सोमवार, 31 अक्तूबर 2022

जीवन को त्योहार बनाएँ🍑 [ चौपाई ]

 458/2022

 

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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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जीवन   को    त्योहार  बनाएँ।

मन  को सुमनों-सा महकाएँ।।

सोच  सदा हो   युक्त  सकारा।

सदा बहे  सुरसरि  की  धारा।।


त्योहारों    की    हूल  निराली।

खुशियाँ  वहाँ  बजातीं  ताली।।

विजयादशमी    या   दीवाली।

झूम  उठे    होली   में  डाली।।


उत्सव    बारह     मास  मनाते।

जाता  एक   अन्य फिर  आते।।

सावन,भादों,  कार्तिक, फागुन।

अलग-अलग बजती उत्सव धुन।।


फहराता    है     कभी   तिरंगा।

पर्व   दशहरा      पावन   गंगा।।

चैत्र   शरद     नव  दुर्गा   आतीं।

श्रद्धा    सह  नर -  नारि मनातीं।।


जीवन  में  सुख - दुख का आना।

नया       नहीं     ये     राग  पुराना।।

रजनी - दिन     ज्यों   आते - जाते।

तम - उजास    की   महिमा गाते।।


वैसे     ही    त्योहार      पर्व   हैं।

जीते   जन-गण  मन  सगर्व हैं।।

नई       चेतना     वे     लाते   हैं।

कल   में   तेल    लगा  जाते हैं।।


हर     पल     है     त्योहार हमारा।

उषः काल     फिर     भोर सकारा।।

दोपहरी       फिर      साँझ सुहाती।

तारों    भरी      रात    तब  आती।।


मित्रो       बात       समझने  वाली।

दीवाली ,    जब       हो खुशहाली।।

'शुभम्'      सदा     त्योहार  मनाएँ।

बाँटें   हर्ष         विषाद     न लाएँ।।


🪴शुभमस्तु !


31.10.2022◆1.00

पतनम  मार्तण्डस्य।

करनी का फल भूल न होता 🦚 [गीतिका ]

 457/2022


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✍️ शब्दकार ©

🌹 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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समय सदा अनुकूल न होता।

सह सुगंध  हर  फूल न होता।। 


मानव को  भी चुभता  मानव,

जो चुभता  हर शूल  न होता।


रज कण देता  है  नव जीवन,

हर रजवत कण धूल न होता।


गलती  कभी  सभी  से  होती,

कोई   मूढ़   समूल   न  होता।


मत आँको वसनों से जन को,

मति से ऊल-जुलूल न होता।


कैसे   कवि   बन  पाता कोई,

उर में  उसके   हूल  न  होता।


'शुभम्' सोचकर कर्म करें तो,

करनी का फल भूल न होता।


🪴शुभमस्तु !


31.10.2022◆5.45आरोहणम् मार्तण्डस्य।

सह सुगंध हर फूल न होता 🌹 [सजल ]

 456/2022

 

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●समांत : ऊल ।

●पदांत :   न होता।

●मात्राभार : 16.

मात्रा पतन:  शून्य।

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✍️ शब्दकार ©

🌹 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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समय सदा अनुकूल न होता।

सह सुगंध  हर  फूल न होता।। 


मानव को  भी चुभता  मानव,

जो चुभता  हर शूल  न होता।


रज कण देता  है  नव जीवन,

हर रजवत कण धूल न होता।


गलती  कभी  सभी  से  होती,

कोई   मूढ़   समूल   न  होता।


मत आँको वसनों से जन को,

मति से ऊल-जुलूल न होता।


कैसे   कवि   बन  पाता कोई,

उर में  उसके   हूल  न  होता।


'शुभम्' सोचकर कर्म करें तो,

करनी का फल भूल न होता।


🪴शुभमस्तु !


31.10.2022◆5.45आरोहणम् मार्तण्डस्य।


रविवार, 30 अक्तूबर 2022

शांति सबको हितकारी 🦚 [ गीतिका ]

 455/2022


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✍️ शब्दकार ©

🦚 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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इधर  सृजन तो उधर मरण है।

प्रकृति का रुकता न चरण है।


अटल  नियम है  परिवर्तन का,

 गतिमयता में हर कण-कण है।


भ्रम  में  जीता   सदा आदमी,

ज्ञान नहीं कैसा  तृण-तृण  है।


अहंकार   के   मद   में पागल,

नहीं  सही  का  करे  वरण है।


क्या    सोचा   दसकंधर  तूने,

क्या सीता का उचित हरण है।


कितना  भी  ऊँचा  हो  जाए,

होता गिरि का सदा क्षरण है।


'शुभम्'शांति सबको हितकारी,

फिर  भी  क्रूर  चाहता  रण है।


🪴 शुभमस्तु !

