रविवार, 31 मई 2020

ग़ज़ल


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✍ शब्दकार©
🌹 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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जब        यारों    से यारी रखना।
दिल   में   दुनियादारी  रखना।।

खुदगर्ज        ज़माना    ये  सारा,
अपना      पलड़ा    भारी रखना।

खुद     अपनी   पहचान न आसां,
रिश्तों         की   रखवारी रखना।

मुख      फ़रेब    से ढँके  हुए हें ,   
दूर           सदा   बदकारी रखना।

भोले   -   भाले   को सब छलते ,
अपनी        तेज  कटारी रखना।

लंबा   बहुत     सफ़र  मानव का,
चलने          की    तैयारी  रखना।

फूलों       के सँग में खार 'शुभम',
कदमों          में  फुलवारी रखना।

28.05.2020◆9.15 पूर्वाह्न।

जिजीविषा [ अतुकान्तिका ]


 ★★★★★★★★★★★★★★★
✍ शब्दकार ©
🌱 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'
★★★★★★★★★★★★★★★
अदम्य
जिजीविषा का प्रतीक
मैं नवांकुर,
अपदार्थ को भी
पदार्थ बनाता हुआ,
थाले के बीच नहीं,
थल में भी नहीं,
एक पुराने
जंग लगे
ताले के हवाले,
स्वच्छ प्राण वायु में
साँस ले रहा हूँ।

आशा 
और विश्वास का संबल,
बहुत ही प्रबल,
पोषण जल 
धूप हवा,
सब हैं सुलभ,
साथी नन्हे पादपों के साथ,
न मेरे पाँव 
न कोई हाथ,
संध्या से प्रात,
दिन और रात,
जी रहा हूँ।

बोया नहीं किसी ने,
ढोया नहीं किसी ने,
देखा न रवि 
शशि ने,
प्रकृति का चमत्कार,
मैं नन्हा  -सा हरा बिरवा,
रखता नहीं विकार,
यह सहज जीवन,
मुझे स्वीकार,
स्वयं में मस्त,
न कभी पस्त,
न जाने क्यों
मैं भी कभी
एक नन्हा -सा 
बीज रहा हूँ।

सीख लो मुझसे
 ओ! निराश मानवो!
मरने न दो 
जिजीविषा अपनी,
स्वप्न देखो
साकार भी करो,
मेरी तरह,
पर उपकार करो,
मेरी ही तरह,
चलते रहो!
चलते रहो!!
रुको मत ,
चलने का नाम 
जिंदगी है,
यही परमात्मा की
सजीली वंदगी है,
देखो मुझे 
कैसे उठाकर शीश
मैं नाचता हूँ।
मैं अदम्य जिजीविषा हूँ।

💐 शुभमस्तु !

30.05.2020 ◆10.45 पूर्वाह्न।

पत्रकार [ दोहा ]


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✍ शब्दकार ©
📒 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'
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चार    खम्भ    जनतंत्र    के,
पत्रकारिता                    एक।
पत्रकार           निर्भीक       हों,
बेचें          नहीं      विवेक।।1।

जनहित      में     संलग्न  हों,
कहें         लिखें       सुविचार।
पत्रकार         इस      देश   के,
बनें      न   जन   पर भार।।2।

नेता जी        के   साथ    में ,
उड़ते              बने    विहंग 
वही        लिखें     जो वे कहें,
पत्रकार           जो    संग।।3।

पत्रकार       जी    बिक  रहे , 
दामोदर           के       दास।
ऊँची        बोली     में   बिकें, 
नेताजी          के     पास।।4।

सच       होता    है और कुछ,
दिखलाते        कुछ       और।
तोड़         मोड़कर    छापते,
 कभी       किया   है   गौर  ??5।

पत्रकार         तो     लाल   हैं , 
पत्रकारिता                    पीत।
सत्य       उपेक्षित    हो गया,
सनसनियों         की  जीत।।6।

लोकतंत्र         में     मीडिया,
चौथा                 हिस्सेदार।
सत्ताधारी         संग       में , 
खाएँ        मलाई   यार।।7।

बहुत      बड़ा   व्यवसाय है,
पत्रकार          का        आज।
पूर्वाग्रह        से     ग्रसित  वे ,
 मिटा         रहे   हैं   खाज।।8।

चाटुकारिता          से   शुरू ,
काज                  मलाईदार।
पत्रकार       अभव्यक्ति की,
करते        खड़ी  मजार।।9।

'वाच   डॉग'      होते      वही,
करें       श्वानवत      खोज।
भ्रष्ट      आचरण     के सभी,
 पर्दे           फाड़ें    रोज।।10।

'पेज थ्री'           में    देख    लें,
चकमक          संग    अमीर।
महफ़िल     फैशन  की सजी,
मालपुआ       सँग   खीर।।11।

💐 शुभमस्तु !

30.05.2020◆6.15 पूर्वाह्न।

आज की पत्रकारिता [अतुकान्तिका]


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✍ शब्दकार ©
📒 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'
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विधायिका,
कार्यपालिका ,
न्यायपालिका,
और पत्रकारिता ,
लोकतंत्र के चार
सुदृढ़ स्तम्भ!
 सुदृढ़ ही
होने चाहिए,
पर क्या
आज वे उतने सुदृढ़ हैं?
सशक्क्त हैं ?
अथवा विभक्त हैं?

वे सुदृढ़ हैं
सशक्क्त हैं!
कहीं न कहीं
विभक्त हैं,
क्योंकि वे किसी के
अंधभक्त हैं।

पत्रकारों ने बेच दी
अपनी कार्य धर्मिता,
अपनी अस्मिता,
कुछ कागज के
टुकड़ों के लिए!
बिका हुआ
व्यक्ति स्वामी नहीं
होता है सेवक,
अनुगामी ,
अनुयायी,
अन्धानुगामी।

टीवी पर
अखबार  में
मीडिया में
समाचार में
वही आना है,
जिसे स्वामी की
चाहना है,
बाकी तो सब
टालू बहाना है।

सत्य का मुँह
कागज़ के टुकड़ों ने
बन्द किया है,
पत्रकार अब एक
कमजोर क्रीत
अधजला दिया है!
वह मजबूत खम्भा
नहीं है,
वह अपनी कथनी
औऱ करनी के लिए
स्वतंत्र भी नहीं है!
परतंत्रता
जो चाहे सो करा ले,
काले को सफ़ेद
और सफेद को
काला बता दे!
निर्भीक पत्रकारों को
जीने नहीं दिया जाता,
दुर्बलों से फटा हुआ
सिया नहीं जाता।

कमजोर पड़ गया है
चौथा स्तम्भ ,
देखकर सोचकर
स्तम्भित रहना
पड़ता है ,
चारों ओर
जड़ता है ,
निरर्थक विवाद है,
ऊँची- ऊँची
भड़कीली बहस हैं,
पर वे भीतर की
भड़ास की हवस हैं,
निर्णयहीन निर्णय,
सम्पूर्णतः अनिर्णय?
यह कैसी
पत्रकारिता है?
विज्ञापनबाजी को समर्पित,
अपनी रेट को  अभ्यर्पित,
यह कैसी पत्रकारिता है ?
ये कैसा चौथा स्तम्भ है?

