गुरुवार, 31 मार्च 2022

तेरे जीवंत चित्रों का दरबार: चित्रगुप्त दरबार 🤖 [ अतुकांतिका ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🤖 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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तेरे चारु अथवा

अचारु चरित्रों का

गुप्त दरबार,

तेरी अपनी

सीमा के पार,

लगा हुआ है।


किसी को

स्वर्ण सिंहासन 

किसी को

पर्वतीय ऊँचाइयाँ,

किसी के लिए

खुदा हुआ 

गहरा आग का

कुँआ है,

जो कुछ भी

तेरे अतीत में

हुआ है 

अथवा किया है,

जीवन जो

तूने  जिया है,

वही तो 

बिना आवरण 

तू स्वयं भी

यहाँ धर लिया है,

क्या तूने फाड़ा 

क्या सिया है।


न्याय का दरबार है ये

जो जीवन भर 

गुप्त ही रहा,

हर आम और खास से

लुप्त ही रहा,

यहाँ कुछ भी

गुप्त भी नहीं है,

लुप्त भी नहीं है,

सब सही ही सही है,

 इस जीवन के  अंत में

खुल गई तेरी

 पक्की बही है,

न्याय का सच्चा दरबार

सजाने और

 सजा देने का

महा दरबार,

दूध का दूध

पानी का पानी,

वहाँ जाना है तुझे

जहाँ जातियाँ नहीं,

भ्रांतियाँ भी नहीं,

सब कुछ सही ,

खुलने वाली है

सच्ची बही,

यहीं है 

तेरे कर्मों का 

दरबार!


माटी के खेत में

कुछ ऐसा उगा ले,

जो जन्म जन्मांतर तक

तेरी योनि को सजा ले,

जन्म लेकर तो

सुअर कुत्ते भी

किसी तरह 

जी लेते हैं,

एक -एक

अस्थि खंड के लिए,

लड़ते हैं,

औऱ निबट जीते हैं,

क्या जीना

किसी मच्छर की तरह

पल भर में 

मसल देते हैं,

ऐसे जिए तो

क्या जिए,

क्या यही 

मानव धर्म है?

पर बेशर्मों की 

आँखों में

क्या शेष 

लेश शर्म है?


🪴 शुभमस्तु !


३१.०३.२०२२◆४.३०पतनम मार्तण्डस्य।

बुधवार, 30 मार्च 2022

पेट रॉल करने लगे 🚖 [ दोहा ]

 

[पैट्रोल, चुनाव,कोरोना, मँहगाई]

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✍️ शब्दकार ©

🚖 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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         🌻 सब में एक  🌻

मँहगाई   की  मार  से, जीना है    दुश्वार।

पैट्रोल  इतरा  रही,चलें न वाहन  कार।।

पेट रॉल  करने  लगे,   कोई नहीं   उपाय।

पैट्रोल उड़ने  लगी,आसमान में   हाय।।


निकल  गई मँझधार से,तट पर भारी नाव।

खाया बहुत चुनाव ने,जनता पर ही ताव।।

मतमंगे  करते   सभी, वादे मधुरस    घोल।

हर चुनाव  के बाग में, बोलें कोकिल बोल।।


कोरोना के नाम से,जन- जन है भयभीत।

घबराहट बढ़ती  सदा,आता  है जब  शीत।।

कारण क्रूर विषाणु का,मत बनना  हे  मीत।

कोरोना आए नहीं,हो जन-जन की जीत।।


डाहिन मँहगाई बड़ी,डसती अबल गरीब।

त्राहि - त्राहि  जनता करे,बाँधे पीठ  सलीब।।

धन-अभाव में जी रहे,अति गरीब बहु लोग।

मँहगाई की मार से, सहते स्वजन  वियोग।।


        🌻 एक में सब 🌻

मँहगाई  को  साथ  में,

                       लेकर चले चुनाव।

कोरोना     पैट्रोल   भी,

                        नित्य दे रहे घाव।।


🪴शुभमस्तु !


३०.०३.२०२२◆१०.१५आरोहणं मार्तण्डस्य।

चेतन-भावी चैत 🛕 [ दोहा ]

 

[चैत, उपवास,प्रतीक्षा,निर्णय,मनमीत]

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✍️ शब्दकार ©

🛕 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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           🌾 सब में एक 🌾

पूनम  तिथि चित्रा नखत,देता चेतन   भाव।

चैत मास पहला 'शुभं',चले सहज जन नाव।

चैत  और  वैशाख  में,आया   है   ऋतुराज।

ज्ञान-बोध जाग्रत करे, प्रमुदित हों सब आज


माँ  दुर्गा की  साधना,पूजा विविध   प्रकार।

भक्त करें उपवास नव,करने बुद्धि सुधार।।

माँ-चरणों में वास हो,वही 'शुभम' उपवास।

मन पवित्र निर्मल रहे,नहीं जान  नर  हास।।


वासंतिक  नवरात्रि  की,हुई प्रतीक्षा   पूर्ण।

दिन आए  वे चैत्र के,करें न मन  का   घूर्ण।।

साधक बन पूजा करें,अब न प्रतीक्षा   शेष।

सात्विकता परिपूर्ण हो, अंतर्मन  का   वेष।।


निर्णय लेने  में कभी,करना  मीत   न  देर।

प्रथम  नियंत्रण आग का,करे  नहीं   अंधेर।।

निर्णय-क्षमता तीव्र हो,वही श्रेष्ठ    है  ज्ञान।

सफल प्रशासक जानिए,लेश न हो अभिमान


याद  सताए  चैत में,  कब  आए  मनमीत।

नींद न  आए  रात  में, मन भारी  भयभीत।।

जब तक मन मिलता नहीं, कहें नहीं मनमीत

मन से मन मिलता तभी, जब हो उर  में तीत


 🌾  एक में सब  🌾

निर्णय    कर    उपवास  का,

                     चैत-  मास  में     तीय।

बाट   करे  मनमीत  की,

                      अटल प्रतीक्षा   हीय।।


🪴शुभमस्तु !

३०.०३.२०२२◆८.००आरोहणं मार्तण्डस्य।

सोमवार, 28 मार्च 2022

हेंचू जी उवाच 🐎 [ बाल कविता ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🐎 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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हेंचू  जी   हय    से   सतराये।

आँख   दिखाते   वे    गुर्राए।।


'घोड़ा   जी   तुम   गर्दभवंशी।

एक सदृश हम सब के अंशी।


हमसे अलग -थलग रहते हो।

उच्च अंश का क्यों कहते हो?


हम   दोनों   हैं   भाई -  भाई।

क्यों ऊँची निज जाति बताई?


छोटा कद   हमने  यह माना।

भैया   बड़ा   तुम्हें  है जाना।।


फिर भी तुम  इतने  इठलाते!

ताँगे   में   जुड़कर   इतराते।।


दूल्हे   को   ऊपर  बिठलाते।

हमको अपनी आँखदिखाते।'


घोड़ा बोला  'अनुज    हमारे।

तुम हो गर्दभ  हृदय- दुलारे।।


काम हमारा  अलग  बँटा है।

इससे कद क्या कभी घटा है!


मन से 'शुभम'काम निबटाओ

श्रमिक जंतु की पदवी पाओ।'


🪴शुभमस्तु !

२८.०३.२०२२◆११.३० आरोहणं मार्तण्डस्य।

सजल 🌾🌾


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समांत-इयाँ।

पदांत  -अपदान्त।

मात्राभार -26.

मात्रा पतन-शून्य।

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✍️ शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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व्यक्ति से भी हैं वृहत्तर व्यक्ति की परछाइयाँ

घट रही   हैं बुद्धिमानी की सदा    ऊँचाइयाँ


पंक में खिलते कभी थे कमल मन को मोहते

छा गई  हैं उस सरोवर में सघनतम   काइयाँ


आदमी का हृदय उथला हो रहा है नित्य ही

अब नहीं होतीं मनुज में गहनतम गहराइयाँ


नियत कब बदलेगी तेरी अब नहीं विश्वास ये

एक  पल में तू बदलता चौदहों  अँगड़ाइयाँ


आदमी  के  चेहरे का तेज तो उड़  ही  गया

दिख रहीं  बदसूरती की साँवली-सी  झाइयाँ


भ्रमण कर देखा'शुभं'ने आदमी की चाल को

खोदता  है आदमी ही आदमी को   खाइयाँ


🪴शुभमस्तु !


२८.०३.२०२२◆७.३०आरोहणं मार्तण्डस्य।

रविवार, 27 मार्च 2022

लोटाधारी 🐇 [ बाल कविता ]

 

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✍️ शब्दकार ©

⚱️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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गए    खेत     में    लोटाधारी।

लोटा  लिए   हाथ   में भारी।।


ढूँढ़ी  आड़  झाड़   की  कोई।

मूँज  मेंड़ पर थी   बिन बोई।।


वहीं  जुगत  करने  की ठानी।

लोटा  रखा भरा   था  पानी।।


झाड़ी  में  खरगोश  एक  था।

हर आहट पर वह सचेत था।।


आहट सुनकर  बाहर  भागा।

सोते   से  मानो  वह जागा।।


लुढ़क गया पानी  का  लोटा।

भागा निकल शशक जो मोटा।


भौंचक     भारी    लोटाधारी।

व्यर्थ शौच   की सब तैयारी।।


लोटा   उठा    शीघ्र  वे  धाए।

कल से झट लोटा  भर लाए।।


🪴 शुभमस्तु !