30.10.2022◆3.45

पतनम मार्तण्डस्य।


छिलका 🛟 [ दोहा ]

 454/2022

         

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✍️ शब्दकार ©

🪹 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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सुख का छिलका जब हटा,दुख ही दिखा अपार।

लगा,न छिलका था कभी,लटकी  घौद हजार।

सब   छिलका - आंनद में,   खोए  हैं  भरपूर।

हटा, न  छिलका  झाँकते,क्या भीतर का नूर।।


क्षीणदेह छिलका क्षणिक,जब छीला हे मीत

गूदा   दर्दों   का  चुभा, रहा नहीं    संगीत।।

छिलके  की  रंगीनियाँ,देखी चमक   सुगंध।

मद  में  भूला आदमी, होता मति से अंध।।


छिलका  ही  सब  चाहते,जैसे कंबल  सौर।

नहीं  चाह  कंबल हटे,गरमाए कुछ   और।।

छिलका -गूदे  का  रहा, सदा एकलय   संग।

दोनों  का  अस्तित्व  है,दोनों का  ही   रंग।।


बिना रात दिन भी नहीं,दुख सुख का है साथ

फल  में  गूदे  से जुड़ा, छिलका  तेरे  हाथ।।

जीवनफल सबको मिले,कटहल हो या आम

कहीं शूल का संग है, छिलका बहु आयाम।।


छिलके के  नीचे  छिपे,जीवन फल  के  रंग।

अलग सभी छिलके सजे,अलग सभी के ढंग

छिलका -गूदा एक सँग,जन्मे फल का रूप।

नहीं  पृथक  होते कभी,पर्वत हो  या  कूप।।


'शुभम्'कर्म फल से बढ़े,गूदा-छिलका भार।

हाथों में भवितव्य है, सींचें विविध प्रकार।।


🪴शुभमस्तु !


30.10.2022◆2.45 

पतनम मार्तण्डस्य।

शनिवार, 29 अक्तूबर 2022

इच्छाधारी नाग और भोला 🪸 [ कहानी ]

 453/2022


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✍️ शब्दकार ©

🪸 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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नाम था उसका भोला।स्वभाव का भी भोला। दीवाली से दो दिन पहले एक दिन वह अपने खेत की मेंड़ की सफाई कर रहा था। तभी उसे पास ही सर्प की एक बाँबी दिखाई पड़ी। वह चोंका और अपनी खुरपी बहुत सावधानी पूर्वक चलाते हुए घास छीलने लगा।बाँबी से लगभग एक मीटर दूर उसकी ओर पीठ किये हुए वह अपने कार्य में  तल्लीन था।अचानक उसने पीठ के पीछे कुछ सरसराहट अनुभव की तो उसने पीछे दृष्टि घुमाकर देखने का प्रयास किया ,किंतु जब उसे कुछ भी दिखाई नहीं दिया तो उसने अपने मन का भ्रम समझकर नजरंदाज कर अपने कार्य में व्यस्त हो गया। पर उसका मन नहीं माना तो खड़ा होकर देखने का प्रयास किया कि उसका अनुमान सही सिद्ध हुआ। एक तेजस्वी   गेरुआ वस्त्रधारी संत सामने विराजमान थे।

"महाराज आप !" भोला ने पूछा।  "अचानक कहाँ से प्रकट हो गए। अभी तो यहाँ कोई भी नहीं था।"

"हाँ, भोले भाई।यही समझ लो कि प्रकट ही हुआ हूँ।"संत महाराज ने उत्तर दिया।"अभी जब तुमने पीछे घूमकर देखा था ,तब भी मैं यहीं पर था। पर तुम देख नहीं सके।"

संत महाराज से अपना नाम लेकर संबोधित करने पर भोला चोंका और पूछ ही लिया : "महाराज !आप तो मेरा नाम भी जानते हैं।महाराज अपना परिचय दें।"

"हाँ, भोला भाई ! मैं तुम्हें लंबे समय से जानता पहचानता हूँ;परंतु तुम मुझे नहीं जानते। खैर !छोड़ो भी। क्या करोगे ज्यादा जानकर।

