गुरुवार, 31 जनवरी 2019

बंदर बाँट [गीत]

मनमानी के नियम बनाए।
घोंटू पेट ओर झुक जाए।।

चित   भी मेरी पट भी मेरी,
आधी   में  भी   आधी मेरी,
चतुर  वही जो  मूर्ख बनाए,
उसका भी हिस्सा खा जाए।
बंदर बाँट   यही    कहलाए।
मनमानी के  नियम बनाए।।

प्रजातंत्र की अज़ब कहानी,
जनता का धन    नेता दानी,
जनता के   सेवक  कहलाएं,
चूसें आम   गुठलियाँ  ढायें।
कुर्सी पा   नेता   तन  जाए।
मनमानी के नियम बनाए।।

जिसकी सत्ता उस कर हत्था
विरोधियों  का   काटे   पत्ता,
साम दाम  भेदों   का   फंडा,
बस न चले तो बजता डंडा।
अपनी करनी   सही  बताए।
मनमानी  के नियम बनाए।।

झूठ  आँकड़े     मीठी  बातें,
छुरियाँ छिपा  पीठ  में घातें,
कीचड़ जाये कीचड़ छिड़कें
कड़वे सच सुन तनते भड़कें।
अंधे   नयन   कान   बहराये।
मनमानी के  नियम  बनाए।।

सेवक कहकर बनते स्वामी,
वसन  गेरुआ  अंदर  कामी ,
नागनाथ कोई -साँपनाथ है,
छोरी छुरियाँ सदा साथ हैं।
मुँह से राम -  राम ही  गाए।
मनमानी के नियम बनाए।।

आठ लाख का भी गरीब है,
आज नाप की   ये जरीब है,
अच्छे - अच्छे   नाप दिए हैं,
घी में शक्कर घोल पिए हैं ।
काजू पिस्ता ही   मनभाये।
मनमानी के नियम बनाए।।

नेता नगरी में   चित  लागा ,
शिक्षा धर्म देश  से    भागा,
पूँछ घटे जो   ये पढ़   जाएँ,
नेताओं को नियम सिखायें।
नारों   से    ही   देश चलाएं।
मनमानी के नियम बनाए।।

नेताओं के   नीचे  अफसर,
उन्हें चाहिए केवल अवसर,
कितने दूध धुले अधिकारी,
नेता अधिकारी  पर  भारी।
चिकने घड़े नीर ढल जाए।
मनमानी के नियम बनाए।।

भेड़चाल अब   टूट   रही है,
बहकावे से   छूट  - रही   है,
अच्छा बुरा भला सब जानें,
नेता की गति  को   पहचानें।
"शुभम"  हटेंगे  -काले साए।
मनमानी के नियम  बनाए।।

💐 शुभमस्तु !
✍🏼रचयिता ©
🌱 डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

उठो किसानो! [ कृषक उद्बोधन गीत]

उठो किसानो!उठो किसानो
अपने को तुम भी पहचानो।।

जग के पालनहार तुम्हीं हो,
अन्नदान के द्वार  तुम्हीं हो।
दुग्ध शाकफल के तुम दाता,
तुम बिन मानव ग्रास न पाता।

निज जीवन आहुति को जानो,
उठो किसानो उठो किसानो।

कोई न  समझा हृदय वेदना,
स्वेद   बहाया    नहीं  चेतना,
नेताओं     के    झूठे     वादे,
मीठी    बातें     कपट  इरादे,
अपने  अन्तरतम  को छानो।
उठो किसानो उठो किसानो!

सस्ता बेचो  मंहगा   लाओ ,
मान और  सम्मान  लुटाओ,
बनिया भाव लगाता उसका,
अन्न धान फल सब्जी सबका
मालिक का कर्तव्य तो जानो।
उठो किसानो उठो किसानो।।

कब तक तुम संतोष धरोगे,
घर - घरनी को  रुष्ट करोगे,
बच्चे कब  तक  कष्ट सहेंगे,
फटे  वसन  वे   पहन रहेंगे,
उनके प्रति दायित्व तो जानो
उठो किसानो उठो किसानो।

धैर्य क्षमा की प्रतिमा तुम हो,
ज़्यादा को बतलाते कम हो,
अच्छा माल  कटौती करता,
बनिया क्या मालिक से डरता?
सीमा 'शुभम'आप पहचानो।।
उठो किसानो उठो किसानो।।

💐शुभमस्तु!
✍🏼रचयिता ©
🌾 डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

मंगलवार, 29 जनवरी 2019

गुलाब का फूल [बाल कविता]

मैं   गुलाब   का हँसता  फूल,
बच्चो   मुझे न   जाना  भूल।।

मैं काँटों के संग   में   पलता।
प्रकृति  के आँचल में ढलता।।
ओस - बिंदु    रहते  हैं  झूल।
मैं गुलाब का  हँसता  फूल ।।

हँसता   मुस्काता   मैं  रहता।
बुरा नहीं मुख से   मैं कहता।।
पानी   बरसे   या   हो    धूल।
मैं  गुलाब  का  हँसता फूल।।

सद   सुगंध  से महका  देता।
नहीं किसी से कुछ भी लेता।।
देना    ही    मेरे     अनुकूल।
मैं  गुलाब का  हँसता  फूल।।

कोई   देवालय    ले  जाता ।
माँग  मनौती  मुझे चढ़ाता।।
मोल न करता  कभी वसूल।
मैं गुलाब का  हँसता  फूल।।

बना गले का हार  कभी मैं।
गुलदस्ते में सजा कभी मैं।।
परहित   ही  मेरे   उर  हूल।
मैं  गुलाब का हँसता  फूल।।

कभी सेज दुल्हिन की सजता।
और कभी शव पर भी चढ़ता।।
नहीं   चुभाता    तीखे     शूल।
मैं  गुलाब   का  हँसता  फूल।।

सीखो  मुझसे नित खुश रहना।
सदा    सुगंध   बाँटते    रहना ।।
शुभम न कहना ऊलजलूल।।
मैं    गुलाब   का हँसता  फूल।।

💐शुभमस्तु !
✍🏼रचयिता ©
🌹 डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

शनिवार, 26 जनवरी 2019

मेरा देश एक यंत्र है [अतुकान्तिका]

मेरा देश एक यंत्र है,
शिक्षा समाज
संस्कृति सभ्यता,
साहित्य विज्ञान 
कलागत भव्यता,
धर्म  अध्यात्म
दर्शनगत  दिव्यता,
गंगा यमुना सरस्वती
हिमालय की उच्चता,
भाषाओं की बहुरंगी
विराट विविधता,
नृत्य संगीत की 
मनमोहक मधुरता,
मानव से मानव की
हार्दिक आत्मीय समीपता,
अनगिनत तंत्रों की 
भारतीय  तंत्रता।
  
वन उपवन 
झीलें घाटियाँ,
गेहूँ धान गन्ने की
उर्वरा  माटियाँ,
बेला गुलाब चंपा की
महकाती वादियाँ,
कमलों कमलिनियों से
आच्छादित तालाब तलइयाँ,
सूरज के  चमकते दिन
चाँद तारों  भरी रात्रियाँ,
शेरों की दहाड़
पिक मयूरों की अठखेलियाँ,
रसभरे रसाल द्राक्ष
महकी पुषिप्त द्रुम बेलियाँ।

इन विविधतापूर्ण तंत्रों से
चल रहा है राष्ट्र-यंत्र,
गुंजरित है जिसमें
भारतीय संविधान
गणतंत्र का मंत्र,
गौरवशाली परंपराओं
गीता वेद महाभारत का
महामंत्र,
हमारी एकता संगठन का
अमिट मंत्र।

मंत्र के बिना 
तंत्र नहीं,
तंत्र बिना 
यंत्र नहीं,
हम सब इस तंत्र के
सचल जीवंत
सुसंगठित पुर्जे,
स्नेह के स्नेहन से
अहर्निश सदा 
एकता के साथ चलते।

मेरा देश एक यंत्र है,
जिसके साथ सदा समृद्ध
"शुभम" सुदृढ़  तंत्र 
गणतंत्र का मंत्र है,
गुणतंत्र का मंत्र है।।

💐शुभमस्तु !
🌾रचयिता "©
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

शुक्रवार, 25 जनवरी 2019

'गुणतंत्र' की 'छवीश' 'जन वरी' [अतुकान्तिका]

मैं आत्मा हूँ
स्वदेश की,
परमात्मा है मेरा
महान भारत देश।

बहती हैं इसमें
गंगा -यमुना की
धमनियाँ -शिराएँ ,
मेरी देह -प्रदेश को
अहर्निश अभिसिंचित करतीं,
मष्तिष्क  की राजधानी से
प्रसारित सन्देश आदेश
जिस्म के जनपदों में पालित
दस जनपद 
ज्ञान और कर्म के 
पाँच -पाँच  दीर्घ हृस्व
जनपदाधीश मन से नियंत्रित ।