२७.०३.२०२२◆६.३०

पतनम मार्तण्डस्य।

शनिवार, 26 मार्च 2022

घुटना-छू ,संस्कृति छू! 🌈 [ व्यंग्य ]

 


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 ✍️ व्यंग्यकार © 

 🌈 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम' 

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      अतीत की बात हो गई ,जब लोग अपने से ज्ञान, गुण और आयु में बड़े, गुरुजन, माता -पिता , इष्ट देवता आदि के चरण स्पर्श किया करते थे।अब तो पैर छुआने की महत्वाकांक्षा रखने वाले लोगों -लुगाइयों की लिस्ट बहुत लंबी हो गई है। जैसे :नेता, अधिकारी, मंत्री आदि। बहू के द्वारा सास ,श्वसुर ,पति ,ननद आदि के पैर छूने की परम्परा भी रही। किन्तु ज्यों -ज्यों पैर - छुआने वालों की सूची ऊँची होती गई , छूने वालों के हाथ छोटे पड़ते गए। पहले दंडवत प्रणाम किया जाता था , किंतु डंडों की अति बढ़वार ने कुछ ऐसा जुल्म ढाया कि चरण- स्पर्श की ही अंतिम सीमा बन गई। अब दण्डवत प्रणाम इतिहास बनकर रह गया।उसके बाद चरण - स्पर्श का युग आया ,जो राजनेताओं की बाढ़ के कारण चरण - चुम्बन में बदल गया। 

          जब चरण छुआने वालों की सूची ऊँची होने लगी ,तो चरण -छुवइया क्या सीढ़ी लगाते चरण छूने के लिए? इसलिए वे मात्र घुटनों तक ही टिक कर रह गए।एक औपचारिकता का प्रदर्शनात्मक निर्वाह।उधर जब सब अपने -अपने अहं में सब तने हुए हुए हों तो कौन किसके पैर छुए ! इसलिए एक औपचारिकता पूरी कर लो औऱ अपना उल्लू सीधा करने की तजबीज कर डालो। जब घुटने पर घुटने छूते - छूते मात्र घुटन्ना तक ही सीमित हो गए,तो बेचारे घुटने भी घुटन के मारे कब तक बच पाते , वे पिराने लगे, घुटने लगे। उनमें दर्द होने लगे। अब आदमी ऊपर चढ़ते -चढ़ते जाँघों तक पहुँच गया है। निरंतर प्रगति हो रही है।अरे भाई ! घुटने ,जाँघें भी तो चरणों का ही हिस्सा हैं। कहीं भी छू डालो, स्पर्श -करंट वहाँ तक चला ही जाएगा , जहाँ तक उसे जाना चाहिए।   सो सज्जनो ! औऱ देवियो!! अब घुटनों और जाँघों को आराध्य मानकर कर इससे ऊपर जाने की कोशिश भी मत करना ,अन्यथा आपके ऊपर इंडियन पैनल कोड की धाराएँ ही बहती नज़र आएंगीं।

    जब चरण -स्पर्श की बात चली है ,तो ये जानना भी तो आवश्यक है कि अंततः ऐसा आचरण एक मानुष दूसरे मानुष के साथ क्यों करता है?युग -युग से करता आ रहा है। आज तो उसकी लकीर ही पीटी जा रही है ,जो पिटते-पिटते चरणों से जाँघों तक की यात्रा कर चुकी है।कहा जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति में एक तेज होता है , जो उसके नेत्रों और चेहरे पर चमकता है। किंतु हमें यदि उससे उसके तेज का कुछ अंश चाहिए तो उसके चरण या पैर नहीं ,बल्कि उसके चरणों के नाखूनों के अग्रिम भाग का स्पर्श करना चाहिए। इससे चरण छूने वाले के हाथों के माध्यम से उस व्यक्ति के तेज का कुछ अंश उस चरण -स्पर्शक में चला जाता है। जो लोग इस बात को जानते हैं ,वे किसी से भी अपने चरण स्पर्श नहीं करवाते। अति महत्त्वाकांक्षी , दूसरों की दृष्टि में अपने को बड़ा दिखने का प्रदर्शन करने वाले , राजनेता , कुछ तथाकथित रिश्तेदार अपने चरण छुववा कर गौरव की अनुभूति करते हैं।जिन्हें अपना तेज किसी को नहीं देना ,वह कोई मूर्ख थोड़े ही है जो,ये काम करवाएगा !

      अब आप ये भी न समझें कि आप अपने चरण छुआना चाहते हैं तो आप मूर्ख हैं। जी नहीं, मूर्ख नहीं, अति महत्वाकांक्षी तो निश्चित ही हैं।अब मेरी ये बात जानकर आप अपना निर्णय बदल लें या मेरी बात को मेरी अज्ञानता मानकर इस आँख से देखें औऱ उस आँख से बाहर कर दें, दाएं कान सुनें औऱ बाएँ से बाहर का रास्ता दिखा दें ,तो कोई क्या कर सकता है ; क्योंकि आज कोई भी किसी से कम ज्ञानी नहीं है। आज की नई युवा पीढ़ी तो कुछ आवश्यकता से भी अधिक ज्ञानी हो रही है ,जो किसी ज्ञानी, अनुभवी ,बड़े बुजुर्ग की बात मानने और सुनने को भी तैयार नहीं है। अब नहीं है ,तो नहीं है कोई क्या कर लेगा उनका। उनका अहंकार और गर्म खून का उबाल पुरानी पीढ़ी ,अपने माता -पिता , गुरुजन आदि सबको नकारता है। बस अपने को सही और सबको मूर्ख औऱ अज्ञानी मानता है।इसलिए पाँव छुआने के लालची घर -घर ,दर-दर, गाँव-गाँव, नगर - नगर बिना ढूँढ़े मिल ही जाएँगे। कोई ज्योति पुंज लेकर ढूँढने की भी आवश्यकता नहीं है। 

        'घुटना - छू' संस्कृति की बढ़वार ही आ गई है। छूने वालों की भी मजबूरी है कि वे किसी की महत्वाकांक्षा को पूर्ण करने के लिए किसी के चरण बनाम घुटने बनाम जाँघें छुएँ।थोड़ा -सा झुके या बिना ही झुके झट से जाँघें छू लीं । जींस और टाइट पेंट धारी नई पीढ़ी झुके भी कैसे ? उनकी फ़टी हुई फैशनी जीन्स से उनके घुटने ही बाहर आ जाएँगे। वे टाइट ही इतनी हैं कि झुकने ही नहीं देतीं।ऐ चरण छूने वालो ! हाँ ,इतना ध्यान अवश्य रखना किसी नारी की जाँघें मत छूने लग जाना। पता नहीं क्या परिणाम हो। कहीं आपको ही विपरीत न पड़ जाए। इतना अवश्य है कि वर्तमान कालीन 'घुटना- छू संस्कृति ' से संस्कृति ही (उड़न) छू होने लगी है।'नेता युग' में 'नेता- संस्कृति' ही तो पनपेगी। जिसका पोषण नई पीढ़ी बाकायदा घुटने और जाँघें छू -छूकर कर रही है। 

 🪴 शुभमस्तु ! 

 २६.०३.२०२२◆ ७.१५ पतनम मार्तण्डस्य।


पराकाष्ठा 🩸 [अतुकांतिका ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🙈 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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निःशब्द हो जाती है

लेखनी,

सौंदर्य की देवी

पच्चीस वर्षीया

पूजनीया

हे गिरिजा टिक्कू!

1990  में 

कश्मीर के बाँदीपोरा में

हुई तुम्हारे साथ 

अमानवीय घटना की

करके कल्पना!


हैवानों ने 

सामूहिक बुरे 

काम के बाद,

आरा मशीन से

कैसे चीर दिया होगा

तुम्हारा शरीर?

मध्य में से

निजी अंग के मध्य

मातृत्व को रौंदते हुए

मस्तक के बीच!

क्या भरी थी

उनके दिमाग में

वीभत्स कीच!

कैसे रहे होंगे वे नीच!


ईश्वर उन्हें जहन्नुम

रसीद करे,

जो मानवता को

गलीज भाव से

शर्मसार करे!

जीते जी मरे!


सोते रहे नेता

टीवी और अख़बार,

न कोई केंडिल मार्च!

न कोई विरोध!

न कोई शोर!

क्या इन सभी को था

यह सब नरक स्वीकार?

धिक्कार ! धिक्कार !!

महा धिक्कार !!!

नहीं सुनाई दिया

किसी को

उस अबला का चीत्कार!


मर गई

 मानवता उस दिन!

जब झेला होगा

उस महान नारी ने

वह निंदनीय छिन,

फट क्यों न

 गया आकाश!

क्यों रही ये धरती

भी मौन!

थम गया क्यों

सर्वत्र व्यापक पौन,

अंततः वे नीच

थे कौन?

मानवता के नाम पर

कलंक!

अपने को कहते

अमन पसंद शांतिदूत!

अथवा मानव देह में

थे यमदूत?

नहीं! नहीं!!

ये यमदूतों का अपमान है!

यमदूत न्याय के दूत हैं,

सूर्यपुत्र यम के

आदेश के 

उज्ज्वल रूप हैं!

कोई उचित नाम भी

क्या देना है!

इस धरा धाम पर 

ऐसे हैवानों की

खड़ी निर्मम सेना है।


🪴 शुभमस्तु !


