गुरुवार, 31 अक्तूबर 2019

विलासिता की कर्मनाशा 💄 [ अतुकान्तिका ]




जबरा मारे
रोने भी न दे,
खोल नहीं सकते
अपना मुँह,
 गुनाह है 
बोलना सत्य,
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का
कोई अर्थ नहीं ,
जिसकी लाठी
उसकी भैंस।

संविधान 
मात्र पुस्तकालयीय
सजावट के लिए,
दुनिया को
दिखावट के लिए,
कितने पारदर्शी
और दूध के 
धुले हैं हम,
अपनों के सपनों का
शोषण  अधिकम।

अपनी पीठ
स्वयं ठोंकना,
बुराई का दायित्व
पड़ौसी पर थोपना,
जन -जन के पथ में
काँटे रोपना,
अखबारों टीवी में
अपनी वाहवाही 
भौंकना,
कि कितने 
बहादुर हैं हम।

बीज 
जातिवाद के बोना,
उनके लिए पीतल
अपने लिए सोना,
नहीं ही सुनना
कोई रोना -धोना,
जन -जन को
खाई खोदना,
सियासत में 
जातिवाद की
विषाक्त 
शकरकन्द रोपना,
खण्ड -खण्ड करना
भारतमाता,
चूल्हे सबके
अलग -अलग 
सुलगाता,
खुल ही गया
देश के 
पतन  का खाता।

तानाशाही है 
कौन सी चिड़िया,
बाज की तरह
निरीह गौरैया को
झपट कर खाती,
जल्लादों की 
होती नही जाति,
निरपराधों को
फाँसी पर चढ़ाती,
विलासिता की
कर्मनाशा में
गोते लगाती।

न आशा है
 न विश्वास,
घुट रही निरंतर
निम्न मध्य वर्ग की
साँस,
सुखी है मात्र 
वर्ग उच्च,
जिनके के लिए
आप और हम
कीड़े तुच्छ,
चुटकियों में
मसल देते हैं,
ढूँढते हैं
अमावस्या की रात में
पारदर्शिता,
अंधभक्तों की
चल रही है 
आगे -आगे 
मार्गदर्शिका ।

दीवार करते खड़ी
भेदभाव की,
मरहम भी नहीं
लगती है
किसी घाव की,
कीमत नहीं कोई
सद्भाव की।
वैतरणी 
बह रही है 
सर्वत्र अभाव की,
यदि किसी ने भी
त्राहि -त्राहि की
तो जुबां बन्द 
होगी ही 
उसके शबाव की।

मरघटी शांति
कायम करते ,
भले ही  आमजन
भूख प्यास से मरते,
चील -बाजों के 
झपट्टों में 
कबूतर फाख्ता मरते,
मगर वे
तनाशाही में
तृण भर भी
नहीं शरमाते  डरते,
असहाय ग़रीब
तृण भर 
नहीं उबरते,
'शुभम ' की प्रत्याशा में
उनके घर -बार ही 
उजड़ते ,
लॉलीपॉप के 
सपनों में
दिन पर दिन 
गुजरते,
किन्तु तनाशाह
कदापि 
शरमाते  न सुधरते,
और विलसिता की
कर्मनाशा 
बह रही है
निरन्तर 
बहती जा रही है।

💐शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🌅 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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31.10.2019◆7.0अपराह्न

मंगलवार, 29 अक्तूबर 2019

ठंड सरकने लगी [ गीत ]



दीप    जलाए   गई   दिवाली।
ठंड    सरकने   लगी  निराली।।

शरद   सुहानी   ओस झर रही।
शीतलता    आगोश  भर रही।।
सुख     की    वर्षा  करने वाली।
ठंड   सरकने    लगी  निराली।।

चादर   कम्बल    हमें  सुहाते।
नहीं   पवन  के   झोंके   भाते।।
मक्खी    मच्छर  दुबके  नाली।
ठंड   सरकने   लगी  निराली।।

दिन का   मान  घट रहा    दिन - दिन।
कर  विलम्ब रवि आता छिन- छिन।।
फूल       खिले      प्रमुदित   है  माली।
ठंड       सरकने         लगी  निराली।।

जरसी      स्वेटर     करें  प्रतीक्षा।
खिली     धूप    में   लेते    दीक्षा।।
जाकिट     सदरी    कमली  काली।
ठंड     सरकने     लगी   निराली।।

धान पके  खीलों की खिल - खिल।
गेहूँ    उगते     हैं   अब  हिलमिल।।
चना       नाचता     धुन  मतवाली।
ठंड      सरकने        लगी निराली।।

सौंधी    -  सौंधी     मूँगफली     है।
गेंदे    की    महकती     कली    है।।
छायी    तुहिन - स्नात  हरियाली।
ठंड    सरकने     लगी    निराली।।

💐शुभमस्तु  !
✍रचयिता ©
🌾 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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29.10.2019 ★3.30 अपराह्न।

सोमवार, 28 अक्तूबर 2019

गोवर्द्धन- पूजा [ कुंडलिया ]


पूजा    गो - धन    की  करें ,
गोरस        पाएँ         रोज़।
तन   बल   धी  आयुष  बढ़े,
ऋषि - मुनियों  की  खोज।।
ऋषि - मुनियों  की   खोज,
अन्य    पय    नहीं  बराबर।
भू     पर     सुंदर      सोम ,
जगत  में   यही    उजागर।।
अजा       भैंस     का    दूध ,
नहीं     गोरस    सम  दूजा।
सबसे         पहले         करें ,
'शुभम'   गोधन  की पूजा।।1।

वंशी    वाले     की      कृपा ,
है           गोवर्धन  -    धाम।
महावृष्टि     की     इंद्र     ने,
रक्षक           श्री घनश्याम।।
रक्षक           श्री  घनश्याम,
बचाये      सब    ब्रजवासी।
बढ़ा      इंद्र    का      कोप ,
साथ     आए    अविनाशी।।
करते        जय    जयकार ,
कान्ह     तुम   बड़े  निराले।
युग  -   युग  तक    आभार,
करें     हम     वंशी   वाले।।2।

