय है।

 नारद जी : यह तो कुछ भी नहीं पिताश्री ।अभी और भी सुनिए। वहाँ पर सबसे हास्यास्पद बात ये है कि जिसे जिस कार्य का दायित्व सौंपा गया है ,उसे छोड़कर वह सब कुछ कर रहा है ;जिसे उसे नहीं करना चाहिए।दूसरों के दोष- दर्शन, उनमें कमियाँ ढूँढना, कीचड़ उछाल कर सामने वाले को नीचा दिखाने का प्रयास करना, अपने गले में न झाँक कर दूसरों के बैडरूम ,बाथरूम में कैमरा स्थापन करके उसका आनन्द उठाना,हत्यारे,गबनकर्ता, अपहरण के अनुभवी लोगों को शासन की बागडोर सौंपना जैसे अनेक अनैतिक कार्य साधारण बात है।

 ब्रह्मा जी: लेकिन शासन की बागडोर किन लोगों के हाथ में है? और वे कैसे चरित्र के लोग हैं? 

 नारद जी : पिता श्री ! यह आपने कैसा प्रश्न पूछ लिया! इसका उत्तर भी बहुत टेढ़ा है।

 ब्रह्मा जी: वह कैसे? नारद जी: वह इस तरह कि नेता के हाथ में पूरे देश का विकास और विनाश होता है। पर यहाँ पर तो 'यथा राजा तथा प्रजा ' वाली कहावत भी कुछ इस तरह हो गई है कि 'यथा प्रजा तथा राजा।' प्रजा में रहकर दुष्कर्मां का अनुभव प्राप्त लोग ही उनके नियामक औऱ संवाहक हैं। फिर प्रजा औऱ राजा में भेद ही क्या रह गया? वही खेले- खाए और दुष्कर्मा ही सब कुछ हथियाए बैठे हैं ।

 ब्रह्मा जी : अर्थात !

 नारद जी: अर्थात ....नैतिकता खूँटी पर टाँग दी गई है ,जो अपनी टाँगों को आसमान में टाँगे हुए देश के तांगे को हाँक रही है।जो व्यक्ति पढ़ने-लिखने में फ़िसड्डी ,दुराचारी ,लफ़ंगा, गुंडा, व्यभिचारी, आवारा , अपराधों में सिरमौर, नियम कानून को नहीं मानने वाला , प्रायः कानून को तोड़कर अपनी हेकड़ी में प्रशासन की धज्जियाँ उड़ाने में पटु जैसे अनेक प्रकार के रंग - बिरंगे सर्व गुणों से सम्पन्न होता है, वही नेता बनता है और आगे जाकर प्रान्त औऱ राष्ट्रीय स्तर के पदों को सुशोभित करता हुआ अपने परिवार,जाति औऱ तिजोरी को प्राथमिकता देता है।उसके लिए देश की जनता घास- कूड़े से अधिक कुछ भी नहीं है। उसकी झोपड़ी, छानी - छप्पर और टूटी खटिया कुछ ही वर्षों में महलों में बदल जाते हैं ।फ़टी धोती हजारों की साड़ी में बदल जाती है। कमरों में नोट इस प्रकार भरे जाते हैं ,जैसे पहले भैंसों के लिए भूसा भरा करते थे। ईमानदारी और पारदर्शिता के नाम पर अर्थार्जन का खुला खेल चलता है। आम जनता को आम के रस की तरह चूसना ही उसका प्रमुख लक्ष्य होता है।नेता करोड़ों में खरीदे बेचे जाते हैं। भ्रष्टाचार को बढ़ावा और अपनी छत्रछाया में फलने -फूलने का काम इन्हीं के द्वारा सम्पन्न होता है।जातिवाद के जहर से जनता की हत्या की जाती है।

 देश की सारी राजनीति जातियों के मजबूत कंधों पर टिकी हुई है।येन-केन-प्रकारेण सत्ता को हथियाना सभी दलों का प्रमुख एजेंडा होता है। कोई व्यक्ति ,नेता या दल दूध का धोया नहीं है। यद्यपि वह स्वयं को घोषित यही करता है।मियां मिट्ठू बनना इनका प्रमुख गुण है। "केवल हम ही श्रेष्ठ हैं ,शेष सभी चोर हैं।" यह उनकी प्रथम घोषणा है। विकास आँकड़ों में दौड़ता है। अखबारों की सुर्खियों से जनता की वाहवाही लूटी जाती है। उनके अंधे भक्त औऱ चमचे झूठे वीडियो बनाकर उन्हें आसमान पर बैठाने में पारंगत हैं। इसी बात के विज्ञापनों पर करोड़ों फूँक दिए जाते हैं। 

 ब्रह्मा जी: बस ! बस!! अब सुना नहीं जाता।साक्षात कलयुग उतर आया है। 'विनाश काले विपरीत बुद्धि' इसी को कहा जाता है। अब इस देश के लोगों औऱ उनके तथाकथित ऊपर वालों का भविष्य मेरे अधिकार क्षेत्र से भी बाहर हो चुका है।बस इतना ही कहा जा सकता है कि इन सबको सद्बुद्धि मिले, ताकि भावी पीढ़ी का भविष्य सुरक्षित रह सके। देश के कर्णधार ही ऐसे हैं , तो लुटिया तो डूब ही चुकी है। तथापि मुझे तो यही कहना है: 'सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे संतु निरामयाः सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित दुःख भाक भवेत।'

 - शुभमस्तु !

 २६.१०.२०२१◆ ६.०० पतनम मार्तण्डस्य।

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सोमवार, 25 अक्तूबर 2021

सजल 🌴

 

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समांत :आन ।

पदांत  :    है।

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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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मेरा     देश      महान   है।

संस्कार   मम   शान    है।।


उज्ज्वल गौरव शुभ गाथा,

भारत  की    पहचान   है।


वेद ,उपनिषद ,   रामायण,

इनसे  सदा    विहान    है।


विजयादशमी        दीवाली,

होली   का   गुणगान     है।


जय हिंदी   जय  भारत माँ,

जय जय कृषक  जवान है।


पावस ,शरद , वसंत  सजे,

षडऋतुओं  का  मान   है।


राम ,कृष्ण , सिद्धार्थ धरा,

'शुभम' शुभ्र   पहचान  है।


🪴 शुभमस्तु !


२५.१०.२०२१◆२.००

पतनम मार्तण्डस्य।

दीपावलि का पर्व मनाएँ 🪔 [ छंद :सरसी ]

 

छंद विधान: १.चार चरणों औऱ दो पद का विषम मात्रिक छंद।

                                  २.सम चरणों में 16-16(चौपाई की तरह) और विषम चरणों में 

                            11-11(दोहे के सम चरणों की तरह) कुल 27 मात्राएँ होती हैं।

                           ३.सम चरणों( 2 व  4 ) का अंत गुरु लघु से होना अनिवार्य।

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✍️ शब्दकार ©

🪔 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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दीपावलि   का  पर्व    मनाएँ,

तम   का      करें      विनाश।

रहे  न  कोई     कोना  खाली,

फैले       नवल       प्रकाश।।


कार्तिक  की  मावस  है आई,

घर      में     नहीं      उजास।

बढ़ने  लगी   शरद  शीतलता,

मौसम        आया       रास।।


पावस विदा शरद का स्वागत,

निर्मल        सरिता       ताल।

स्वच्छ करें घर -घर का कोना,

जन -  जन   हो    खुशहाल।।


नहीं  रहे  रोगाणु   एक    भी,

हों        निरोग          बीमार।

नाले - नाली हँसें खिलखिला,

पावें            हर्ष       अपार।।


सभी  पटाखे    आतिशबाजी,

रहना          इनसे          दूर।

गैस ,  धूम  से    रोग  पनपते,

रहें   न      मद    में      चूर।।


मदिरा - पान  टोटका - टोना,

बरबादी         के          शूल।

अंधा  है     विश्वास   तुम्हारा,

हिल       जाएगी        चूल।।


रमा धान्य -  धन की  हैं देवी,

आएँगी          तव       द्वार।

शिव सुत श्रीगणेश की पूजा,

कर          बाँटें      उपहार।।


रावण का संहार  कर दिया,

वन     से     लौटे       राम।

रात अमावस की थी काली,

दीप  जले    हर       धाम।।


चौदह   वर्ष   बिताए   वन में,

कठिन    समय    की   बात।

'शुभम'समझकर सीखें यों ही,

लगते        हैं          आघात।।


🪴 शुभमस्तु !