आम आदमी से
 सर्वथा दूर,
विडिओबाजी में मशगूल,
जो दिखना चाहिए
पर्दे में है ,
सब झूठे आंकड़ों के
गर्दे में है ,
सत्य तिरोहित ही
रहता है ,
जिसके लिए
बनाए थे स्तम्भ
वह झोंपड़ी में रहता है।
कहीं रेल की
पटरियों के नीचे,
कभी बाढ़ में बहता है,
और पत्रकार
नेताओं के साथ
हेलीकॉप्टर से
 विहंगम दृश्य का
वीडियो बनाता है,
वह वही कहता है ,
जो नेता
उसके कान में
धीरे  से      फुसफुसाता      है,
क्योंकि  दीवारों  के  भी
कान होते हैं।
 पत्रकार ही तो
विदेश की धरती पर,
नेताजी की शान होते हैं,
क्योंकि वही आता है बाहर,
जो चमकता है,
नकली सोना
कुछ ज़्यादा ही दमकता है।

💐 शुभमस्तु !

29.05.2020 ◆7.40 अपराह्न।

शुक्रवार, 29 मई 2020

गुरु शिष्य परम्परा [ लेख ]




✍ लेखक © ☘️ 
डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम' 

                वर्तमान युग में प्राचीन पावन परम्पराओं का अस्तित्व शनैः शनैः कम से कमतर होता जा रहा है।जब सभी ऐसी अनु करणीय परंपराएं ढहती चली जा रही हैं , तो गुरु शिष्य परम्परा को मानने वाला कौन है? इस सबके लिए हमारा समाज और सामाजिक ढाँचा उत्तरदायी है। गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित महाकाव्य श्री रामचरित मानस में मानवीय जीवन मूल्यों का विश्वकोश देखा जा सकता है। जिसमें पिता -पुत्र, माता -पुत्र , पति -पत्नी , स्वामी- सेवक , भाई -भाई , गुरु -शिष्य परम्परा और व्यवहृत आदर्शों का जीवंत निरूपण मिलता है।मर्यादा पुरुषोत्तम राम का युग त्रेतायुग था । द्वापर युग को पार करने के बाद रहे- सहे मूल्यों का ह्रास ही हुआ है। जब समाज के सारे मूल्य पतित हो रहे हैं , तो गुरु -शिष्य परम्परा ही कैसे अक्षुण रह सकती है।

              समाज में माता -पिता ही गुरु को महत्त्व नहीं देते ,तो संतान कैसे उसे सम्मान दे सकती है। समाज और माता पिता द्वारा दिये गए संस्कार ही संतान के चरित्र और मूल्यों का सृजन करते हैं। घर पर कोचिंग पढ़ाने वाले शिक्षक के संबंध में एक सेठ जी अपनी सेठानी से फोन पर पूछ रहे हैं: 'अरी मास्टर आया कि नहीं ट्यूशन पढ़ाने?' ये हैं आज के धन कुबेरों के संस्कार ! जिन्हें एक शिक्षक से उचित सम्मान देने की भी अपेक्षा नहीं की जा सकती। भूल जाइए वह अतीत की गुरु -शिष्य की परंपरा , जब शिष्य सुबह से लेकर कार्य पूरा न होने तक जंगल से गुरु माँ के ईंधन के लिए लकड़ियां काटकर लाते थे। क्या आज का शिष्य यह सब कर सकता है?
                      एक शिष्य जो कभी भी गुरु जी के लिए एक पालक का पत्ता भी नहीं लाया , एक दिन मटकी भर मट्ठा लेकर गुरु जी की देहरी पर जा पहुंचा। गुरु जी को आश्चर्य हुआ : 'अरे !भाई छबीले राम , इस मटकी में क्या लाया ?' शिष्य बोला :'गुरु जी आपके लिए छाछ लाया हूँ।' गुरु जी बोले : 'आज कैसे याद आ गई , पहले तो कभी नहीं लाया! ' छबीले राम कहने लगा -' गुरु जी। बिल्ली मुँह मार गई थी। सो मैंने सोचा , फेंकने से अच्छा है , गुरुजी के यहाँ ही दे दें , तो गुरु जी खुश हो जाएंगे।' गुरु जी लगभग दहाड़ते हुए।बोले - अरे ! दुष्ट छ्वुया तुझे मैं ही मिला था इस काम के लिए? चल उठा ,औऱ चलता बन।'

              तो ये हैं आज के शिष्यों के संस्कार! क्या कर सकते हैं आप इससे इनकार। जब तक माँ -पिता को सही संस्कार नहीं मिलेंगे और उस गुरु को अपनी दुकान पर सामान उठाने -रखने वाले नौकर समझा जाएगा , तब तक गुरु -शिष्य परम्परा की बात सोचना भी बेमानी होगा। निरर्थक होगा।शिष्यों से पहले उनके माँ- बाप के लिए संस्कार -शाला खोले जाने की आवश्यकता है।

 💐 शुभमस्तु !

 29.05.2020 .12.25 अपराह्न।

निंदा [ दोहा ]


★★★★★★★★★★★★★★★★
✍ शब्दकार ©
👭🏻 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'
★★★★★★★★★★★★★★★★
निंदा रस जब चख लिया, अन्य हुए रसहीन।
कहने   सुनने  में सभी ,लेते सुरुचि  प्रवीन।।

पर - निंदा मोहक लगे,निज निंदा कटु नीम।
कान   रोपकर सुन रही,बातें मधुर   असीम।

दो   सासें पथ में मिलीं, पनघट पर दो चार।
बहुओं की निंदा मगन, गाली-सुमन प्रहार।।

बहू      बहू से  कह रही, खूसट मेरी  सास।
दिन भर ताने मारती, तनिक न आए रास।।

दस    रस   से भी श्रेष्ठ है,निंदा रस भरपूर।
कानों    से पीते   सभी,  रसानंद में    चूर।।

झूठी-सच्ची बात में,नमक मिर्च कुछ घोल।
कानों    को अच्छे लगें ,निंदा रस   के बोल।।

त्याग   कर्म अपने सभी,निंदा रस में लीन।
नर    से नारी  है बड़ी, भारी  कुशल प्रवीन।।

फुस- फुस  भरती कान में,सुने नहीं दीवार।
सास, बहू की कर रही ,निंदा दो की चार।।

बात   न पचती पेट में,घर - घर फैली  बात।
कान ,कान से कान में,एक एक की सात।।

घर-घर आँगन में पड़ी,निंदक कुटिया आज।
कबिरा    की शिक्षा मिली,सास बहू का राज।।

मुख   से दूरी कान की ,  नापें अंगुल आठ।
रूप   बदलती बात भी,दस की होती साठ।।

है    अनंत औ आदि भी निंदा सरस पुराण।
मधुर   जलेबी से बहुत,गावें 'शुभम' प्रमाण।।

💐 शुभमस्तु !