कान्हा    के   उपकार   को,
क्यों        भूले         संसार।
जन्म  -  जन्म  करते     रहें ,
हम          तेरा     आभार।।
हम          तेरा      आभार,
'शुभम '     के    अन्तर्यामी।
जग        के      पालनहार ,
चराचर    के   प्रभु   स्वामी।।
गोवर्द्धन       श्री         शैल,
श्याम     का   शुभ  उपहार।
जाएँ           कैसे         भूल ,
कान्हा      के    उपकार।।3।

तन       गोवर्द्धन  - धाम    है,
दस     गो      करें    निवास।
दसम   कर्म   औ'    ज्ञान का,
जिनमें           विशदाकाश।।
जिनमें             विशदाकाश,
यही     रथ    के  दस   घोड़े।
करें         नियंत्रण       पूर्ण ,
देह  को  दस   दिशि  मोड़े।।
इन्द्रिय        षष्ठ      ललाम,
सदा     करती  सु - काम है।
मत        समझो     उपहास ,
तन   गोवर्द्धन  - धाम है।।4।

ब्रजवासी    हर्षित     मगन,
आया      पावन         पर्व।
गोधन     की    पूजा   करें ,
भरें      हर्ष       औ '   गर्व।।
भरें     हर्ष       औ'     गर्व ,
सजाए  घर  - घर    गोधन।
गोबर         से      निर्माण ,
आत्मा  को    सद  बोधन ।।
रक्षक               राधेश्याम ,
परम   आत्मा  अविनाशी।
'शुभम '   करे      जयकार ,
आज   हर्षित ब्रजवासी।।5।

💐शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🌱 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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28.10.2019 ◆3.50 अपराह्न।

दीवाली और परिवेश -प्रदूषण [ सायली ]



 तेल
 बाती  जले
नाम   दिये   का
आवश्यक है
समन्वय।

दिये 
माटी  के
सज   गई   रात 
दीवाली की
अमा।

झिलमिलाती 
हैं  झालर 
छत   मुँडेरों   पर
मौन  बतियाती
परस्पर।

खिलौने 
खील  से
लक्ष्मी पूजन हुआ 
साथ  हैं 
विघ्नेश्वर।

  करते
 प्रार्थना जन
 लक्ष्मी   गणेश   से
 पधारें  लक्ष्मी
 घर।

फैला 
प्रदूषण   का
धुआँ   विषैली    गैस
आतिषबाजियों की
हठीली।

सारी 
समझदारी रखी
है     ताक       पर,
प्रदूषण     का
जनक।

जहर
खुशियों में
मिलाता आदमी स्वयं,
दूसरों   को
उपदेश।

ढकोसले 
हैं   सभी 
बैनर ,भाषण , नेता,
औलाद को
दोष!

 सुधरेंगे
 नहीं हम
परिवेश करेंगे दूषित
दीवाली के
नाम।

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
✅ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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28.10.2019◆10.15पूर्वाह्न।

शनिवार, 26 अक्तूबर 2019

दीप अँधेरा जग का हरते [ बालगीत ]



सरिता - जल में झिलमिल करते।
दीप  अँधेरा   जग    का  हरते।।

मनी   हमारी   ख़ूब दिवाली।
दिये , खिलौने ,खीलों वाली।।
घर - आँगन प्रकाश से भरते।
दीप अँधेरा .....

दीप  जले   माटी   के  लाल।
खुश हम सारे सब खुशहाल।।
अम्बर    से  ज्यों   तारे  झरते।
दीप अँधेरा .....

अँधियारे   से   हम  डरते  थे।
धक- धक दिल सबके करते थे।
उजियारे   में   ख़ूब   विचरते।
दीप अँधेरा .....

आँगन में  भी  बनी   रंगोली।
दीदी   मेरी   माँ - सी भोली।।
बना रही  हम  भी  रङ्ग भरते।
दीप अँधेरा .....

सजी  छतों  पर दीप - कतारें।
झिलमिल ज्यों  करते हों तारे।
किन्तु   पटाखों  से हम डरते।
दीप  अँधेरा .....

लक्ष्मी - पूजन  करते   पापा।.
मम्मी  के  सँग  लिए पुजापा।।
चाँदी - सोना     पैसे    धरते।
दीप अँधेरा .....

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🔆 डॉ. भगवत  स्वरूप 'शुभम'

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26.10.2019 ◆ 2.00PM

🌾🌾🌱🌾🌾🌱🌾

गो हैं मानव इन्द्रियाँ [ दोहे ]


गो   हैं      मानव  -  इन्द्रियाँ,
वर्द्धन     का       शुभ   पर्व।
गोवर्धन       कहते       इसे,
ब्रजवासी     सह     गर्व।।1।

रूप , गंध,  रस , परस  की ,
ज्ञान  -   इन्द्रियाँ        चार।
श्रोत्र   शब्द   का   केंद्र   है ,
पंच  -   ज्ञान    उपचार।।2।

पाँच     कर्म    की   इन्द्रियाँ,
मुख ,  कर ,  पद ,  मलद्वार।
उपस्थ     इन्द्रिय      पाँचवीं,
मानव     को    उपहार।।3।

सदुपयोग       से    इन्द्रियाँ ,
करतीं       विकसित   रूप।
दुरुपयोग   जो    कर   रहा,
गिरता      है भव - कूप।।4।

देह     सु -  रथ   का सारथी,
मन        सुंदर         देहीश।
दस   घोड़े      रथ    खींचते,
झुका - झुका निज  शीश।।5।

मन  से    बाहर     कौन  है,
दस    अश्वों       का  जोड़।
जिधर    कहे    मन  वे चलें,
ग़लत - सही  दें  मोड़।।6।

गो -धन   तन  के    बैंक हैं,
करते                दानादान।
घटता  बढ़ता    मनुज  का ,
मान   और    सम्मान ।।7।

तन  के    बाहर  गाय    ही,
है     गोधन    का      रूप।
पोषण   करती    दूध    से,
जिसका अमिय स्वरूप।।8।

गौ  माता    का    रूप    दे ,
करते       पूजन        रोज़।
कोटि देव  गो -  तन     बसें,
ऋषि मुनियों की खोज।।9।

गो -  धन    की   रक्षा   करें ,
भारत    का          संस्कार।
हिंदी     हिन्द     महान    हैं,
खो दें क्यों अधिकार ।।10।

दस    दोहे    दस     इन्द्रियाँ ,
गो - धन    का    शुभ   रूप।
'शुभम ' ईश  है   मन   प्रबल,
धवल     चंद्रिका    रूप।।11