मैं वह नहीं हूँ ,जो तुम देख रहे हो।इससे इतर कुछ औऱ ही हूँ। यदि मैंने अपना वास्तविक परिचय  दिया तो हो सकता है तुम डर न जाओ। इसलिए मुझे इस रूप में आना पड़ा है।" संत महाराज ने बताया।

इतना सुनते ही भोला के मन में स्वाभाविक रूप से भय व्याप्त हो गया,जो उसके चेहरे के बदलते हुए रंग से ही स्पष्ट हो रहा था।संत जी ने उसके भय को भाँप कर उसे ढाढ़स बँधाया औऱ कहने लगे।

"देखो भोला भाई ! डरो मत।मैं तुम्हरा ही पूर्वज औऱ तुम्हारे पिता का पिता हूँ औऱ कर्मफल वश इस समय नाग योनि में जीवन- यापन करते हुए इसी बाँबी में निवास कर रहा हूँ। तुम भयभीत न हो जाओ, इसलिए इस रूप में तुम्हारे समक्ष प्रकट हुआ हूँ। तुम मुझसे बिलकुल मत डरो। तुम्हें कोई भी हानि नहीं पहुँचाऊँगा।तुम मेरे प्रिय पौत्र जो हो।कुछ न कुछ भला ही करूँगा वास्तव में मैं एक इच्छाधारी नाग हूँ।" संत रूप धारी नाग ने अपना रहस्य प्रकट किया।

"ठीक है महाराज।" भोला बोला। "अब मुझे आदेश करें कि मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ?"

संत रूप धारी नाग बोला :"अब तुम भला मेरी क्या सेवा करोगे। तुम मिल गए। मुझे बहुत अधिक शांति मिली। जीवन में इतना ध्यान रखना कि कभी भी स्वप्न में भी अपने से बड़ों,माता ,पिता और गुरुजनों का अपमान मत करना।सोचना भी मत। यह बहुत बड़ा पाप है।ऐसी आत्माओं को नरक में स्थान नहीं मिलता औऱ जन्म जन्मांतर तक रौरव नरक में पड़े जलते, सड़ते ,विकलते रहते हैं।इस जघन्य पाप की कोई क्षमा नहीं है।"

" जो आज्ञा महाराज।" भोला बोला।

"नहीं, अब सब जान ही गए हो तो अब मुझे महाराज मत कहो। बाबा कहो।मैं तुम्हारा बाबा हूँ।जब मैंने अपना नश्वर शरीर छोड़ा था ,तब तुम्हारा जन्म भी नहीं हुआ था। आज तुम्हें देखकर मेरी आँखें तृप्त हुई हैं। हमारी आज की मुलाकात की कोई भी चर्चा मत करना।तुम्हें कुछ औऱ पूछना हो तो पूछ लो।"संत रूप संत महाराज ने कहा।

भोला कहने लगा :"बाबा एक जिज्ञासा है कि इस संसार में सर्प अधिक जहरीला है या आदमी?"

बाबा बोले :"इसका तो सीधा सा उत्तर है कि सर्प तो केवल अपने जहर से और दंशन के भय से जान ले लेता है किंतु इस पृथ्वी का सबसे घातक प्राणी मानव ही है। जो अपने अनेक विध अस्त्र- शस्त्रों से प्राण हरण करता है।उसकी जबान में अमृत है तो विष भी है।उसकी दृष्टि में भी विष है औऱ उसका मन तो विष का सागर है।दो विरोधाभासी स्थितियों में वह कभी विष है तो कभी अमृत। इसलिए इस आदमी से सदैव सावधान रहना।वह कब किस रूप में विष वमन करने लगे; कुछ कहा नहीं जा सकता। इस कलयुग में तो अपना बेटा भी अपने पिता के साथ अपने स्वार्थ के लिए कुछ भी कर सकता है।आदमी सर्प देखकर इसलिए डरता है कि वह उसे डंस न ले ! और सर्प इंसान से इसलिए भयभीत है कि वह उसकी हत्या न कर दे! सर्प को जब तक छेड़ा न जाए ,वह हानि नहीं पहुँचाता। किन्तु मनुष्य बिना  कारण भी किसी की जान लेने पर उतारू हो जाता है।"

 अच्छा तो अब ठीक है। और ध्यान से सुनो ।बाँबी से इक्यावन कदम दूरी पर तुम्हारे खेत की मेढ़ में पूर्व दिशा में इक्कीस फीट नीचे सोना गढ़ा हुआ है। कभी भी बड़ी आवश्यकता पड़े तो निकाल लेना। कहीं भी चर्चा मत करना। पता है न कि आदमी ही आदमी के लिए महाविष है।" 

"जी बाबा।"भोला बोला और देखते ही देखते बाबा अंतर्धान हो गए।

🪴 शुभमस्तु !