२४.०३.२०२२◆ ६.००पतनम मार्तण्डस्य।

आओ जाति-जाति खेलें 🙈 [ व्यंग्य ]


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 ✍️ व्यंग्यकार © 

 🙉 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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         हम सब अपने को इंसान कहते हैं।पशु -पक्षियों, कीड़े-मकोड़ों से भी बहुत महान। इस धरती माता की शान।ज्ञान औऱ गुणों की आकाश जैसी अनन्त खान। मियाँ मिट्ठू अपने ही आप इंसान।जंगल में खड़े होकर अपनी मूँछें रहा है तान।इस बात से कौन रहा है अनजान! परंतु इस मानव के सभी खेल हैं बड़े निराले।समझ नहीं सकता कोई इसकी चालें।जो बन जाएँ किस क्षण इसकी कुचालें! कोई नहीं जानता। 

       यों तो मनुष्य ये कहते हुए नहीं थकता कि मनुष्य पहले पशु है ,बाद में मनुष्य।किन्तु मुझे यह पहले औऱ बाद में भी पशु ज्यादा औऱ बीच - बीच में मनुष्य दिखलाई पड़ता है।यत्र -तत्र इसकी मानवता का देव स्वरूप दिखाई दे जाता है , अधिकांश में वह पशु ही दिखाई पड़ता है।उसकी पाशविकता उसके सिर चढ़कर ही नहीं बोलती ,पूरे शरीर, मन और मष्तिष्क पर ही सवार होकर चीखती, चिल्लाती ,गाती और बजाती है।अपने अस्तित्व और अपनी खुशी के लिए किसी को भी फूटी आँखों पसंद नहीं करता।यहाँ तक कि एक ही छत के नीचे साथ -साथ रहने वाली नारी ;जिसे सहधर्मिणी ,पत्नी ,भार्या, देवी, कांता, लक्ष्मी औऱ न जाने कितने सुनहरे नामों से अभिहित करता है ,उससे नित्य निरंतर महाभारत करना इसका प्रियतम खेल है। अपनी अभिजात्यता,देह की शक्ति, दिमाग की असीम पावर को सिद्ध करने के किसी भी अवसर को छोड़ना तो मानो किसी ने उसे क्लीव कह दिया हो। भला कोई क्लीव कहे ,और वह सहज स्वीकार कर ले ,कभी हो सकता है ऐसा? ये तो एक छत के नीचे के संग्राम और संगम की बात। जहाँ प्यार है,वहीं रार है ,तकरार भी है। सब कुछ नकद है ,उधार कुछ भी नहीं है। अड़ौस -पड़ौस में कोई भी हो ,उससे जलना, लड़ना ,भिड़ना , अपना उल्लू सीधा करना ये इस 'महामानव' के 'अति मानवीय' गुण हैं।कभी कभी प्यार प्रदर्शन करना कभी नहीं भूलता।इस प्यार प्रदर्शन के लिए ही वर्ष में होली, दिवाली, दशहरा, ईद,लोहड़ी आदि अनेक अवसर पैदा कर लेता है।विवाह को भी उसी उत्सवधर्मिता का अंग बनाकर नाच- कूद कर लेता है। 

      आदमी का सबसे बड़ा औऱ लोकप्रिय खेल है 'जाति-जाति'। इसके लिए बराबर वह विभिन्न सुअवसर पैदा कर ही लेता है।जब जान पर बन जाती है तो 'जाति' को कौने में उठाकर रख देता है।जब प्राणों पर बन जाती है तो हॉस्पिटल में नहीं पूछता कि जो खून उसे चढ़ाया जाने वाला है ,वह किस जाति के व्यक्ति का है?डॉक्टर,नर्स की जाति क्या है;यह भी नहीं जानना चाहता ।ट्रेन,बस या बाजार में खाया जाने वाला भोजन किसने बनाया ?वह किस जाति का है! गोल गप्पे के खट्टे पानी में बार -बार हाथ डुबाकर गोल गप्पे खिलाने वाले की जाति क्या है? होटल के मालिक, बियरर, कर्मचारी, रसोइया किस जाति से संबंध रखते हैं, कुछ भी जानने -पूछने की जरूरत नहीं समझी जाती।यहाँ वह देवता बन जाता है। साक्षात देवता। चौके से चौकी तक , बहुत ज्यादा चौक तक जाति का जबरदस्त खेल चलता है।

          लोकतंत्र का महान उत्सव कहे जाने वाले मतदान पर्व का जातीय खेल किसने नहीं खेला! नेता, अधिकारी, मतदाता ,प्रत्याशी कोई किसी से पीछे नहीं है। चाहे परोक्ष हो या प्रत्यक्ष ;जाति-खेल तो जोर शोर से खेला ही जाता है। बल्कि प्रत्याशी को टिकट ही इस आधार पर लेने होते हैं ,कि उसकी जाति की बहुतायत है अथवा नहीं।यही जाति के खिलाड़ी जब संसद और विधान सभा में जाते हैं तो वहाँ भी इस खेल में खोए रहते हैं। उन्होंने पारंगतता ही जातीय- खेल में प्राप्त की है ,तो उससे विमुख कैसे रह सकते हैं।जनता को नौकरी देने में भी यह जाति का नगाड़ा खूब बजाया जाता है। नेता तो नेता ,बड़े- बड़े विद्वान प्रोफ़ेसर, प्राचार्य, वकील ,इंजीनियर ,अधिकारी,संत -महंत जातीय -खेलों के पक्के खिलाड़ी होते हैं।जाति के बिना उनका अस्तित्व ही नहीं, तभी तो अपने नामों के आगे -पीछे विभिन्न जाति सूचक सुनहरे शब्द जोड़ना नहीं भूलते;ताकि उनकी जाति का बंदा बिना पूछे -बताए हुए ही समझ जाए कि अगला अपनी ही जाति का है। कवियों के झुंड भी इसी आधार पर निर्मित किये जाने लगे हैं।समाजसेवियों ,धर्म प्रेमियों, मज़हबी जनों सबमें जाति-खेल अति लोकप्रिय हैं। कोई किसी से कम नहीं है। 

              सब कौवे एक जैसे हो सकते हैं ,परन्तु मनुष्य नहीं।सब गधे, घोड़े, भैंसे, गाय ,साँड़, भेड़ ,बकरी, कुत्ते ,बिल्लियाँ, चूहे ,मुर्गे, मुर्गियाँ भले ही एक जैसे हो जाएँ ,परंतु मानव यदि एक जैसा हो जाये तो मानव किस बात का !मानव बिना जाति के जिंदा नहीं रह सकता ।कुछ जातियों को तो जाति के खेलों को बढ़ा - चढ़ा कर जनता में प्रचार-प्रसार करना मुख्य कार्य है। वे इसके कार्य के ठेकेदार हैं। उनकी रोटी ही जातिगत खेलों से चलती है। इसलिए त्यौहारों का आयोजन भी मनुष्य और मनुष्यता के नाम पर न होकर जातियों में बाँट दिया है। रक्षाबंधन :ब्राह्मण, दीवाली: बनिया, दशहरा: क्षत्रिय और होली: शूद्रों के त्यौहारों के नाम से ख्याति प्राप्त किये हुए हैं। पशु -पक्षियों, पेड़-पौधों को भी जातियों के खेल के शिंकजे में फँसाने का खेल भी कम जोर शोर से नहीं चलाया जा रहा है।एक दिन ऐसा भी आने वाला है ;जब धरती, आकाश, अग्नि, वायु औऱ सागर को भी जातियों के खेल में सम्मिलित कर लिया जाएगा।यह सब इस मानव के ही कारण होगा।खून भले सबका लाल हो ,पर चमड़ी के रंग के आधार पर भेदभाव का खेल बहुत पुराना है ,जो आज तक और अधिक ताकत के साथ फल -फूल रहा है।मनुष्य अंततः मनुष्य है; उसका जातिवादी खेल ब्रह्मांडव्यापी होने वाला है ,जब विमान, ट्रेन,बसें और जलयानों की भी जातियाँ होंगीं । 

        जब जाति से जाता रहता है मानव अथवा दुनिया से जाता रहता है ; तब वह मात्र देह (बॉडी) मात्र रह जाता है। मनुष्य भी नहीं ,वर्ण भी नहीं,अवर्ण भी नहीं, सवर्ण भी नहीं ;मात्र एक' पार्थिव शरीर।' यही है उसकी वास्तविक तस्वीर। जाति जाती रहने वाली है ,पर उसका गुमान कितना? न जाने तू किस यौनि में क्या बनने वाला है ? कुछ ज्ञात है ? कीड़ा ,मकोड़ा, गधा , घोड़ा , शुद्र, ब्राह्मण, वैश्य या क्षत्रिय ! फिर किस बात का तनना? किस बात का बनना? न किसी की सुनना! न किसी की मानना! 

 कदली का तरु जात है,ज्यों पल्लव में पात। 

 जात, जात में जात है,जात, जात में जात।। 

 🪴 शुभमस्तु ! 

 २६.०३.२०२२◆११.३०

 आरोहणं मार्तण्डस्य।


गुरुवार, 24 मार्च 2022

कविता खेत-खलिहान की 🌾 [ दोहा ]

 

[फसल,कंचन,खेत,माटी, खलिहान]

               

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✍️ शब्दकार ©

🌾 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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          🎋 सब में एक

फसल देख निज खेत में,हर्षित एक किसान

गया भ्रमण को कर्मरत,उर का भरा  निधान।

चना, मटर, गोधूम की,पकी फसल के खेत।

जीवन का पोषण करें,अन्न ,शाक समवेत।।


माटी से  कंचन उगे, अन्न,शाक ,फल मीत।

धन से घर भरने लगें,वही कृषक की जीत।।

कर्मों से कंचन बने, करें कर्म   शुभ  मीत।

जीवन वह  निस्सार है,चले सदा   विपरीत।।


मन किसान तन खेत है,उपजाएँ शुभ बीज।

कर्मों  की  खेती करें, करें  न देह   गलीज।।

पड़ी खेत   में  रेत  जो,उसका  पावन   हेत।

निंदा मत  कर  बाबरे, करती जीवन   सेत।।


धरती  माता  पोषती,माटी से   जग - जीव।

रखे  हाथ  पर हाथ को,बैठा रहता  क्लीव।।

माटी से नर तन बना,मिल माटी  में   क्षार।

अतः कर्म  तन  से  करें,बनें नहीं भू - भार।।


पड़े  हुए खलिहान में,कटी फसल  के  ढेर।

आँधी ,पानी से बचा,करना अधिक न  देर।।

पुरुष जुटे खलिहान में,पत्नी  उनके  साथ।

कंधे  से  कंधा  मिला,नित्य बँटाती   हाथ।।


       🎋  एक में सब  

माटी देती  खेत में,

                         कंचन -फसल महान।

नर - नारी निशिदिन करें,

                         कर्म खेत - खलिहान।।


🪴 शुभमस्तु !


