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बुधवार, 17 जुलाई 2024

ग़ज़ल

 309/2024

                   


     ©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'


कभी   मैं  स्वर्ग में  होता  कभी मैं नर्क   ढोता  हूँ।

जहाँ की इस जमीं पर ही हुआ  मैं  गर्क खोता हूँ।।


कभी मुस्कान है लब पर कभी हैं अश्क आँखों में,

करनियों  के हमेशा श्वेत  काले  बीज  बोता    हूँ।


नहीं    है    आसमां  में बनी  कोई  कहीं    जन्नत,

यहीं   पर   है  सभी   कुछ लगाता गंग -  गोता  हूँ।


आदमी  के कर्म का अंजाम सबको भोगना पड़ता,

दूसरों को दोष  दे देकर  स्वयं दामन मैं   धोता  हूँ।


बताता  हूँ  मिया  मिट्ठू  पहन कर बगबगे  कपड़े,

समझता  हूँ खुदा ख़ुद को रुलाता हूँ न   रोता   हूँ।


दिलों में आग जलती है किसी की देखकर हशमत,

हुआ  मैं  ढोर से  बदतर जगा होता भी  सोता  हूँ।


'शुभम्'     हे   रब     बचाना    पाप   से   मुझको,

हक़ीक़त   है  कि  इंसां हूँ नहीं कुछ  और  होता हूँ।


शुभमस्तु !


15.07.2024● 4.15प०मा०

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गुरुवार, 26 अक्टूबर 2023

ग़ज़ल ●

 467/2023


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●© शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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यों     फ़जीहत    करा  रहीं टाँगें।

राह   चलते     सता     रहीं टाँगें।।


चला   घिसटता   जमीं  पै जब   मैं,

तब   की   यादें    दिला   रहीं टाँगें।


घिसते - घिसते    छिल   गए घुटने,

वो     बचपना      बता   रहीं टाँगें।


थकीं ,हारीं  न    पिराईं    थी कभी,

जरा-ज़रा- सा     जला  रहीं  टाँगें।


दिन   जवानी  के  भी  अजब होते,

जलता    लूका    छुला    रहीं टाँगें।


दुपहरिया   भी   ढल   गई कब   से,

साँझ    वेला      बुला     रहीं  टाँगें।


सीढ़ियाँ   चढ़ी जाती  हैं  नहीं इनसे,

झुकी  खाल   भी   झुला  रहीं टाँगें।


कौन जाने कि   कब   अस्त हो  सूरज,

'शुभम्' यही  तो   समझा   रहीं   टाँगें।


● शुभमस्तु !


26.10.2023◆1.15प०मा०

शनिवार, 21 अक्टूबर 2023

ग़ज़ल ●

 460/2023

  

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●  ©शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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रूप की धूप का कीजिए,गुमान क्या ?

उतर ही जाएगी उसका,उठान क्या??


रंग-रोगन    से  चहकती  चमड़ी   तेरी,

खाक  होनी  है  पल में, निशान   क्या?


तू    कौन  है  किसलिए  आया है    यहाँ,

हुआ  नहीं  है  अभी  तुझे, संज्ञान  क्या ?


माटी   के   बने   पुतले  हस्र भी    माटी,

जान  पाया  न अभी तू ,  जहान    क्या ?


बनाया जिस रब ने उसे भी जान 'शुभम्',

चार  दिन  की   है चाँदनी,उनमान  क्या?


● शुभमस्तु !


21.10.2023◆ 7.45आ०मा०

रविवार, 24 सितंबर 2023

ग़ज़ल ●

 416/2023

        

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● © शब्दकार 

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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सच पर   आज टिकी है दुनिया।

छल   से   रोज  छकी है दुनिया।।


रूह  और  दिल  की  टक्कर है,

अपनी  बनी  नकी  है  दुनिया।


पढ़ने  गया    न   कभी मदरसा,

ले    मुबाइल   पकी   है दुनिया।


शौहर     चला    रही   हर बीबी,

जीत न  उसे  सकी   है  दुनिया।


नई     चाल     के   बच्चे   जनमे,

अब  अतफ़ाल     ठगी  है दुनिया।


सभी       चाहते     शहसवार  हों,

जहरी   बड़ी     बकी   है  दुनिया।


'शुभम्'  न   रंग   समझ  में आते,

हमने    खूब     तकी    है दुनिया।


●शुभमस्तु !