२४.१०.२०२१◆६.००आरोहणं मार्तण्डस्य।

रविवार, 24 अक्तूबर 2021

महका तन का चंदन 🦢 [ छंद:माहिया /टप्पा ]


छंद विधान:

१.तीन पंक्ति का मात्रिक व  लय प्रधान गेय छंद।

२.प्रथम ,द्वितीय व तृतीय पंक्ति में क्रमशः १२,१० एवं १२ मात्राएँ।

३.मिसरे के अंत में गुरु  अनिवार्य।

४.पहला और तीसरा चरण तुकांत।

५.तीनों चरणों का आदि व अंत गुरु से।

६.रगण 212 अमान्य।

सगण 112 एवं भगण 211 मान्य।

७. पंक्ति 1 एवं 3 में कल बाँट में 06 द्विकल(२+२+२+२+२+२)

तथा पंक्ति 2 में पाँच द्विकल हों।

८.एक गुरु( 2  )को दो लघु ( 1 1 )में तोड़ा जा सकता है।

९.प्रेमी-प्रेमिका की नोंक - झोंक के साथ साथ अब अन्य विषय भी मान्य।

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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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 निकला रवि  का गोला

चहक उठीं चिड़ियाँ

लगता  है   रवि   भोला।1।


याद     तुम्हारी     आती

रह -   रह  कर  पिछली

सुधियाँ मन को  भाती।2।


उड़ती - सी मधुबाला

उचक -उचक चलती

इठलाती   मद हाला।3।


महका तन   का  चंदन

मह - मह  बस   जाता

करता  मैं  अभिनंदन।4।


कोण    उभार   सजे   हैं

रचना      नई         बनी

छूकर   नहीं    तजे  हैं ।5।


शरद - चंद्रमा  आया

लजाती     चाँदनी

समा  मनहर   सुहाया।6।


वियोगिनी    उदास    है

पंथ   वह     निहारे 

चाँदनी  सु- प्रकाश  है।7।


कामिनि   को  मद  छाया

पास  नहीं  काम्य

चल पड़ा  स्मरण आया।8।


हो  गए    दो   से   चार

नयन  युगल  दोनों 

करते  हुए  अभिसार।9।


कुंडी     बजाती    रही

समझें   वे    मुझको

करते  सजन  बतकही।10।


🪴 शुभमस्तु !


०८.१०.२०२१◆७.४५

पतनम मार्तण्डस्य।

माँग सजी सिंदूरी 🌷 [ माहिया ]

  

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✍️ शब्दकार ©

🌷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                    (१)

करवा  चौथ मनाती

भरे माँग सेंदुर 

तिया पिया को भाती।


                   (२)

चाँद - दरस की भूखी

निर्जल व्रत करती

अँखियाँ सूखी-सूखी।


                    (३)

सोलह शृंगार किए

महावर मेंहदी

साजन हैं सजे हिये।


                   (४)

तरसाता क्यों चंदा

उचक -उचक देखूँ

अंबर धूमिल मंदा।


                    (५)

कब  आए  परदेशी?

नैना दुखियारे

विरहिन नारि सुवेशी।


                    (६)

बालक छत पर जाओ

क्यों चाँद न आया?

झटपट  ये  बतलाओ।


                    (७)

माँग  सजी  सिंदूरी

दी पाँव महावर

मत रख साजन दूरी।


                   (८)

देखा  दर पर आया

सजना  अपना ही

नैना  नीर   भराया।


                   (९)

चमका अरुणिम गोला

प्रसन्नानन  हँसा

लगता  कितना  भोला!


                  (१०)

छलनी भी बड़भागी

है चाँद दुलारा

पत्नी सहज  सुहागी।


               (११)

साड़ी लाल दमकती

पति को  अति भायी

चंदन  देह  महकती।


🪴 शुभमस्तु !


२४.१०.२०२१◆३.०० 

पतनम मार्तण्डस्य।

      (  करवा चौथ )

करवा चौथ व्रत पूजा 💋💄 [ कुंडलिया ]

 

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✍️ शब्दकार ©

💄 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                          -1-

माता करवा का करूँ, व्रत निर्जल मैं आज।

पति की लंबी आयु हो,स्वस्थ रहें सरताज।।

स्वस्थ रहें सरताज,निरोगी तन- मन  सारा।  

माँ देना  आशीष, मात्र  वह कंत   हमारा।।

'शुभम' सजा हो शीश,मूक मन मेरा ध्याता।

लाल नेह का बिंदु,कृपा कर करवा  माता।।


                        -2-

पावन व्रत करती रहूँ, जब तक तन में प्राण।

करवा माँ सब दुख हरें,स्वामी का कर त्राण।

स्वामी का  कर त्राण, भरें घर में खुशहाली।

संतति  हो  नीरोग,  मनाएँ  सब   दीवाली।।

'शुभं'न भोजन नीर,ग्रहण करना मनभावन।

अष्टम काजल पाख,चौथ की निशि ये पावन


                        -3-

जिनके प्रिय परदेश में,शुभ दर्शन की आस।

व्रत कर करवा चौथ का,कैसे भरें  उजास।।

कैसे भरें  उजास, विरह दिन- रात  सताए।

चैन न  दिन में लेश,रात को नींद  न  आए।।

'शुभम' देखती बाट,काटतीं घड़ियाँ गिनके।

पति मुख दर्शन चाह, नाथ परदेशी जिनके।।


                         -4-

चंदा  बैरी   सम  लगे,पिया  गए  परदेश।

पूजूँ   करवा  चौथ मैं, कैसे,दाह  विशेष।।

कैसे,दाह  विशेष,  पूजतीं सधवा   सारी।

लंबी हो  पति - आयु, नहीं आए बीमारी।।

'शुभम' न उनको याद,लगा ये कैसा  फंदा।

पिया न  आए आज,जलाए मुझको चंदा।।


                        -5-

अपने   नखरे  में  मगन,  चंदा करता   देर।

करवा की निशि सो गया,ज्यों विवरों में शेर।

ज्यों   विवरों में  शेर,सुहागिन लिए खड़ी है।

कर में लोटा नीर,विषम यह बड़ी  घड़ी  है।।

'शुभम'पिया-मुख देख,लगा है तन-मन तपने

श्रीगणेश शिव  पूज,उमा पूजीं कर  अपने।।


🪴 शुभमस्तु !


२४.१०.२०२१◆११.१५आरोहणं मार्तण्डस्य।


हेलमेट बनाम करवा चौथ 🪞 [ अतुकांतिका ]


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✍️ शब्दकार ©

🪞 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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कुछ अति भौतिकतावादी

करवा चौथ व्रत के बजाय

हेलमेट को  बेहतर 

समझने लगे हैं,

अपनी थोथी अकड़ में 

घर को सड़क  का 

एक्सीडेंट मानने लगे हैं।


क्या सड़क के लिए ही

किस्मत लिखा कर लाए हो,

जो करवा चौथ से 

इतने अधिक ख़ौफ़ खाए हो?

वह तो बिस्तर पर भी

 आ धमकती है,

तक्षक बन सेव के फ़ल में से

आ निकलती है!

तब कोई हेलमेट काम 

नहीं आएगा ,

वहाँ पत्नी का पातिव्रत ही

तुम्हारी जान बचाएगा! 


मत उड़ो इतने ऊँचे,

मत समझो 

पावन प्रथा को नीचे,

जाओगे ही

 पत्नी व्रत से सींचे,

घर में बीबी से 

पैर पुजवाओगे ,

और अपने मित्रों में

हेलमेट लगाने के

 भाषण पिलाओगे!

छलनी में देखेगी 

तुम्हारी छवि,

मंद - मंद मुस्कराओगे 

जैसे रीतिकालीन कवि,

माला भी पड़ेगी,

चंदा भी ऊँची छत से

दिखवाओगे,

पर बाहर जाकर

अंग्रेज़ बन अंग्रेज़ी

पढ़ाओगे !.