तंत्रिकाओं के  सूक्ष्म संचार पथ
अदृश्य लघु -सुदीर्घ परिपथ,
प्रतिक्षण वन्दनरत
वाम वक्ष मध्य स्थित 
अविरल नियमित स्पंदित हृदय
सुरक्षित संरक्षित शक्तिकेन्द्र।

क्षिति जल पावक
गगन और समीर
इन्हीं पाँचों से
निर्मित शरीर,
 प्रबल चेतना सम्पन्न
त्रिवेणी इड़ा पिंगला सुषुम्ना
संगम - भूमि गंगा सरस्वती यमुना
ब्रह्मशिखर का प्रयागराज
सर्वोपरि चेतना राज,
ज्यों फहराता हुआ तिरंगा 
रीढ़ -रज्जू का सुदृढ़ डंडा ।

सत रज और तम 
गुणों का तंत्र,
मेरी आत्मा का प्रदेश
सजीव सक्रिय जागृत गुणतंत्र । 

यही है 'गुणतंत्र' - दिवस
जिनकी छवि की  ईश:
'छवीश',
"शुभम" जन के द्वारा वरी गई,
छवीश जन  वरी ,
मेरे स्वदेश की 
देह -प्रदेश की 
छवीश जन वरी
गुणतंत्र की छवीश जन वरी।।

💐शुभमस्तु !
✍🏼रचयिता ©
 डॉ.भगवत स्वरूप "शुभम"

गुरुवार, 24 जनवरी 2019

ये मेढक बरसाती हैं [गीत]

टर्र - टर्र सुन  दादुर-दल  की
जनता        भरमाती       है।
पाँच साल  तक  रहे नींद में,
ये     मेढक    बरसाती   हैं।।

ऐसे     कैसे  चल  दोगे  तुम
झोला         हाथ        लिए।
नंगा -  झोरी      देनी  होगी
हम      संग      घात   किए।।
समझ      न        लेना   तुम
जनता  की   छोटी  छाती है।
पाँच  साल तक  रहे नींद में,
ये    मेढक     बरसाती   हैं।।

ड्रामेबाज          मुखौटेधारी
चेहरा      तो      दिखलाओ।
झूठ    बोलकर   लोहू  चूसा
लाल      लहू      लौटाओ।।
झाँसे  में   ये   भोली जनता
ठग    ही      जाती       है।।
पाँच  साल तक रहे नींद में,
ये    मेढक    बरसाती   हैं।।

पाँच वर्ष  तक याद न आई
अब       बाँटोगे      सिन्नी?
रैली   कर   थैली  में डालो
भारी  -   भारी      गिन्नी ??
अंधों   को    रेवड़ी    मिले
जनता       हरषाती     है।
पाँच साल तक रहे नींद में,
ये  मेढक    बरसाती   हैं।।

मिट्ठू मियाँ  बने हो ख़ुद ही
कीचड़      खूब      उछाली।
जनहित के  गुब्बारे भर-भर
जन   की    हवा   निकाली।।
किस मुँह से चाहो सिंहासन
शर्म      न     आती      है??
पाँच  साल तक रहे नींद में,
ये    मेढक     बरसाती  हैं।।

शिक्षा  धर्म  नीति के आँगन
नित       झरबेरी       फूली।
चूनर - चोली  फंस काँटों में
सकल   अस्मिता    भूली।।
साँड़ जंगली बन फिरते हो
रसना        ललचाती    है।
पाँच  साल तक रहे नींद में,
ये     मेढक   बरसाती   हैं।।

टी वी    पत्रकार  न्यायालय
बन    गए    क्रीत    गुलाम।
यही आंतरिक नीति तुम्हारी
सुबह   को   कह दें  शाम।।
संविधान  की  धारा बदली
ठकुरसुहाती                है।
पाँच साल तक रहे नींद में,
ये   मेढक    बरसाती   हैं।।

इतनी  बेसुध  हुई न  जनता
तेरा      आसव        पीकर।
दिखला देगी जनमत अपना
फटे   दिलों    को   सीकर।।
एक -एक   पौवे की ख़ातिर
जो      बिक     जाती    है।।
पाँच  साल  तक रहे नींद में,
ये     मेढक   बरसाती   हैं।।

💐 शुभमस्तु !
🌾 रचयिता ©
 डॉ.भगवत स्वरूप "शुभम"

फिर वही गीत सुनाने आया [गीत]

तुमसे मिलने  रिझाने  आया,
फिर वही गीत सुनाने आया।।

मीठी  बातों से  लुभाने आया,
विकास की गंगा बहाने आया।
तुम्हें  नीचे   से   उठाने  आया,
फिर वही गीत  सुनाने आया ।।
                
कार बाइकों की बड़ी रैली देखो,
नोट चन्दा  से  भरी  थैली  देखो।
अपनी ताकत को दिखाने आया,
फिर वही  गीत   सुनाने   आया।।
                
मेरे कान  नहीं  मात्र  मुख मेरा,
घुसता ही नहीं इनमें दुःख तेरा।
अपनी वाणी  से  रिझाने आया,
फिर वही गीत सुनाने  आया।।     
                                     
तुमसे  मिलना न मेरी मज़बूरी है,
तेरे   मेरे    बीच    बड़ी   दूरी है।
 तुझसे नजदीकियाँ बढ़ाने आया,
फिर वही   गीत   सुनाने   आया।।
                 
तुम बड़े भोले हो , मैं भाला हूँ,
तुम हो कुंजी और मैं ताला हूँ।
उसी ताले को खुलवाने आया,
फिर वही  गीत सुनाने आया।।
                 
मैं तुम-सा ही पर अलग मन मेरा
मैं  थैली  हूँ तुम्हीं  हो   धन मेरा।
मतों  की  सौगात  माँगने आया,
फिर वही   गीत  सुनाने  आया।।
                   
बातों के   बतासे ही खिलाता हूँ,
नीर गंगा   का नित  पिलाता  हूँ।
शुभम शुभ बात बताने आया,
फिर  वही  गीत  सुनाने  आया।।

💐शुभमस्तु  !
✍🏼रचयिता ©
 डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम'

बुधवार, 23 जनवरी 2019

शुभम - कुंडली [छंद:कुंडलियां ]

बाती  की  महिमा  बड़ी,
जलकर    दिया   प्रकाश।
मनुज मनुज को  देखकर,
जल   करता   सुखनाश।।
जल    करता   सुखनाश,
जला     जैसे      अंगारा।
शांति -  सुधा     से   दूर ,
फिरा  जन मारा - मारा।।
देख  किसी   की   शांति,
पीटता    क्यों   रे  छाती!
सीख   ग्रहण कर 'शुभम',
जल रही हँस-हँस  बाती।।

पानी में   जब   रँग  मिला,
तदवत             रूपाकार।
दूध    मिला   तो दूध -सा,
तन  -     मन    एकाकार।।
तन -      मन     एकाकार ,
रंग  नहिं     कोई   अपना।
जिसका    देता        संग ,
उसी   की  माला जपना।।
निर्मल तन -मन कीजिये,
ये  सत     भाषा  - बानी।
शिक्षक     तेरा     शुभम,
कह रहा उज्ज्वल पानी ।।

रानी      राजा   के    गए ,
पहले    दिन     वे   बीत ।
प्रजातंत्र    में     स्वार्थ  है,
नियम  न    सच्ची  नीत।।
नियम    न  सच्ची   नीत,
मतों पर  सत  बलिहारी।
नेता      ही        भगवान ,
देश के   कलिमल हारी।।
जनता   का   धन   बाँट,
बन  गए   अवढर  दानी।
'शुभम'   करों   की  मार,
नहीं  वे   राजा -   रानी ।।

नारी    नर      मर्याद का ,
बंद      हुआ       अध्याय।
पर नारी   के    संग   रहो,
नारी       पर घर   जाय।।
नारी  पर घर          जाय,
उचित    कानून    बताता।
पति पत्नी    संग     बँधा,
नहीं   जन्मों  का  नाता।।
कुत्ता   बिल्ली   सम  हुए,
न नर  पर    नारी    भारी।
मनभाये       वह       करो,
'शुभम' कलयुग की नारी।।

तीस   साल    के बाद में ,
निकला     'मी टू'   जिन्न।
पहले    स्वेच्छा   से हुआ ,
अब  मन     होता  खिन्न।।
अब  मन    होता    खिन्न,
चढ़  चुकी   ऊँची  सीढ़ी।
तन    शुचि   आई   याद ,
जल  गई   आधी  बीड़ी।।
'सावित्री  के  मन    उठी,
यौवन  -  युग  की खीस।
'शुभम'  अदालत  में  गई,
बीत   गए    जब    तीस।।

💐शुभमस्तु !
✍🏼रचयिता ©
☘ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

मंगलवार, 22 जनवरी 2019

परिभाषा बदल गई [अतुकान्तिका]

परिभाषाएँ बदलने में
बहुत ही  कुशल हैं हम,
अपने स्वार्थ के लिए
हवाओं के रुख भी
बदल देते हैं हम, 
हवाएँ ही बदल देते हैं हम,
क्या यह सच नहीं है?