29.10.2022◆5.00पतनम मार्तण्डस्य।



छठ पर्व 🌞 [मनहरण घनाक्षरी ]

 452/2022

      

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✍️ शब्दकार ©

🌞 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                         -1-

सूर्य देव को नमामि,उषा देवि को प्रणाम,

             करें गंगा में नहान,व्रत निर्जल करें।

रवि पूजें जल बीच,जीव संतति के सींच,

          बने संतति महान,दुःख रवि जी हरें।।

माँ कात्यायनि प्रसाद,दूर करें अवसाद,

         बढ़े नित्य धन-धान्य,पार भव को तरें।

छठ पूजा सुखदाई,करें सब पितु माई,

         नारी नरहू सुजान, त्रिदेव जी संचरें।।


                         -2-

सूर्य अग्नि कौ महान,दिव्य रूप है प्रमान,

          जनि रहौ है जहान,मातु छठ पूजिए।

मध्य नदी या तड़ाग,पूज छठ बड़भाग,

      साथ पति कौ सुहाग,और नहिं दूजिए।।

प्रथम नहाय-खाय,बाद खरना पुजाय,

          पूर्ण निर्जला व्रताय,सत्यव्रती हूजिए।

होय शुद्ध मन गात,करें निर्मित प्रसाद,

चूल्हा माटी का जलात,आम्र काष्ठ  भूँजिए।।


                         -3-

छठ पूजा उपचार,रहें भक्त निराहार,

         खीर तंदुली गुड़ार,का प्रसाद पाइए।

ठाड़े रहें नदी तोय,भक्ति प्रार्थना में खोय,

      परवातिन जो होय,अर्घ्य  हू लगाइए।।

नारी-नर हू जवान,थाम पर्व की कमान,

           चाहें वृद्ध या किसान,मत शरमाइये।

निरोगता बढ़े-चढ़े, पर्यावरण में मढ़े,

      उत्सवी शुचि सोपान, संतति   दृढ़ाइए।।


                         -4-

प्रथम  ऋग्वेद कहै, सूर्य एक देव  अहै,

       कौन नहीं तेज चहै,करें सूर्य उपासना।

आरोग्य के हैं देवता,भक्त जिन्हें सु-सेवता,

        रोग दोष दूर दहै,त्याग दे कु -वासना।।

उदयास्त सूर्य देव,अर्घ्य देय करें नेम,

       स्वच्छ करें निज गेह,लौकी कद्दू राँधना।

सेंधा नमक मिलाय, सबै भोजन पकाय,

       बाद में नहाय-खाय, बैगननु ना बना।।


🪴 शुभमस्तु !


29.10.2022◆11.30 आरोहणम् मार्तण्डस्य।


शुक्रवार, 28 अक्तूबर 2022

गाय-भैंस वार्ता 🐃🐄 [ व्यंग्य ]

 451/2022

 

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 ✍️ व्यंग्यकार © 

 🐃🐄 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्' 

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 चारागाह में पास-पास चरती हुई गाय - भैंस में अपनी भाषा शैली में कुछ वार्ता प्रारंभ हो गई।भैंस ने गाय से जिज्ञासा पूर्ण महत्वपूर्ण प्रश्न किया: - "हे गौ माता ! तुम एक पालतू पशु हो और मैं भी एक पालतू पशु ही हूँ;किंतु मनुष्य के द्वारा हम दोनों के साथ इतना भेदभाव और ऊँच - नीच का व्यवहार क्यों किया जाता है? तुम्हें ये तथाकथित हिंदू जन गौमाता कहते हैं और मेरा गाढ़ा - गाढ़ा दूध निकालकर पीने के बाद भी मुझसे घृणा करते हैं।मेरे साथ उपेक्षापूर्ण व्यवहार करते हैं।इस विषय में तुम्हारा क्या विचार है?" 