29.05.2020◆ 7.30 पूर्वाह्न।

पद का कद [ अतुकान्तिका ]


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✍ शब्दकार©
🏕️ डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'
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ये सभी पद!
जिनका है 
अपना -अपना मद,
सभी बिछौने हैं,
मैले भी हुए 
तो पुनः धोने हैं,
ये ही बड़े हैं
और सब बौने हैं।

हर पद का 
एक निश्चित है कद,
उनमें भी 
विस्तरित है मद
अलग -अलग,
कभी पद,
कभी रद्द,
कहें  भले 
हम अपनी भद्द!
पर चाहिए उन्हें तो
कर पट्टिका सद,
सबकी है 
अपनी - अपनी हद,
चाहिए उनको 
सबको हमको 
बस विरुद ,
मात्र विरुद।

प्रजातंत्र है
जिसे चाहा
उतार दिया,
जिसे चाहा 
सँवार दिया,
न मानक 
न कोई मूल्य,
न कोई किसी के
समतुल्य।

सब कुछ अस्थाई,
शाश्वत नहीं,
तत्काल संतुष्टि का
साधक वही,
सराहना -पसंद मानव,
चाहता नहीं
कहीं लाघव,
उत्तरोत्तर विकास 
पतन और ह्रास,
उभयरूप श्वास,
कभी उच्छवास!

एक पगड़ी
कभी सिर धरी,
कभी उतरी,
कभी मंत्री
कभी संतरी भी नहीं,
प्रजातंत्र की ये
परम्परा ही रही,
न सही ,
तो भी सही,
मात्र मत आधार,
न कर्तव्य 
न अधिकार,
कभी गलहार,
कभी बस हार,
यही है
प्रजातंत्र का विकार,
पद के कद का
विकृत अपस्मार,
गति बनता हुआ
उर्मिल उभार,
मानवीय चेतना गत
'शुभम' खुमार।

💐 शुभमस्तु!

28.05.2020◆7.15 पूर्वाह्न।

झाड़ू [ कुण्डलिया ]


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✍ शब्दकार ©
🌷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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झाड़ू    में    गुण   बहुत   हैं,
रखिए       सदा     सँभाल।
दिखे   न   सबकी    दृष्टि से,
करती       बहुत    कमाल। ।
करती      बहुत       कमाल,
संपदा        कहलाती      है ।
रखती      घर     को    साफ,
प्रगति    घर    में  लाती  है।।
'शुभम'    विकट    हथियार,
नशा   हो    हिरन,   पछाड़ू।
दुश्मन           भागे        दूर,
हाथ   में  हो  यदि   झाड़ू।।1

लानी        हो    बाजार    से,
यदि        झाड़ू    घर     एक।
मंगल   शनि   या दिन अमा',
ये      हैं      शुभ   दिन  नेक।।
ये      हैं      शुभ    दिन   नेक,
समृद्धि     सुख   घर में लाती।
दोषमुक्त          कर      धाम,
संपदा          को     बरसाती।।
झाड़ू              जाए        टूट,
अमा'     शनि  को  फिंकवानी।
गुरु     औ'     शुक्र    निषेध,
'शुभम'  शुभ दिन ही लानी।।2

टूटे        झाड़ू     को    कभी,
करना         नहीं       प्रयोग।
घर       में     आएँ     आपदा, 
बढ़ते             संकट     रोग।।
बढ़ते           संकट         रोग,
टूटकर          कूड़ा      करती।
सुख       समृद्धि    की हानि,
शांति      घर   भर की हरती।।
ऊर्जा          अशुभ   अबाध,
भाग       परिजन     के फूटे।
लाएँ            'शुभम'     तुरंत,
अगर       झाड़ू   जो    टूटे।।3

झाड़ें       मत   जूठन   कभी,
लेकर           झाड़ू       मीत।
लक्ष्मी      का     अपमान  है,
उचित        नहीं     ये   रीत।।
उचित        नहीं      ये   रीत,
न      लाँघें     झाड़ू  घर की।
पैर        नहीं      छू     जाय,
नीति   हो  ये   घर   भर की।।
'शुभम'        न       देखे   गैर,
नहीं      निज   कर   से फाड़ें।
खाद्य     -   वस्तु     को  दूर,
रखें     जब    घर   में झाड़ें।।4

नीचे       बिस्तर    के  कभी,
रखें       न     झाड़ू      मीत।
पति     -   पत्नी     संबंध   में,
 पड़े            खलल   ये   नीत।।
पड़े          खलल      ये नीत,
कलह     घर    में हो   जाती।
बढ़ता        व्यर्थ        विरोध,
विषमता        बनती  घाती।।
'शुभम'       रखोगे      ध्यान,
नेह,     ममता,   धन    सींचे।
चाहो        घर        में  प्यार,
न    रखना   बिस्तर  नीचे।।5

💐 शुभमस्तु !

27.05.2020◆11.00अप.

तरबूज [ गीत ]


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✍ शब्दकार©
🌹 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'
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मैं    शीतल   सुगंध से जाया।
इसीलिए   तरबूज़   कहाया।।

लाल रंग,   जल   से  भरपूर।
गर्मी, लू    सब   करता  दूर।।
मीठा    ठंडा      गूदा  लाया।
मैं  शीतल  सुगंध  से जाया।।

रक्त  चाप  को करे संतुलित।
भरे हुए हैं गुण भी अतुलित।।
मोटापा     भी   दूर  भगाया।
मैं    शीतल सुगंध  से जाया।।

शीश - वेदना  को  मैं  हरता।
लोहा और विटामिन भरता।।
ए   बी  सी का   स्रोत कहाया।
मैं शीतल   सुगंध  से जाया।।

भारत ने   मुझको  जन्माया।
मोडकिया एक गाँव बताया।।
जिला   जोधपुर  में  मैं छाया।
मैं     शीतल   सुगंध  से जाया।

कोई   कहता    मुझे मतेरा।
हदवाना      हरियाणा मेरा।।
नर- नारी  को बहुत सुहाया।
मैं   शीतल  सुगंध से जाया।।

तरबूजे    से   त्वचा  चमकती।
जल   की कमी दूर भी करती।।
ग्लूकोज     का   स्रोत  कहाया।
मैं     शीतल  सुगंध से जाया।।

मंगलवार, 26 मई 2020

नहीं [दोहा ]


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✍ शब्दकार ©
⛲ डॉ. भगवत स्वरूप' शुभम'
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नहीं   नहीं मुख से कहे,मन में हाँ का भाव।
कहो 'शुभम' कैसे चले, बिना नीर के नाव।।

नहीं   पास जाना कभी,जहाँ कुसंगति हेत।
मधुपायी     के संग में, बदनामी है   चेत।।

सुफ़ल  कभी मिलता नहीं,जो कर्मों में खोट।
करो    खुले में कर्म को, या पर्दे की  ओट।।