बस एक अवसर की तलाश है,
कोई ज़िंदा है या लाश है!
और कोई -कोई ज़िंदा लाश है,
कोई अर्थ नहीं इसका,
हमें तो चलना है
अपनी बनाई राह पर,
कानों में रुई लगाए,
आकाश की ओर मुँह उठाए।

अभी -अभी बदली है
एक और परिभाषा,
गरीब की परिभाषा,
बस हो गया तमाशा,
असली गरीब के गाल पर
जोरदार तमाचा,
मानवता के हृदय पर
खोद दिया गया खाँचा,
क्या किसी ने भी
अपना गरेबाँ बाँचा ?
क्या यही है
आज के लोकतंत्र का ढांचा?

अब आठ लाख रूपए सालाना,
छियासठ हज़ार छः सौ छियासठ
रुपए प्रतिमाह,
दो हज़ार दो सौ बाईस रुपए 
हर दिन-
की आय वाला,
गरीब कहलाएगा,
 जी हाँ ,
गरीब कहलाएगा,
असली गरीब के मुँह पर
मारकर झन्नाटेदार थप्पड़,
प्रजातंत्र का झंडा फहराएगा।

दो वक़्त की रोटी
नहीं मयस्सर जिसको,
चिथड़े भी नहीं 
तन ढँकने भर को,
रहने को  नहीं
झोपड़ी भी जिसको,
किस परिभाषा से
नवाजा जाएगा?

उसे इस देश में
जन्मने का अधिकार नहीं है क्या?
आयकर दाता भी 
ग़रीब की परिभाषा के
मखमल में लिपट  गया!

वोट की चोट से
कौन उजड़ा?
 कौन सँवरा ?
सुनार की हथौड़ी है
सोने के सुधार के लिए,
नहीं है तो बस
किसी भी विचार के लिए ??

💐 शुभमस्तु  !
✍🏼 रचयिता ©
🌾 डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

रविवार, 20 जनवरी 2019

शिशिर -सुषमा [ गीतिका]

1
मन   नहीं   करता मेरा,
इस  ठंड  में स्न्नान  को।
कह  रहे  कम्बल  रजाई,
छोड़ मत   स्थान   को।।
ओढ़कर अपनी   रजाई,
स्नानगृह   में जा  'शुभम',
मुँह चुपड़ कपड़े बदल ले,
सूखी   धुलाई  श्रेष्ठतम।।

2
द्रुम    लताएँ   श्वेत   सारे,
शीत  आँचल प्रकृति का।
ठिठरता है   गात   मानव ,
रूप बदला  सुकृति का।।
कीर पशुओं की दशा का,
हाल   अति    बेहाल   है।
निर्वसन   वे कँप  रहे  हैं,
डगमगाती    चाल    है।।

3
साँस  लेती   सरित धारा,
स्वच्छ   निर्मल    नीर  है।
वाष्प मुँह से उठ रहा सित,
जो   नहाए       वीर   है।।
तीर पर बैठा   हुआ  क्यों,
गुनगुनाती      है      नदी।
गुनगुना  पानी   नदी का,
'शुभम' निर्मल  है सभी।।

4
श्वेत   चादर  से  ढँके  हैं,
खेत   गेहूँ    मटर     जौ।
आलु गोभी  गाजरों  की,
ज्यों  रसोई    धूम   सौ।।
हरित  पर्णों  में  बनातीं ,
खाद्य  सूरज  की किरन।
चाह मन में 'शुभम' ऊष्मा,
लू - लपट  होती हिरन।।

5
देव   मंदिर   भवन-छज्जे -
पर   लदीं     बेलें   सघन ।
हनुमतकिरीटीअरुण पुष्पी,
करती हुई मन को प्रमन।।
बुलबलें तितली मचलती,
सघन   पुष्पित  गुच्छ पर।
ताज़गी भरती  नयन युग,
शिशिर शुभ सौंदर्य भर।।

💐 शुभमस्तु !
✍🏼रचयिता ©
🍁 डॉ. भगवत स्वरूप ''शुभम"

यूज़ एंड थ्रो बनाम गंदगी बढ़ाओ [ व्यंग्य ]