*नकी =शत्रु।

*अतफ़ाल =बच्चे।

*शहसवार =घुड़सवार।

*बकी=पूतना।

*तकी =देखी।


24.09.2023◆10.45आ०मा०

ग़ज़ल ●

 415/2023

             

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● © शब्दकार

● डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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सच को सच कहते कब लोग!

खुदगर्जी में  हों  जब   लोग।।


झूठों   के   संग   भीड़   बड़ी,

उल्लू कर   सीधा  अब  लोग।


चश्मदीद   में    नहीं   ज़ुबान,

जातिवाद  में  रँग  सब  लोग।


कहें  नीम   को आज  बबूल,

कहते  दिन को भी शब लोग।


रीति-नीति   सब  चरतीं घास,

बदल रहे   अपने  ढब  लोग।


लंबी -चौड़ी    हाँकें      रोज,

वक्ती  बंद  करें  लब    लोग।


'शुभम्'  देखता  ऊँट पहाड़,

गुनें हक़ीकत को   तब लोग।


●शुभमस्तु 24.09.2023◆10.00 आ०मा०


रविवार, 9 अप्रैल 2023

ग़ज़ल 🌴

 157/2023

       

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✍️ शब्दकार ©

🌴 डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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मुझको  तुम्हारे   दर्द   का शजरा न  मिला।

महका  गुलाबी  जिस्म वो गजरा न मिला।।


किसको     बताएँ   हाल   जाए   न   कहा,

खोया   तुम्हारे   पास   ही खसरा  न मिला।


ख़ुशबू    दहकते   हुस्न   की बसती   बदन,

तुमसे   तुम्हीं  हो  एक  ही दुसरा  न मिला।


मरता   नहीं   है   इश्क़ ये सौ - सौ    जनम,

देनी  पड़ेगी    दाद   तिरा जिगरा  न  मिला।


आँखें  तो   देखीं  खूब    ही सूरत   'शुभम्',

आँखों  से लेता  जान  जो  कजरा न मिला।


🪴शुभमस्तु !


09.04.2023◆2.30प०मा०

शनिवार, 8 अप्रैल 2023

ग़ज़ल

 155/2023


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✍️ शब्दकार ©

🩷  डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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नज़रें         चिलमन -  फाड़ तुम्हारी।

पार     करें         हर    आड़ तुम्हारी।।


महल    किलों     की  क्या थी  हस्ती,

झेली       नहीं       पछाड़    तुम्हारी।


चंचल      चितवन      कैद   न   होती,

ऊँची         आँखें       ताड़    तुम्हारी।


रहे              टापते        पहरे  वाले,

ऐसी           साड़म   -  साड़ तुम्हारी।


किसके     कानों      में    दम  इतना,

सह          पाएगा       झाड़  तुम्हारी।


जहाँ     धधकती     आग   रात - दिन,

देह       बनी     है       भाड़  तुम्हारी।


'शुभम्'      चलन    की  चाल अनौखी,

जिनगी         बनी       कबाड़ तुम्हारी।


🪴शुभमस्तु !


08.04.2023◆3.45प०मा०


ग़ज़ल

 154/2023

      

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✍️ शब्दकार ©

🌴 डॉ०भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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पास    नहीं  तुम  मेरे  आना।

बाँहों  के  मत    घेरे   लाना।।


जली  आग -  सा  मेरा तन है,

मुझे  न    भाए    घेरे  जाना।


आह- दाह  बर्दाश्त  न   होगी,

चाहत    मुझे    उजेरे   पाना।


कोई कब तक मुँह मत खोले,

सरसों - सा   यों   पेरे  जाना।


माशूका  महजबीं  न  नाज़ुक,

उम्दा  है  क्या   फेरे    खाना?