इश्क   हँसी खाँसी खुशी, औ' चोरी का राज।
नहीं   छिपाने से छिपें, इन पाँचों का साज।।

नारी   कहती ना नहीं, पर मन में विपरीत।
समझ    इशारे  को पुरुष, नारी की ये रीत।।

सीधे  पथ चलते नहीं,कवि कोविद या चोर।
निशाचरण भावे इन्हें,भानु अस्त लों भोर।।

सीधा जीवन -पथ नहीं,चलना बहुत सँभाल।
फूँक  - फूँक  पद रख यहाँ भावी बने कमाल।

मधुर बोल मोहक लगें, मन को दें सद्भाव।
जिनके    उर में विष भरा,नहीं भरेगा घाव।

नहीं    नीम के पेड़ पर,फल सकते हैं आम।
विधि वितरक हैं कर्म के, वैसा ही परिणाम।।

मैत्री      पुष्प गुलाब की,दुर्लभ इस संसार।
शूल    नम्र  कोमल नहीं,चुभना ही आचार।

'शुभम'  नाम में सार क्या,हो जाता विपरीत।
अमर    सिंह तो मर गए, नहीं सोम में शीत।।

💐 शुभमस्तु!

26.05.2020 ◆ 6.30 पूर्वाह्न।

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🙊 जनता का भगवान 🙊 [ कुण्डलिया]

🙊  जनता का भगवान 🙊
         [ कुण्डलिया]
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✍ शब्दकार ©
☘️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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धीमा - धीमा जहर ये, कहर बन रहा रोज।
नहीं बताना शेष कुछ,करनी है क्या खोज।।
करनी     है  क्या खोज,पालतू दुश्मन  सारे।
नेता    के  ये  वोट, नहीं   अब रहे बिचारे।।
'शुभम'  जहर के बीज,जानते जीवन बीमा।
मानवता    का नाश,कर रहे धीमा -धीमा।।

जामुन     खाने  के  लिए, आया है घड़ियाल।
बंदर    बैठा  पीठ  पर,समझ न पाया चाल।।
समझ  न पाया चाल, समय से चेत बढ़ गया।
रखा  कलेजा पेड़,डाल पर उछल चढ़ गया।।
'शुभम' धूर्त घड़ियाल,ठगा है वानर छन छन।
घड़ियालिन     की जीभ,नहीं चख पाई जामुन।

नेता     सारे  देश  के,  करते  मात्र विकास।
परिभाषा    को बदल कर,देते जन को आस।
देते  जन को आस, जाति घर सबसे पहले।
केवल  आत्म विकास,मार नहले पर दहले।।
'शुभम'    एक के लाख,लाख की नैया खेता।
जनता   का भगवान ,श्रेष्ठ है कितना नेता।।

आपद     आई  देश पर,   नेता जी खुशहाल।
कोरोना    के मित्र बन  ,करते रोज कमाल।।
करते     रोज  कमाल,  दोष सत्ता पर थोपें।
करना-धरना  शून्य, अश्क भर उनको कोपें।।
'शुभम'   मदद की बात,जहन में आती शायद।
होता   जन -उद्धार ,  दूर  ही होती  आपद।।

जड़ता        का पर्याय  है, जनता भारत देश।
नेता     सब  घेरे फिरें,जनता जी की   मेष।।
जनता    जी  की  मेष,चल  रहे आगे  चमचे।
मेष    गिर  रहीं कूप,  लुढ़कते धरा   खोंमचे।।
'शुभम'   अश्रु घड़ियाल, चाटती भोली जनता।
नेता      पीता   दूध ,झाग   पर मरती   जड़ता।।

💐 शुभमस्तु !

25.05.2020◆7.30 अप.

🤺🎠 महाराणा प्रताप 🤺🎠 [ बालगीत ]


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 🙏🌷शब्दकार ©
🎠 डॉ. भगवत स्वरूप' शुभम'
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राणा -   सा   मैं   वीर बनूँगा।
छत्रसाल  -  सा धीर   बनूँगा।।

तलवारें जो खन खन करतीं।
जोश    जवानों में जो भरतीं।।
वैसी   ही   शमशीर    बनूँगा। 
राणा    - सा   मैं वीर  बनूँगा।।

सुनकर   नाम  मुग़ल थर्राते।
अकबर    जैसे शीश झुकाते।।
मैं     ऐसा    रणधीर  बनूँगा।
राणा -  सा  मैं  वीर बनूँगा।।

चेतक   पर सवार जो रहता।
सदा     हवा से बातें कहता।।
निर्धन   का   मैं पीर  बनूँगा।
राणा  -  सा मैं वीर बनूँगा।।

घास  -  पात  की  रोटी खाते।
देश धर्म हित बलि बलि जाते।
भारत     की   तक़दीर  बनूँगा।
राणा  -   सा मैं   वीर बनूँगा।।

राजपूत       हों     या   बुंदेले।
यहाँ     खून  की होली खेले।।
मैं    कमान  का   तीर बनूँगा।
राणा -  सा   मैं वीर बनूँगा।।

🙏🌷शुभमस्तु !

25.05.2020 ◆3.15अपराह्न।

ग़ज़ल


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✍ शब्दकार©
🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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वो   इक़रार- ए-  इल्ज़ाम  करता नहीं ,
जो      ज़ुरूरी   वही   काम  करता नहीं।

उनकी  नफरत की तोहमत गले से लगा,
भूलकर  भूल अपनी तमाम करता नहीं।

अपने     चेहरे को   दिखलाता  है आइना,
फिर भी   कम्बख़्त  एहतराम करता नही।

 आँख में जिनकी नफरत का सुरमा लगा,
वो  मोहब्बत का कभी काम करता नहीं।

जानता   ही  नहीं  जो अवाम  की बेबसी,
निज़ाम   कम्बख़्त यही काम करता नही?

अपने    ही  मुल्क  का जो  है दुश्मन यहाँ,
ऐसे   गद्दार को खत्म हुक्काम करता नहीं।

शुभम ज़िन्दगी जो नामे-वतन कर  चुका,
ऐसा  इन्सां कभी भी आराम  करता  नहीं।

💐 शुभमस्तु !

24.05.2020◆5.30 अप.