   यदि घुमा फिराकर न कहें, तो आदमी एक अति गंदगी प्रिय प्राणी है। उसकी इस गंदगी प्रियता के एक नहीं  अनेक, दूर नहीं पास, अतीत में ही नहीं वर्तमान में, धरती पर ही नहीं सागर और आसमान में हजारों लाखों उदाहरण दिए जा सकते हैं। जैसे-जैसे आदमी आगे बढ़ता गया,ऊँची -ऊँची पढ़ाई पढ़ता गया, वह अपने दोषों को छिपाने में प्रवीण होता गया। इसीलिए उसने स्वच्छता प्रियता का नारा बुलंद किया और कहा गया कि स्वच्छता में ईश्वर का वास होता है। लेकिन क्या स्वच्छता नारे लगाने से आ जाती है ? निश्चय ही नहीं आती। उसके लिए हमें प्रयास करने पड़ते हैं।
   आदमी जन्मतः गंदगी प्रिय था, इसका एक बहुत सशक्त प्रमाण यह है कि उसने अपने द्वारा बनाई गई  वर्ण व्यवस्था में उसकी गंदगी को दूर करने के लिए विधिवत  एक वर्ण का निर्माण ही कर दिया। यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि वह कौन सा वर्ण और जाति है जो आदमी की गंदगी की सफ़ाई के लिए अतीत काल से ही आज तक अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करती चली आ रही है। आदमी कितना विचित्र प्राणी है कि गंदगी वह करे, और उस गंदगी को उठाने का काम उसी जैसी देह, हाथ, पैर, मुँह, नाक, कान, आँख वाला इंसान ही करे!अपनी गंदगी अपने आप साफ़ करने में उसका स्तर गिर जाता है, वह छोटा हो जाता है। उसका सामाजिक महत्व कम हो जाता है। इसीलिए सीना तानकर, ललाट को ऊँचा उठाकर वह  अपने को अभिजात्य सिद्ध करने के लिए अपनी तरह के मानव को हेय, पतित औऱ अश्पृश्य बनाकर दुरदुराने में हमेशा आगे रहता है।
   जहाँ आदमी होगा, वहाँ गंदगी होगी ही। यह एक ऐसा अकाट्य सिद्धांत बन चुका है (बनाया नहीं गया, क्योंकि   कुछ सिद्धांत प्राकृतिक रूप   से बनते हैं, उन्हें बनाना नहीं पड़ता।) कि उसे समाप्त करना असंभव-सा है। आज आदमी द्वारा ही धरती, आसमान, सागर, पर्वत, जंगल,  नदियाँ, तालाब, खेत, खलिहान, पार्क, ट्रेन, बस , घर, बाज़ार, सड़कें, गलियाँ, स्कूल, कॉलेज, कचहरी, कार्यालय सभी कुछ प्रदूषित हो रहा है। और यह  प्रदूषण निरन्तर बढ़ता ही जा रहा है। मानव के द्वारा जितना अधिक स्वच्छता का प्रचार किया जा रहा है, उसी अनुपात में गंदगी औऱ अधिक बढ़ती चली जा रही है। चंद्रमा पर गए तो वहाँ गंदगी छोड़ आये। नदियों में नित्य मानव निर्मित कचरा, मल मूत्र, रासायनिक कचरा, यांत्रिकीय कचरा, बढ़ रहा है। और तो और कचरे को और अधिक बढ़ाए जाने का एक नया सूत्र भी ईजाद कर लिया गया है, जिसे हम बुद्धिजीवी लोग  पश्चिम की देन मानकर पल्ला झाड़ लेते हैं। वह नया सूत्र है:USE AND THROW. स्प्ष्ट है कि जितना यूज एंड थ्रो करेंगे, निश्चय ही गंदगी अधिक बढ़ेंगी। उदाहरण के लिए, पहले पंख पेन, कलम, होल्डर, इंक पेन का प्रयोग करते थे। इंक पेन में बार-बार इंक भरते, फिर लिखते। लिखकर फेंक नहीं देते थे। उसे भविष्य में प्रयोग के लिए सहेज-संभाल कर रखते थे। पेन की निब जब तक घिसकर अप्रयोजनीय नहीं हो जाती थी, तब तक उससे लिखा ही जाता रहता था। उसे बहुत ही जल्दी न फेंक देने के कारण पेन और लेखनियों का कचरा नहीं के बराबर होता था। जब से डॉट पेन या जेल पेन की खोज हुई, तब से खरीदो, लिखो औऱ फेंको का सूत्र लागू हो गया। सरकंडे की लेखनी औऱ होल्डर की भी प्रदूषण न फैलाने में यही भूमिका रही है।
   यह तो मात्र एक छोटी सी लेखनी की बात कही है। यदि प्लास्टिक, पॉलीथिन, स्टील, आदि से निर्मित अन्य वस्तुओं की चर्चा की जाए तो एक महागाथा ही बन जाएगी। गुटका, पान- मसाला,  कुरकुरे, प्लस्टिक की शीशियां, पानी की बोतलें,  शीतल पेय, मदिरा, औषधियाँ, टिफिन बॉक्स, औऱ न जाने कितने हज़ारों उत्पाद हैं, जो यूज एंड थ्रो के नाम पर इंसान ने ही बनाए हैं। ईश्वर ने नहीं। ईश्वर निर्मित चीजों से गंदगी नहीं फैलती।पत्ते, फूल, फल, बीज, लकड़ी, जड़, सभी कुछ अपने अगले  क्रम में जाकर उपयोगी ही सिद्ध होता है। जैसे फूल से फल, फल से बीज, बीज से पुनः नई  सृष्टि -- यही क्रम निरन्तर चलकर अपनी उपादेयता सिद्ध करता है। इसी प्रकार सर्वत्र प्रकृति का यही क्रम है। लेकिन इसके विपरीत मानव स्वयं अपने लिए स्वयं समस्याओं का बीज-वपन कर रहा है।बगीचे, पार्क में जाएगा तो कुरकुरे, टेड़ेमेढे, नमकीन, बिस्कुट के रैपर, पेकिंग फॉइल्स, बिखेर कर चलता बनेगा। स्टेशनों पर तमाम गंदगी सुअर गधे नहीं करते। बल्कि प्रकृति ने तो आदमी की गंदगी की सफ़ाई का एक सजीव चलता-फिरता उपकरण ही वरदान कर दिया है।
   आदमी की यूज एंड थ्रो की प्रवृत्ति केवल भौतिक वस्तुओं तक ही सीमित नहीं रह गईं है। वह आदमी से आदमी तक पहुंच गई है। जैसे दूध पीने के बाद यही गाय को गौमाता कहने वाला दोमुंहा इंसान गाय को दूसरों के खेत चरने के लिए  छोड़ देता है, वैसे ही अपना उल्लू सीधा होने के बाद आदमी भी आदमी से नज़रें चुराने लगता है।दूर कहाँ जायँ शिष्य तक गुरु को देखकर नज़रें फेर कर खड़ा हो जाता है। कहीं नमस्ते न करनी पड़ जाए!  यहाँ तक कि अपनी औलाद भी अपने बूढ़े माँ-बाप को  वृद्ध -आश्रम में मरने के लिए छोड़ आती है। यही तो आज के युग का यूज एंड थ्रो है। नई -नई कुछ ज़्यादा ही पढ़ी लिखी बहुएँ  सास -ससुर को घर की गंदगी और कचरा मानने लगी हैं। मैं ये कोई अतिशयोक्ति नहीं लिख रहा। नवेली आधुनिकाओं की नज़र में बूढ़े  माँ-बाप किसी गंदगी से  ज्यादा अर्थ नहीं रखते। ये सब किसकी देन है। आज आदमी आदमी के लिए कचरा है, तो शेष सांसारिक वस्तुओं से यदि कचरा बढ़ाया जा रहा है, कोई आश्चर्य की बात नहीं। बड़ी -बड़ी बातें करने से स्वच्छता नहीं आती। नारों, बैनरों, पोस्टरों, फ्लेक्स  से  देश  स्वच्छ नहीं हो जाएगा। सबसे पहले अपने मन मस्तिष्कों को स्वच्छ करना होगा।
अपना कूड़ा उसके द्वार,
यही आज का सद -आचार,
यूज़ एंड थ्रो कीसभ्यता नेक, 
काम निकाला बाहर  फेंक, 
मन गंदे तन पर नित क्रीम, 
नए आदमी की ये थीम,
नारा नारा  नारा    नारा,
नारेबाजों   ने  देश   उजाड़ा,
निज सिर श्रेय, बढ़ी छपास,
इस मानव से   कैसी  आस!
फ़ोटोबाजी     में    तल्लीन,
होता  जाता  पशु   से  हीन,
नियम दूसरों के हित बनते,
नियम-नियंता बाहर चलते,
कैसे       होगा    देशोद्धार,
नेता  चाहें   बस    गलहार,
ऊन भेड़ की   छीलें  रोज़,
एक मेज पर सबका भोज,
कीचड़ छिड़क नहाएं कुंभ,
बढ़ी गंदगी   बढ़ती   धुंध।।

💐शुभमस्तु!
✍🏼लेखक ©
🌾 डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

शुक्रवार, 18 जनवरी 2019

आदमी की भूतप्रियता [ व्यंग्य ]