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🏆 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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26.10.2019 ◆11.25 पूर्वाह्न

ग़ज़ल



जिंदगी  फ़ूल  है मग़र शूल भी है।
गुलाब  की  पंखुरी  भी बबूल भी है।।

दुधारे तेग पर चलना  सँभल- सँभल,
क़दमों को आगे बढ़ाने का उसूल भी है।

कोई  दरिया ज्यों समंदर से जा मिले,
ज़िंदगी  इनकार भी  कुबूल भी है।

सबके अलग रास्ते मंज़िल भी जुदा,
सीधे सपाट  मैदाँ  गड्ढा  कूल भी है।

टुकड़े सभी जोड़ ले तरतीब से 'शुभम',
ये गीत  है मनोहर थिर मूल भी है।

💐 शुभमस्तु  !
✍रचयिता ©
🔆 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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25.10.2019 ◆8.00अपराह्न।

ग़ज़ल




सबकीअपनी अलग दिवाली।
ख़ुशी ग़मों के साथ निकाली।

चूड़ी  की खन-खन  से  रूठे,
नारि-चुहल से पनघट खाली।

दिए  जलाने  की  ही  ख़ातिर,
मावस  की यह रात  निराली।

दूर   भगाने    को   अँधियारा,
इंसां    ने  सौगात    सँभाली।

अपने  घर  के  सब  हैं  राजा,
दीप   जलाए  ख़ुशी मना ली।

उत्सव -प्रेमी   हैं  हम  मानव,
हर्षित घड़ियाँ सहज बढ़ा ली।

'शुभम'  जहाँ ने किया अँधेरा,
फिर भी हमने मंज़िल पा ली।

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🧡 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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25.10.2019 ●7.00 पूर्वाह्न।

गुरुवार, 24 अक्तूबर 2019

ट्रेन -बर्थ हमारी बपौती है [ व्यंग्य ]

                             यद्यपि  हम चाँद -  मंगल   और शुक्र की बात करते हैं, हमारी पहुँच में अब चन्द्रमा पर बस्तियाँ बसाना हमारा सुनहरा सपना है, किन्तु हम शौचालयों में बैठने का सहूर अभी तक नहीं सीख पाए हैं और भारतीय ट्रेनों के में तो एकदम नहीं।

                         हमारी भारत सरकार इस बावत बहुत प्रयत्नशील है कि हम अपनी मैदानी खुली  आदत छोड़कर  बन्द   कोठरी  में बैठने  का सहूर  सीख लें।   पर  ' हम नहीं सुधरेंगे ' - वाली  कहावत है।
 आज ट्रेन के शौचालयों में बिना  शौच-कूप देखे भाले ऊपर सीट पर ही शौच कर लेते हैं। इतनी जल्दी तो एक नादान बच्चा भी सीख जाता है। पर हम तो कसम खाकर बैठे हैं ,कि चाहे कितने शौच-कूप बनवा लो , हम तो खुले हैं तो खुलकर ही करने के अभ्यासी हैं , संस्कारी हैं। भला हमारा संस्कार कहाँ चला जायेगा। यद्यपि देश में रेलें चलाकर आंग्रेज़ों ने भी बहुत कोशिश की कि हम कुछ सभ्य हो जाएं , पर काली कमली पर चढ़े न दूजा रंग, क्या किया जाए?

                  जब भारतीय रेल और उनमें होने वाले खेल की बात चली है ,तो यहाँ प्रसंगवश यह चर्चा भी कर ली जाए कि रेल की संपत्ति हमारी अपनी है। जगह -जगह स्टेशनों औऱ ट्रेनों में यह लिखा भी रहता है: कि रेल आपकी सम्पत्ति है। जब यह हमारी सम्पति है तभी तो हम इसके शीशे , पंखे , बल्ब , ट्यूब लाईट, सिग्नलों की घिर्रियाँ घर पर खोल लाते हैं , जिससे हमारे बच्चे खेल सकें और अपनी ही रेल - संपत्ति का लाभ हम घर भीतर तक उठा सकें।

            जब हम ट्रेन की बर्थ पर आसीन हो जाते हैं तो वह हमारी औऱ हमारे बाप की हो जाती है और शादीशुदा महिलाओं के लिए शादी हो जाने के कारण हमारे करवाचौथिय पति (ऐसा पति जिसके लिए करवा चौथ का व्रत रखा जाता है) की हो जाती है। अर्थात सर्वाधिकार सुरक्षित , पूर्ण कब्जा । कोई माई का लाल या लाली आ जाए , बैठने नहीं देंगे।वह हमारी निजी स्थायी सम्पति जो है। खाली पड़ी है तो क्या ? है तो हमारी, हमारे नाम की, हमारे नाम से, हमारे नाम पर आवंटित। रेलवे के रूल गए भारतीय तेल लेने। रात के नौ बजे तक कोई अन्य सवारी दिन में उन सीटों पर बैठ सकती है। पर इससे क्या? वह हमारे नाम पर बुक है।इसलिए उस पर पिड़कुलिया की तरह पंख फैलाकर बैठने , घर की तरह टाँगें फैलाकर पसरने , अपनी अटैची , बोरिया -बिस्तर सीट पर रखने , का पूरा बैनामा है हमारे नाम। तुम्हें जगह नहीं है तो जाओ करो रेलवे से शिकायत ! हम अपनी सीट पर आपके नितम्ब का 1/68 भाग में नहीं रखने देंगे।खड़े रहो हमारी बला से ईसा मसीह बने हुए। हमारी निजी चीज़ पर आपका क्या, किसी का भी कोई हक दूर -दूर तक नहीं हो सकता।