रविवार, 24 मई 2020

नर से भारी नारी [ व्यंग्य ]


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✍ लेखक © 
 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम' 
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                   यह सर्वविदित है कि रामचरितमानस लिखते समय उसके प्रारम्भ में ही महाकवि गोस्वामी तुलसीदास ने इष्ट वंदना के साथ -साथ दुष्ट वंदना को भी प्रमुख स्थान दिया है: बहुरि बंदि खल गन सतिभाएँ, जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ। और ,  बंदउँ संत असज्जन चरना। दुखप्रद उभय बीच कछु बरना।। इसका मतलब यह कदापि नहीं कि मैं नारियों को साहित्य में कोई निम्न स्थान पर रखता हूँ।मैं उनका उचित मान - सम्मान देता हूँ।

               अद्यतन शोधों से यह आश्चर्यजनक निष्कर्ष प्राप्त हुए हैं कि कहानियाँ गढ़ने /लिखने में महिलाएँ पुरुषों के समान नहीं हैं, वरन उससे भारी ही हैं।अन्य स्थानों पर जैसे नर से भारी नारी है,वह मात्र राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के कहने से ही भारी नहीं हो गई, वह तो पहले भी भारी थी , आज भी भारी है और भविष्य में भी भारी ही रहेगी। व्याकरण हो या 'विवाहकरण' दोनों ही नारी को नर से भारी बनाते हैं। व्याकरण के अनुसार नर में दो औऱ नारी में स्प्ष्टत: चार मात्राएँ होती हैं। 'विवाहकरण' के बाद नारी नर से कितनी अधिक भारी हो जाती है , इस पर अभी शोध होना शेष है।पर इतना अवश्य है कि वह नर से कई गुना भारी हो जाती है। उस पर पत्नी , गृहिणी , भार्या, जाया, माया , माता, वामा , जननी, सजनी , कामिनी, भाभी, बुआ ,बहन , कांता , रमणी, प्रेयसि , सखी , मित्र , सचिव, आदि की जिम्मेदारियां उसके भार को बढ़ाने का काज करती हैं।

                              असली बात जो कहने की है ,उसकी भूमिका ही जब इतनी भारी भरकम हो जाएगी , तो निश्चित रूप से समझ लीजिए कि नर से भारी नारी है ही। अब इस बात पर यदि नरों को कोई ईर्ष्या पैदा हो, तो हो। जो बात है ,उसको कहना कोई गुनाह तो है नहीं। 'विवाहकरण' के बाद बेचारा पुरुष तो एक नारी के पीठ पर सवार हो जाने पर औऱ दुबला-पतला ,क्षीणकाय औऱ भार में हल्का हो जाता है। विवाह पूर्व वह केवल अपना ही भार उठाता था, अब भार्या का भार उठाते - उठाते उसकी कमर भी कमान हो जाती है। जिस पर रखकर वे तीरों का संधान किया करती हैं।

                हाँ, तो मैं यह कह रहा था कि अब मुंशी प्रेमचंद का युग नहीं । अच्छा हुआ अब वह युग चला गया। यदि वह होते या उनके युग के कथाकार आज होते तो उन्हें नारियों के भारीपन से ईर्ष्या अवश्य होती। आज जितनी लघुकथाकार नारियाँ हैं , उतने पुरुष नहीं हैं। मेरी सोच के अनुसार कहानी गढ़ने में जितनी कुशल एक नारी हो सकती है , उतना कुशल पुरुष नहीं हो सकता। कहानी नारी का सहज गुण है।मैं तो इसीलिए नारियों से सोलह फिट की दूरी बनाकर रखता हूँ। पता नहीं कौन नर से भारी नारी मेरी ही लघुकथा , कहानी, उपन्यास बना दे।इसलिए मैं उनसे डरता हूँ।कथात्व का सहज संस्कार रचाये-बसाए हुए नारी के लिए कहानी गढ़ना एक सहज कार्य नहीं , उसकी प्रकृति है।इसीलिए तो वे सास , बहू , पड़ौसिन, अपनी ननद की कहानियां सहज रूप में सुनाकर अपना और दूसरों का मनोरंजन करती रहती हैं। उनकी यही सहजता जब शब्दों के रूप में कागज पर साकार होती है , तो वह साहित्य हो जाता है।

                   नारी कभी 'बोर ' नहीं हो सकती। ये अलग बात है कि वह सारे मुहल्ले को , अपने पति और परिवार को भले बोर करती रहे। उसके मुखर सहित्य में जो कभी - कभी कानों में भी भरा हुआ दिखाई देता है,   कभी उदासीनता या बोरियत जैसी कोई बात नहीं परिलक्षित होती।उसका कारण आदि काल से चला आ रहा रस , जिसकी चर्चा पता नहीं किस अज्ञान के कारण तब से अब तक के बड़े -बड़े आचार्य और विद्वान नहीं कर पाए। वह सर्वकालिक रस है :- " निंदा रस"।इस रस के आनंद में निमग्न रहते हुए उन्हें अकेलापन भी कभी नहीं खलता। प्रोषितपतिका की अवस्था में भी उन्हें वह रस आनन्द विभोर कर उसकी चिंता का हरण कर लेता है। वास्तव में नर से भारी नारी है, वह एक ऐसी कलाकार है कि जिसमें पुरुष से अनगिनत गुना कलाओं की व्यपकता है।

 💐 शुभमस्तु !

 23.05.2020 ◆12.15 अपराह्न।

उत्तर [दोहा ]


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✍ शब्दकार ©
🌈 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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उत्तर    दिशि    इस  देह की ,
होती    सिर    की       ओर।
शयन   नहीं    करना  कभी,
रख निज सिर का छोर।।1।

मिलते    हैं    दो  ध्रुव कभी,
यदि    हों     एक    समान।
क्रिया   विकर्षण    की  बने,
वास्तु शास्त्र का ज्ञान ।।2।

दो उत्तर    ध्रुव   का मिलन,
जब        होता  नर    देह।
देह -  संकुचन  की  क्रिया,
होती         निस्संदेह।।3।।

उत्तर दिशि सिर का मिलन,
बढ़ता       रक्त  -    प्रवाह।
रक्त -  दाब    की  वृद्धि से,
बाधित     निद्रा -   राह।।4।

उत्तर दिशि  सिर का मिलन,
करता       हृदय     अशांत।
स्वप्न     बुरे     आते   सभी,
तन -  मन रहता क्लांत।।5।

उत्तर   सिर   दक्षिण  दिशा ,
में         आकर्षण       हेतु।
तन   बढ़ता लगता  सुखद,
सुखद  नींद     का सेतु।।6।

उत्तर दिशि सिर रख शयन,
ऊर्जा -    क्षय     का   हेत।
जब    उठता   वह भोर में,
थके     देह      नर चेत।।7।

प्रश्न   इधर     उत्तर    उधर,
लघु     का     ही   विस्तार।
उत्तर  में    हल    आगमन,
शंका  का       निस्तार।।8।

यक्ष    प्रश्न    है      सामने,
उत्तर     मिला    न   एक।
कोरोना    का   हल  यहाँ,
ढूँढ़  रहा     जग  नेक।।9।

कठिन -  परीक्षा   काल में,
चिंतित       है        संसार।
समाधान       उत्तर    नहीं,
खड़ा मनुज इस पार।।10।

प्रति      उत्तर   संधान    में,
विज्ञानी                संलग्न।
धरे    हाथ  पर हाथ  निज ,
घबराए  जन    भग्न।।11।

💐 शुभमस्तु !