अपने संस्कार 

माटी  में  मिलाओगे।


एक ओर नारी को

मानते हो देवी!

और उधर 

तन - मन से पैर की जूती!

तुम्हारी चरण सेवी,

उधर  हेलमेट के गीत,

भुला बैठे हो

प्रिया का त्याग

तुम्हारी आयु वृद्धि हेतु

पत्नी की प्रीत!

क्या यही है तुम्हारी

स्वार्थवृत्ति की रीत?

कार, बस ,यान में 

हेलमेट नहीं लगता,

सड़क पर पैदल भी

नहीं सुभगता!


मत करो अज्ञानता भरी

ये हकलाती तुलना!

कहां हेलमेट !

कहाँ पत्नीव्रत का पलना!

लोहे से पातिव्रत को

 मत तोलो,

गलत नहीं कहता 

कुछ 'शुभम' ,

अरे अज्ञानी कुछ बोलो,

पवित्र भावना में 

अपना विष रस मत घोलो।


  🪴शुभमस्तु !


२३.१०.२०२१◆ ८.४५ पतनम मार्तण्डस्य

शनिवार, 23 अक्तूबर 2021

प्राणप्रिया 💋 [ गीत ]


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✍️ शब्दकार ©

💋 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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प्राणप्रिया  की   करूँ आरती।

पाप-शाप अघ-ओघ मारती।।


जा बजार   से   करवा लाती।

छत पर करवा चौथ मनाती।।

घर भर  के   संताप   वारती।

देवी - सी बन   मुझे  तारती।।

प्राणप्रिया की  करूँ आरती।।


कभी तीर-सी  उसकी बोली।

और कभी मिश्री-सी घोली।।

चंडी का भी    रूप   धारती।

रमा  रूप में   घर  सँवारती।।

प्राणप्रिया की करूँ आरती।।


सुत  मम सुता उसी के जाए।

जो मेरी   संतति   कहलाए।।

भूली  पीहर   प्रिया  भारती।

घर के रथ की वही  सारथी।।

प्राणप्रिया की करूँ आरती।।


कहती मुझको  अपना चंदा।

एकमात्र  मैं   उसका  बंदा।।

काजल दीवट  जला पारती।

बुरी नजर के  दोष  वारती।।

प्राणप्रिया की करूँ आरती।।


घर   की    अन्नपूर्णा   माता।

प्राणप्रिया के मैं गुण गाता।।

हिम्मत को वह  नहीं हारती।

बन जाती है कभी ज्यारती।।

प्राणप्रिया की करूँ आरती।।


पायल पग में रुनझुन बजती।

कर शृंगार देवि -सी सजती।।

दारुण दुख दस गुणा जारती।

सगुण पूजती  दोष   गारती।।

प्राणप्रिया की करूँ आरती।।


दिनभर करवा  चौथ   मनाए।

बिना पिए  जलकण रह जाए।

छलनी में मम छवि निहारती।

'शुभम' दीप आरति उतारती।

प्राणप्रिया की  करूँ आरती।।


🪴 शुभमस्तु !


२३.१०.२०२१◆ ६.१५ 

पतनम मार्तण्डस्य।

विधाता की चिंता !🪶 [ व्यंग्य ]

  

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✍️ व्यंग्यकार ©

🪶  डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                      एक दिन विधाता ब्रह्मा जी  बहुत चिंतित मुद्रा में बैठे हुए थे।तभी हरिओम !हरिओम!!का श्रीहरि नामोच्चारण  करते और  अपनी वीणा का गुंजार करते हुए देव ऋषि नारद जी  का आगमन हुआ।आते ही पूछ बैठे :  'जगत- पिता विधाता!आज चिंतित मुद्रा में कैसे ? '

बिना किसी भूमिका के ब्रह्मा जी बोले: 'ज्ञात हुआ है कि धर्मराज जी के दूतों में कुछ पवित्र आत्माओं ने प्रवेश प्राप्त कर लिया है। जबकि उनके लिए यह उनकी पात्रता के प्रतिकूल है। यहाँ तो मात्र ऐसे सेवाभावी आत्माओं को स्थान मिलता है जिन्होंने कोई भी पुण्य कर्म नहीं किया हो।

लगता है किसी त्रुटिवश ऐसी उत्तम आत्माओं ने यह कार्य  भार प्राप्त कर लिया है ,जो दयालु ,कृपालु और ममता से ओतप्रोत हैं। यमदूतों के लिए यह  सर्वथा अपात्रता ही है।उन्हें निकाल कर स्वर्ग में भेजना होगा।'

इस पर नारद जी कहने लगे:  'प्रभुवर ! हो सकता है। किसी स्तर पर त्रुटि हो गई हो। मेरा विनम्र परामर्श यही है कि सभी यमदूतों से उनके अच्छे- बुरे कर्मों का पूर्ण विवरण ले लिया जाए। दूध का दूध पानी का पानी हो जाएगा।'

नारद जी का उक्त परामर्श विधाता को सर्वथा  उचित लगा औऱ बिना क्षणिक  विलम्ब किए नारद जी को धर्मराज जी के लिए यह संदेश भेजा कि अविलम्ब एक सप्ताह के अंतर्गत सभी यमदूत अपने मृत्युलोक में  किए हुए पाप-  पुण्यों का लेखा- जोखा  प्रस्तुत करें, ताकि उनकी छँटनी की जा सके औऱ उनके वर्तमान पदों पर पुनर्विचार किया जा सके।

तदनुसार विधाता के आदेश का अनुपालन हुआ और एक  सप्ताह के उपरांत सबकी विवरणिका भी धर्मराज जी को प्राप्त हो गई। परिणाम- आख्या  की प्रतीक्षा में सभी यमदूत बड़े चिंतित दिखाई दिए। कुछ के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। 'पता नहीं क्या होगा ? ' की सोच ने सबको उदासीन बना दिया। हो सकता है कि कुछ का पद विस्थापन कर अन्यत्र स्थानांतरित कर दिया जाए?पद का मोह बड़ा ही आकर्षक औऱ सम्मोहक होता है। भला कौन है जो अपने पद को छोड़ना चाहे। परिणाम की चिंता में सब सूखने लगे।

   इधर करवा चौथ के अवसर पर अधिकांश यमदूत अपने - अपने घर अपनी पत्नी के साथ  अपने पुजने की तैयारी कर रहे थे। मिठाई फूल माला खरीदने में व्यस्त थे । पर आप जानते हैं कि यमलोक में कभी अवकाश नहीं होता। मृत्युलोक में जिसका भी समय पूर्ण हो जाता है ,उन्हें लाने का गुरुतर दायित्व बोध का भी ध्यान रखना पड़ता है। तभी क्या देखते हैं कि धर्मराज जी का एक व्यक्तिगत सेवक एक संदेश को सूचना पट पर चस्पा कर रहा है। सबकी जिज्ञासा बढ़ी और  दौड़ - दौड़  कर  उस

  सूचना को पढ़ने लगे। सूचना में लिखा हुआ था :"प्रसन्नता का विषय है कि किसी भी यमदूत को अपने पद से विस्थापित नहीं किया जा रहा है। इसका कारण स्पष्ट है कि सभी यमदूत निर्मम, हृदयहीन, विरक्त- भावी, क्रूर , मृत्युलोक में  पापरत अधिकारी, नेता,व्यापारी,हत्यारे, डकैत,  अपहरण कर्ता, परधनहर्ता   ही रहे हैं ।किसी ने मानव शरीर में भी मानवों जैसा कोई कार्य नहीं किया है।वे मानव देह में दानव ,पिशाच और दुष्कर्मा ही रहे हैं। इसलिएधर्मराज संसद की शोभा पहले की तरह उनसे ही बढ़ाई जाएगी।"

धर्मराज ने आदेश दिया:'देव ऋषि नारद जी को अवगत कराया जाए कि वे विधाता को अवगत कराएँ और उन्हें चिंता मुक्त करें।'

 देव ऋषि  का नाम आते ही वे क्षण भर में उपस्थित हो गए और उन्होंने अविलम्ब विधाता को  चिंता मुक्त कर दिया।विधाता मात्र इतना ही बोले :' संतोष है कि हमारे यमलोक का एक भी दूत अपनी पात्रता के विरुद्ध नहीं पाया गया।ये सब वैसे ही हैं, जैसी इनसे अपेक्षा की जाती है।'

 बोलो सत्य नारायण भगवान की जय!