             हम भारतीयों की समाज -सेवा की स्थिति यदि जाननी हो , तो सेकिंड क्लास डिब्बे में यात्रा करके देख लीजिए। पूरे भारत का नज़ारा ट्रेन में यात्रा करके किया जा सकता है। बाहर का नज़ारा तो स्वतः होता ही है ,अंदर के नजारे से हमें दिखने लगता है कि देश के लोग कितने बड़े देशभक्त औऱ समजप्रेमी हैं। यहाँ सियासत से लेकर गली, मोहल्ला , सड़क , बाजार, सास , बहू, ऑफिस , ऑफिसर, कार्यालय , कर्मचारी, साधु , सन्यासी , ब्रह्मचारी सबकी चर्चा आम होती है। पर सीट देने के नाम पर मुर्गे के चूजे की तरह हम ऐसे पंख फुलाने की कला में भी इतने माहिर हैं कि जहाँ पाँच लोग बैठते हैं , वहाँ हम अपनी बीबी बच्चों के साथ तीन भी उस पर नहीं समाते । किसी सवारी के उतरते ही उस पर ऐसे कब्जा कर लेते हैं कि जैसे ट्रेन तो इनके अब्बा ने ही चलाई है।आँखें बंद करते हुए ऐसे लेट जाएंगे कि कि कितनी गहरी नींद में हैं। बीवी कहेगी बीमार हैं , इसलिए सो रहे हैं। और कुछ नहीं तो छोटे बच्चों से कुछ ऐसा रायता फ़ेलवा देंगे कि कोई सोचेगा भी नहीं , वहाँ बैठने की। पानी,दवा, मल, मूत्र करवा के अपने पूर्ण आधिपत्य का कोई नया तरीका नहीं है। इस देश के आम भारतीय से इतनी ही उम्मीद की जा सकती है। इसी प्रकार के हम भारतीय सम्मानित रूप से समाज में झंडे बैनर लेकर अखबारों में छपते हुए रोज देखे जा सकते हैं। भारतीय रेलों में हम भारतीयों का केंचुल रहित नग्न स्वरूप देखा जा सकता है। चूँकि रेल हमारी निजी सम्पति है , इसलिए हम निजी तौर तरीकों से रेल यात्रा का आनन्द उठाते हैं। किसी औऱ से हमें क्या लेना देना? पूरे देश और समाज का हमने कोई ठेका थोड़े ही ले रखा है। यहाँ सारे मुखौटे उतर जाते हैं। ये है भारतीय रेल का खेल। न कहीं ताल न कोई मेल।। मेल हो चाहे फीमेल, सभी की आपाधापी रेलपेल। 
💐शुभमस्तु !
 ✍लेखक ©
 🚟 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'


         

धन की धुन [अतुकान्तिका ]




धन की धुन
बजती निशिदिन
खनखन
रुनझुन
सुनता जन -जन
लगता 
सबका मन।

धन की धुन 
लगती कैसी
ज्यों प्रमत्त
प्रतिपल प्रतिदिन
जनगण जन -मन,
बढ़ती हर दिन,
कैसा विचित्र
मानव - मन??

हाथी घोड़े 
सोना चाँदी
घर मकान-
के साथ 
बनता 
मानव महान,
पाना ही पाना 
न कहीं दान?
फिर भी महान!
कैसी विडंबना
कैसा ये
विचित्र इन्सान।

धन की पूजा-
साधना निरंतर
उल्लू पर बैठीं
लक्ष्मी
धनतेरस 
दीपावली पर्व ,
वैभव पर रीझा
मानव 
फिर भी
मानव के प्रति
मानव ही दानव,
न हिंसक शेर
न वनमानुष।

कथनी भर को
संतोष का धन
सर्वोत्तम,
यथार्थ भी यही,
पर मानव तो बनाता
चूने का दही।

लक्ष्मी -वाहन 
बनना स्वीकार,
भले ही हो
धी का धुआँर,
पर -धन पर कुदृष्टि,
पर -शोषण की
दृष्टि,
पर - धन का
अपस्मार,
बेशुमार।

धन ही
मानक
मापक पैमाना,
ढँके धब्बे हज़ार,
सहस्रों प्रकार,
चरित्र का चित्र
पड़ता धुँधला,
जब होता
धन का हमला,
सूख जाता
चरित्र का गमला,
बस 
ला , ला और ला,
बन जाता  लाला,
भले हो 
अपना धन काला।

मन करता 
कामना काले की,
दीवाली होती है
श्वेत  उजाले की-
कुबेर धनदेवी
ए मानुष 
धनसेवी,
पुरुषार्थ है 
उत्तम धन,
देता 
अपरिमेय आनन्द,
उसका कन-कन ,
सार्थक धनतेरस
चरित्र स्वास्थ्य का
रक्षण
सर्वोत्तम धन

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🕯 *डॉ. भगवत स्वरूप
:शुभम।

रविवार, 20 अक्तूबर 2019

दिया नहीं तो पर्व क्या ! [ दोहे ]



दिया   नहीं   तो पर्व  क्या ,
मना   रहे       सब   लोग ।
दीपावलि    कहते    जिसे,
धन का ही  सुख -भोग।।1।

दिया  जले    मुखड़े  खिले,
तम  का    हुआ     विनाश।
महलों   की   महिमा  बड़ी ,
कुटिया  को   भी आश।।2।

दीपक   से    दीपक    जले,
बढ़ता     पुण्य  -    प्रकाश।
मानव    से    मानव    जले,
मिट  जाती  हर   आश।।3।

जलता     दीपक    देखकर,
 बँधी     बुझे     को   आश।
दीपक   से   ही    सीख  ले,
खाता   है  क्या    घास??4।

छज्जे   छत  छप्पर   सभी ,
हुए       प्रकाशित    आज।
घर -  घर  में   दीपक जले,
दीवाली     का    साज।।5।

खीलों -  सी   मुस्कान    है ,
भरी         बताशे      आश।
बाती    की     फैले    प्रभा ,
घर  - घर   भरे   उजास।।6।

झिलमिल    झालर   झूमती,
रंग     -   बिरंगी          ख़ूब।
बेलें     भी      हँसने    लगीं,
मुस्काती       है      दूब।।7।

 बतियाती   है     दीप  - लौ,
गुपचुप       करतीं     बात।
एक    वर्ष    में     एक  ही ,
आती   है   क्यों   रात!!8।

दीवाली    की      रात    में,
भूले        सब         संदेश।
'आतिशबाजी   मत  जला'-
का       देते      उपदेश।।9।

लगा    पलीता     सीख  में ,
फूँक         रहे        बारूद।
ज़हर    घोलते      वायु   में ,
करते     ऊधम    कूद।।10।

द्यूत      सुरा     सट्टा    तजें ,
दीवाली       शुभ        पर्व।
उर    से   उर   को दें मिला ,
'शुभम ' ज्योति का गर्व।।11।