   आदमी एक भूतप्रिय प्राणी है। वह  जितना आगे  है, उतना ही पीछे भी है। वह साँस तो वर्तमान में लेता है, किन्तु जीना चाहता है अतीत में, भूतकाल में। यही कारण है कि वह अपने होने की  स्थाई छाप छोड़ने के लिए कुछ ऐसी गतिविधयां या कहिए हरकतें अथवा कारनामों को अंजाम देने में लगा रहता  है, जिससे उसकी अमिट छाप के चिन्ह वक़्त के वक्ष पर पड़ सकें। आप सभी इस बात से सुपरिचित हैं कि पहले के राजा - महाराजा, बादशाह अपनी स्मृतियों को भावी पीढ़ियों के लिए सँजोने की ख़ातिर किले, बाबड़ियाँ, महल, मीनारें, स्तूप, पिरामिड और न जाने क्या क्या बनवाया करते थे। देश और विदेशों में ऐसी यादगारों के अनेक उदाहरण विश्व -इतिहास की धरोहर के रूप में आज भी देखे जा सकते हैं। उदाहरण के लिए जयपुर में  आमेर, जयगढ़ के किले, दिल्ली में  कुतुबमीनार, लाल किला, पुराना किला, संसद भवन, आगरा स्थित ताजमहल, अकबर का किला, सिकंदरा, चीनी का रोज़ा, आराम बाग (वर्तमान रामबाग), मेहताब बाग, फतेहपुर सीकरी, ग्वालियर में राजा मानसिंह का किला, सारे देश में बने हुए प्राचीन मंदिर, अजमेर में पुष्कर और शेख सलीम चिश्ती की दरगाह, रामनगर (आँवला, बरेली के निकट ) में राजा द्रुपद का किला, संगम पर इलाहाबाद स्थित  किला, लखनऊ स्थित अनेक नवाबी शान के प्रतीक स्थल, गया, सारनाथ में बौद्ध कालीन प्रतिमाएँ और अनेक स्मृतियाँ, मिस्र के पिरामिड, स्तूप आदि सभी आदमी के अपने को अतीत में दीर्घकाल तक स्मरण में बनाये गए ऐसे ही स्मारक हैं।
   प्राचीन मानव की तरह आज का आदमी भी किसी अर्थ में कम नहीं है। अब वह राजा, सम्राट या बादशाह तो नहीं है, इसलिए वह अपनी प्रेयसी की स्मृति में ताजमहल तो नहीं बना सकता। न सम्राट अशोक की तरह सदुपदेश अंकित स्तम्भ या लाट भी खड़ी कर सकता है। जैसे आदमी अपने आत्मज /आत्मजा (अपनी आत्मा से जन्मने वाला /वाली अर्थात पुत्र/पुत्री ) की तरह ही कुछ ऐसा छोड़ना चाहता है, जिसे आगे आने वाली पीढ़ियाँ जान समझ सकें कि हमारे पूर्वज इस प्रकार के थे।
   अब आदमी कोई चिड़िया या पशु या आदमी जलचर व्हेल, मछली, मेढक या मगरमच्छ, घड़ियाल तो है नहीं , जो केवल आज में ही जीता हो। जलचर, नभचर या मानव से इतर थलचर हाथी, घोड़ा, गधा, खच्चर, गाय, भैंस तो है नहीं, जो केवल वर्तमान को ही अपना सब कुछ जनता मानता हो। इन सभी को केवल आज ही नहीं, मात्र अभी और वर्तमान क्षण की ही चिंता रहती है। ये सभी कल में (भूतकालीन) नहीं जीते और न हीं आने वाले कल की ही चिंता में अपना खून सुखाते हैं। ये तो  यह आदमी ही है, जो अतीत और भविष्य की फिक्र में अपना वर्तमान भी  बिगाड़ डालता है।
   आइए! कुछ और आगे बढ़ते हैं। आज का युग इसी भूत प्रियता की अगली कड़ी में फोटो प्रिय हो गया है कि मुख्य को भुलाकर बस फ़ोटोबाजी का दीवाना हो गया है। किसी  बारात में जाइए तो देखेंगे कि हर हाथ में एंडरायड मोबाइल का फ्लैश चमचमा रहा है। समय से विवाह होना तो कोई महत्व नहीं रखता, हाँ, स्टेज पर जब  फ़ोटोबाजी का मझमा शुरू हो जाता है तो शादी के लिए समय कम पड़ जाता है। फिर तो बाबा, नाना, नानी, मामा, मामी, भैया, भाभी, चाचा , चाची कोई भी दूल्हा दुल्हन के पीछे आशीर्वाद देने में पीछे नहीं रहना चाहता। पहले मैं, पहले मैं की जैसे होड़ लग जाती है। बारात जब चढ़ती है तो नाचने के फोटो खींचना तो अनिवार्य है,  हाथ में पांच सौ का नोट दिखाकर दस रुपए देने का काम भी खूब होता है। पुरुष  नहीं स्त्रियाँ क्यों पीछे रहें भला नाचने में, क्योंकि वे तो अच्छे  अच्छों को नाच नचाने का गुण हासिल किए रहती हैं। वे भी ताल से ताल मिलाकर प्रियंका चोपड़ा और ऐश्वर्या को भी मात देने का माद्दा लिए मैदाने-नाच में उतर पड़ती हैं। फिर देखिए स्मृतियां कैसे मोबाइल रूपी कैमरे में कैद की जाती हैं।अरे भाई ! जब ताजमहल नहीं बना सकते, किले खड़े नहीं कर सकते, कुतुबमीनार नहीं बनवा सकते, तो फ़ोटो खिंचवाने से भी जायँ?
   आज वर्तमान को भूतजीवी बनाने का साधन ही मोबाइल है! यदि सम्राट अशोक, चन्द्रगुत, राजा अमर सिंह तोमर, के समय में कैमरा मोबाइल थे ही नही, तो बेचारे कैसे फ़ोटो खिंचवाते? यदि होता तो बिना खिंचवाए क्यों रहते? इसलिए अपने को अमर बनाने के लिए किले खड़े करने पड़े, बाबड़ियाँ बनवानी पड़ीं।सम्राट अशोक ने तो बौद्घ उपदेशों से जंगल के पर्वत, चट्टानें, खम्भे और दरवाजे तक यादगार बना दिए। अपने अपने युग की बात है। आज फोटो युग है, तो आदमी फोटिया गया है। जन्म से लेकर श्मशान तक स्मृतियाँ कैद करने के लिए हर हाथ मोबाइल है। विवाह में फेरे मुहूर्त से पड़ें न पड़ें, कोई फर्क नहीं पड़ता, परन्तु हर गतिविधि का फोटो बनाकर वीडियो एलबम जरूर बननी चाहिए। 70 परसेंट में फोटो बाजी, बाक़ी सब में होगी शादी। अब तो श्मशान में भी मुर्दे के साथ फोटो खिंचवाने के सौभाग्य के क्षणों को भी लोग छोड़ना नहीं चाहते! यह प्रत्यक्ष देखी हुई बात है।मुझे इस बात का नहीं पता कि सुहाग कक्ष में भी क्या कुछ फ़ोटोबाजी के शौकीन लोग कैमरामैन को अंदर आने की अनुमति देते हैं। इस भूत प्रिय आदमी के लिए कुछ भी असंभव नहीं है। मोबाइल तो वहाँ भी हाज़िर रहता ही होगा। पहले फ़ोटो, बाद में कुछ और। एक ड्रामा ही सही। असली का आनन्द भुलाकर फ़ोटोबाजी में डूब जाने का ये कैसा विचित्र दीवानापन है? कैसा विचित्र युग है? वर्तमान जाए भाड़ में ,भूत की तैयारी करो शान से। आदमी की ये भूत प्रियता उसे  कहाँ ले जाएगी। कैमरा ही मालिक है। सब कुछ मोबाइल चालित है। बदल गई  फ़ितरत कैसी कैसी, वर्तमान की कर दी ऐसी तैसी। भूत से बहुत ही प्यार करता है, भूतप्रियता 'शुभम' ने देखी ऐसी।।

💐शुभमस्तु !
✍🏼 लेखक©
🌱 डॉ.भगवत स्वरूप"शुभम"

गुरुवार, 17 जनवरी 2019

भक्त -चालीसा [छन्द:दोहा] (भाग:4)

मज़हब -  भक्त   महान हैं,
जैसे         पत्थर    लीक।
पट्टी    बाँधे     नयन    पर,
बस मज़हब के नीक ।।31।।

गुबरैला      गोबर     बसे,
बस     इतना       संसार।
गोबर की   ही   महक में ,
उसका जीवन -सार।।32।।

गोबर   के    बिल  में बसे ,
मज़हब -  भक्त    अनेक।
बाहर  झाँका  फिर  घुसे,
यही भक्ति  की  टेक।।33।।

जीभ - लालसा  के लिए,
अंडे       माँस       शराब।
धर्म-ग्रंथ   में    क्या  यही ,
लिखा मज़हबी-आब??34।।

धर्म -  भक्त   होना  सही,
मत        होना     धर्मांध।
अंधे  की   लकड़ी   लिए,
मत    फैला    दुर्गंध।।35।।

जीव    मात्र    रक्षा   करें,
मानवता      का     काम ।
अपना - सा  समझें  उन्हें,
पशु खग वृक्ष ललाम।।36।।

जीव -  आत्मा     में  बसे,
प्रभु   का    सच्चा    रूप।
आत्मा का   सम्मान  कर,
निर्मल स्वच्छ स्वरूप।।37।।

त्याग  वसनवत  देह  को,
आत्मा     बदले      गात।
आत्मा की है जाति क्या,
समझ तत्त्वगत बात।।38।।

मानुष  मछली  तितलियाँ,
पंछी          पादप     बेल ।
जाने कब   किस  रूप में,
खेले आत्मा  खेल।।39।।

 उदर   तेरा   श्मशान   है,
अंडे               मांसाहार।
जिनको तूने   खा   लिया ,
तू  उनका   आहार।।40।।

चौरासी   लख  योनि  में,
भटक   रहा    रे     जीव।
फिर  कैसी   ये    हेकड़ी,
"शुभम"कर्म की नींव!!41।।
     
💐शुभमस्तु !
✍🏼रचयिता ©
💞 डॉ.भगवत स्वरूप"शुभम

भक्त -चालीसा [छन्द:दोहा] (भाग:3)

छपा पोज   अख़बार में,
बैनर      टाँग      प्रचार।
कम्बल   बाँटें     सेठजी,
गठरी  कार उतार।।21।।

सेवक  मच्छर  माखियाँ,
धन -भक्तों   की   सोच।
मान  नहीं शोषण सदा,
स्वार्थ  हेतु उत्कोच।।22।।

जातिभक्त    नेता  खड़ा,
देशभक्ति       से       दूर।
मिट्टी  का    ही   हो  भले,
उसका काम ज़रूर।।23।।

वोट   सभी   को  चाहिए ,
लाभ मात्र    निज जाति ।
ऐसे     नेता     से   भला ,
नेता जाति विजाति।।24।।

जातिभक्त   नेता   सभी,
मेढक  -   टर्र      समान।
पड़े     कूप     टर्रा    रहे,
कुगति देश की हान।।25।।

फैशन की अति भक्ति का,
लम्बा     फटा        पुरान।
फ़टी  जींस   में    झाँकता,
फैशन -भक्त महान।।26।।

तन   ढँकने    के  आवरण ,
नहीं    रहे     अब     वस्त्र।
ध्यानाकर्षण      के    बने,
मारक मोहन अस्त्र।।27।।

किसी भिखारी   से लिए,
माँग   भीख    में    वस्त्र।
युवा  - युवतियाँ  गर्व  से,
दिखलाते परमास्त्र।।28।।

गिरी  गिरी   अब ये गिरी,
नारी         हाई      हील।
ज्यों  सूजे  की  नोंक पर,
उड़े धरा पर चील।।29।।