🪴 शुभमस्तु !

२३.१०.२०२१◆१०.४५आरोहणं मार्तण्डस्य।


ब्रह्मा जी का ताप! 🏕️ [ चौपाई ]


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✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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बैठे      थे       अनमने   विधाता ।

जीव    मात्र    के   जीवन- दाता।।

वीणा     की       झनकार  सुनाते। 

हरी -   नाम     की     टेर  सुनाते।।


नारद   ऋषि   विधि    लोक पधारे।

वीणा   को     निज   अंक सँभारे।।

क्यों    हैं    चिंतित    पिता हमारे।

क्या    चिंता   के     कारण  सारे।।


'चिंता        यमदूतों      की    भारी।'

बोले       ब्रह्मा         दशा   विचारी।।

'थे          यमदूत       दिवंगत   नेता।

क्षण  भर    में    जीवन    हर लेता।।


लगता   उनमें      दया    आ   रही ।

ममता    करुणा - धार    आ बही।।

मृत्युलोक      के         पापी   सारे।

यम   के   दूत      न     सब बेचारे।।


शोषक   चूषक       जीवन -  हंता ।

निर्मम,      क्रूर,   पिशाच अनंता।।

रखते       यही      अर्हता    पापी।

बनते  यम के   दूत     'सु'- शापी।।


नारद       तुम     यमलोक  पधारो।

करना   जाँच     न   हिम्मत हारो।।

धर्मराज         आख्या      दें  सारी।

ताकि   मिटे      उर      पीर हमारी।।


नारद    चले     कहा,   ' जो आज्ञा।'

कैसे      करते      वचन -  अवज्ञा!!

सात   दिवस  भी    बीत    गए  हैं।

जगत - पिता   भयभीत    भए   हैं।।


धर्मराज       की      आख्या     पाई।

नारद     के      उर      खुशी समाई।।

नभ - पथ       बढ़ते  - पढ़ते  जाते।

आख्या   पढ़      फूले     न समाते।।


"नेता         जीवन     -  हंता   सारे।

शोषक               मिलावटी   हत्यारे।

परधनहर्ता ,           पापी,   दानव।

जो  थे    केवल     तन के मानव।।


 नर पिशाच,    निर्मम , अधिकारी।

मरे     भोग     भीषण  बीमारी।।

सभी         लुटेरे     या व्यभिचारी।

राजनीति     के     क्रूर   पुजारी।।


यमदूतत्व            पदवियाँ    पाते।

क्षण   में    जीवन      हर  के   लाते।।

वही   पात्र      हैं      यम-  कर्मों के।

तृण   भर    शेष    न  हीं   धर्मों  के।।"


दिखा     तभी   विधिलोक सुपावन।

नारद   अति   प्रसन्न    मन भावन।।

'शुभम'       सँदेशा    तुरत सुनाया। 

ब्रह्मा   जी      का     ताप   नसाया।।


🪴 शुभमस्तु !


२३.१०.२०२१◆ !१.००पतनम मार्तण्डस्य।

बुधवार, 20 अक्तूबर 2021

शरद -चंद्रिका शृंगार 🌝 [ दोहा ]

 

[ चाँदनी,शरद,पूर्णिमा,मास, शीतल]

            

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✍️ शब्दकार ©

🌝 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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खिली   चाँदनी  रात है,  रचा  रहे  हैं  रास।

कृष्ण संग हैं राधिका,विमल क्वार का मास।


चाँद- चाँदनी नेह का,शोभित दृश्य ललाम।

निर्मल'शुभं'प्रकाश से,जगमग निशि का धाम


शरद-आगमन हो गया,पूनम की शुभ रात।

अमिय बरसता व्योम से,मोद भरा उर-गात।


ऋतुरानी  वर्षा   विदा,आया शरद   प्रभात।

शीतलता  भाने  लगी,सम होते  दिन - रात।


क्वार कुमारी पूर्णिमा चाँद निकटतम आज।

पास आ गया अवनि के,शरदागम सह साज


शरद- पूर्णिमा चंद्रिका, तारों  की  बारात।

निशिपति हैं दूल्हा बने,तम को   देते  मात।


शरद- पूर्णिमा चंद्रिका,चंचल चारु चकोर।

रजनी भर देखा करे,होने तक शुभ भोर।


मास सातवाँ क्वार का, विदा पूर्णिमा रात।

टेसू - झाँझी  भी चले, दीपावलि   सौगात।


मास शरद के ओसकण,बरसाते जलबिंदु।

शीतलता बढ़ने लगी,नभगत उज्ज्वल इंदु।।


ऋतु निदाघ पावस विदा,शीतल शरद तुषार

तुहिन बिंदु बरसे विमल,मानो अंबर -  सार।


शरद -पूर्णिमा क्वार की,

                  शीतल शोभन मास।

खिलती निर्मल चाँदनी,

                       दीपमालिका आस।


🪴 शुभमस्तु !


२०.१०.२०२१◆९.३० आरोहणं मार्तण्डस्य।

     (शरद - पूर्णिमा )

मंगलवार, 19 अक्तूबर 2021

  तब और अब ! 💃🏻

 [ व्यंग्य ] 

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✍️ व्यंग्यकार ©

 💃🏻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम' 

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        आप अपनी जानें ,हम तो अपनी बात कहते हैं।कहें भी क्यों नहीं ,आज के जमाने के जुल्म जो सहते हैं।अब आप ये समझ लें कि मुर्दे ही प्रवाह में बहते हैं। हम तो हैं ही वे बंदे ,जो नदी की धार को चीर कर प्रवाह के विपरीत बढ़ते हैं। नए जमाने की हवा अभी इतनी नहीं लगी ,कि हवा का छोटा - सा झकोरा ही हमें अपने साथ बहा ले जाए! और सींग- मुंडित बछड़ों में हमारा नाम लिखवा पाए ! 

      बड़ा ही प्यारा था हमारा अतीत।हर जगह ही हम हुआ करते थे सतीत (सतीत अर्थात आर्द्रता से युक्त।) पर आज के जमाने का ये चकमक रूखापन कुछ रास नहीं आता। कोरा दिखावटी प्रदर्शन मन को नहीं भाता। बात शादियों की करें तो पीछे मुड़कर झाँकना होगा। बताएंगे वही, जो हमने और हमारे संगतियों ने भोगा। 

     बारात आती थी ,तो घर-पड़ौस की ताइयां,भाभियाँ, चाचियाँ,बहनें,मामियां सभी विवाह की तैयारियों में जुट जाती थीं। कहीं कोई कमी न रह जाए। कोई हल्दी पीस रही हैं , कोई दुल्हन के हल्दी लगा रही हैं।कोई आटा छानने में अपने हाथ ,मुँह, कपड़े आटे से साने हुए जुटी हुई हैं।कोई बेसन की उबटन तैयार कर रही है। नाइन उबटन लगा रही है।भाभी काजल लगा रहीं हैं औऱ नेग की माँग कर रही हैं।बारात आने पर सबकी सब पूड़ियाँ बेलने में लग जातीं। बाराती घरातियों को नर्म - गर्म,गोल - मटोल पूड़ियाँ खिलवातीं। रस भरे गीत औऱ गालियाँ भी सुनातीं। ढोलक की थाप पर नाच संगीत में मस्त हो हो जातीं।मानों शादी का पूरा कार्य भार अपने सिर पर खुशी -खुशी उठातीं । 

           पर अब कहाँ ? अब तो सभी भाभी , बहनों , मौसियों , फूफियों,पर एक ही काम बचा हुआ है।वह है अपना शृंगार । जितने काम काज की लिस्ट ऊपर बताई गई है, उसे उनके ऊपर मत छोड़ दीजिए। अन्यथा कोई काम नहीं होने वाला है।अब तो उनका अपना शृंगार ही प्रमुख है। पूड़ियों जैसी मोटी-मोटी पूड़ियाँ बेलने के लिए चार -छः मज़दूरिनें रख ली जाती हैं। इन पूड़ियों को तोड़ने के लिए किसी - किसी को चाकू - कैंची की जरूरत पड़ जाए, तो ये विश्व के नवमे आश्चर्य से कम नहीं होगा ।