💐शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🌾 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम '

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20अक्टूबर 2019◆10.30 पूर्वाह्न

शनिवार, 19 अक्तूबर 2019

ग़ज़ल



जो  दिल ग़म  से  ख़ाली  है।.
उसकी    रोज़    दिवाली  है।।

दीप   सुकूँ  के  रौशन   हों,
ये रुत ही खुशियों वाली है।

रोग   रहित  रखना   तन को,
इस चमन का  इन्सां माली है।

 नहीं     बोलते    मीठे   बोल,
वह   बोल   नहीं है गाली  है।

आज्ञाकारी        जो    संतान,
कनक भरी    वह  थाली  है।

जो   उपकारी     हैं   मन से,
उसने  ही  जन्नत   पा ली है।

'शुभम'  पास  ग़र  दौलत हो,
बारह    मास   दिवाली    है।।

💐शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🥜 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम '

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19.10.2019◆2.0अपराह्न

लक़ीर के फ़क़ीर बने रहें [ व्यंग्य ]


 समझदारी इसी में है कि हम लक़ीर के फ़कीर बने रहें। इससे सबसे पहला और बड़ा लाभ ये है कि हमें अपने दिमाग़ पर ज़्यादा ज़ोर नहीं देना पड़ता। अरे ! वैसे भी इस नाज़ुक और जिम्मेदार दिमाग़ पर क्या कम बोझ है ,जो बेकार में ही अपने सिर पर ज्यादा सोचने का भार उठाता फिरे।इसीलिए इसी बात में ज्यादा सुख -चैन है कि पहले से जो लकीरें बना दी गई हैं , उन्हीं पर बिना सोचे-विचारे चला जाए।देश और समाज में फैली अनेक रीतियों को कुछ तथाकथित प्रबुद्ध कहे जाने वाले लोग अक़्सर नकारते और उनका विरोध करते हुए देखे जाते हैं। लेकिन इसमें कोई ऐसी बुद्धिमानी की बात नहीं है ।   

 कुछ लोग हैं कि अनेक समाज और धर्म से जुड़ी हुई परंपराओं को बदलने की बात करते हैं। यह उचित नहीं है। जैसा हमारे पूर्वज ,उनके पूर्वज और उनके भी पूर्वज करते आए भला उसको बन्द करने या बदलने की ज़रूरत ही क्या है। आँखें बन्द कर के उनका पालन करना हमारा धर्म बन जाता है। उनके पद चिह्नों पर चलते रहने से पूर्वजों का सम्मान होता है और परम्परा भी जिंदा रहती है।

         कुछ कवि ओर साहित्यकार कहे जाने वाले प्राणी अपने लेखों और कविताओं में इसे दकियानूसी और रूढ़िवादी कहकर नकारने की भरसक कोशिश करते ही रहते हैं। पर इससे क्या कोई समाज बदल सकता है? भला ये कवि और लेखक लोग क्या बिगाड़ लेंगे? हमारी सनातन परम्परा को कैसे तोड़ा मरोड़ा जा सकता है ? भले ही उसमें कितनी ही गन्दगी हो , पर हमें उस गन्दगी को सिर - माथे पर धारण करना चाहिए ही चाहिए। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि इन कवि लेखकों को इन पर न तो व्यंग्य लिखना ,कहना चाहिए और न ही कोई चुट्कुले आदि ही लिखने , कहने चाहिए। इससे अपनी सनातन परम्परा का अपमान होता है। क्योंकि इन रूढ़ियों के चलते हमारी रोटी चलती है। हमारा सम्मान बढ़ता है और लोगों को चूसने का सुनहरा अवसर भी मिलता है। यदि आदमी जागरूक हो गया तो हमारी तो रोटी ही छिन जाएगी।इसलिए होली , दिवाली , करवा - चौथ , नव दुर्गा आदि से सम्बंधित कोई हँसी - मज़ाक भी नहीं लिखनी , कहनी चाहिए। भला इस तरह भी कोई अपनी परंपराओं का उपहास करता है। यदि ये सब होता रहा तो एक दिन हमारी रोजी - रोटी पर पत्थर पड़ने ही हैं।

       आदमी को पढ़ -लिख कर बदलाव के लिए नहीं सोचना चाहिए। अगर ये कवि , कहानीकार , उपन्यासकार , व्यंग्यकार इसी प्रकार समाज की आँखें खोलने में लगे रहे ,तो अपनी तो बहुत जल्दी बंद ही हो जाएँगीं। कुछ विज्ञान पढ़े - लिखे लोगों के दिमाग तो साहित्यिक लोगों से भी चार कदम आगे चलते हैं। वे तो भगवान में भी विश्वास करना पिछड़ापन समझते हैं। अणुओं के संयोग से सृष्टि का निर्माण मानने वाले इन लोगों के लिए ईश्वर भी कुछ नहीं है। विज्ञान के चार अक्षर क्या पढ़ लिए ,ये सारे धर्म कर्म के विरोधी हो गए। इन्हें परंपराओं को मानना अखरता है।ये पूजा-पाठ , नमन -वंदन में कोई विशेष रुचि लेते हुए दिखाई नहीं देते। इनके तर्कों के आगे अच्छे -अच्छे पानी भरने लगते हैं। भाई हमें तो यही अच्छा लगता है : सब ते भले वे मूढ़ जन , जिन्हें न व्यापे जगतगति। इसलिए ज्यादा सोच -विचार करने के बजाय अपने रूढ़िवादी संस्कारों की बनी लकीर पर ही चलते रहने में सबकी भलाई है। भला जो लकीर हमारे दादा परदादओं ने बना दी , उसे लाँघने अथवा तोड़ने अथवा अपनी एक नई लकीर बनाने की ज़रूरत ही क्या है ? उसी लकीर पर चलकर ही तो हम आज को प्राप्त हुए हैं। आज का आज हमारे कल की देन हैं। परंपरा चाहे अंधी हो , है तो परम्परा ही न ? यदि एक भेड़ कुएँ में गिर जाए तो क्या ? हम सबको भी पूर्वजों के पूर्वनिर्दिष्ट मार्ग पर चलने की पूर्ण स्वतंत्रता है । उसमें किसी को भी तोड़ने या बदलने का अधिकार नहीं है। कुछ लोग इसे भेड़-चाल कहते हैं , कहते रहें। इस भेड़ संस्कृति में ही यदि हमारी भलाई है , तो हमारा भेड़ बना रहना हमें स्वीकार है। हम समय के साथ क्यों बदलें ! नदी के प्रवाह के साथ बहते चले जाने में ही हमें अपनी मंज़िल मिलेगी। फिर व्यर्थ की खींचतान , सोचा विचारी का अर्थ ही क्या है ? भेड़वत चरैवेति चरैवेति,नेति नेति।
 बनी रहें ये मधुशालाएं,
बने रहें पीने वाले।।
💐शुभमस्तु ! ✍लेखक ©
💎 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