झूठी  है      तारीफ़    तुम्हारी,

ठगिआई     अंधेरे       छाना।


'शुभम्'खार झुरमुट में पलता,

 नहीं     चलेगा    तेरा   दाना।


🪴शुभमस्तु !


08.04.2023◆3.00प०मा०


शुक्रवार, 7 अप्रैल 2023

ग़ज़ल 🌴

 152/2023

    

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✍️ शब्दकार ©

🌴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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सुघर        चाँद     में   दाग  मिला     है।

इंसानों          में     नाग      मिला    है।।


झोपड़ियाँ          दिन    -  रात     कराहें,

बीच      किले     के    बाग  मिला    है। 


हंसों       के          सँग     बगुले    आए,

कोकिल -  दल       में     काग  मिला है।


गम      है       कोसों      दूर    ख़ुशी   में,

बेवा      -     भाल      सुहाग   मिला    है।


 नहीं          गाय       का     दूध   सुहाता,

घर   -   घर    बकरी -   छाग   मिला   है।


गीत       कौन          सुमधुर    है     गाता,

नहीं        कर्णप्रिय       राग   मिला      है।


'शुभम्'        रसायन      खाती      दुनिया,

जहरीला        हर      साग   मिला       है।


🪴 शुभमस्तु !


05.04.2023◆7.00प.मा.


सोमवार, 23 जनवरी 2023

ग़ज़ल 🇮🇳

 40/2023

     

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✍️ शब्दकार ©

🇮🇳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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आज़ाद          भारत        के  तिरंगे।

छत     टैंक       पे       नचते   तिरंगे।।


तीन    दिन    की       बात   थी  बस,

आज          तक        सजते   तिरंगे।


आजादियाँ           मनमानियाँ       हैं,

जड़           बने        फिरते     तिरंगे।


बात         क्यों          मानें     विधानी,

तीर           से           चिरते     तिरंगे।


क्या       बताएँ         आम    जन  को,

घास    -      सी         चरते      तिरंगे।


हाथ              में        आया  खिलौना,

धूल            में          गिरते      तिरंगे।


बर्दाश्त        के    बाहर    'शुभम्'  ये,

देश          के           मरते      तिरंगे।


🪴शुभमस्तु !


21.01.2023◆8.00

पतनम मार्तण्डस्य।

सोमवार, 29 अगस्त 2022

ग़ज़ल 🌴

 343/2022

         

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✍️ शब्दकार ©

🌴 डॉ. भगवत स्वरूप *शुभम्'

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जीवन वन है और नहीं कुछ।

घन सिंचन है और नहीं कुछ।


माली  एक  वही   है  सबका,

व्यर्थ जतन है और नहीं कुछ।


मानव   एक   इकाई   केवल,

नहीं  वतन है औऱ नहीं कुछ।


जिसको सच  माने   बैठा  तू,

एक सपन है और नहीं कुछ।


ठंडक  होती   भाड़ों  में  कब,

विकट तपन हैऔऱ नहीं कुछ।


मान   रहा  अपने  को  रब तू,

वहम-शरन है और नहीं कुछ।


'शुभम्'भुलाया मानव जीवन,

राम- चरन है और नहीं कुछ।


🪴शुभमस्तु !


२५.०८.२०२२◆११.४५ आरोहणम् मार्तण्डस्य।

रविवार, 7 मार्च 2021

ग़ज़ल

 

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काफ़िया-- आए,

गैर मुरदफ़्फ़ ग़ज़ल

✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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आदमी   साथ  में  कुछ लेकर  न जाए ।

गए   जो    धरा    से  अकेले सिधाए।।


माँ       थी  अकेली  थे तुम  भी  अकेले,

तुम्हें         जिंदगी   के    झमेले  सुहाए।


जब    तुम    गए  तो   जमाना खड़ा था,

जिसने    जो    बोला   अलबेले  कहाए।


रोता    है    कोई    बिलखता  है  कोई,

आँसू    भी     हिचकियाँ    ले  ले  बहाए।


जी  ले    ऐ   इंसाँ!    जीवन  को  ऐसे,

यादों      में   ज़माना   ये  मेले सजाए।


किसी   का   बुरा   हो  सोचो न  पगले!