      सब्जी ,रायता ,मिठाइयां, गोल गप्पे , चाऊमिन, दही बड़ा, फ्रूट चाट, रस मलाई, मीसी  रोटी, तंदूरी रोटी आदि - आदि तो हलवाई ही तैयार कर देता है।पर पूड़ियाँ खाने की तो बात ही क्या! देखकर ही पेट भर जाता है। उनमें भावज,मामी,ताई, चाची के हाथ का रस जो नहीं होता।उन बेचारियों का मुख्य कार्य ' आत्म शृंगार' जो होता है। घर के शीशे कम पड़ जाते हैं। ब्यूटी पार्लर वाले तो इनके इंतज़ार में सूख रहे होते हैं, उनका उद्धार करने के लिए वे तैयार जो बैठी हैं। पहुँच जाती हैं। और ज्यादा नहीं दो - चार हजार तो ठंडे कर ही आती हैं।यदि स्वयं कामगार हैं तो किसी के बाप की भी सुनना उन्हें गवारा नहीं।कमाती जो हैं! तो गँवाएँ क्यों नहीं? वे कोई नौकर - दासियाँ थोड़े हैं, जो आटा गूँथें या पूड़ी बेलें? वे तो यहाँ एन्जॉय करने के लिए ही पधारी हैं न ! तो अपने एन्जॉयमेंट में कोर कसर क्यों रखें! उन्हें पूरा का पूरा एन्जॉय जो करना है!

       सभी रिश्तेदार और घर की महिलाओं को तो अपने ही शृंगार से फुरसत नहीं। क्या करें बेचारी। लगता है दूल्हे ने इन्हीं को पसंद किया है या करने वाला है। बारात भी दुल्हन की नहीं ,इन्हीं की आ रही है।कुछ महत्वाकांक्षी बालाएँ ऐसी भी होती हैं ,कि शायद कोई बाराती लड़का उन्हें भी पसंद कर सकता है। इस प्रकार की धारणा उनके अवचेतन मन में छिपी रहती है। 

       तब की बात तब गई । अब की बात ही और है।क्या आपने इस बात पर किया कभी गौर है ? सच्चे अर्थों में तब गालियों में रस बरसता था। लोग कहते हैं कि आज के प्रगतिवादी युग में लोग सुधर गए हैं। अब अश्लील गालियाँ नहीं गाई जातीं।अंतर मात्र इतना आया है ,कि जो बातें गालियों में गाई औऱ सुनाई जाती थीं, वे अब हूबहू सच होने लगी हैं। उनका प्रेक्टिकल होने लगा है।इसकी अम्मा उसके साथ,.... इनकी बहना उनके साथ,..... इनकी बीबी किसी और के पास ....वगैरह वग़ैरह । ये सब होने ही लगा गया,तो सुनने वालों को मिर्चें लगना सामान्य - सी बात है! संक्षेप में कहा जा सकता है कि आज उन पूर्वदत्त गालियों का 'साधारणीकरण' हो गया है।बस आज की नई सभ्यता में इतना 'सुधार' (?) अवश्य हुआ है। ये 'अब ' की बात है। 'तब 'बात कुछ औऱ थी। अब तो अनायास ही फ़िल्मी गीत की ये पंक्तियां स्वतः 

जुबाँ पर आ ही जाती हैं: 'बीता हुआ जमाना आता नहीं दुबारा।' 

'हाफिज खुदा तुम्हारा।'

 🪴 शुभमस्तु ! 

 १९.१०.२०२१◆पतनम मार्तण्डस्य। 

 🧕🏻💃🏻🧕🏻🪴🧕🏻💃🏻🧕🏻💃🏻🧕🏻 

          

शरद पूर्णिमा 🌝 [ मुक्तक ]


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✍️ शब्दकार ©

🌝 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                        -1-

क्वार - मास   की  पूनम आई,

नर - नारी    के   मन  को भाई,

शरद पूर्णिमा   कला सोलहों,

धारित  शशि  को  लिए सुहाई।


                        -2-

शरद - आगमन   उस  दिन होता,

मुस्काता        चंद्रमा       उदोता,

शरद पूर्णिमा  की निशि मोहक,

लगता   चाँद    ले     रहा गोता।


                        -3-

चाँद    निकटतम  आज  धरा के,

अंबर  से     अमृत    बरसा   के,

शरद    पूर्णिमा    महारास   से-

सम्मोहित    वंशीधर    पा   के।


                         -4-

चंद्र   देव    की     पूजा   कर लें,

शिव -गिरिजा   को  उर में धर लें,

सँग    में   पूजें    पुत्र    षडानन, 

शरद   पूर्णिमा  प्रभा  सुघर  लें।


                         -5-

खीर    बना    प्रसाद   हम  खाते,

अमृत      सोम     देव    बरसाते,

शरद पूर्णिमा       ही कोजागरि,

चंद्र      सुधाकर     भी कहलाते।


🪴 शुभमस्तु !


१९.१०.२०२१◆११.१५ आरोहणं मार्तण्डस्य।

सेवा ,पूजा और 'श्रील ' 🏕️ [ दोहा ]


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✍️ शब्दकार©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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 'सेवा' में हर मनुज का,होता प्रमुख विचार।

दुखी और नर श्रेष्ठ को,सुख देना ही   सार।।


अपने ही  संतोष  हित, 'पूजा' करते    लोग।

अभिरुचि सारी तृप्त हो,भक्ति कला का योग


बँगला में श्री शब्द को,कहते कोविद 'श्रील'।

'श्रील' नहीं,अश्रील वह,रूपांतर  अश्लील।।


'श्री' का जहाँ अभाव है, कहलाता अश्लील।

श्री युत होने के लिए,तृण भर करें न ढील।।


शुचिता, शोभा,तरुणिमा,यौवन सम्पति नाम

उन्नति,कांति, प्रसन्नता,'श्री'के अर्थ ललाम।।


एक  दूसरे  पर  नहीं, हो  निष्ठा  का   भाव।

कामुकता अश्लील वह,विलसित हो उर घाव


मिले जहाँ संस्कार का,होता पूर्ण अभाव।

वह भी है अश्लील ही,जगता लज्जा-चाव।।


रतिक्रीड़ा के  काल में, कामुक  वार्तालाप।

श्लील सदा माना गया,गुण ही मानें आप।।


कभी-कभी अश्लील भी,होता सद्गुण मीत।

प्रणयावधि में प्रेम का,बजता जब   संगीत।।


प्रणय युगल का ही सदा, होता कब अश्लील

क्रिया वचन संवाद शुभ,गहरी रस की झील


सेवा, पूजा,प्रेम का,'शुभम' सत्य   परिणाम।

सबके साधन पृथक हैं, अनुपम पावन धाम।


🪴 शुभमस्तु !


१७.१०.२०२१◆७.३० पतनम मार्तण्डस्य।

शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2021

कलयुग का 'अति रावण' ! 👺 [ अतुकांतिका ]

 

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✍️शब्दकार ©

🛕 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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कैसी - कैसी विडंबना!

खिसियानी बिल्ली का

खंभा नोंचना,

सोचने के समय

कदापि नहीं सोचना!

रावण के पुतले

दहन करने की उदघोषणा।


त्रेता के रावण ने

छुआ भी नहीं 

राम की अर्धांगिनी सीता को,

दुर्भाव से कभी,

और पुतलों के दहनकर्ता

आज के ये  रावण ?

(राम तो हैं ही नहीं अब शेष,

 मंदिर की मूर्तियों में नहीं हैं अवधेश। )

छूने से भी 

सैकड़ों मील आगे,

रे मूढ़!मानव अभागे!

सोचा है कभी 

अपनी वासना के आगे!


आज गली - गली

घर -  घर

नगर - नगर 

रावण ही रावण!

'अतिरावण'!!

रुलाते हुए जनता को,

हेलीकॉप्टरों  में

कारों में दहाड़ रहे हैं!