गुरुवार, 17 अक्तूबर 2019

यह त्रेता नहीं ,क्रेता युग है! [ अतुकान्तिका ]


अंधकार से 
प्रकाश की ओर 
जाना है,
अन्तस् के तमस को
मिटाना है,
 सद -भावनाओं के दिये 
भुवन भर में
जलाना है,
सदिच्छाओं के 
खील - बतासे
घर -घर 
बँटवांना है।

अभी तक
जिंदा है
अहंकार का रावण ,
रक्तबीज बन 
पुनः -पुनः 
उगता है,
रावण के दम्भों को
गली -गली 
भुगता है ।

लीलाएँ करके 
दिखाते हैं 
लक्ष्मण - राम की,
मगर वे नहीं
रह पाई 
आदमी के
किसी काम की,
क्योंकि बन पाया नहीं
अभी तक यहाँ
कोई भी राम दूजा,
कर सकें जिसकी
हम सब 
कभी पूजा,
हाँ ,
रावणों की तो 
यहाँ खेती होती है,
क्या आज की माएँ
अपनी कोखों में ,
रावणों के बीज 
बोती हैं  ??

पति -पुरुष को
देवता मानने वाली 
नारियाँ,
करवा -चौथ ही नहीं
आजीवन 
सेवा -निरत
महानारियाँ,
परुषता के प्रतीक
पुरुष के अहंकार तले
दबाई -कुचली जाती हैं ,
अपने साथ हुए
दुष्कर्मों की व्यथा 
कह भी नहीं
पाती हैं,
बलात कर्मकाण्ड को,
नहीं ही 
जताती हैं,
आजीवन 
आत्म - ग्लानि  की 
दावाग्नि में
स्वयं को 
जलाती हैं।

कोई राम 
नहीं आता है
उनकी
 लाज को बचाने!
थोप दिए 
जाते हैं 
काले आरोप  
नारी को ही फँसाने,
आएगा भी कहाँ से
और कैसे!
राम एक ही थे,
और एक ही रहेंगे,
रावण तो
कलियुग में
कुकुरमुत्तों की तरह,
हर गली 
हर मोहल्ले,
नगर गाँव में,
उग ही रहे हैं , 
उगते भी रहेंगे।

वह तो 
त्रेतायुग था,
और यह 
क्रेता युग है,
यहाँ बिकता है
सब कुछ,
कुछ भी बेचो,
खरीद लो
कुछ भी-
इज्जत , आबरू,
धर्म ,कर्म ,
शिक्षा , सियासत,
नेता, अभिनेता,
उपाधियाँ ,सम्मान
-सब कुछ
बिकाऊ है ,
जिसकी अंटी में है
काले दाम का दम ,
उसी की जय जय
हर- हर ,बम - बम ,
वह नहीं है 
किसी से कम ,
नैतिकता को 
खूँटी पर टाँगकर ,
अनीति के संग 
जोड़ी बाँधकर ,
काले को सफेद 
औऱ सफेद को काला,
कर दिया 
जाता है,
आज की मानवता का
यहीं तक 
नाता है !
हर आम और खास को
यही  सब 
भाता है,
यही रास आता है।
'शुभम ' का 
कब कहाँ
खुल पाता 
खाता है !!

💐  शुभमस्तु  !
✍रचयिता  ©
🌈 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

बुधवार, 16 अक्तूबर 2019

जब तक उर में रहे अँधेरा [ गीत ]



जब   तक  उर  में रहे अँधेरा,
दीप  जलाने  से  क्या होगा!
कुटिया -कुटिया हई न रौशन,
महल सजाने से क्या होगा !!

अपने  घर  के  सब  राजा  हैं ,
दीवारों    में   कैद    हो  गए।
निर्धन  की  अनदेखी    करते,
खाया - पीया  और सो  गए।।
हँस-हँसकर  फोटो खिंचवाए,
छपने  भर से  ही  क्या होगा !
जब तक  उर   में रहे  अँधेरा,
दीप  जलाने  से  क्या होगा!!

कपटी  क्रूर  कुचाली  मानव,
मात्र   दिखावे   में मतवाला।
रिक्त   झोंपड़ी   अश्रु  बहाती,
कोई   नहीं    देखने   वाला।।
दीप - कतारें   छत  मुँडेर पर,
कुटिया के तम का क्या होगा!
जब  तक  उर  में  रहे  अँधेरा,
दीप जलाने  से  क्या  होगा !!

इतने भी  मत   पाँव  पसारो,
चादर तन कर फट जाती है।
जिनके  पास अभाव  भरे हैं,
उनकी  भी तो कट जाती है !!
समता  के  समरूप   सूत्र में,
सब  बंध जाएँ तब क्या होगा!
जब   तक उर  में  रहे  अँधेरा,
दीप  जलाने  से क्या  होगा !!

दीप - दीप  से  दीपक  जलते,
अँधियारा सब   हट  जाता है।
मन से मन के दीप  जलाकर,
मानस का तम फट जाता है।।
नहीं  चलाओ  आतिशबाजी,
सघन   प्रदूषण से क्या  होगा !
जब  तक   उर  में  रहे अँधेरा,
दीप जलाने  से  क्या  होगा !!

पूड़ी, खीर ,  खिलौने,  खीलें,
उनको  भी  दें  जो  भूखे   हैं।
जिनके तन पर वसन  नहीं हैं,
नेहरहित   हैं  जो  रूखे  हैं।।
भेज रहे   उपहार   उसी  घर ,
खुदगर्जी से   ही क्या  होगा !
जब  तक  उर  में  रहे अँधेरा,
दीप  जलाने  से  क्या होगा!!