  सीधी-सी गाय को भैंस की जिज्ञासा से तनिक भी आश्चर्य नहीं हुआ और बोली: हे भैंस बहन! पहली बात तो ये है कि तुम भी स्वार्थी मनुष्य की तरह ठगाई की भाषा बोलकर ये गौमाता ! गौमाता : का गीत मत गाओ। मैं किसी मनुष्य की कोई गौमाता नहीं हूँ। मैं माता हूँ मात्र अपनी संतान की ; अपने बछड़े- बछेड़ी की , न कि किसी मनुष्य की।मैंने उसे कब जना! मेरा दूध केवल मेरे बच्चों के लिए है ।आदमी तो स्वार्थवश उसे चुराता है। मना करती हूँ ,लतियाती हूँ तो मेरे दोनों पिछले पैरों में रस्सी बाँधकर भी छीनने से बाज नहीं आता।कभी- कभी तो मेरे नाक के दोनों नथुनों में भी रस्सी डालकर उत्पीड़ित करता है। हर तरह से मुझे अपना गुलाम ही बनाकर छोड़ दिया है उसने।क्या करूँ मेरी भी अपनी विवशता है,तो दूध तो देना ही पड़ता है। वरना प्रकृति ने मेरे स्तनों में निर्मित किया गया दूध मनुष्य के लिए थोड़े ही दिया है! मेरे शावकों कर लिए ही तो है ।"

   इतना कहने के बाद गाय थोड़ा रुकी। तब तक भैंस घास चरने के लिए थोड़ा झुकी औऱ स्वीकृति में अपना बड़ा श्यामल शीश औऱ दो बड़े -बड़े सींग हिलाते हुए कहने लगी :"ठीक ही कहती हो गौ बहिन जी। ये आदमी सचमुच ही बड़ा लालची, स्वार्थी और कृतघ्न है।ये अपने ही स्वार्थ में इतना मग्न है कि उसके आगे उसे कुछ भी नहीं सुहाता।" बीच में भैंस - वचन को अल्पविराम देते हुए गाय कहने लगी: "ये लोग मुझे मरखोर देखते हुए गौमाता कहने लगे औऱ तुम्हें काली भैंस।जो टेढ़ा होता है ,वही इनके समाज में पूज्य होता है। तुम सीधे-सीधे दूध दुहने देती हो , तो तुम्हें कोई भैंस - माता नहीं कहता।इसी प्रकार बकरी, भेड़, ऊँटनी जैसे अनेक ढोरों का दूध निकाल कर पी जाता है ,किन्तु किसी को माँ नहीं कहता।क्योंकि वे सीधी हैं,अशक्त हैं।इसलिए जबरन टाँग पकड़ कर भी दूध छीन सकता है। मैं तो आज से तुम्हें "महिषी " अर्थात रानी  की पदवी प्रदान करती हूँ  वे कहते रहें मुझे माता , मैं तो तुम्हें  महिषी ही मानूँगी  ।   " 

    " इस इंसान की दूध की हवस जीवन भर नहीं बुझती।बचपन में अपनी जननी का पीता है , फिर बड़ा होकर तुम्हारा, मेरा , बकरी का औऱ न जाने किस किसका! कभी चाय में तो कभी किसी और तरह से हमारे दूध का पीछा नहीं छोड़ता।कभी ठंडा कभी गरम। कभी मीठा कभी फीका।कभी मिष्ठान्न में तो कभी छाछ, मलाई ,नवनीत, दही ,घी के रूप में ।  " 

     अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए गाय ने अपना कथन को गति प्रदान करते हुए कहा : "हास्यापद और मजे की बात है कि हिंदुस्तान भर में मनुष्य के द्वारा जो दूध छीना (ज़बरन दुहा) जाता है ,उसमें हमारी भैंस बहनों की ही सत्तर प्रतिशत से भी अधिक की हिस्सेदारी है। लेकिन इस रूढ़िवादी मूर्ख मनुष्य को कौन समझाए कि जब ऐसा ही है तो माता भैंस को कहना चाहिए या शेष तीस प्रतिशत में गाय ,बकरी ,भेड़ आदि की जो भागीदारी है ,उनमें से केवल गाय अर्थात मुझे माता की पदवी देनी चाहिए? अब तो 'कैमिकल- माता' को भी बहुत बड़ा श्रेय देने का समय आ गया है ,जिसमें बनावटी दूध बनाकर 'जनहित?'किया जा रहा है या वह अपने ही पैरों में 'दूध की कुल्हाड़ी' मार कर आत्मघात कर रहा है!"