ऊँचे - ऊँचे मंचों पर चढ़े

चिंघाड़ रहे हैं,

रिश्वत, ब्लात्कार, व्यभिचार,

राहजनी, ग़बन, मिलावट,

भ्रष्टाचार,वर्णवाद, जातिवाद,

पत्थरबाज!


रावणों के मात्र ये दस नहीं,

हजारों शीश और 

लाखों भुजाएँ हैं,

इतने सबके बावजूद,

अभी तक नहीं लजाए हैं,

इन रावणों के लिए

अभी तक बनी नहीं

 कोई भी सजाएँ हैं,

ये सब बड़े ही घुटे -घुटाए 

और मजे - मजाए हैं,

ऊपर से नीचे तक

पूरी दाल ही काली है,

अँधेरे में बाग को उजाड़ता,

वही उजाले में माली है।


 कहाँ हैं शेष अब

 राम और लखन?

चाहते हैं प्रायः 

करना  ये सभी 

देश का भक्षण! 

कौन करेगा मर्यादा

संस्कार औऱ 

संस्कृति का    रक्षण?

तक्षक ही तक्षक!

भक्षक ही भक्षक!!

कोई नहीं शेष

 एक संरक्षक!


रावण ही लगाकर मुखौटे

राम बनकर आ गए हैं,

पूर्व से पश्चिम

उत्तर से दक्षिण तक,

ऊपर से नीचे तक,

इस कोण से 

उस कोण तक

छा गए हैं,

कैसी विडंबना है कि

'अतिरावण' कलयुग के

त्रेता के मर्यादित रावण को।

जला रहे हैं?_

अपनी क़मीज़

 जैकेट के बटन,

कसकर लगा रहे हैं! 

कि कहीं कोई

 उनकी पोल न पा ले!

उनके हिस्से की 

कोई और न खा ले?

'शुभम' यह नहीं कोई रामलीला ,

 अपनी रावणलीला

में राम का उपहास 

दिखा रहे हैं।


🪴 शुभमस्तु !


१५.१०.२०२१◆१.३० पतनम

मार्तण्डस्य।


बुधवार, 13 अक्तूबर 2021

नवरात्रि दोहा शृंगार 🚩🚩 [ दोहा ]


{ दशहरा,सत्य, नवरात्रि,शरद, गरबा }

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✍️ शब्दकार ©

🚩 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम' 

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बसी  बुराई  दस बड़ी,हुआ हरण     संहार।

वही दशहरा है 'शुभम',मना रहे नर-नार।।


रावण के दस सिर नहीं,मन के थे दस दोष।

बना दशहरा  पर्व ये, जगा राम  का   रोष।।


हुई असत पर सत्य की,जीत राम की मीत।

लंकापति की ढह गई,कंचन निर्मित  भीत।।


सत्य कभी झुकता नहीं, है असत्य की हार।

खुल जाते सौभाग्य   के, बंद पड़े सब द्वार।।


माता  दुर्गा  की  करें,आराधन नर  -  नार।

कहलाती  नवरात्रि   ये, देती  हैं जन तार।।


तन-मन निज पावन रखें,करें न तामस भोग

जब आतीं नवरात्रियाँ, ब्रह्मचर्य  का  योग।।


शरद- चंद्रिका खिल उठी,तारे  करते  खेल।

स्मित-आभा  चंद्र की,करती है  प्रिय  मेल।।


शरदागम ज्यों ही हुआ,खिला प्रकृति का रंग

नहीं उष्ण शीतल बहुत,नील गगन का संग।।


भक्ति- नृत्य गरबा रहा,मचा  माधुरी   धूम।

बजती है ध्वनि ढोल की,रही गगन को चूम।


घट सछिद्र सज्जित किया,पल्लव सुंदर फूल

गरबा करतीं नाचकर,परितः निज को भूल।


शरद दशहरा सत्य की,

                   है असत्य पर जीत।


गरबा करतीं बालिका,

                 शुभ नवरात्रि सगीत।।


🪴 शुभमस्तु !


१३.१०.२०२१◆११.४५

आरोहणं मार्तण्डस्य।

मंगलवार, 12 अक्तूबर 2021

गोली पर गोली चढ़ी! 💊🟠 [ कुंडलिया ]


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✍️ शब्दकार ©

☘️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                        -1-

नीचे   भीषण   गंदगी, ऊपर जन     बीमार।

रोग स्वयं जन पालते,बढ़ता ज्वर का ज्वार।

बढ़ता ज्वर का ज्वार,खा रहे भर-भर झोली।

सुइयाँ  चुभतीं   देह, हजारों कड़वी गोली।।

'शुभम' देश  बदहाल,रहे धन नित्य  उलीचे।

घर -घर पड़तीं खाट, पड़े कुछ भू पर नीचे।।


                        -2-

ऐसा   कोई  घर नहीं,जहाँ न हों    बीमार।

सिर पर बोझा ढो रहे,खुले रोग  के  द्वार।।

खुले  रोग  के  द्वार,प्रकृति  से रखते  दूरी।

लें  गोली   कैप्सूल, पड़ी  ऐसी  मजबूरी।।

'शुभम' देह  विकलांग,चाहते करते   वैसा।

दूषण  से  है  प्यार, क्यों न हो रोगी   ऐसा।।


                        -3-

भोजन जल बेस्वाद है, विष - रस से भरपूर।

कृत्रिम से ही नेह अति,कुदरत से अति दूर।।

कुदरत  से  अति  दूर, तेज  है जीवन  तेरा।

फ़ूड  फ़टाफ़ट  पेट,  रोग   ने डाला    डेरा।।

'शुभम'  दवा का बोझ, रोग ही देता   रोदन।

बौनी  होती देह,खा रहा विष का  भोजन।।


                        -4-

गोली  पर  गोली  चढ़ी,अड़े बीच   कैप्सूल।

नीचे  नारी   पूत  सँग, उसके नीचे    धूल।।

उसके  नीचे  धूल ,  प्रदूषण फैला    भारी।

घुसता तन-मन  बीच, बढ़ी घातक बीमारी।।

'शुभम' आदमी  मूढ़, विषों की खेले  होली।

भोजन    छूटा  दूर, भखे  गोली पर  गोली।।


                        -5-

खाकर कैमीकल मरे,मनुज आज का मीत।

भोजन, सब्जी, दूध में,  देह गई   है   रीत।।

देह  गई  है   रीत,  प्रदूषण पैदा     करता।

कर्महीन  की  सोच, प्राण अपने नर  हरता।।

'शुभम'   घरों  में बंद,देह ए सी  की  पाकर।

क्षार हुआ है गात,विषज भोजन को खाकर।


🪴 शुभमस्तु !


१२.१०.२०२१◆११.४५आरोहणं मार्तण्डस्य।


बुरुष, दंत-पेस्ट सब त्यागें🪥 [ बाल कविता ]

 

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✍️ शब्दकार©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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बुरुष,  दंत- पेस्ट  सब  त्यागें।

हम  सब   भरतवासी   जागें।


दंत- पेस्ट  हैं  मुख के दुश्मन।

मुख को दूषित करते हर छन।


उपयोगी     जीवाणु   नसाते।

स्वाद नष्ट   कर संकट   लाते।


तोड़ नीम   की   दातुन  लाएँ।

कूँची  बना   दाँत    चमकाएँ।


उत्तम  है  बबूल  की   दातुन।

करें मसूड़ों  का  सशक्त तन।


दातुन अपामार्ग  की जड़ की।

स्मृतिवर्द्धक धी कण-कण की।


दातुन चीर   जीभ  को  माँजें।

स्वाद-कली की सुषमा साजें।


हमने   छोड़े  तुम  भी  छोड़ें।

पेस्ट,बुरुष से  मुख को मोड़ें।


दातुन कर  मुखरोग   भगाएँ।

'शुभम'स्वाद भोजन का पाएँ।


🪴 शुभमस्तु  !