२३.०३.२०२२◆७.१५ आरोहणं मार्तण्डस्य।


मंगलवार, 22 मार्च 2022

जल है तो कल है! 💦 [ दोहा गीतिका ]


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🙏 शब्दकार©

💦 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम' ]

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जल से कल है जीव का,जल ही जीवन मीत

जल की रक्षा हम करें,समय न  जाए  बीत।।


जल- दोहन दूषण करे,भूल गया  यह  बात,

जल से  ही  सुंदर सदा,पावस,  गर्मी, शीत।


खाद रसायन की लगा, उपजाते  फल, अन्न,

वे नर जग भवितव्य से,लेश नहीं  भयभीत।


विश्व-ताप नित बढ़ रहा,क्षीण पर्त  ओजोन,

रोग नित्य बढ़ने लगे,मनुज प्रकृति  विपरीत।


पर्वत जब तक नीर दें, तब तक सरि जीवंत,

सागर   सूखेंगे   सभी,  मेघ  न  बरसें   मीत।


चेत!चेत!! नर चेत जा,नष्ट न कर    भंडार,

जल बिन सब निस्सार है,होगी कभी न जीत


जल  पीयूष तेरा 'शुभम',और न  कोई   राह,

जीवन  के संगीत में,जल से ही  हर   गीत।


🪴 शुभमस्तु !


२२.०३.२०२२◆११.००आरोहणं मार्तण्डस्य।

कर्तव्य 🌞 [ मुक्तक ]


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✍️ शब्दकार ©

🌞 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                         -1-

कर्तव्य   से     मुख   मोड़ना,

निज लक्ष्य को   ही   छोड़ना,

अधिकार  से     पहले    करें,

 निज कर्मपथ  क्यों  तोड़ना?


                       -2-

कर्तव्य   जो    अपना     करे,

साफल्य  उस   नर   को  वरे,

आलस्य क्षण भर   का न  हो,

दुख,   कष्ट   वह  अपने   हरे।


                        -3-

कर्तव्य  रविकर   ने     किया,

विश्व    का   तम   हर  लिया,

अपनी    धुरी    पर     घूमती,

भू  ने सुखद    जीवन   दिया।


                        -4-

कर्तव्य    से      संसार     है,

वरना   जगत   निस्सार     है,

आलस्य  नर    की  मीच  है,

कर्तव्य       मूलाधार        है।


                        -5-

कर्तव्य    को     पहचान   लें,

करणीय को  यह   जान   लें,

अधिकार  तो मिल    जाएँगे,

यह भाव उर   में    ठान   लें।


🪴 शुभमस्तु !


२२.०३.२०२२◆७.४५आरोहणं मार्तण्डस्य।


रविवार, 20 मार्च 2022

प्यारी-प्यारी गौरैया 🐥 [ अतुकांतिका ]

 20 मार्च गौरैया दिवस पर       


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✍️ शब्दकार ©

🐥 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

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मेरे घर की 

रसोई के ऊपर 

बने हुए वातायन में

रहता है 

गौरैया का

 एक  परिवार,

भोला-भाला

व्यस्त स्वयं में

प्रातः से संध्या तक।


होते ही भोर

चहचहाहट से

घर भर देती हैं,

ऊर्जा सकार की

अपरिमित,

 घर के हर

कौने -कौने में

कर देती हैं,

अपनी, अपने

शावक के

 उदर पूर्ति की

चिंता में जुट 

जाती हैं,

ला -लाकर

दाना -दुरका

अपनी नन्हीं चोंचों से

उन्हें खिलाती हैं,

वे प्यारी -प्यारी चिड़ियाँ

भोली गौरैया 

कहलाती हैं।


 बाहर लटकी 

 हनुमान किरीट की 

लतरों में

जाने क्या -क्या

खोज -खोज कर

लाती हैं,

जब उन्हें देखता हूँ

उनको उड़ता 

दाना रोटी खाते,

पानी पीते,

मन बाग -बाग 

हो जाता है।


बैठी दर्पण के ऊपर

चोंच मार कर

अपने ही प्रतिबिम्ब 

से लड़ती है,

भोली गौरैया,

कर लेती लहूलुहान 

चोंच को

कैसे समझाए 

'शुभम' उस भोली को।


आओ हम सब

रक्षक बन कर

नन्हीं चिड़िया के

अस्तित्व को

बचाएँ,

स्वयं रहें प्रमुदित

गौरैया को भी

पालें -पोसें 

मानव से अति मानव

बन जाएँ ,

पत विहीन 

पुतिन की तरह

पतन मत करें

जीव हिंसा से

विश्व बचाएँ।


🪴 शुभमस्तु !


२०.०३.२०२२◆५.१५पतनम मार्तण्डस्य।

बैंगन जी की सगाई 🍆 [ बाल कविता ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🍆 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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बैंगन   जी  की   हुई   सगाई।

भिंडी  जी  ने  खुशी  मनाई।।


मन  ही  मन   आलू   गुर्राया।

कैसे    इसने   उसे   पटाया।।


मुझसे   दूर  -  दूर   रहती थी।

मुझसे वह  भैया कहती थी।।


गुपचुप बैंगन  पोट  लिया है।

धोखा   मेरे   साथ किया है।।


मैं  गोरा   वह   बैंगन  काला।

सिर पर  चोटी  रखने वाला।।


भिंडी  बोली  चुप  रह आलू।

उनको मत तुम कहना कालू।


उनके सिर पर मुकुट सोहता।

जो देखे वह सहज  मोहता।।


मैं   बैंगन  जी  की   दीवानी।

उनसे  ही शादी   की  ठानी।।


देख  मुझे  भी  आलू   भैया।

बैंगन जी  अब   मेरे   सैंया।।


भैया  भात    हमें   पहनाना।

सँग  में लाल  रतालू  लाना।।


उनको 'शुभं' न कुछ भी कहना।

मैं  उनके  जीवन    का गहना।।


🪴 शुभमस्तु !


१९.०३.२०२२◆२.३० पतनम मार्तण्डस्य।

ग़ज़ल 👜

 

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✍️ शब्दकार ©

🦚 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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गले   से    लगा  लूँ   ये  जी चाहता  है।

अरमां   जगा  लूँ     ये   जी चाहता  है।।


मेरा   रंग    तेरे       रँग    में  डुबा   दूँ,

गड़हा  खुदा   लूँ    ये    जी चाहता  है।


मैं   काला  तवा     हूँ    तू   मैदा भटूरी, 

छोले   पका   लूँ    ये     जी चाहता  है।


सूखा   छुहारा    तू   होली  की   गुझिया,

तुझमें   ही   समा   लूँ   ये जी चाहता  है।


'शुभम'  जेठ   सूखा तू फागुन की बदली,

सपनों    में   ढालूँ    ये     जी चाहता है।


🪴 शुभमस्तु !


१९.०३.२०२२◆२.००पत्नम मार्तण्डस्य।


फुनगी फागुन की 🎋 [ कुंडलिया ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🎊 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                        -1-

फुनगी फागुन की फबी,फाग होलिका संग।

चहकीं चिंतित गोरियाँ, हुईं चोलिका  तंग।।

हुईं  चोलिका तंग,हुआ क्या मुझको  ऐसा।

उर में उठे हिलोर, ज्वार तन- मन में कैसा!!

जागा 'शुभम'वसंत,आग ये कैसी  सुलगी।

दिखता नहीं अनंग,आम की बौरी फुनगी।।


                        -2-

फुनगी  पर  बैठा हुआ, कामदेव  शर  तान।

पंच पुष्प के तीर हैं,सज्जित सुमन  कमान।।

सज्जित सुमन कमान, तान कर तन में मारे।

गोपित  उर के  भाव, फाग के रंग   उघारे।।

'शुभं'अवश नर- नारि,देह में सुलगी चिनगी।

कोकिल बोले बोल,बैठ अमुआ की फुनगी।।


                        -3-

फुनगी फरफर फाग में,फन की है चमकार।

लाल, गुलाबी  या  हरी, बढ़ने लगे   उभार।

 बढ़ने  लगे  उभार,  काम - अंकुर  रतनारे।

कामिनि के शृंगार, दिखाते दिन  में   तारे।।

खिलते 'शुभम'पलाश,मोर की नाचे कलगी।

झूम  रही  है शाख, लिए मतवाली  फुनगी।।


                        -4-

फुनगी -फुनगी फाग है,फागुन संग  वसंत।

विरहिन तरसे सेज पर,लौटे अभी न कन्त।

लौटे अभी न कन्त, सौत ने क्या भरमाए?