लाया  न   कुछ  भी  तू   ले के न  जाए।


सबका    भला   हो   सब  होवें  निरोगी,

'शुभम'  महकते   पुष्प     बेले खिलाए।


🪴 शुभमस्तु !


०७.०३.२०२१◆९.३० आरोहणम मार्तण्डस्य।

मंगलवार, 23 फ़रवरी 2021

ग़ज़ल


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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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मेढकी    को   टाँग  में एक नाल   चाहिए।

देखकर    घोड़े   को   बेमिसाल    चाहिए।।


तारीफ़  में  अपनी बनाए पुल बहुत    सारे,

कूदकर  सौ  वर्ष   का   झट उछाल  चाहिए।


देखा  नहीं   भूगोल   अपना जल,हवा कैसी,

कागा   को  हंस  वाली  वही चाल   चाहिए।


निकले   हैं   ये   शिवा  बनने को   केहरी,

उनको  तो  बस शेर की इक खाल  चाहिए।


करना नहीं उनको  पड़े मन देह से श्रम भी,

हीरों  भरा  सोने  का  मोटा थाल   चाहिए।


देख पर-सौभाग्य  उनका जल उठा तन मन,

पर  हिमालय -सा  तना ऊँचा भाल चाहिए।


जानता  जो महक अपने स्वेद की  'शुभम',

और की मेहनत का न उनको बाल चाहिए।


🪴शभमस्तु !


२३.०२.२०२१◆६.००पतनम मार्तण्डस्य

मंगलवार, 7 जुलाई 2020

ग़ज़ल

 
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✍ शब्दकार©
🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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हर बुरे काम का अंजाम बुरा है।
बद से ज्यादा यहाँ बदनाम बुरा है।।

किसी चेहरे के पार नीम अँधेरा,
दिल बुरा है तो उसका चाम बुरा है।

आदमी की तरह,आदमी नहीं रहता,
कैसे कह दूँ  कि हरिक गाम बुरा है।

जिसको मालूम नहीं वक्त की कीमत,
उसकी खातिर तो ये आराम बुरा है।

 जो  हैं मशगूल अपनी मस्ती  में,
उनकी  खातिर तो हरिक काम बुरा है।

बेख़ुदी ग़र न ले आगोश में अपने,
ऐसा मयख़ाना बुरा जाम बुरा है।

ज़ुल्म सहना भी 'शुभम' जुल्म के जैसा, 
करना ज़ालिम का एहतराम बुरा है।

💐 शुभमस्तु !

04.07.2020 ◆4.15 अपराह्न।

रविवार, 14 जून 2020

ग़ज़ल

 
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 ✍ शब्दकार ©
🦢 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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मुझमें कोई तो कमी रही होगी।
आँख में कुछ  नमी रही होगी।।

पत्थरों   में  भी बीज  बो  डाले,
उस जगह कुछ जमीं रही होगी।

उनको देखा तो चश्म भर आए,
उनके घर में  गमी रही होगी।

हाथ  छूते  ही  गिर  पड़े  थे वे,
वह   कोई   इक डमी  रही होगी।

बहुत जोरों का इक तूफान उठा,
कुछ यकीनन हवा थमी रही होगी।

लौट आई जो मेरे जिस्म में रूह ,
यम की कोई तो  कमी रही होगी।

अनहोनी का 'शुभम' मंजर कैसा,
बदहाल सर ज़मीं रही होगी।।

07.06.2020◆10.00 पूर्वाह्न।

ग़ज़ल


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 ✍ शब्दकार ©
🦢 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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नेकी   में क्या गफ़लत करना।
बिना विचारे भी मत करना।।