23.05.2020 ◆7.00 पूर्वाह्न।

भीड़ [ मुक्तक ]


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✍ शब्दकार©
🌹 डॉ. भगवत स्वरूप' शुभम'
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दो   कदम पथ चले भीड़ बढ़ती गई,
मंजिलों     की तरफ़ बढ़ चढ़ती गई,
एक से   सौ फिर हजारों हजारों हुए,
नए    भव्य सोपान वह गढ़ती गई।

मैं किसी भीड़ का एक हिस्सा नहीं,
भले     नीड़  का एक किस्सा यहीं,
स्वच्छ   आकाश में मैं उड़ता स्वयं,
'शुभम'     भीड़ में खो न जाए कहीं।

एक        पत्थर उछाला गया भीड़ से,
वह     गिराया नहीं शून्य से नीड़ से,
एक     भी   आदमी जिम्मा लेता नहीं,
मैंने पत्थर उछाला था इस  भीड़ से।।

भीड़   का कोई भी   चरित्तर है क्या?
भेड़ों         की तरह अनुगमन है यहाँ,
बस  मैं   मैं की धुन में सभी मस्त हैं,
अस्मितागत    मनुज रह गया है क्या??

मैं मैं     का   विकल   स्वर    मैंने सुना,
आदमी      भेड़       है   ,यह  मैंने चुना,
दो  नयन    पर  पट्टिका भीड़ के देख लो,
आदमी       ने  स्वयं सिर अपना धुना।।

💐 शुभमस्तु !

21.05.2020◆2.15 अप.

🌳🌳 वट 🌳🌳 [ अतुकान्तिका]


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✍ शब्दकार ©
🌳 डॉ. भगवत स्वरूप' शुभम
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 वट : एक वृक्ष
प्रशस्त जिसका वक्ष,
विराटता का प्रतीक,
भारतीय संस्कृति का
 जीवंत सटीक,
मजबूत तना,
पल्लव शाखाओं से घना,
तना बना ठना,
हमारा वट वृक्ष।

प्राण वायु का
अनवरत संचार
प्रदूषण का निस्तार,
हमारी पावन
संस्कृति का विस्तार,
मजबूत मूल,
संरक्षकत्व का आदर्श
प्रतिदर्श,
सर्वत्र प्रसारित हर्ष,
हमारा वट वृक्ष।

सशक्क्त आश्रय 
सघन शाखा समूह,
अनेक नीड़ों में
बसे हुए पखेरू,
रात दिन लेते बसेरा,
सघन छाँव का
सहारा,
मानव और पशु
सबका उत्कर्ष,
नहीं है उसे 
किसी से अमर्ष,
वर्ष दर वर्ष
मूल का विस्तार,
बढ़ाता सुदृढ़ता
स्वावलम्बन अपार,
आँधियों प्रभंजनों
झंझावातों  से निस्तार,
सर्वथा अप्रभावी,
सुरक्षा संरक्षण का प्रमाण,
करता अहर्निश 
सबका ही त्राण,
हमारा वट वृक्ष।

हमारे गृह स्वामी
पिता किंवा पितामह,
परिवार के वट वृक्ष,
जिनका क्षण - क्षण
निज कुल को समर्पण,
उनकी सुदृष्टि,
बचाती हर कुदृष्टि,
करती सुख-वृष्टि,
दायित्व हमारा
उनकी सेवा ,
ऐसा  पावन
हमारा वट वृक्ष।

वटसावित्री का दिवस 
सुहागिनी नारियों का
 एक और सुअवसर,
करवा चौथ की तरह,
जब वे अपने पति की
दीर्घायु की
 प्रार्थना करतीं,
शुभ आशीष भी पातीं,
सुबह से ही 
करती हुईं व्रत,
बनातीं निज सुगम पथ,
पति -प्रेम में रत,
हमारा वट वृक्ष।


होती है जब
जग प्रलय,
बरसती नभ से 
भयंकर आग,
जल जाती सृष्टि,
होती फिर अपार वृष्टि,
जड़ चेतन सब
जल में निमग्न,
तब प्रभु वट वृक्ष
के एक पल्लव पर
देखते विनाश का नज़ारा,
करते हुए पुनः सृष्टि,
थामकर जल वृष्टि,
नए जीवन का संचार,
उस क्षण भी
अमर रहता 
हमारा अक्षुण्ण वट वृक्ष।

वृक्षों में जीवन है,
वट में भी,
वे हैं हमारे देव,
देना ही जानते हैं,
मानव करते हैं
अतः निरन्तर सेव,
वट सदृश पौधे लगाएं,
अपनी संस्कृति को
उज्ज्वल बनाएं,
वर्षा का आधार,
जीवन का आधार,
वट में  हैं हम ,
हम में  ही ही वट साकार,
प्यारा  दुलारा 'शुभम'
हमारा अक्षय वट वृक्ष,
हमारा आश्रय वट वृक्ष।

💐 शुभमस्तु !

22.05.2020 ◆6.20 पूर्वाह्न।

बुधवार, 20 मई 2020

लेकिन [ दोहा ]


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✍ शब्दकार©
🙊 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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वाहन        होता      शर्त  का,
'लेकिन'       का  यह   शब्द।
वरन,     किन्तु    कहला रहा, .
अव्यय      सदा    निशब्द।।1।

एक      वाक्य    की  योजना,
के      विरुद्ध       यह    शब्द।
इतर     वाक्य   रचता 'शुभम',
लेकिन    अब्द     निशब्द।।2।

लेकिन    किन्तु परन्तु  वर, 
 इसके               सारे       रूप।
कभी      वरन     कहते   इसे,
शब्दों    की         नवधूप।।3।

रूप         मधुरता    से   भरा,
लेकिन       कर्कश          बोल।
ज्यों     कौवा  कोकिल सदृश,  
चोंच         रहा    हो  खोल।।4।

ब्याह      रचा   पूड़ी   खिला,
रहना         छः    फुट     दूर।
लेकिन         दैहिक   दूरियाँ, 
 सुखदाई               भरपूर।।5।

शुक     जैसी    नासा   सुघर,
लेकिन     पिचके      गाल।
नाक    बताती      उच्च पद, 
तेरे       सुख     का   हाल।।6।।

भोला   भाला          रूप      है,
सेत           बगबगा        वेश।
लेकिन     शोषक   गिद्ध-सा, .
श्याम         खिजाबी    केश।।7।

नभ      में      काले     मेघ हैं, 
लेकिन        नीर     विहीन।
हम      सब    भय  से भीत हैं,
मुख     भी   शुष्क मलीन।।8।

माँ     के  आँचल    में छिपा,
लेकिन       बहुत   अधीर।
शिशु     नन्हा   दो माह का, 
ढूँढ़      रहा    है      क्षीर।।9।

तुकबंदी         में     निपुण हैं, 
नाम         संग      उपनाम।
लेकिन    प्रकृति    विरुद्ध वे,
सित   को   करते   श्याम।।10।

करें     समीक्षा    काव्य  की,
लेकिन     गिनें    न    दोष।
मात्र    सराहें      काव्यगुण,
उठे       अन्यथा    रोष।।11।

कवि    बस   सुनना  चाहते,
झर -   झर     झरते    फूल।
लेकिन       दोष  न देखना ,
  उनकी        कड़वी    भूल।।12।