वादा निभा,न फोन,किया घर वापस आए।।

मन हो गया मतंग,आग तन -मन में सुलगी।

'शुभं'दुखद बरजोर,सुमन-सी फूली फुनगी।


                        -5-

ब्रज  में  जे होरी मिलै,बड़े भाग नर   जान।

तन पै  लत्ता  बचि  रहें,   ख़ैर इसी में मान।।

खैर  इसी   में  मान,  घुटन्ना ऊ  बचि  जावै।

बिना पिटे  बुद्धू घर, अपने वापिस आवै।।

'शुभम' तरसते देव,लोटिवे जा ब्रज - रज में।

लगै जेठ हू दिवर,फाग के जा शुचि ब्रज में।।


🪴शुभमस्तु !


१९.०३.२०२२◆१२.१५ पतनम मार्तण्डस्य।

होली में कमाल कर दिया 🎊 [ ग़ज़ल ]


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✍️ हरफ़नमौला शब्दकार©

❤️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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डॉ. राकेश    जी    कमाल कर  दिया,

रंग   उछाला      धमाल     कर  दिया।


छुपे  हुए   रुस्तम निकल बाहर  आए,

हमारा  दिल भी   बेहाल    कर   दिया।


कभी - कभी  तो मैदान में उतरा करिए,

ग़ज़ल जो कह दी तो जमाल कर दिया।


मुस्करा  रहे हैं आज  मुकुट सक्सेना जी,

फाड़ डाली  है पेंट   रुमाल कर    दिया।


'शुभम'   का आशीष  अनुज भी  ले लें,

मेरे जवां दिल को   गुलाल कर    दिया।


🎊 बुरा न मानों होली है। 🎊


🪴 शुभमस्तु !


१८.०३ .२०२२◆९.५० आरोहणं मार्तण्डस्य।

जीवन के अनुबंध 🦚 [ दोहा ]

 

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 ✍️ शब्दकार©

🪴 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

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जीवन के अनुबंध का,आदि न अंत न छोर।

पिता ,पुत्र ,माता  सभी, देते हैं शुभ    भोर।।


बिना लिए अनुबंध के,जीवन ज्यों पशु कीट।

मानव तन धारण किया,नर कागा की बीट।।


पति पत्नी संतति सभी, जीवन के अनुबंध।

मर्यादा  से  आ  सके, सुंदर सुमन सुगंध।।


आया खाया चल दिया,क्या मानव का मोल।

जैसे शूकर श्वान हो,तन चमड़े का   खोल।।


मर्यादा   के   बन्ध   हैं, मानव के   कर्तव्य।

मर्यादा से जो  बँधा, उसका जीवन भव्य।।


पतन सहज है जीव का,प्रगति पंथ अति दूर

अहंकार करता सदा, नर को चकनाचूर।।


द्वेष भाव को त्यागकर, सहज जिओ रे मूढ़।

उर को विशद बनाइए, नहीं बना धी   कूढ़।।


 🪴 शुभमस्तु !


१६.०३.२०२२◆३.३५पत्नम मार्तण्डस्य।

पिचकारी की धार 🪂 [ दोहा ]

 

[बरसे,होलिका ,होली, बाँह,छैला]

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✍️ शब्दकार ©

🪂 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम '

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     💃🏻 सब में एक 💃🏻

गोपों की  टोली  चली,  खेलें होली  -  रंग।

बरसे छत  से  रंग की, धारें धरर    उमंग।।

पिचकारी की धार से, बरसे  रंग   अपार।

कभी लाल,पीला,हरा,  करता चपल प्रहार।।


भर आँचल में होलिका, बैठी  ले  प्रह्लाद।

जला नहीं वह आग में,गूँज रहा प्रभु नाद।।

जला होलिका में सभी,उर के कीचड़ द्वेष।

निर्मल  मन  होना  हमें, बदलें दूषित  वेष।।


गीला - गीला  रंग  है ,  सूखा लाल  गुलाल।

होली में  उर से मिलें, उर, न रहे  संजाल।।

होली तो हो ली सखे,मिटे न रस  का  रंग।

तन ही केवल क्यों रँगे, बना रहे   यह  संग।।


ऐ छलिया!बरजोर तू, झटक न  मेरी बाँह।

मेरी   चुनरी  के तले ,नहीं मिलेगी    छाँह।।

गोरी  तेरी बाँह है,  नव नवनीत    समान।

गाल  गुलाबी फूल - से,नैना तीर   कमान।।


ऐ छैला !  मत  रोक तू,मेरे घर    की  राह।

बरजोरी क्या  सोहती, क्या है तेरी     चाह।।

छैला  चिकना  गाँव  का, काली ऐनक धार।

गलियों में गाता फिरे, फिल्मी गीत   अपार।।


    💃🏻  एक में सब  💃🏻

होली  के दिन होलिका,

                        गही भतीजा  बाँह।

छैला प्रभु   का  हँस रहा,

                 बरसे  कृपा- सु - छाँह।। 


🪴 शुभमस्तु !


१६.०३.२०२२◆६.४५ आरोहणं मार्तण्डस्य।

रसराज - रस 🦚 [ दोहा ]


[बरजोरी ,चूनर, अँगिया, रसिया,गुलाल]

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✍️ शब्दकार ©

🦚 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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     🏵️ सब में एक 🏵️

बरजोरी हमसे नहीं, करो श्याम चितचोर।

अपयश हो ब्रजगाँव में,गली- गली में शोर।।

कान्हा  बरजोरी   करें,मिलें  गोपियाँ   राह।

दधि की मटकी छीनते, दधि खाने की चाह।।


चूनर   धानी    रंग   की,पहने   राधा   देह।

कान्हा  से   मिलने चली,नंद गाँव  के  गेह।।

झीनी चूनर  सोहती, ज्यों बाती  की ओट।

मेरे उर पर  कर  रही, भारी भरकम चोट।।


होली का रँग ज्यों पड़ा, अँगिया चिपकी देह

रंग -  रँगीली  हो  गई, पिचकारी   के   मेह।।

अँगिया के भीतर जले,होली की नित आग।

फागुन आया हे सखी,करता ऊधम   फाग।।


रसिकराज  रसिया  खड़े, रोक हमारी गैल।

कैसे  जाएँ    राह  में ,  छेड़े नटखट   छैल।।

मुरलीधर रसिया  बड़े, देख लजाए   आज।

देह  धरे  वंदन  करे, ब्रज  में नत  रसराज।।


होली  आई  साँवरे,  कर में लिए    गुलाल।

गोप-गोपियाँ चल पड़े,बदल गई पद-चाल।।

गाल गुलाबी लाल हैं,मुख में सुर्ख गुलाल।

चंदन  सोहे  भाल  पर, कान्हा करे  धमाल।।


       🏵️ एक में सब  🏵️


अँगिया  चूनर मत  रँगे,

                        बरजोरी से      श्याम।

तू   रसिया  चितचोर है,

                     रँग-   गुलाल का   काम।।


🪴 शुभमस्तु !


१६.०३.२०२२◆६.०० आरोहणं मार्तण्डस्य।

मंगलवार, 15 मार्च 2022

शादी बनाम फ़ोटोग्राफी ❤️ [ व्यंग्य ]

 


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 ✍️ शब्दकार © 

 ❤️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम' 

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 अरे ! छोड़िए भी 'शादी' कभी 'सादी' हो ही नहीं सकती।'शादी' के नाम पर कुछ भी प्रदर्शन करने की मनमानी का एक नाम 'शादी' है। यों तो ये 'शादी' शब्द अरबी से फ़ारसी औऱ फ़ारसी से उर्दू की गलियों में घूमते हुए हिंदुस्तानी तथा हिंदी में आया है। 'शाद' शब्द प्रसन्नता ,हर्ष ,खुशी आदि के अर्थ में प्रयुक्त होता है ;किन्तु 'शादी' का रूढ़ प्रयोग 'विवाह' के लिए ही प्रचलन में है। 

  आज 'शादी' शब्द की चर्चा एक अन्य रँग-रूप में करने की सोच रहा हूँ। जिस 'शादी' को जितना सादी कहा जाता है ,उसमें सादगी औऱ सादा पन की खुशबू दाल में हींग के छोंक के  बराबर भी प्रतीत नहीं होती।कुछ युवतियों के लिए इसके मानी केवल मँहगे लंहगे,चुनरी ,ब्लाउज , कीमती गहने और हनीमून से ज़्यादा कुछ भी नहीं है।सादापन की धज्जियाँ बिखेरना ही इसका मुख्य मन्तव्य उन्हें लगता है । वही बात दूल्हे के लिए भी उतनी ही सत्य है ,जितनी किसी दुल्हन के लिए।शादी भी कोई बार -बार थोड़े ही होती है ? कठपुतलों की कितनी भी हो जाएँ ,पर कैमरों की नहीं होतीं। बल्ले -बल्ले तो उन्हीं की है। उनके आगे पंडित जी भी लल्लू ही हैं ।   अब सारा ज्ञान और विधि -विधान का सरंजाम उन्हीं के लेंस -कमलों में है।