ऊँचा   दिखने   के  लिए ,
अच्छा      है      उपचार।
ऊँची सैंडिल    पहन लो,
पढ़'-लिखना बेकार।।30।।

💐शुभमस्तु !
✍🏼रचयिता ©
🍀 डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

भक्त -चालीसा [छन्द:दोहा] (भाग:2)

चमचा या चमची कहो,
या  नेता     का  भक्त।
नयन मूँद   पीछे   चले,
सदा रहे अनुरक्त।।11।।

पत्नी जी   के  भक्त हैं , 
दस  सौ  नहीं   हज़ार।
थोड़े -थोड़े  आप हम,
मिले नहीं आहार ।।12।।

पत्नी  की  भगती  करो ,
जो   चाहो    सुख -चैन।
रात-दिवस भुगता  करो,
उधर लगे जो नैन।।13।।

एक हाथ   बटुआ  लसे ,
दूजे    कर      मोबा'ल।
पीठ सुसज्जित पोटली,
ये पति जी हाल ।।14।।

पीहर का  कूकर  मिले,
करना   उसका   मान।।
होगी पत्नी खुश बहुत,
बढ़े आपकी शान।।15।।

गृहलक्ष्मी की भक्ति का,
सदा   सुखद  परिणाम।
नाचो अँगुली    पर सदा,
गोपनीय यह काम।।16।।

नर   आधा   पत्नी बिना ,
पत्नी     आधा      अंग।
अर्धांगिनि   कहते   उसे,
रात-दिवस का संग ।।17।।

धन  वैभव   के भक्त जो,
मानवता        से       दूर।
कनक -चौंध की अंधता ,
नयनों    में    भरपूर।।18।।

दया  धर्म  करुणा रहित,
धन    के     अंधे   भक्त।
स्वर्ण प्रदर्शन की ललक,
दानवता  अनुरक्त ।।19।।

ढोंग धर्म   का  मन बसा,
तन  पर    टीका   माल ।
कथा -भागवत भी करें,
पर धन्धे का जाल।।20।।

💐शुभमस्तु  !
✍🏼रचयिता ©
डॉ.भगवत स्वरूप "शुभम"

भक्त -चालीसा [छन्द:दोहा] (भाग:1)

भक्तों    का    संसार   है,
भक्तों     की      भरमार।
भक्त -भीड़ नित बढ़ रही,
सजे सकल दरबार ।।1।।

कंचन   कामिनि   भोगते,
बाबाजी        दिन - रात।
भक्त   सुहागा    दे    रहे ,
ग्रीष्म शीत बरसात ।।2।।

खुली  आँख  से   देखते,
अन्ध -भक्ति    अनुराग।
परदे  में क्या -  क्या घटे, 
रँग  होली का फ़ाग।।3।।

वेष  कलंकित  हो गया,
बाबाओं      के      हेत।
करनी  बाहर   आ  गई,
वसन   गेरुआ  सेत।।4।।

बहती   गंगा   में निपुण,
भक्त    धो    रहे   हाथ।
रेशम   के    परदे   सजे,
आगे - पीछे  स्वार्थ।।5।।

रामनाम  पट पर लिखा ,
उर   में     कंचन   काम ।
माया   से    दूरी    रखो ,
नित उपदेश ललाम।।6।।

नेताजी  के  भक्त   गण,
जैसे       लम्बी      पूँछ।
जितनी  लम्बी  पूँछ हो,
उसकी   उतनी   पूछ।।7।।

हाथ  लिए   माला खड़ी,
भक्त     भक्तिनी   भीड़।
किशमिश काजू साथ में
महक  रहा है नीड़।।8।।

बैनर   झण्डे     टोपियाँ ,
फ्लैक्स सुसज्जित मंच।
नारे    भक्त   लगा    रहे,
मैल  न मन  में रंच।।9।।

नेता   कच्चा   कान का ,
पर   पटु  भक्त   सुजान।
जो भर  दे  साँची   वही,
बात कान में तान।।10।।

💐शुभमस्तु !
✍🏼रचयिता ©
🌱 डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

मंगलवार, 15 जनवरी 2019

हे अग्निदेव! [अतुकान्तिका]

 हे अग्निदेव!
अनादिकाल से आज तक,
चकमक पत्थरों से 
अरणी तक,
इतिहास से
अभी तक,
तुम देव थे
तुम देव हो,
तुम देव ही रहोगे,
पूज्य आराध्य
प्रत्यक्ष किंवा परोक्ष
 ही रहोगे।

जठर में
सागर में
वन में
अंतर्निहित हो तुम,
पाकशाला में
प्रत्यक्ष साकार हो तुम,
पंचभूतों में
सृष्टि के सृजन में
तुम ही एक महत्तत्व।

अंकुरण बीज का
वनस्पतियों में,
गर्भाधान क्षणों में
पत्नियों -पतियों में,
प्रकृति  मानव -जीवन की
प्रत्येक गतियों में
रार में रतियों में
हे अग्ने! तुम्हीं हो।

भवन में
हवन में
अर्थी की अगन में 
मानुष के मन में,
लगन में,
जन्म में मरण में
सब तुम्हारी सरन में।

भानु के प्रकाश में,
चन्द्र के सुहास में,
तारों के उजास में,
पुष्पों के विकास में,
पादप उल्लास में,
भुजबन्धित पाश में,
तुम्हीं हो अग्ने तुम ही हो!

अधरों का अधरों से स्पर्श,
युगल देह रोमांच हर्ष,
चेतन का चेतन  संघर्ष,
भ्रूण में नवजीवन उत्कर्ष,
हृदय की हर धड़कन,
सृष्टि का प्रति कण कण,
हस्ती पिपीलिका -सा क्षण,
तुम्हारा ही अस्तित्व -संसूचन
हे अग्निदेव!

विडम्बना हमारी
मानव की कैसी ?
न कहीं मन्दिर
न प्रतिमा ही तुम्हारी,
न पूजा 
न आरती ही उतारी!
इसीलिए 
क्रोधावेश में जलाते हो,
आकार भी निराकार भी
सकल सृष्टि चलाते हो
हे अग्निदेव!!

💐शुभमस्तु !
✍🏼रचयिता ©
🌱 डॉ. भगवत स्वरूप '"शुभम"

सोमवार, 14 जनवरी 2019

मोबाइल -चरित [दोहा -चौपाई ]

-चौपाई-
मोबाइल की विकट कहानी।
सुनहु सुजन सुजनी मम बानी।।

हाथ - हाथ  मोबाइल सोहे।
एंड्रॉयड जन-जन को मोहे।।

बालक युवा प्रौढ़ जन बूढ़े।
उठत खाट  मोबाइल  ढूंढ़े।।

छात्रा-छात्र सकल नर नारी।
मोबाइल की छवि पे बारी।।

बैठत उठत मोबाइल के संग।
बदलौ युग बदले सब रंग ढँग।।

चलत फिरत बाइक बस कार।
बिना मोबाइल  सब बेकार।।

बात  बात  बात  में   बाता।
बात करत कोई न अघाता।।

प्रेम  रार   सर्विस   व्यापार।
मोबाइल सबकी  सरकार।।

- दोहा -
दास   मोबाइल   के   हुए,
दुनिया    के     नर -  नार।
सुख-दुःख में उसके बिना,
चले     न    कोई   कार।।1।।

 -चौपाई-
शादी ब्याह जन्म श्मशान।
मोबाइल का पहले ध्यान।।

पर्व दिवाली  होली - रंग।
मोबाइल की प्रबल तरंग।।

आज़ादी का दिन ,गणतंत्र।
मोबाइल का  मारक   मंत्र।।

चौर्य   डकैती   लूटें    बैंक।
मोबाइल   की   ऊँची  रैंक।।

राजनीति   या    भ्रष्टाचार।
मोबाइल से    ही   संचार।।

दान पुण्य अपहरण छिनार।
खुला सदा मोबाइल -द्वार।।

लगा कान  में   लीड  सुरंग।
राह न   देखें   मस्त   तरंग।।

सड़क चलत बातों काध्यान।
अंधी    आँखें   बहरे  कान।।
               
-दोहे-
चित्र  -   कथाएँ    वीडियो,
नाना      रंग          संगीत।
सुरुचि    श्लीलता   से परे,
युवा -  वर्ग  के     मीत।। 2।।

अलग कैमरा   की  नहीं ,
रही  -  ज़रूरत    आज।
फोटो   खींचो   वीडियो,
मोबाइल  हर  काज।। 3।।

व्हाट्सएप्प या  फेशबुक ,
मोबाइल       के      मित्र।
चैटिंग   वार्ता    वीडियो ,
भेजो   सुंदर     चित्र।। 4।।

कथा कहानी काव्य का ,
मोबाइल           भांडार।
लिख भेजो कॉपी करो ,
फॉरवर्ड    के   द्वार।। 5।।

बिक्री  औऱ   खरीद भी ,
भेजो   धन   हर     ठौर ।
मनीआर्डर  के दिन गए ,
मोबाइल सिरमौर।।  6।।

टी वी   ट्रांजिस्टर   घड़ी ,
सबकी   डिबिया   एक।
खुला   सिनेमा हाल   है,
जो चाहे सो देख ।। 7।।

- चौपाई -
जोड़ गुणाअरु भाग घटाओ।
भिन्न दशमलव गणित सिखाओ।

गणक सभी गणनाएँ करता।
दिन दिनांक मा' वर्ष निखरता।।

कम्प्यूटर गूगल की खोज।
शब्दकोष   ई मेल समोद।।

प्ले स्टोर एप्प्स का सागर।
मोबाइल सागर की गागर।।

मोबाइल में  बैंक  तुम्हारा।
जहाँ खड़े हो वहीं सहारा।।

करो ट्वीट , कब   आए ट्रेन।
जीपीएस में क्या कुछ है न!!