१२.१०.२०२१◆६.३०आरोहणं मार्तण्डस्य।


इतिहास अपने को दोहरा रहा है!♦️ [ व्यंग्य ]


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 ✍️ शब्दकार © 

 ❤️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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           बचपन में हम इतिहास की पुस्तकों में पढ़ा करते थे कि प्रचीन काल में मानव अपने विकसित रूप में नहीं था।उस समय वह वन्य पशुओं और जलवायु गत मौसमी प्रहारों से आत्म रक्षार्थ पेड़ों, गुफाओं आदि में निवास करता था। उसके हथियार,खाने -पीने के बर्तन आदि सभी पत्थरों के बने हुए होते थे ।यहाँ तक कि डाक्टरों के शल्य क्रिया ,प्रसव आदि के यंत्र भी पाषाण निर्मित ही होते थे। इसलिए उसे इतिहासकारों ने 'पाषाण काल' की संज्ञा से अभिहित किया।बाद में क्रमश लौह युग, ताम्र युग आदि मानव के विकास क्रम से आते - जाते गए औऱ इसी क्रम में वर्तमान आधुनिक युग भी आ गया।

         हमारे कथन का मुख्य मंतव्य 'पाषाण युग' से है। उस समय असभ्यता में हम पाषाण युग में जी रहे थे।परंतु आज हम सभ्यता (?) में पाषाण युग में जी रहे हैं। उस समय भी हमारे हथियार पाषाण के बने हुए थे और आज अणु ,परमाणु, हायड्रोजन , जीवाणु , वायरस बम के युग में रहते हुए भी पाषाण को अपना दैनिक जीवन का मुख्य हथियार मान ही रहे ,उसका बखूबी प्रयोग करते हुए प्रवीणता हासिल करने में लगे हुए हैं। माना कि हम और आप न सही ,किन्तु कुछ तथाकथित 'शांतिदूत' (??) उसे अपने जीवन का मुख्य अंग मान रहे हैं। 

   आए दिन टी वी ,समाचार पत्रों और सोशल (शोषक नहीं) मीडिया पर देख ,पढ़ और सुन रहे हैं कि कभी जम्मू -कश्मीर में ,कभी अलीगढ़, फ़िरोज़ाबाद, मुरादाबाद , हाथरस, पश्चिम बंगाल आदि में पाषाण प्रयोग कर कभी पुलिस ,कभी आम जनता ,कभी अपने पड़ौसियों ,कभी बाजारों में पत्थरों की टकराहट और तज्जन्य खून - खराबे के अनचाहे नज़ारे दिखाई दे ही जाते हैं।इस पाषाण प्रयोग के मामले में महिलाएँ भी पुरुषों से कम नहीं है। नई पीढ़ी तो उन सबकी उस्ताद बनकर ही प्रकट हो रही है।अभी कल ही की बात है कि एक शनिदेव मंदिर के बाहर प्रांगण में कुछ पुरुष ,लड़के ,लड़कियाँ और महिलाएं ज़बरन मस्ज़िद बनाने के लिए पत्थर बाजी के लिए तैयार खड़े हुए थे। यह घटना जिला बरेली की बहेड़ी तहसील के एक गाँव की है।

          अब पूरी तरह लगने लगा है कि अति सभ्यता की हदें भी टूटने लगी हैं।पाषाण प्रियता का ऐसा 'महोत्सव (?) यदा कदा नहीं ,आए दिन अखबारों की प्रमुख सुर्खियाँ होता है।वर्तमान कालीन आदमी ,जो अपने को इंसान भी कहता है;की रक्त पिपासा का बखान कहाँ तक किया जा सकता है? 

             यह भी कहा जाता है कि आदमी पहले पशु है, बाद में इंसान। यह बात भी आज सोलहों आने, चालीसों शेर, सही सिद्ध होती प्रतीत नहीं हो रही, सही सिद्ध हो चुकी है।आदमी की देह में कौन सा भेड़िया अँगड़ाई ले रहा है , कहा नहीं जा सकता।पहले शेर ,चीते, बघर्रे, भेड़िये से आदमी डरता था ,पर आज तो बैल की खाल ओढ़े हुए किस खाल में भेड़िया बैठा है, कहा नहीं जा सकता।आज गाँव, नगर ,कस्बा ,महानगर ही जंगल के पर्याय बन गए हैं। अब जंगल ढूँढने की कोई आवश्कता नहीं रह गई है। अब तो वह अपने मोहल्ले, पड़ौस में ही शिकार कर लेता है। उसके हाथ में पत्थर जैसा अचूक हथियार जो लग गया है।भले ही गोली का निशाना चूक जाए ,पर पत्थर का नहीं । पत्थर रखने या फ़ेंकने के लिए किसी लाइसेंस की भी आवश्यकता नहीं है। जितने चाहे इकट्ठे करो, घर की छतों पर ,घरों में ,दरवाजे पर, सड़क पर ;कोई पूछने वाला नहीं। कोई पुलिस आदि के छापे का डर नहीं।कोई साज सँभाल भी नहीं। एक बार खर्च हो जाए, तो फिर नए नहीं खरीदने। जैसे पहले वाले आ गए ,वैसे और भी आ जाएंगे ।उनकी कोई सुरक्षा भी नहीं करनी। वे भी न मिल सकें ,तो अपने जूते चप्पलों से भी काम लिया जा सकता है। 

             आज वही आदमी प्रागैतिहासिक काल से भी पीछे जाकर इतिहास को आन, बान और शान से पत्थर बाजी के हुनर में पारंगत हो गया है।जिसके किसी भी तरह कम होने की आशा नहीं है।एक कहावत कही सुनी जाती थी कि ' क्या तुम्हारे दिमाग़ में गोबर भरा हुआ है?' जो इतनी सी बात भी नहीं समझते! विचारणीय है कि गोबर भरे होने पर उसमें कुछ घुसने की संभावना शेष बची हुई रह सकती है! क्योंकि गोबर का सम्बंध पहले गाय से ही है , बाद में किसी और से होगा। हमारा देश गाय, गोदुग्ध, गोरस और अंत में गोबर प्रधान भी है। गोबर की महिमा पावनता लिए हुए है। जिससे घरों के फर्श और दीवारों की लिपाई -पुताई भी की जाती थी । जहाँ घर के आँगन कच्चे हैं ,वहाँ आज भी यह पावन परम्परा चली आ रही है।इसलिए यदि किसी के मष्तिष्क में गोबर भी भरा हुआ हो तो चलेगा ,किंतु जिस 'गौ-शत्रु' के दिमाग में पत्थर भरे हों ,तब तो उसमें कुछ भी घुस पाने की क्षमता ही कहाँ शेष रह पाती है? वहाँ भरे हुए तो पाषाण ही हैं न ! जो अंदर भरा है ,वही तो बाहर निकल कर आएगा। और वही बरसाएगा भी। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि देश ,दुनिया और समाज का कुछ हिस्सा अभी भी पाषाण युग में जी रहा है औऱ आगे भी अपनी पाषाण -वृत्ति को और भी पाषाण बनाने में लगा हुआ है। 

 🪴 शुभमस्तु ! 

 ११.१०.२०२१◆९.१५ पतनम मार्तण्डस्य।

रविवार, 10 अक्तूबर 2021

सत नहीं,सुत प्रेय है ! 🦫 [ व्यंग्य ]


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✍️ व्यंग्यकार ©

🙊 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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मैं  ऐसी कोई नई बात कहने  नहीं जा रहा हूँ।मैं मात्र वही कहना चाह  रहा हूँ ,जो अब तक  जमाने  में होता चला आ रहा है।यद्यपि यह कोई परंपरा नहीं है कि अपना सुत चाहे कितना बड़ा अपराधी, पापी,

भृष्ट ,हत्यारा, चोर,क्रूर,धूर्त या अज्ञानी हो ,फिर भी उसका पिता या माता उसे बुरा नहीं मानते।और न ही किसी औऱ की दृष्टि में मानने देते हैं।इसके लिए चाहे कितने ही बड़े सत्य (सत) की हत्या करनी पड़े ;वे सहर्ष करेंगे।इसके लिए चाहे कितने ही 

निरपराधों को शूली पर चढ़ाना पड़े,अवश्य चढ़वाएँगे

। पर अपने सुत के बुत पर भी आँच तो क्या !उसकी गर्म गर्म लपट भी नहीं आने देंगे।


अब आप कुछ हजारों वर्ष पहले के अतीत में उतर जाइए।द्वापर और त्रेता युग

की संधि वेला में महाभारत को ही सामने रख लीजिए।जन्मांध धृतराष्ट्र महाराज को

अपने सौ के सौ पुत्र अत्यंत 

प्रिय थे।अपने पिताश्री की

'काली' भावना की रक्षा के लिए पांडवों का अस्तित्व समाप्त करने के उद्देश्य से उन्होंने क्या कुछ नहीं किया?