  अब शादियाँ दूल्हा दुल्हन की नहीं ; फोटोग्राफरों, वीडियोग्राफरों,ड्रोन कैमरों की होती हैं। दूल्हा दुल्हन तो सूत्रधारों की कठपुतली बने हुए नाचते दिखाई देते हैं। उनकी अंगुलियों के संकेतों के आदेश स्वीकार करते हुए।कभी हाथों में हाथ डाले हुए, कभी दूल्हे की बाँहों में दुल्हन को 'यू' या 'एल' के आकार में झुलाते हुए, कभी तिरछी नज़रों से दुल्हन द्वारा दूल्हे को प्यार भरी दृष्टि से निहरवाते हुए , कभी दूल्हे की द्वारा गोद में उठाए हुए ,प्रेमालिंगन में लिपटे -चिपटे हुए : ऐसी ही विविध रोमांचक मुद्राओं में सार्वजनिक मंचीय प्रदर्शन करते हुए दिखाए जाते हैं। लगता है कि ये शादी नहीं किसी फ़िल्म की शूटिंग हो रही है। हया और शर्म तो उड़ चुकी है। उड़नछू हो चुकी है। पिता ,चाचा, ताऊ , ससुर , सास , सब देख रहे हैं औऱ अपने लाडलों की शूटिंग दृश्य से खिलखिलाकर कर मुंह बाए देख रहे हैं।बेशर्माई की इन्तहां ही हो रही है ।बरात तो बारहों रंग की भरी हुई परात है।जिसमें हर रंग के लोग मजे लेने को उतारू हैं। जो काम कभी बंद कक्षों में भी करते हुए भी दुल्हन शरमाती होगी ,आज खुलेआम मुम्बइया शूटिंग का आनन्द ले ही नहीं रही , आम जनता को लुटा भी रही हैं। बिना पैसे ,बिना टिकिट औऱ बिना किसी प्रतिबंध या नियंत्रण की जिंदा फ़िल्म देखनी हो ,तो अत्याधुनिक पीढ़ी की इन 'शादियों' की शूटिंग में देखिए।

    आज की शादियों में मुख्य नायक- नायिका दूल्हा दुल्हन नहीं; फ़ोटोग्राफर ही हैं। दरवाजे,भाँवरों आदि के मुहूर्त का कोई महत्त्व नहीं है। कौन पूछता है पंडित जी या वर कन्या के घर वालों को ! उनके जाने सब भाड़ में जाएँ। सबसे मुख्य काम ड्रोन कैमरों, मोबाइल फोनों, अन्य कैमरों से फ़ोटो खींचना और वीडियो बनाना ही शेष रह गया है। ये शादी न होकर एक मज़ाक की शूटिंग से अधिक कुछ भी दिखाई नहीं देती है। नकली अदाएं और दिखावटी हाव -भाव के बिम्ब- अंकन का यह जीवंत ड्रामा है। सारी रात आशीर्वादों का इतना जमघट हो जाता है कि बेचारे कठपुतले संभाल भी नहीं पाते। दादी- बाबा (यदि शेष हों), पिता -माता, चाचा -चाची, भाई-भाभी , ताऊ-ताई, फूफा -बुआ , जीजा -जीजी , इष्ट -मित्रों के ढेरों आशीर्वादों के गट्ठर संभाले नहीं जाते। सौ -सौ के नोटों को नचाते ,उड़ाते ,घुमाते हुए दृश्य कैमरों की रीलों में रियल लाइफ का मजा देते हैं। इसी कैमरेबाजी का नाम अब शादी रह गया है।

      जमाना बहुत आगे चला गया। हर आदमी अपना इतिहास बनाने में लगा है। तो दूल्हा दुल्हन के बहाने यदि कैमरे अपना इतिहास न बनाएँ तो आश्चर्य ही क्या है? कुल मिलाकर दूल्हा -दुल्हन तो मात्र कठपुतलियां ही हैं। सारा दारोमदार तो कैमरेबाजी पर टिका हुआ है। वही तथाकथित 'सादी' (शादी) के सर्वेसर्वा हैं। बरात का हर आदमी -औरत अपनी गर्दन ऊँची करके , घूँघट अथवा मास्क हटाकर फ़ोटो खिंचवा रहा है। क्रीम इस प्रकार लगाई गई है कि जैसे उसकी खुशबू फ़ोटो में भी रच -बस जाएगी। 

 🪴 शुभमस्तु! 

 १५.०३.२०२२◆१०.००पतनम मार्तण्डस्य

द्वेष जलाएँ होली में 🎊 [ गीत ]


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✍️ शब्दकार ©

🦚 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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आओ  उर  के   द्वेष   जलाएँ,

हम सब   मिलकर   होली में।

शिकवे - गिले  मिटाएँ  अपने,

मधुर  शब्दरस  -  बोली   में।।


अहंभाव      दूरियाँ    बढ़ाता,

हृदय   नहीं   मिल   पाते   हैं।

मिलते गले , गले   से   केवल,

भाव   नीम  हो    जाते    हैं।।

यत्न  करें    ऐसा नर -   नारी,

बैठें  सँग  -  सँग   डोली   में।

आओ  उर  के  द्वेष   जलाएँ,

हम  सब मिल कर  होली में।।


है  सामाजिक  पर्व  होलिका,

मिलकर  आग    जलाते   हैं।

नए अन्न  को  भून  आँच पर,

उर से   उर   मिल  जाते  हैं।।

उपले ,लकड़ी और गुलरियाँ,

जल जाते झल -   झोली  में।

आओ  उर   के   द्वेष जलाएँ,

हम सब मिलकर  होली  में।।


रँग, गुलाल,चंदन ,अबीर का,

तिलक   सजाते   नर - नारी।

देवर - भाभी ,जीजा - साली,

मार   रहे   रँग  - पिचकारी।।

फोड़   रहा    कोई    गुब्बारे ,

प्रिय   भाभी   की चोली  में।

आओ  उर के   द्वेष  जलाएँ,

हम सब मिलकर  होली में।।


नाच  रहे  हैं   बालक - बाला,

उछल -   कूदते     नर -नारी।

ढप, ढोलक ,करताल बजाते,

भाँग  पी   रहे   कुछ  भारी।।

धूम  मची है दिशा - दिशा में,

धूल   उड़ाती    टोली     में ।

आओ  उर के   द्वेष   जलाएँ,

हम सब मिलकर  होली में।।


गाँव -गाँव में नगर - नगर में,

जन -मानस   का  मेला  है।

मादक काम  गीत  में उतरा,

'शुभम'  रंग  में   खेला   है।।

लाल रंग की छटा प्यार की,

अरुण   गुलाली    रोली  में।

आओ  उर के द्वेष   जलाएँ,

हम सब मिलकर होली में।।


🪴 शुभमस्तु!


१५.०३.२०२२◆७.३०आरोहणं मार्तण्डस्य।

सोमवार, 14 मार्च 2022

रंग -रँगीली होली 👨🏻‍🚒🎊 [ बालगीत ]


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✍️शब्दकार ©

👨🏻‍🚒 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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रंग -  रँगीली    होली   आई।

छटा -  सुहानी  ब्रज में छाई।।


अपनी -अपनी लें पिचकारी।

रंग  भरी  मारें     सब   धारी।।

भैया  ने    खंजड़ी    बजाई।

रंग -   रँगीली   होली  आई।।


रामू ने   गुलाल  मल  डाला।

मुख लगता अब बंदर वाला।।

रानी    गुब्बारे    भर    लाई।

रंग -  रँगीली   होली  आई।।


लाल ,हरा, काला   या  पीला।

लगा   रहा   है   कोई नीला।।

रंगों   की   बहार    मनभाई।

रंग- रँगीली     होली   आई।।


रोली ,चंदन   मलता    कोई।

गई   आँख   में   मुन्नी   रोई।।

बुरा न   मानें   होली    भाई।

रंग -  रँगीली   होली  आई।।


कीचड़ नहीं किसी पर डालें।

बैर - भाव भी नहीं निकालें।।

खेलें   होली     बाबा   ताई।

रंग - रँगीली  होली    आई।।


बजते हैं  ढप  - ढोलक  न्यारे।

झींगा ,मंजीरे     अति  प्यारे।।

'शुभम' नाचते   लोग - लुगाई।

रंग - रँगीली    होली    आई।।


🪴 शुभमस्तु !


१४.०३.२०२२◆२.००पतनम मार्तण्डस्य।

फ़ाग गाने लगे 🌹 [ गीतिका ]


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✍️ शब्दकार :

❤️  डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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       सुमन      आज     भौंरों    को रिझाने   लगे।

   झूमते   -    झूमते     पास   आने      लगे।।


लाज  को   छोड़  कलियाँ  खिलीं  हैं बहुत,

देख    कलियाँ      सभी   मुस्कुराने   लगे।


ढोलकों   की   गली  में  बड़ी धूम    थी,

लोग       गाने   लगे    ढपढपाने   लगे।


देख  खिड़की  खुली  चाँद उसमें   खड़ा,

छोकरे       नाचते     फ़ाग   गाने    लगे।


चोलियाँ        कसमसाती    दहकती     रहीं,

थाप   दे  -  दे   के    ढोलक  बजाने     लगे ।


कोकिलों   में      हुई  कूकने की     ललक,

आम्र   -    पादप       सहज   बौराने  लगे।


श्याम    की  याद   में  राधिका   खो  गईं,

स्वप्न  में     ही     'शुभम'  भरमाने   लगे।


🪴 शुभमस्तु !


१४.०३.२०२२◆७.१५ आरोहणं मार्तण्डस्य।

सजल 🎊

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समांत:आने।

पदांत :लगे।

मात्राभार :20.

मात्रा पतन:शून्य।

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✍️ शब्दकार :

❤️  डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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आज     भँवरे   सुमन   को रिझाने   लगे

झूमते   -  झूमते    पास   आने      लगे


लाज  को   छोड़  कलियाँ  खड़ीं हैं बहुत

देख    कलियाँ     सभी मुस्कुराने   लगे


ढोलकों   की   गली  में  बड़ी धूम    थी

लोग       गाने   लगे    ढपढपाने   लगे


देख  खिड़की  खुली  चाँद उसमें   खड़ा

छोकरे       नाचते     फ़ाग   गाने    लगे


चोलियाँ      कसमसाती दहकती     रहीं

थाप   दे  -  दे   के  बाजे बजाने     लगे 


कोकिलों   में    हुई  कूकने की     ललक

आम्र   -    पादप     सहज   बौराने  लगे


श्याम    की  याद   में  राधिका   खो  गईं

स्वप्न  में     ही     'शुभम'  भरमाने   लगे


🪴 शुभमस्तु !