उलटा  -   सीधा  कुछ लिखें,
कह        दें         खुशबूदार।
लेकिन    भाव न शिल्प के,
बतला     दोष    हजार।।13।

तुकबंदी       बिन   भाव  की,
शिल्प      भरे      घट  नीर।
किन्तु     आप कविता कहें,
उनको      सूर    कबीर।।14।

 नाम   -  'कामिनी'    'भव्यता', 
लेकिन         सब    विपरीत।
काँव     -  काँव   से    बोल हैं, 
नहीं        जानती     प्रीत।।15।

💐 शुभमस्तु ! 
20.05.2020◆7.30 पूर्वाह्न।


🦚🦜🌳🦚🦜🌳🦚🦜🌳

🌱💃 नारी-2 🌱💃 [ कुण्डलिया ]


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✍ शब्दकार©
🌱 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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कोयल - सा स्वर नारि का,
आकर्षण       का      यूप।
नर     को    बाँधे  मोह में,
डुबा      भ्रमर    या कूप।।
डुबा      भ्रमर    या  कूप,
सबल   सम्मोहन    ऐसा।
जैसी       बजती      बीन ,
नाचता   नर   फिर  वैसा।।
'शुभम'    सुघर     युव देह,
परस   विद्युत  का कॉइल।
किसे    न      खींचे  मीत,
मधुर नारी- स्वर कोयल।।1।

नारी  -  चरित  बखान  यों,
ज्यों      केले     में    पात।
पात      पात     में पात है,
पात      पात   में    पात।।
पात      पात   में     पात,
अंत    कोई   कब   पाया।
नारी      कामिनि     रूप,
नारि  ही  सबकी  जाया।।
'शुभम'       पहेली    गूढ़,
आदि   से अब  तक नारी।
सजा      भ्रमों   का जाल,
सृष्टि   ब्रह्मा की नारी।।2।

 नारी    की    छाया   बुरी,
अंधा        होता       नाग।
उस  नर की क्या हो दशा,
खेले   नित    सँग   फाग।।
खेले  नित    सँग    फ़ाग,
आग    के    घर में रहना।
घृत  सम   नर   का  रूप,
परिधि में फिर भी बहना।।
'शुभम'       उठाते    भार,
परस्पर    भारी -    भारी।
अजब     संतुलन    मीत,
प्रकृतिगत नर औ'नारी।।3

नारी   ऋण   ध्रुव  धारिणी,
नर    धन धारक        रूप।
उभय     ध्रुवों   के मेल से,
बनता     सृष्टि  -   स्वरूप।।
बनता     सृष्टि -    स्वरूप,
जगत  में    जीव   जनाए।
अंड    पिंड    के      रूप,
समय  से जग में     छाए।।
'शुभम'  ग्राहिका      नारि,
पुष्प   की   पावन क्यारी।
नर       दाता      सौभाग्य,
बीज-धरिणी  शुभ नारी।।4।

💐 शुभमस्तु !

19.05.2020 ◆2.30 अपराह्न।

www.hinddhanush.blogspot.in

💃 नारी-1 💃 [ कुण्डलिया ]


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✍ शब्दकार©
💃 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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'ना'   '  ना '   ही  करती  रहे,
नारी       का     यह    राज।
जो     समझे   मतिमान  वह,
होता         तदवत    काज।।
होता          तदवत    काज,
तुष्टि       पा    जाती   नारी।
जो        न     जानता    गूढ़,
वहीं      वह     अत्याचारी।।
'शुभम'          पहेली     नारि,
 जगत       नारी    को जाना।
'हाँ '         ही    समझे   मीत,
 कहे यदि नारी   'ना' 'ना'।।1।

नारी      माता    पुरुष  की,
नारी       भगिनी      मित्र।
नारी      देवी   ,      चंडिका,
नारी -      चरित     विचित्र।।
नारी   -  चरित       विचित्र,
न समझे ऋषि  मुनि ज्ञानी।
 भारी          नर   से     नारि,
नहीं    नर   उसका   सानी।।
'शुभम '      नारियाँ     कांत,
नहीं        नर  से  वह    हारी।
पल -        पल    बदले  रूप,
अपरिमित  महिमा नारी।।2।

नारी          शिक्षित    बेपढ़ी,
करती        तन  -    श्रृंगार।
भले  न     भोजन     उदर में,
तन  -     सज्जा  अनिवार।।
तन  -     सज्जा   अनिवार,
वर्ण    तन    मानक   गोरा।
पौडर           क्रीमें       पोत,
सजाती    निज   तन कोरा।।
'शुभम'      सुबह    से   शाम,
सजावट        में    रत भारी।
सास         ननद   बिक  जाएँ,
न     बदली भारत - नारी।।3।

सीधी         नारी     खोजना ,
जग     में     दुर्लभ    काम।
वामा        भी   पर्याय     है,
सिद्ध       सदा    यह  नाम।।
सिद्ध        सदा    यह  नाम,
तिया     जोरू     या जाया।
वधू            वल्लभा    रूप ,
अजब    वनिता की माया।।
सजनि          सजाए      देह,
'शुभम'       नर   धी   है बींधी।
वह        जन     होता   मूढ़ ,
नारि      को कहता सीधी।।4।

नारी         में    बसते  सदा,
विविध            विरोधाभास।
वधू        रूप    कुछ   और है,
और         रूप    कुछ सास।।
और         रूप    कुछ  सास,
कुमारी         कन्या       देवी।
गृहलक्ष्मी           का      रूप,
पोषिणी        पति   पदसेवी।।
'शुभम'       नारि   की    माप,
न        जाने       देव   , मुरारी।
नाच            रहा        संसार ,
न   जाना     कोई    नारी।।5।।

💐 शुभमस्तु !

19.05.2020 ◆1.15 अपराह्न।

www.hinddhanush.blogspot.in

आओ पर्यावरण सुधारें:2 [ गीत ]


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✍शब्दकार©
🌱 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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आओ    पर्यावरण   सुधारें।।
स्वयं तरें   सारा  जग तारें।।

नीला  अम्बर  दिखता काला।
अनगिन वाहन धूम निकाला।
कभी  नहीं हम  हिम्मत  हारें।
आओ      पर्यावरण    सुधारें।।

कृत्रिम  मानव जीवन जीना।
सूख   न जाए  कहीं पसीना।।
लगी    कलों की कपट कतारें।
आओ     पर्यावरण   सुधारें।।

बचपन    बूढ़ा - सा दिखता है।
बूढ़ा     कूड़ा - सा  लगता  है।।
पहले अपना स्वास्थ्य विचारें।
आओ     पर्यावरण      सुधारें।।

स्वयं  जाग  सबको जगवाएँ।
थल से   अंबर  शुद्ध   कराएँ।।
स्वच्छ  वायु फुफ्फुस में धारें।
आओ       पर्यावरण   सुधारें।।

पेड़   लगाकर   धरा   बचाएँ।
वर्षा    से   फ़सलें    लहराएँ।।
फूटें      दूध   दही   की  धारें।
आओ      पर्यावरण   सुधारें।।

काट रहा वन पादप मानव।
स्वयं बना  है मानव दानव।।
बनावटी   जीवन      संहारें।
आओ  पर्यावरण    सुधारें।।

प्रकृति  के  सँग सीखें रहना।
गंगा   सा हो निश्छल बहना।।
'शुभम' आज निज आज सँवारें।
आओ      पर्यावरण    सुधारें।।

💐शुभमस्तु !