जब किसी की संतति चाहे वह महाराजा की हो या आम आदमी की; ऐसी संतान किसे प्रिय नहीं होगी। प्रिय ही नहीं ,प्रेय भी।(वासना से प्रफुल्लित होती हो ,वही प्रेय है।)


एक बहुत पुरानी कहावत है:

'बाप पर पूत नस्ल पर घोड़ा,

बहुत नहीं तो थोड़ा - थोड़ा।'

इससे स्पष्ट है कि संतान में पिता के गुण बहुत ज़्यादा नहीं तो थोड़े -थोड़े तो आते ही हैं। यदि न आएँ तो पिता की असली संतान होने में भी खटका।इसलिए वे आ ही जाते हैं। आ ही जाने हैं। इसमें कोई छूट नहीं हैं। अन्यथा बाप को भी अपने औरस की औरसता पर से विश्वास हटने लगता है। पर इस बात का प्रचार भी तो नहीं कर सकता। यदि करे तो जग हँसाई होती है। करे भी तो क्या करे? तब उसे अपनी बनियान , कुर्ता या क़मीज़ के नीचे एक- दो बटन खोलकर झाँक लेना ही पड़ता है।एक बात और ; वह यह है कि अच्छाइयाँ भले अवतरित हों या न हों ; बुराइयाँ तो आना अनिवार्य है। ये काला रंग  (बुराई) ही ऐसा है ,जो सदा सफ़ेद   रंग (अच्छाई) को डॉमिनेट (हावी)करता है। अच्छाइयाँ

दब जाती हैं,और बुराइयाँ अपने रुतबे की बहार बिखेरने लगती हैं।


आज तक के प्रायः सभी बापों ने अपनी औलादों के काले कारनामों के ऊपर कालोंच की पुताई से सफ़ेद बनाने की असफल कोशिश की है।यह बात अलग है कि वे कितने सफल हुए।परन्तु सत्य तो राम का नाम अंकित कराए हुए ऐसा पाषाण है जो ऊपर तैर ही जाता है औऱ सुत का काला पत्थर डूब ही जाता है। सदा सुत से बड़ा सत ही होता रहा है , आज भी है औऱ भविष्य में भी रहेगा।


प्रेय के साथ श्रेय की चर्चा भी कर ली जाए। श्रेय वह है ,जिससे आत्मा प्रफुल्लित होती है। पर यहाँ आत्मा की चिंता करता ही कौन है भला!

सब अपनी वासना को खुश करने में जुटे हुए हैं। भले ही आत्मा की हत्या हो जाए(जो की नहीं जा सकती ; क्योंकि वह अजर ,अमर और अविनाशी है।) वासना को खुश करने का ही परिणाम है कि आदमी अपने सियासती

रसूखों का वास्ता देकर काले झूठ की रक्षा हेतु रात दिन एक कर देता है। चाहे इसके लिए उसे डॉक्टर ,वकील, पुलिस को उत्कोच- दान से संतुष्ट करना पड़े ! आज के युग में भय ,आतंक, ब्लैकमेलिंग जैसे अनेक कितने ही बड़े - बड़े 'अणु बमों' की खोज  हो चुकी है, जिससे बड़े -बड़े सत्यों के गले में पत्थर बाँध कर पतन के खारी समुद्र में डुबाया जा सकता है।इसका भी अपना एक इतिहास बन रहा है।जो

बिना लिखे हुए भी श्याम अक्षरों में अपना अमिट प्रभाव आगामी पीढ़ियों पर 

छोड़ता रहेगा।

  काव्य - शास्त्र के अनुसार 'सत' और 'सुत'  का मात्रा भार बराबर ही है। पर भौतिक दृष्टि से सुत की टाँग

में पासंग जो लटका हुआ है, जो 'सत' पर  भी भारी पड़ जाता है। जो 'सुत' के  'सुतत्व' की महिमा को बहुगुणित कर देता है।आज के इस कलयुग में 'सत' पर 'सुत' भारी है।किसी दूसरे महाभारत की तैयारी है। सत का सत्व निचोड़ा जा चुका है। बचे हुए भूसे को 

खाकर आदमी महामारियों से पिसा जा रहा है, और मजे की बात ये है कि आरोप  कहीं औऱ ढूँढा जा रहा है।'सत' की गति नहीं ,दुर्गति 

किसे नहीं दिख रही है। पर 'सत'  से पहले अपने 'सुत' के 

अस्त होते हुए 'असत' की रक्षा जो करनी है ! समय साक्षी है। पर आदमी तो 

सतभक्षी है।

🪴 शुभमस्तु !

०९.१०.२०२१◆७.३० पतनम मार्तण्डस्य।


शनिवार, 9 अक्तूबर 2021

विरोध देशद्रोह नहीं है! 🐵 [ अतुकांतिका ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🙉 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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सबका सबसे 

विचारों का मेल ,

न आवश्यक है

न अनिवार्य है,

फिर क्यों तुम्हारी हर बात

हमें शिरोधार्य हो ?

मत समझो अपने को साध्य,

तुम मात्र एक 

मशीन का पुर्जा हो ,

उपयोग के लिए साधन हो।


मत बनो निरंकुश,

हटाओ अपने सब अंकुश,

सुचारु नियंत्रण ही करें,

तुम्हारी थोपी हुई 

बातों से कोई क्यों डरें।


मत भिन्नता हो सकती है

दो मित्रों में भी,

 पति के साथ

 एक छत के नीचे रह रही पत्नी से भी,

फिर क्यों करते हो आशा,

अपने विरोधियों से ,

वे तुम्हारी बातों का

समर्थन करेंगे ?

तुम्हारे अनुयायी बनेंगे?

वे विरोधी ही तो हैं,

पर देशद्रोही नहीं!

विरोध देशद्रोह नहीं होता।


अपने को सभी के ऊपर

थोपने की मानसिकता

निस्संदेह तानाशाही है,

और सुनो ,

जहाँ लोकतंत्र है

वह भी नष्ट हो जाता है,

जो अब बचा भी कहाँ  है !

अपने दायित्व से बचने का

तरीका भी खूब निकाला है,

देश के साथ -साथ 

अपना ज़मीर भी

बेच डाला है।


गए वे दिन जब 

होली खेली जाती थी,

दिवाली मनाई जाती थी,

अब न रंग हैं,

न उजाला है,

देश को बेचकर देश का

निकाला डाला

 खूब दिवाला है।


तुम्हारी अंधी जमात में 

क्या सभी देशभक्त हैं?

चमचे कभी

 देशभक्त नहीं होते,

वे सत्ता के लुढ़कते 

पारे के सँग हैं

बेपेंदे  के लुढ़कते लोटे ।


क्या कभी किसी के

दिल को टटोला है?

न दो वक्त की रोटी है,

न टूटा खटोला है! 

निरंकुशता, उद्दंडता,

बहरापन!

नहीं है तुम्हारे भीतर

कोई गहरापन ,

कोई नहीं है दूध का धुला,

दागों से भरा हुआ 

तुम्हारा गात,

कैसे हो सकता है

हमें या किसी को

आत्मसात।


शेर की खाल ओढ़े हुए

 तुम निकल पड़े हो,

विरोधियों का विनाश

करने को अड़े हो,

देश को बचाने की

चिंता में 'शुभम'

विचारक ,कवि, विश्लेषक

चिंता में गड़े हैं,

धर्म औऱ मज़हबी

आग में सुलग रहा है

मेरा देश!

और उधर ठगा जा रहा है

आम को चूसा जा रहा है,

 और कागों ने धर लिया है

अब हंसों का वेश।


🪴 शुभमस्तु !


०८.१०.२०२१◆२.४५ 

पतनम मार्तण्डस्य।

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...