ललित कलाएँ अरु विज्ञान।
मोबाइल निधि हीरा खान।।

ज्योतिष गणित विश्व इतिहास।
विश्व नहीं, ब्रह्मांड निवास।।

- दोहा-
मोबाइल    वरदान  है,
मोबाइल   अभिशाप।
अकथ ज्ञान भांडार ये,  
'शुभम'शीत अरु ताप।। 9।।

💐शुभमस्तु ! 
✍🏼रचयिता ©
🍑 डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

रविवार, 13 जनवरी 2019

नीति संग व्यभिचार [ गीतिका ]

कुर्सियाँ   हिलने   लगी   हैं,
झूठ       अत्याचार        से।
काँपती     हैं  टाँग   उनकी,
नीति  संग व्यभिचार   से।।
कोठरी कज्जल की काली,
क्यों      बचाए    कुर्सियाँ।
दीमक  लगे     हैं    टाँग  में,
सारी   मिटा  दें   तुरसियां।।

दिख   रही   पहले   बुराई ,
अब   वही   नित  कर्म  है।
चालबाजी   छल   फ़रेबी ,
रात - दिन   का   धर्म  है।।
गमन  हो  पश्चिम   बताएँ,
पूर्व   को    हम    जा रहे।
ऐसे  सियासत - जाल  में,
फँसकर सुजन तड़पा रहे।।

भेड़   के   रेवड़   सजे   ये,
मत    कहो      ये   रैलियां।
अन्धे   कुएँ  में   गिर   रहीं ,
खनखनाती        थैलियाँ।।
चींटे    चिपकते   जा  रहे,
मधुर  गुड़  की    भेलियाँ।
कीचड़ें    करने   लगी   हैं,
शान्ति   से    अठखेलियाँ।।

धृतराष्ट्र    की  सन्तान  को,
बस   चाहिए    सत्ता  बड़ी ।
अधिकार जन का छीनकर,
हाथ   ले    जादू  -  छड़ी।।
अनय का बहुमत खड़ाकर,
नीति   का   रुख  मोड़कर।
हर मूल्य   पर  सत्ता  मिले,
सद्धर्म  अपना   छोड़कर।।

सत्य     धूलें    फाँकता  है,
पैर     में       छाले      पड़े।
असत   के  मन्दिर   सजे हैं,
आरती     ले   जन    खड़े।।
यान      हेलीकॉप्टरों     में ,
झूठ      तनकर   विचरता ।
अस्तित्वअपना सिद्ध करने,
शुभ सत्य पथ पर बिखरता।

💐 शुभमस्तु !

✍🏼© रचयिता
🌱डॉ.भगवत स्वरूप "शुभम"

शनिवार, 5 जनवरी 2019

गाली पुराण [व्यंग्य]

   काली का कालात्व से सम्बन्ध हो, न हो। खाली का खाल से  सम्बन्ध हो, न हो। परंतु गाली का गाल से गहरा सम्बन्ध अवश्य है। अर्थात जो गाल से निकले वही गाली। आप कहेंगे कि गाल से तो हर बात ही निकलती है, चाहे वह अच्छी हो अथवा बुरी। आपको अच्छी लगे या न लगे , परंतु वह निकलेगी तो गाल से ही न! कहीं  और  से  तो निकलेगी नहीं। भगवान ने अच्छी, बुरी और न अच्छी न बुरी :  इन तीनों प्रकार की बातों का उद्गम स्थल अंततः इस चार अंगुल लंबे चौड़े मुख को ही तो बनाया है। अब यह अलग बात है कि हम उसका उपयोग किस प्रकार करते हैं, सदुपयोग करते हैं या दुरुपयोग करते हैं। बात यदि अच्छी है तो सदुपयोग ही माना जाएगा और यदि अच्छी नहीं है तो उसे दुरुपयोग की संज्ञा से ही अभिहित करने की हमारी विवशता होगी।
   भाषा या वाणी का यह दुरुपयोग भी मेरी दृष्टि में गाली की श्रेणी में गिना जाना चाहिए। कुछ लोगों के मुँह से अनायास ही कुछ ऐसी बातें निकलती रहती हैं, जिन्हें गाली कहना ही उचित है। ऐसी बातों को सुनकर ऐसा लगे कि वहाँ से उठकर चले जाने की प्रबल इच्छा बलवती होने लगे तो यह भी गाली ही है। अथवा यदि सामर्थ्य है तो उसका मुँहतोड़ जवाब ही दे दिया जाए  या और भी अधिक सामर्थ्य है तो उस मुँह को ही न तोड़ दिया जाए, जिसमें से ऐसे अपशब्द निकले, जो किसी के  सुनने योग्य नहीं हैं। ये सभी गालियाँ ही हैं। ऐसे ही कुछ लोग आदमी के नाम पर ही गाली हैं। अब आप ही बतायें कि मैं किसी का नाम क्यों लूँ? मैंने कब कहा कि इस देश के अधिकांश नेता देश के नाम पर गाली हैं । मैं तो नहीं कहता। मैं भला क्यों कहूँ? सारा देश कहता है तो कहे।
कहता रहे। मैं नहीं कहता। अरे भइया ! कहीं कीचड़ में पत्थर मारने से कोई  कीचड़  सफ़ेद हुआ है? बल्कि    कीचड़ को सुधारना तो गधे को गंगा नहलाकर गाय में बदलने जैसा एक निरर्थक प्रयास भर है। न भाई न, मैं ऐसा काम नहीं करता। मैं देश के नेताओं को गाली नहीं देता। उनकी करनी उनके नाम। हमें उससे क्या काम। और हो भी तो क्या कर लोगे ! हम तो नहीं सुधरेंगे, वाली बात है। फिर क्या? कहीं पत्थर पर पत्थर मारने से भी उसका मोम बन पाया है। वह टूट जाएगा, बिखर जाएगा। पर मोम नहीं बनेगा, तो नहीं ही बनेगा। दे लो किंतनी गालियाँ दोगे।
   जो ज़्यादा गाल बजाए, वह भी गाली है अर्थात गाल बजाने वाला। अब गाली तो गाली है। विवाह शादी के अवसर पर महिलाएं  बारातियों, समधी, समधिन को गा गा कर गालियाँ सुनाती थीं। गाने वालियों को गाने में और सुनने वालों को सुनने में रस आता था। कोई भी बुरा नहीं मानता था। जब से उन गालियों में गाया जाने वाला संन्देश सच में साकार रूप धारण करने लगा, तब से गालियाँ गाना बंद ही हो गया। लोग बुरा जो मानने लगे थे, औऱ चोर की दाढ़ी  में तिनका वाली कहावत सर्वसिद्ध होने लगी थी। तब से इन अवसरों की रसभरी गालियों पर विराम लग गया। पूर्ण विराम ही लग गया।
   अब देखिए कि ऐसा भी हमारा एक युग था, जब गालियों में शृंगार रस के झरने बहते थे। आज वहाँ रेगिस्तान है। कितनी दूरदर्शिता थी उस गाली साहित्य में। ऐसा गाली साहित्य जिसे केवल वाङ्गमय रूप में ही रसास्वादित किया जा सकता है। किया जा सकता था। आज की गाली तो गाली के नाम पर गाली है। किसी किसी के मुँह से नारी सूचक अश्लीलता बोधक  शब्द भांडार का मानो शब्दकोश ही प्रस्फुटित होता हुआ दृष्टि गोचर होता है। सुना है हमारे धार्मिक देश में ऐसे भी विभाग हैं, जहाँ आम जनता को गालियों से सम्मानित करने के लिए कायदे से प्रशिक्षण भी दिया जाता है। उसके बाद उन्हें गली , चौराहों पर ऐसे छोड़ दिया जाता है जैसे दूध निचोड़ लेने के बाद लोग गाय माता को आवारा बनाकर दूसरों के खेत चरने के लिए, सड़कों पर स्पीडब्रेकर बनाने के लिए ऐसे छोड़ देते हैं, जैसे कि उनका कभी इनसे वास्ता ही नहीं था। ऐसे गौ भक्त भी देश और गायमाता के नाम पर गाली से कम नहीं हैं।
   ये गाली पुराण कुछ ज़्यादा ही बड़ा होता जा रहा है। और ज़्यादा लिखूँगा तो लोग गालियाँ ही तो देंगे मुझे। लेकिन मैं लूँगा ही नहीं, क्योंकि जब कोई किसी को कुछ दे और वह न ले, तो क्या होगा ! तुम्हारी चीज तुम्हारे पास। ठीक है न! मुझे नहीं लेनी किसी की गाली, इतनी गा ली वही बहुत है।इस पर नहीं  मिलनी है मुझे किसी की ताली।