18.05.2020 ◆9.15 अप.

आओ पर्यावरण सुधारें:1 [ गीत ]


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✍शब्दकार©
🌱 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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आओ     पर्यावरण   सुधारें  ।
स्वयं  तरें   सारा जग तारें ।।

छाया   धुआँ  हवा में गहरा।
अंधा    मानव   पूरा  बहरा।।
अपने    पाँव   कुल्हाड़ी मारें।
आओ     पर्यावरण  सुधारें।।

व्यर्थ  बहाता  मानव  पानी।
समझाएँ पर बात न मानी।।
धुआँ      छोड़ती   दौड़ें  कारें।
आओ      पर्यावरण   सुधारें।।

कीटनाशकों    को  वह खाता।
अन्न   फलों सब्जी में लाता।।
धरती     जल आकाश उजारें।
आओ       पर्यावरण   सुधारें।।

मनुज  प्रदर्शन में  मतवाला।
नहीं   चाहता  चमड़ा काला।।
गोरा      कोई   नहीं  हुआ  रे।
आओ     पर्यावरण    सुधारें।।

धरती    माँ से प्यार  नहीं है।
पॉलीथिन    अम्बार यहीं हैं।।
साश्रु    सुबकती  धरती माँ रे।
आओ       पर्यावरण   सुधारें।।

💐 शुभमस्तु !

कोरोना की कहानी:2 [ बालगीत ]


★★★★★★★★★★★★★
✍ शब्दकार©
🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
★★★★★★★★★★★★★
कोरोना    की  सुनो   कहानी।
सारी  दुनिया    है   थर्रानी ।।

रोज   हजारों   मरते  मानव।
कोरोना   का  बहुत बुरा ढव।।
बात   नहीं  ये  बहुत  पुरानी।
कोरोना    की  सुनो  कहानी।।

सन दो हजार बीस जो आया।
कोरोना   का भय जग छाया।।
धीरे  -   धीरे     हमने   जानी।
कोरोना     की  सुनो   कहानी।।

ढोकर     लाश   कहाँ ले जाएँ।
दफ़नाने   को जगह  न पाएँ।।
विषम    हो रही आज कहानी।
कोरोना     की  सुनो  कहानी।।

नहीं    उचित उपचार रोग का।
बढ़ता   जाता चरण शोक का।
नहीं   भेद   निर्धन   धनवानी।
कोरोना     की  सुनो  कहानी।।

है  विषाणु   कोरोना  घातक।
बना    आदमी  पूरा  पातक।।
खड़े   महल बँगले औ' छानी।
कोरोना   की   सुनो  कहानी।।

 आशाओं     का  अंत   नहीं है।
कोई    ऐसा    संत  नहीं  है।।
कर दे   इसकी बन्द  कहानी।
 कोरोना     की  सुनो  कहानी।।

 घरबंदी      बचाव   जीवन का।
फेरें नियम बाँध प्रभु मनका।।
'शुभम' न शिव का कोई सानी।
कोरोना     की   सुनो कहानी।।

💐 शुभमस्तु !

18.05.2020◆2.50अप.

कोरोना की कहानी:1 [ बालगीत ]


★★★★★★★★★★★★★
✍ शब्दकार©
🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
★★★★★★★★★★★★★
कोरोना   की  सुनो   कहानी।
जिससे दुनिया बड़ी डरानी ।।

चीन  देश   ने  उसे    बनाया।
शहर   वुहान   लैब  में  पाया।।
नींद   नयन   की गई उड़ानी।
कोरोना   की  सुनो  कहानी।।

रूस    फ्रांस इटली अमरीका।
माल   उड़ाते थे  सब  नीका।।
ब्रिटिश कोरिया पाकिस्तानी।
कोरोना की  सुनो   कहानी।।

मुँह पर मास्क लगा घर रहते।
देह  दूर  रख   वंदन   कहते।।
धोते    हाथ सोप  सँग   पानी।
कोरोना    की  सुनो  कहानी।।

अमरीका   में    रोना - धोना।
काँपा   ट्रम्प भूल कर सोना।।
दवा   भेजता   भारत  दानी।
कोरोना    की  सुनो कहानी।।

ले कर   में  इमरान  कटोरा।
कहता  भर दो थोरा -थोरा।।
अपनी हमको जान बचानी।
कोरोना   की  सुनो  कहानी।।

मोदी   जी   घरबन्दी  करते।
निर्धन  के दुख पल में  हरते।।
नहीं  जगत में  उनका  सानी।
कोरोना   की  सुनो  कहानी।।

अस्पताल   शव घर में बदले।
किए चीन ने  सागर  गदले।।
देश   बन   गए   कब्रिस्तानी।
कोरोना    की  सुनो कहानी।।

💐 शुभमस्तु !

18.05.2020◆2.20अप.

सोमवार, 18 मई 2020

तलवार [ दोहा ]


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✍ शब्दकार©
🖊️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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तल   तक करती वार जो,    कहलाती तलवार।
अपने     शस्त्रागार  में ,   शोभित म्यानाकार।।

उन      वीरों     का युग गया,लड़ते खड़े समक्ष।
कपटी    कलयुग  चल रहा,   लड़ते बैठे कक्ष।।

तोप     मिसाइल टैंक युग, विदा हुई तलवार।
चलती    थीं   खनखन,  सभी लेतीं शीश उतार।

कलमवीर     की लेखनी, नवयुग की तलवार।
अमिट   घाव  करती  सदा,  अंतर का संहार।।

कलम    उठाओ   शत्रु   पर,चीन पाक नापाक।
निज      तलवारी वार से,जमा विश्व में धाक।।

कवि    लेखक के हाथ में,  पावनतम तलवार।
 घाव करो अरि   वक्ष में,लखे न घर का द्वार।।

वीर    रौद्र     रस का   करो,वीर हृदय संचार।
आगे   व  ह बढ़ता   रहे,   विजयश्री के द्वार।।

कलम   मंत्र  पढ़ तेग का, करके  दुर्गा ध्यान।
करो  वीर  रस   से  भरी, कविता का संज्ञान।।

तेग          तुम्हारी  लेखनी ,कविता तेरा  वार।
मौन  मौन में मुखर है, करो कलम से प्यार।।

सैनिक   है   मैदान में,कवि की यह तलवार।
रोमांचक    आल्हा   कहे,करती अरि संहार।।

बनो   चंद कवि सेशुभम उगलो अनल अपार।
टिके    न दुश्मन   जंग में,  कर मन भेदी वार।।

💐 शुभमस्तु !

18.05.2020 ◆6.25 पूर्वाह्न।

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...