धन की  देवी   शुभम  लक्ष्मी,
सदा   चंचला  ही    होती  है।
उद्यम , धर्म , कर्म  से   आती,
सुख के  बीज यहाँ बोती है।।
यदि  चरित्र  को बचा न पाए,
लक्ष्मी जी का घर क्या होगा!
जब  तक  उर  में रहे अँधेरा,
दीप  जलाने  से क्या होगा !!

बचा   रहे  पुरुषार्थ  नीतिगत,
जीवन  में   नित  दीवाली  है।
पर -  उपकारी  भाव  उरों में-
हों तो,नित्य 'शुभम'ताली है।।
सदा सत्य की जय न हुई तो,
इस मानवता का क्या होगा!
जब   तक  उर  में रहे अँधेरा,
दीप जलाने  से  क्या होगा !!

💐शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🌾 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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16अक्टूबर 2019●3.45 अपराह्न।

दिए जलाएँ नेह के [ कुण्डलिया ]

              


दिए   जलाएँ     नेह    के ,
बिन   बाती     बिन   तेल।
दीवाली    हर     रोज़   है ,
जब    हो   मन  में    मेल।
जब    हो   मन  में    मेल,
नहीं  हो  मैल   ज़रा - सा।
खिलते      मोहक    सुमन,
दिखे  सब  हरा   हरा - सा।।
स्वस्थ        सुखी      नीरोग,
टलें    सब   अला  - बलाएँ।
'शुभम' -  हृदय    के    दीप,
चलो    हम    दिए  जलाएँ।।1।

दीवाली      की     रात    है ,
खुशियों      का     त्यौहार।
मन    से  कटुता     दूर  हो ,
कपट      रहित    व्यौहार।।
कपट     रहित      व्यौहार,
द्यूत    मदिरा    को    त्यागें।
सबका       सोचें       लाभ,
दीनता      तृष्णा     भागें।।
ऐसे          बोलें        बोल ,
नहीं    दें    चुभती    गाली।
'शुभम'    करे   सत    काम,
नेक  हो तभी   दिवाली।।2।

देने   को     कहते     सभी ,
दिया      मनोहर       नाम।
जैसा    उसका    नाम    है ,
वैसा      उसका       काम।।
वैसा      उसका        काम ,
इसी    माटी     से   बनता ।
दीपक ,    बाती         तेल-
जलाकर   सपने     बुनता।।
अँधियारा       हो        दूर ,
किया   कुछ कभी  न मैंने।
'शुभम '  एक     ही   काम,
जानता   केवल     देने।।3।

लंका  औ '    लंकेश     को ,
जीत    आ     गए       राम।
पुरी     अयोध्या    में    हुई ,
खुशियाँ   भव्य     ललाम।।
खुशियाँ    भव्य     ललाम,
दिए    घृत    पूर    जलाए।
दिन -  सी    खिलती   रात,
रात   मावस    की   पाए।।
गाँव  -  नगर      में     ख़ूब,
बज रहे   घन -  घन  डंका।
रघुकुल -  भूषण       राम ,
जीत कर आए  लंका ।।4।

बालें    सब    पकने   लगीं,
घर   में      आए       धान।
स्वागत  करने    के   लिए ,
जागा      कृषि  -  संधान।।
जागा     कृषि  -    संधान ,
लक्ष्मी  -   पूजन     करता।
श्रीगणेश       के      साथ,
दिवाली    दीप  निखरता।।
मन      में   'शुभम'   तरंग ,
बिना   पूजन  क्यों  खालें?
दीवाली      पर         पूज,
बनी    उपयोगी  बालें।।5।

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🌿 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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15.10.2019 ◆8.15  अपराह्न।

शनिवार, 12 अक्तूबर 2019

ग़ज़ल


       

शहर    से  अच्छे   मेरे   गाँव।
बने   क़ुदरत  के हाथों  गाँव।।

प्रकृति के  साँचे  का निर्माण,
प्रकृति का आँचल  घेरे  गाँव।

यहाँ  का  पानी   शुद्ध  बयार,
धूप   माटी   के    मेरे    गाँव।

गाय   भैंसों  फसलों  के बीच,
कूक  कोयल  के  टेरे    गाँव।

सवेरा    करते     मुर्गे     मोर,
'शुभम'  संजीवन   मेरे गाँव।।

💐 शुभमस्तु !
✍ रचयिता ©
🍊 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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12.10.2019 ◆5.15 अपराह्न।

ग़ज़ल


इन्सां   की   मनमानी   देख।
ज़बरन    खींचातानी   देख।।

नहीं    वक़्त     की   पाबन्दी,
झूठी    बात    बनानी    देख।

पानी   को    बरबाद     करे ,
सजल  आँख  का पानी देख।

जर - जोरू   पर  नियत बुरी,
इन्सां    की     नादानी  देख।

दर्द  , दिलों   में पाले   रखना,
सबकी   यही   कहानी  देख।

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🍎 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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12.10.2019 ◆5.00 अपराह्न।

आने वाली है दीवाली [ बालगीत ]



ख़ुशी    मनाएँ      पीटें    ताली।
आने      वाली     है   दिवाली।।

राम         लौट   लंका   से  आए।
रावण      मारा    मोद  मनाए।।
कार्तिक     की  मावस  थी काली।
 आने        वाली       है   दीवाली।।

नए -  नए     हम कपड़े  पहनें।
अम्मा    जीजी   साड़ी  गहने।।
खुशियों    के  दिन रहें न खाली।
आने       वाली     है    दीवाली।।

जब    हो   मावस की अँधियारी।
दीप    जलाएँ      करें   दिवारी।।
घर     बाहर     फैले  उजियाली।
आने       वाली       है   दीवाली।।

लक्ष्मी    गणेश   का पूजन वंदन।
घर - घर में    होगा अभिनंदन।।
मधुर    खिलौने  खील   निराली।
आने        वाली     है    दीवाली।।

झिलमिल  झालर जलें फुलझड़ी।
छत मुँडेर ज्यों ज्योति चल पड़ी।।
भरी       बतासे   नभ  की  थाली।
आने          वाली       है   दीवाली।।

पुए -   पूड़ियाँ     गरम   कचौड़ी।
बर्फी         पेड़े      दाल   पकौड़ी।।
फैले  'शुभम'   शिवम खुशहाली
आने        वाली       है     दीवाली।।