सबकी करनी अलग अलग है,
इतनी भी क्या जहमत करना।

खारों   में भी गुल खिलते हैं,
मत खारों से नफ़रत करना।

बिच्छू   की  आदत  है डंसना,
भले   जनों की  संगत करना।

पत्थर   पिघल नहीं सकता है,
शीश पटक आफ़त मत करना।

कौन    मानता   है  कहने से,
दुर्जन  की मत आमद करना।

'शुभम'आज खुदगर्ज जमाना,
जानबूझ मत  शामत करना।।

💐 शुभमस्तु !

रविवार, 25 अगस्त 2019

ग़ज़ल



इधर     एक      गाय  वाला ।
उधर   एक     चाय    वाला।।

संसद      में    अँखियाँ   मारे,
सांसद      एक     हाय  वाला।

उसका          भरोसा     झूठा,
नेता       काँय -  काँय  वाला।

अपशब्द        गूँज उठता    है,
वक्त      साँय -  साँय  वाला।

 घपलेबाज      तो   भागेगा ही,
 वो        है   बाय -  बाय वाला।

उनका     वादा   झूठा  - सच्चा
फिस्स      टाँय - टाँय    वाला।

बन्द       ज़ुरूर     ही     होगा,
बजर      धाँय -धाँय      वाला।

शुभमस्तु !
✍रचियता ©
🇮🇳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

सूफ़ियाना ग़ज़ल


    
माता यशोदा  के प्राण  प्यारे आओ,
लेंगे   बलैया  हम  घर हमारे आओ।

तुम्हीं  एक रक्षक हो तुम्हीं हो खिवैया
तुम्ही   एक मेरे हो मम सहारे आओ।

जन्म- दिन है  तुम्हारा  बधावे घर- घर 
संहारक  दानवों  के मम दुआरे आओ।

भृष्टता  का कीड़ा  है आज जन-जन में,
बन   के उद्धारक तुम प्रिय हमारे आओ।

'शुभम'  देह  मानव की कहने ही भर को
देह- बसे   दानव को मार  प्यारे  आओ।

शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🕉 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

रविवार, 11 अगस्त 2019

ग़ज़ल

कहते हैं कि तू ज़र्रे-ज़र्रे में रहता है।
सदियों से जमाना यही कहता है।।

लगता है कि मेरे रगो-रेशे में तू है,
तू जो कहलवाता है वही कहता है।

मेरा  वजूद  ही   तू   है  तुझसे मैं,
मेरी रूह का इत्मीनान यही कहता है।

ताजिंदगी   तेरा - मेरा     साथ रहे,
जो  भी कहता है  यही कहता है।

दुनिया  के फलसफ़ों  ने टुकड़े किए तेरे,
मगर तू एक है 'शुभम' यही कहता है।।

💐 शुभमस्तु!
✍रचयिता ©
🌺 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

मंगलवार, 30 जुलाई 2019

ग़ज़ल

मेरी पायल छनछनाती रही रात भर।
चाँदनी    गुनगुनाती  रही रात भर।।

लाज   के  बोल घूँघट में सिमटे रहे,
तबस्सुम झिलमिलाती  रही रात भर।

नज़रों   से  नज़रें   मिलीं झट झुकीं,
उनकी नज़रें रिझाती रहीं रात भर।

परवाना   जला   जलता  ही गया,
शम्मा  थरथराती   रही रात भर।

पहली - पहली  ही उनसे मुलाक़ात थी,
संगिनी  कसमसाती  रही रात भर।

फ़ूल   महके  तो  दो दिल दहकने लगे,
कलियाँ  गुल खिलाती रहीं रात भर।।

चाहों ने बाहों में लिया जब 'शुभम'
शरमाती    लजाती  रही रात भर।

💐 शुभमस्तु!
✍ रचयिता ©
💞 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...