 💐शुभमस्तु !
✍🏼लेखक ©
🌱 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

शुक्रवार, 4 जनवरी 2019

मेरा देश एक स्वेटर है [अतुकान्तिका]


दो कोमल कलाइयाँ 
जिनमें दो पंचांगुलियाँ
थामे हुए सलाइयाँ
स्वेटर की  बुनाइयाँ,
खुलते हुए गोले रंगीन
बने हुए स्पंजी महीन
डालते हुए फंदे पर फंदे
उलझते सुलझते
कहीं न कहीं
तब जाकर बुना गया
एक स्वेटर,
जो पहले ही चुना गया।
 ×          ×         ×

मेरा देश एक स्वेटर है,
जिसमें सबकी अपनी 
टर -टर है,
वैसे तो ये स्व -टर है
फिर भी अलग-अलग 
टर -टर है।

सलाइयाँ हैं गोले हैं,
रंग हैं  संग हैं,
असंग हैं सत्संग हैं 
कुसंग हैं,
कोई इधर भाले, 
कोई उधर भोले,
कोई बादाम 
कोई छोले,
बोले अनबोले,
फंदे पर फंदों की बुनाहट, 
रंगीन गोलों की सरसराहट,
उकताहट छटपटाहट
उधेड़ना बुनना,
किसी की सुनना
न सुनना
अपनी इच्छा, 
जैसी जिसकी शिक्षा,
शॉल, स्वेटर, दस्ताने, जरसी,
बुनने की अपनी -अपनी मरजी।

मेरा देश एक स्वेटर है।

सलाइयाँ हैं हम सब,
कुछ भी चुनें ,
कुछ भी बुनें, 
स्वतंत्र  जो हैं!
अपनी -अपनी धुन,
जिसे चाहो चुन,
गोलों को उधड़ना ही है,
स्वेटर तो बुनना ही है,
पसंद अपनी-अपनी
सोच अपनी -अपनी

मेरा  देश एक स्वेटर है।

वे कुछ अलग नहीं हैं,
हमने ही सौंपा है उन्हें अधिकार,
वे लफ़्फ़ाजी करें 
या अच्छे -अच्छे कार्य,
उन्हें भी बुनना है
बड़े -बड़े गोलों से,
रंग और डिजाइनों से
हम सबके लिए
स्वेटर शॉल 
जरसी या दस्ताने,
वही जानें,
हर पाँच वर्षों तक
उन्हें बुनते ही रहना है,
और हमें उनके  रंगों से
उन्हें चुनते ही रहना है,

मेरा देश एक स्वेटर है।

💐 शुभमस्तु !
✍🏼 रचयिता ©
डॉ.भगवत स्वरूप "शुभम"

अपने -अपने सच [अतुकान्तिका]

अपने -अपने सच , 
सच में 
सच नहीं हैं,
पर वे कहते हैं-
वे सही हैं,
वे ही सही हैं।

ये सच नहीं
अपनी -अपनी हठ है,
सभी महाज्ञानी 
न कोई कहीं सठ है,
दूसरों की खिड़कियों में
झाँकने का चपल प्रयास,
अपने गरेबाँ झाँकने की
नहीं है आस।

वे चलते रहते हैं दिन रात
पर पहुँचते कहीं नहीं,
बस कीचड़ -उछाल 
प्रतियोगिता हो रही,
कौन किसके दामन को
कर सकता है  गंदा,
पर दूध से धोया 
नहीं है कोई बंदा।

कीचड़ उछालते-उछालते 
बीत जाते हैं पाँच वर्ष,
अच्छे दिन आने की
आशाएँ तुषारावृत,
सपने भी होते जा रहे
मृत ,
देखते - उलझते हुए  
आँकड़ों के वृत्त।

इतनी भी नासमझ
नहीं है ये जनता,
पलट देती है
एक ही झटके में तख्ता,
आत्म निरीक्षण आज नहीं
कल करेंगे,
जब सुनामी के कहर में
सपने  ढहेंगे।

अपनी अंतरात्मा की 
मौन आवाज,
जतला रही 
भविष्य का अंतर्नाद,
किस खुमारी में 
सोए हुए हैं,
बीज वही तो उगेंगे
जो तुमने बोए हुए हैं,
ये मत समझ लेना 
कि लोग सोए हुए हैं।

काश आम आदमी
पिसते हुए मध्यम वर्ग
कौन दे पाया है स्वर्ग,
इनकी धुकधुकी पर
अगर ध्यान हो जाए,
तो इस देश का
जनता जनार्दन का 
हर कल्याण हो जाए,
किन्तु यदि हो गया 
देश का "शुभम" कल्याण,
तो कौन पूछेगा सियासत को
और चिल्लाएगा-
त्राहि माम्!
त्राहि माम्!!
त्राहि माम्!!!

💐 शुभमस्तु  !
✍🏼रचयिता ©
🌱 डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

बुधवार, 2 जनवरी 2019

गीता वेद किसे बतलाऊँ ! [ गीत ]

कैसे   गाऊँ   गान   एकता, 
खण्ड - खण्ड  होता इंसान।
गीता - वेद  किसे बतलाऊँ,
बिखर रहा है सकल जहान।।

कुंठाओं   से    ग्रस्त  आदमी,
कहता कुछ करता कुछ और।
नारे   पर    नारे    बजते   हैं,
शब्द मात्र  लेकिन   है  शोर।।
बहरों  के   आगे    कैसे   मैं,
गीतों    में    डालूँगा    जान।

गीता - वेद  किसे बतलाऊँ ,
बिखर रहा है सकल जहान।।

जाति  धर्म   में  टूट  रहा  है,
मात्र   एकता   का   नारा है।
निर्धन  औ'असहाय आदमी,
हालातों   से  नित  हारा है।।
ज्यों  भैंसों  के  आगे  कोई,
बीन बजाकर   हरता प्रान।

गीता -वेद  किसे  बतलाऊँ ,
बिखर रहा है सकल जहान।।

गले में मालाएँ  हैं फूलों की,
'फूल' बनाना  उनका काम।
चाहे  जितने भी डलवा लो,
'फूलों 'में दिन सुबहो-शाम।।
पोषक पालक उत्पादक वे,
फूलों से  ही   उनकी शान।

गीता -वेद  किसे  बतलाऊँ,
बिखर रहा है सकल जहान।।

'धन यौवन से मोह न करना,'
बाबाओं    का   है    उपदेश।
नवल   यौवना  आगे   पीछे,
धन  से  महक  रहा  है वेश।।
साँस   चलाओ  ऊपर  नीचे,
नेत्र   बंदकर  पकड़ो   कान।

गीता -वेद  किसे  बतलाऊँ,
बिखर रहा है सकल जहान।।

शिक्षक का  सम्मान  नहीं है,
गुप्त -ज्ञान का खुला बाज़ार।
शिक्षा  धंधा  बनी  आज तो,
लाख  करोड़ों  का  व्यापार।।
पढ़ -लिखकर वे तेल लगावें,
शिक्षित   नारी   कूटे    धान।

गीता-वेद  किसे    बतलाऊँ,
बिखर रहा है सकल जहान।।

'तुम क्या जानो'कहती संतति,
मात- पिता  का  ये  सम्मान?
परिजीवी शोषक  चूषक बन, 
अकर्मण्यता   का   गुणगान।।
किससे  कहें  वेदना मन की, '
शुभम' देखता जग को छान।।

गीता  वेद   किसे   बतलाऊँ,
बिखर रहा है सकल जहान।।

शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...