१४.०३.२०२२◆७.१५ आरोहणं मार्तण्डस्य।


रविवार, 13 मार्च 2022

होली में 🎊💃🏻 [ गीतिका ]


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✍️ शब्दकार ©

🎊 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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अँगड़ाई   ने     भरी   खुमारी होली    में।

शरमाई  है    युवा      कुमारी  होली   में।।


युगल   हथेली  हरी  हिना  से लाल   हुईं,

लगती    मुग्धा   प्यारी -प्यारी होली   में।


बौराए    हैं   आम  कोकिला कूक    रही,

विरहिन   को  है   भारी - भारी  होली  में।


धीरे -    से    भौंरे    फूलों   से  बतिआएँ,

फैल    रही   रजनी  उजियारी होली   में।


बजती  ढोलक ,थाप ढपों पर  जब  पड़ती,

कसक  मसकती  चोली  सारी   होली  में।


गेहूँ,   जौ      की    बाली   झूमीं बतियातीं,

चना ,मटर  की  ध्वनि झनकारी  होली  में।


खनन खनन ,खन,खन-खन बजते मंजीरे, 

झींगा   के  स्वर  की  लयकारी  होली  में।


राधा    के    सँग   रास   रचाते  मुरलीधर,

चला  रहे     हैं  वे    पिचकारी होली  में।


'शुभम'  गोपियाँ  नाच   घेरतीं कान्हा  को,

फगुआ  की  हम  भी हुरियारी होली   में।


🪴 शुभमस्तु !


१३.०३.२०२२◆६.०० पतनम मार्तण्डस्य।

शनिवार, 12 मार्च 2022

नो कमेंट प्लीज़! 🙊 [ व्यंग्य ]

  

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 ✍️ व्यंग्यकार © 

 🙊 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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 गांधी जी के तीन बंदर कुछ महत्त्वपूर्ण संदेश देते हैं।जो बंदर अपनी आँखों को अपने हाथों से बंद किए हुए है; वह किसी का बुरा नहीं देखने का संदेश देता है।दूसरा अपने दोनों कानों को बंद किए हुए है ; वह किसी की कोई बुरी बात नहीं सुनने का संदेश दे रहा है और तीसरा बंदर अपने मुख को बंद किए हुए कोई बुरा शब्द नहीं बोलने की सीख दे रहा है। यदि मैं गांधी जी की जगह होता तो एक बंदर और पालता औऱ उसे अपने हृदय पर हाथ रखकर उससे कहता कि किसी के लिए बुरा सोचो ही मत।क्योंकि ये हॄदय ही तो है सारे फसादों की जड़ ; ये यदि बुरा विचार नहीं करेगा तो बुरा देखने , बुरा सुनने औऱ बुरा बोलने की स्थिति ही क्यों पैदा होगी ? दिल साफ़ तो सब माफ़! ये दिल ही है ; जो हमारे कान,जुबान और जिह्वा को दोषी बना देते हैं ।यहीं तो है सबका कोषागार , मुख्य कार्यालय है।

 सभी पर कमेंट करता रहता हूँ। टिप्पणी करता रहता हूँ।नर,नारी ,व्यापारी ,अधिकारी, चोरी-चाकरी, ग़बन-व्यभिचारी, नकारी - सकारी, नाड़ी - अनाड़ी,यहाँ तक कि शैतान और भगवान भी नहीं छूटते। परंतु जब वह गबन ,चोरी, व्यभिचार, अपहरण, हत्या , डकैती करने के बाद जब मुँह लटकाए हुए चार पहिए की लंबी- सी गाड़ी से उतरता है औऱ पत्रकार जी के सभी प्रश्नों के उत्तर 'नो कमेंट प्लीज़!' करके देता है ; उसके ऊपर ये अँगुली रूपी कोमल लेखनी मौन तो नहीं होती ,पर बहुत कुछ सोचने के लिए बाध्य हो जाती है।

  ये देखकर कि क्या यही है मेरे सपनों का भारत ? जहाँ ईमानदारी को छोड़कर हर दुष्कर्म में हासिल है महारत! कमेंट तो तब करेंगे ,जबकि उनमें अपने श्याम वर्णी चेहरे दिखाने की हया बची हो! इंसान के प्रति लेश मात्र दया बची हो! हृदय के मरुस्थल में काशी ,प्रयागराज औऱ अयोध्या बची हो? वे निरुत्तर हैं। अब वे किसी की कुछ भी सुनना, देखना और बोलना नहीं चाहते ! चाहेंगे भी क्यों? इसलिए 'नो कमेंट' से किस्सा खत्म। इन पर कमेंट करने की अपनी भी हिम्मत कहाँ है? ये तो यूक्रेन पर रूस की तरह, जेलेन्स्की पर पुतिन की फ़तह बनकर छाए हुए हैं। कोई अपनी जुबान खोले भी तो कैसे? स्वयं कुछ भी कहेंगे ,बोलेंगे; रस में भी विष घोलेंगे ,पर और कोई बोले तो अपनी डंडीमार तराजू में ही तोलेंगे।

 इनका तो वही हाल है,चित भी मेरी पट भी मेरी, अंटा मेरे बाप का।इनको पैदा करने वाला बाप और माँ भी किसी विशेष (मैं विषैले क्यों कहूँ?) तत्त्व से बने हुए होंगे , तभी तो ऐसी औलाद धरती पर लाए।इतना तो रावण जी के पिता विश्रवा औऱ माता कैकसी भी रावण जी को पैदा करके नहीं पछताए होंगे;जितने इनके मम्मी पापा पछताते होंगे। अब क्या पता ,यदि वे भी उन विचित्र धातुओं के बने होंगे तो उन पर भी सारा पानी ढुलक जाता होगा।वही चिकने घड़े । इन पर भला कोई कमेंट कर के भी क्या कर लेगा? वाटर प्रूफ वे , फायर प्रूफ वे ,हर बात प्रूफ वे।इसलिए इन पर कमेंट करके मैं ही हॉट वाटर में क्यों गोते लगाऊँ ? कमेंट तो कोई तब करें ,जब इनके सीमेंट जैसे दिल पर कोई चीज असर करती हो! जैसे पानी गिराने से सीमेंट पत्थर बन जाता है , वैसे ही ये कोयले से कोहिनूर बन जाते हैं,सर्वथा निरापद। सब कुछ झेलने के लिए सक्षम।


    यही कारण है कि साठ के बाद इन पर यौवन की खुमारी सवारी करती है। 'साठा में पाठा' होने की कहावत तो सही अर्थों में यही चरितार्थ करते हैं।लाल लाल गाल! टाँगें भरती हुईं लम्बी -लम्बी उछाल! जहाँ भी होते हैं ,सब जगह कमाल। धमाल ही धमाल।कहीं बवंडर कहीं बबाल।सब जगह बनते हुए सवाल। हर पाँच साल में यौवन का नवीनीकरण।हिम्मत की दाद देनी पड़ेगी , हार कर भी हारने ,हार मानने के लिए तैयार नहीं। सब गलत ,वे सही । दिमाग का बनाते हुए दही । अरे! अपना नहीं, जनता का।हमेशा (देह और जूता) 'ताने' हुए। हैं तो 'नेता' जी माने हुए। 

 🪴 शुभमस्तु ! 

 १२.०३.२०२२◆१.३०पतनम मार्तण्डस्य। 

आया फागुन 🎊 [ बाल कविता ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🎊 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम' 

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आया      फागुन।

अति मनभावन।।


होली         खेलें।

रँग  भी    ले लें।।


पंक    न   डालें।

रंग       उछालें।।


ले     पिचकारी ।

मारें        धारी।।


महके      चंदन।

कर   लें  वंदन।।


बजें      मजीरे।

धीरे  -    धीरे।।


फूल   खिले  हैं।

गले   मिले   हैं।।


सब     फगुनाए।

धूम      मचाए।।


🪴 शुभमस्तु !


११.०३.२०२२◆६.०० आरोहणं मार्तण्डस्य।


संघर्ष 🌅 [अतुकान्तिका ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🌻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम '

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संघर्षों की आग में

तपा हुआ मानुस

बन जाता है

खरा कंचन,

सजता है वही

बनकर किरीट

मस्तक का,

करता है 

जन -जन 

उसका अभिनंदन।


अपने पसीने की

कमाई हुई 

सूखी रोटियाँ

सुखी बनाती हैं,

चोरी से

चरित्र हनन के

व्यंजन सदा

कष्टकारी ही

होते हैं,

अपने राहों में

आदमी स्वयं 

शूल बोते हैं।


कामचोरों के

घर नहीं 

बसा करते,

परिजीवियों के

पोषण नहीं

शोषण ही

हुआ करते।


स्वावलम्बन,

संघर्ष,

सत्यता,

औऱ सुचरित

सफलता के

सोपान हैं,

संघर्ष की

 कसौटी पर ही

मानव होता 

महान है।


जो जूझा है,

उसी को

संसार ने पूजा है,

यों तो पेट 

भर लेते हैं

गली के श्वान भी,

दर-दर से

दुत्कारे जाते हुए,

अपमानित 

मार खाते हुए।


संघर्ष का इतर नाम

'शुभम' जीवन है,

वस्तुतः संघर्ष ही 

जीवन है,

संजीवनी है

मानव की

मानवता की,

देह धरे मानव की

सब मानव 

नहीं होते,

श्वान सूकरवत

जो भवसागर में

खा रहे हैं गोते।


🪴 शुभमस्तु !