💐शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🌷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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12.10.2019◆ 12.15 अपराह्न।

नहीं जोड़ा करते

   समस्या पूर्ति
     


चलते हैं  जो   राही सुमार्ग पर अपने,
वे अपने पथ  मध्य नहीं छोड़ा करते।
बनाते   हैं सम्बन्ध जो देखभाल कर
सबन्धों  को बीच ही नहीं तोड़ा करते।
होते   हैं   सुपूत  जिनके  पुत्र  'शुभम',
बैंक तिजोरी में धन नहीं जोड़ा करते।

💐 शुभमस्तु !
✍ रचयिता ©
☘  डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2019

व्रत करवा -चौथ [ दोहा, चौपाई]


   -  दोहा -

'सदा    सुहागिन    ही   रहूँ'-
की     लेकर     उर  -  साध।
सधवा     करती      साधना,
कार्तिक        के     पूर्वार्द्ध।।

      - चौपाई -

करक   चतुर्थी  कार्तिक आई।
करवा चौथ ख्याति घर लाई।।

स्वस्थ समृद्ध रहे पति अपना।
इसी साध में मुझको तपना।।

आयु  दीर्घ  हो  मेरे  पति  की।
शांति सुखदता जीवन रति की।।

पति   ही पत है और आन भी।
मेरे   घर  का  मृदुल मान भी।।

करवा  का  निर्जल व्रत करती।
भूख - प्यास की चिंता टरती।।

     - दोहा -

दर्शन      करके      चाँद    के,
देती       अर्घ्य      सु - नारि।
पति -  मुख   ही   दर्शन प्रथम,
फिर        पीती       है   वारि।।

   - चौपाई -

श्री  गणेश की कृपा - जुन्हाई।
देती    जीवन    सदा  सहाई।।

कठिन  साधना नित फलदाई।
विपदा     क्षण   में दूर भगाई।।

पतिव्रता    की विमल साधना।
तपी - नारि का कौन सामना।।

अमर  हो   गई    करवा  देवी।
वह  थी  सच्ची पति पद सेवी।।

एकनिष्ठ पति - प्रेम सिखाती।
करवा   पर सधवा बलि जाती।

     - दोहा -

भारत       की       सन्नारियाँ,
अप्रतिम    चरित       महान।
तमस    मिटातीं     गेह    के,
कर      पूरित      धन -धान।।

त्याग    तपस्या   प्रणय  का ,
करवा        थी        भांडार।
मृत पति को  जीवित  किया,
तोड़    असत    की   डार।।

मातृशक्ति    का    हम   करें, .
आजीवन               सम्मान।
मातृशक्ति    के    मान    से,
हों      प्रसन्न         भगवान।।

💐 शुभमस्तु !
✍रचयिता ©
🌿 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

चरित्र -गान [ अतुकान्तिका ]

        


आमजन की दृष्टि में
भक्तों की भक्ति में 
जो रहा  महाज्ञानी,
महान उपदेशक ,
धार्मिक संत ,
हो गया 
उसका भी 
दारुण अंत।

जनता ने सुनी
बस जिह्वा की वाणी,
उपदेशों की झनकार,
न कहीं इनकार,
सर्वथा 
स्वीकार ही स्वीकार,
देह का गेरुआ वसन,
तिलक, रुद्राक्ष , चंदन,
 नहीं देख पाए
गोपित अदृश्य नयन,
लेता रहा
मूँद कर अपनी दो आँखें,
उनका अंध पक्ष,
नहीं देखा 
कितना है  निर्मल ,
हृदय स्वच्छ!

चरित्र का दामन 
था कितना मैला,
बना हुआ  था जो
युवतियों, 
सुंदरियों में छैला,
करता  रहा  मनमानी,
जब तक चाहा,
ख़ूब रंग गुलाल का
 कमाल बरसाया,
पिचकारी का फ़व्वारा
रंग लाया,
होली खेला ,
गोपियों सँग ज्यों 
कन्हैया बरसाने में खेला,
खेला गया आश्रमों में
रासलीला का झमेला ।

अज्ञान का परदा हटा,
चरित्र के सूरज से
तम भरा बादल फटा,
पकड़ ही ली गई 
उसकी उलझी हुई जटा,
सत्य की तराजू पर 
तोला गया,
रेशमी परदे का मोल
आँका गया,
और औऱ और
भीतर झाँका गया,
तब कारागार के
सीखचों में
टाँगा गया।

सर्वोपरि है चरित्र
न ज्ञानी न विज्ञानी
न धर्म का ढोंग,
सभी हैं रोग,
सब उसके पीछे हैं,
चरित्र और चरित्रवान से
सभी  नीचे हैं।

चरित्र के बिना
न कोई नेता ,
न नायक न संत,
सभी मुखौटे हैं,
मुखौटा हटा
चरित्र का कलुष-
दिख ही गया,
तथापि अंधभक्त
आज भी 
बैठे हैं आश में,
गिन रहे हैं 
वे दिन 
कारा की पाश में,
खुल जो गया है 
काला चिट्ठा,
काजू बादाम की जगह
मिलता भी नहीं मट्ठा।

जो चरणों में नहीं
वह आचरण में है,
आचरण ही निहारो
चरण - नमन से पूर्व,
न करो व्यग्रता 
उतावली न अंध विश्वास,
न देखो 
वाणी का प्रकाश,
छद्म अट्टहास।

शनैः - शनैः 
चरित्र ही निहारो,
ईमान मत हारो,
अपने विश्वास को
उन पर तभी वारो,
जादूगरों के चमत्कारों पर
आत्मा को मत मारो,
कलाबाजियों से
मत डरो,
वाणी की रसधार में
मत गिरो ,
अंतरात्मा की 
पुकार ही गहो,
जीवन में चाहे
कितने कष्ट सहो।

चरित्र से ही
व्यक्ति है ,
समाज है ,
सुनहरा  कल है 
और आज है,
शिक्षा ,संस्कृति है,
देश है , देशभक्ति है,
महाज्ञानी से
चरित्र महान है,
महापंडित से
चरित्र बलवान है,
रावणों से सदा
एक राम की 
ऊँची  शान है।

💐  शुभमस्तु !
✍ रचयिता ©
🌻  डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...