११.०३.२०२२◆५.०० आरोहणं मार्तण्डस्य।

विजय 👑 [ मुक्तक ]


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✍️ शब्दकार ©

👑 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम' 

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                        -1-

सत्य - मार्ग  पर जो चलता है,

दानव -दल को वह खलता है,

सदा विजय सत की ही होती,

शल्य-सेज पर  सत पलता है।


                        -2-

संघर्षों  का  नाम  विजय   है,

कष्टों की भी  अपनी  लय  है,

पीछे    मुड़कर   नहीं  देखते,

उन्हें  न होता  कोई   भय  है।


                        -3-

चलता रहा   न  रुकना जाना,

नित चलना ही  मंज़िल माना,

विजय श्री उसको  मिलती है,

जिसने लक्ष्य विजय का ठाना।


                        -4-

चींटी  कभी  निराश  न होती,

दोष   ढूँढ़ती   कभी   न रोती,

चढ़ती है   हिमगिरि के ऊपर,

बीज विजय के नित ही बोती।


                        -5-

ठान    लिया   पीछे  क्या हटना,

क्या दिल्ली क्या लखनऊ पटना,

विजय  लक्ष्य  है 'शुभम' तुम्हारा,

सुखद  विजय  की सुंदर घटना।


🪴 शुभमस्तु !


१०.०३.२०२२◆५.०० आरोहणं मार्तण्डस्य

रविवार, 6 मार्च 2022

नव-सभ्यता के रखवाले ! [ यात्रा- संस्मरण ]

 

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 ✍️ संस्मरण ©

 💃🏻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम' 

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     कल 03 मार्च गुरुवार था। मैं लखनऊ से नई दिल्ली जाने वाली गोमती एक्सप्रेस में सपत्नीक यात्रा कर रहा था। हमें नई दिल्ली में अपने बेटे के कमरे पर जाना था।शिकोहाबाद के बाद किसी बड़े स्टेशन से स्वतंत्र केशांगिनी, टाइट जींस, ढीली कमीज और हाई हील में सुसज्जित दो सुंदरी गोरी-चिट्टी सुस्फूर्त बालाएँ (संभवतः बहनें) ट्रेन की उसी बोगी में सवार हुईं और मेरे सामने की दो बर्थ पर आसीन हो गईं।


      इस ट्रेन में सभी सीटें केवल बैठने के लिए आरक्षित की जाती हैं।सोने या टाँगें पसार कर तीन की सीट को एक के द्वारा हथियाने की कोई 'सु -व्यवस्था ' यहाँ नहीं है। लेकिन ये भारत देश है। स्वतंत्र भारत। कुछ भी मनमानी करने के लिए स्वतंत्र भारत और हम लोग। किंतु इसके बावजूद यहाँ व्यवस्था बनाने वालों की कोई कमी नहीं है।जहाँ चाह हो वहाँ राह निकाल ही लेते हैं लोग। 

       

 मैं खिड़की वाली सीट पर बैठा हुआ था।अचानक क्या देखता हूँ कि आई हुईं दोनों बालाएँ जिनकी आयु लगभग अट्ठाईस तीस वर्ष के आसपास होगी, प्रत्येक सीट के सामने मजबूत चादर की लगे हुए मेजनुमा स्टैंड पर अपनी टाँगें फैलाये हुए बैठी हैं। एक बार उन्होंने यह भी प्रयास करके देखा कि अपनी बर्थ को और पीछे की ओर फैला लिया जाए ,ताकि वे आराम से अपनी टाँगें फैलाकर पसर सकें, किंतु एक बार यह देखकर कि पीछे भी लोग बैठे हुए हैं ;कोई आपत्ति कर सकता है; एक बार ग्रीवा मोड़कर देखने के बाद झेंप कर अपना निर्णय बदल लिया। अब वे निश्चिंत होकर उसी मुद्रा में पसर कर ऊँघने लगीं। 

     

 देखते ही मुझे बहुत खटका।लेकिन चाहते हुए भी मैंने उन्हें रोका - टोका नहीं। क्योंकि यदि ऐसे उच्च शिक्षित सुंदर गोरे-चिट्टे देह धारी मानवों को यह स्वतः संज्ञान नहीं हैं कि ये सुविधा रेलवे विभाग ने इसलिए नहीं दी ,कि आप उन पर पसर कर जाएँ ! बल्कि इसलिए दी है कि आप उस रखकर प्रात राश कर सकें अथवा भोजन कर लें। ऐसे पढ़े-लिखे 'अति सभ्यों ' को समझाया भी कैसे जा सकता है। कहीं ऐसा न हो कि आ बैल मुझे मार। उन्हें इसलिए लगाया गया है कि आवश्यकता न होने पर उसे मोड़कर सीधे कर दें ,जिससे किसी को लघुशंका निवारणार्थ ,स्टेशन पर उतरने , नई सवारी के आने पर बैठने आदि के लिए कोई असुविधा न हो। जिस काम का अंजाम उनके द्वारा दिया जा रहा है ;उस काम के लिए तो कदापि नहीं बनाई गईं। 

  

         हम अपनी सभ्यता का कितना ही गुणगान करें किंतु अभी भी हमें ये सहूर नहीं आया कि शौचालय में कैसे बैठा जाता है।यह हमारे देश के चरित्र की ही पहचान है कि शौचालय में मग्गे को भी जंजीर से जकड़ कर रखना पड़ता है। दर्पण,बल्ब ,ट्यूब लाइट्स औऱ पंखों को कटघरे में बाँधकर रखना पड़ता है । ऐसे चरित्र प्रधान देश में यदि लोग भोजन की मेज पर पसर कर जाएँ, तो आश्चर्य क्या ? संस्कार ही ऐसा है! कभी -कभी तो ये सोचना पड़ता है कि यहाँ जिन्हें गाँव का गँवार कहते हैं औऱ अति से उच्च शिक्षितों में कोई अंतर नहीं है।यहाँ सारे धान बाईस पंसेरी ही तोले जाने को बाध्य हैं।

          सुलभ सुविधाओं के दुरुपयोग की इस सभ्यता में सहज सुधार आने की संभावना निकट भविष्य में नहीं हैं, जहाँ दूसरों को सीख देने वाला मानव स्वेच्छाचारिता का गुलाम है। ऐसी सभ्यता के वाहक जन का कानून भी कुछ बना -बिगाड़ नहीं पाती।क्या हम इसी सभ्यता के गौरव के गीत गाते हुए अघाते नहीं। कहावत है कि कुत्ता भी बैठता है तो अपनी पूँछ से झाड़कर बैठता है।पर ये आज का अति प्रबुद्ध वर्ग! इसे कोई सही रास्ते पर नहीं ला सकता।क्या ऐसे 'अति- सभ्यों' के लिए पुलिस व्यवस्था करना आवश्यक है? यह एक विचारणीय प्रश्न है! नियम,क़ानून की धज्जियाँ उड़ाना ही इनके गौरव और मान -सम्मान का द्योतक है।क्या हम नैतिकता विहीन भारत की ओर नहीं जा रहे हैं! हमारी नई पीढ़ी के लिए चुल्लू भर पानी में डूब मरने की बात है। देश की सभ्यता पर जोरदार आघात है।

 🪴शुभमस्तु !


 ०४.०३.२०२२◆११.४५ आरोहणं मार्तण्डस्य।


मंगलवार, 1 मार्च 2022

शिव -प्रार्थना 🪦 [ चौपाई ]


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✍️ शब्दकार ©

🪦 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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जय !जय!!प्रभु भोले शिव शंकर ।

रक्षा करें  विश्व    की    हर  - हर।।

आग    युद्ध    की    भीषण भारी।

रक्षा        करें       रुद्र   त्रिपुरारी।।


काँप     रही        यूक्रेनी     धरती।

रसिया      की    मानवता मरती।।

चलते    तोप,    मिसाइल , गोले।

हरें       कष्ट     शशिशेखर  भोले।।


तांडव     रोक    शांति   को  लाएँ।

कालकंठ     शिव      दृष्टि  घुमाएँ।।

कोई     सबल    अबल   को मारे।

मानव   क्यों   न   उसे  धिक्कारे।।


पुतिन          अहंकारी    हठधारी।

पश्चिम     की    दुनिया ललकारी।।

भूतनाथ,         कामारि ,  कलाधर।

रोकें    युद्ध      पिनाकी    हर -हर।।


जेलेन्स्की     का       मान   बढ़ाएँ।

सत्य -शिखर   प्रभु   अनघ चढ़ाएँ।।

हिंसानल    नित     दहक   रहा है।

यूक्रेनी    ने      ज़ुल्म        सहा है।।


उमाकांत,           जगदीश, जटाधर।

ज्योति    जगाएँ  अत्रि ,     प्रभाकर।।

सर्वनाश      की        धमकी   देता।

बनता      रसिया       विश्व- विजेता।।


अमरीका       भी     मौन    पड़ा है।

उधर     रूस     विक्षिप्त   अड़ा  है।।

जन -  धन     हानि      रोक सर्वेश्वर।

सुख   -   समृद्धि     लाएँ प्रलयंकर।।


जन -  धन    ध्वंश   न   देखा जाता।

क्यों  न  पुतिन   अब   भी शरमाता।।

हे महेश !           सारंग  !!    पुरंदर!

रक्षा    करें    विश्व   की   हर - हर।।


🪴शुभमस्तु !


०१.०३.२०२२◆११.३० आरोहणं मार्तण्डस्य।

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...