  इसी बीच भैंस कहने लगी : "मुझे भी तुम्हारी जैसी एक हँसी की बात याद आ गई।" गाय बोली:"अब कह रही हो,तो कह ही डालो। वरना पेट में दर्द हो जाएगा। बात पचेगी नहीं और दर्द से कराहती रहोगी तुम। इसलिए बिना विलंब किए कह डालो।" 

      "तो सुन भी लो।हाँ, परन्तु एक बात है, बुरा मत मानना।"भैंस ने कहा। "ठीक है , बड़ी बहन जी।फ़रमाओ!"गाय ने स्वीकृति प्रदान की। "जब ये मनुष्य लोग तुम्हें गौमाता तो मानते हैं , माना। परन्तु तुम्हारे 'उनको' अर्थात साँड़ बाबा को पिता भी मानते भी हैं या नहीं? कि बिना पिता के ही कोई गौ माता बन जाएगी? " भैंस ने अपनी बात पूरी करते हुए अपने बड़े -बड़े दंत- दर्शन से गाय की स्वीकृति में उसकी ओर आशा भरी दृष्टि से निहारा। गाय किंचित शरमाई औऱ बोली:"इस प्रश्न का उत्तर तो उसी से मिलेगा। चलो दोनों वहीं चलती हैं ।जो हमें यहाँ चराने के लिए लाया है। परन्तु आदमी भी उनका सवाल सुनकर सुन्न हो गया है। क्या प्रत्युत्तर दे बेचारा! 

 🪴 शुभमस्तु !

 28.10.2022◆12.30पतन्म मार्तण्डस्य।

🐃🐃🐄🐃🐃🐄🐃🐃🐄

महाकाव्यों- सा बचपन 👮‍♂️ [ कुंडलिया ]

 450/2022

         

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✍️ शब्दकार ©

👨‍✈️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                         -1-

बचपन कच्चा दूध है,पिया जननि के अंक।

नव किशोर वय पार की,खेले खूब निशंक।।

खेले   खूब  निशंक, दूध  ज्यों ही  औटाया।

गर्मी  बढ़ी  सु-देह,  चढ़ी यौवन  की  माया।

'शुभम्' बने दधि छाछ,प्रौढ़ता छाई  पचपन।

पाया सद नवनीत,जरा घृत लाया  बचपन।।


                         -2-

बचपन  की  गत  माधुरी,भूले मानव  कौन।

पुनः न  करता  वापसी, गूँगे का  गुड़ मौन।।

गूँगे  का  गुड़  मौन, शब्दशः क्या  बतलाएँ।

जितना बोलें  और, भूलते  ही  कुछ जाएँ।।

'शुभं'लिखें इतिहास,शेष क्या रहता जीवन।

गाथा बने विशाल,महाकाव्यों- सा बचपन।।


                         -3-

बचपन अंकुर बीज का,बढ़ तरु बना विशाल

पल्लव शाखाएँ बढ़ीं,नित्य बदलती  चाल।।

नित्य बदलती चाल, फूल फल कितने सारे।

हैं  वरदान  स्वरूप, गगन  में जितने  तारे।।

'शुभम्'वंश-विस्तार,न देखा पचपन-छप्पन।

जड़ भी रहतीं साथ,सचल होता हर बचपन।


                         -4-

बचपन की तुलना नहीं,करना वय के साथ।

जरा, प्रौढ़, यौवन सभी,वहाँ झुकाते  माथ।।

वहाँ  झुकाते माथ, और थोड़ा रुक   जाता।

मिलता  परमानंद, यही कहकर   पछताता।।

'शुभम्'सुकोमल रूप,नहीं देती  वय पचपन।

ईश्वर की प्रतिमूर्ति,सभी मानव का बचपन।।

                         -5-

बचपन  की   निर्दोषता, ईश्वर ही   साकार।

हँसी सहज मुस्कान की,समता का आधार।।

समता का आधार, नहीं यौवन  में  मिलता।

यद्यपि फूले फूल,झड़े वह ज्यों ही खिलता।

'शुभम्'नहीं थिर रूप,प्रौढ़ता नर की पचपन।

बढ़े समयअनुकूल,कहे जग सुंदर  बचपन।।


🪴शुभमस्तु!


27.10.2022◆10.15

पतनम मार्तण्डस्य।


गुरुवार, 27 अक्तूबर 2022

जिंदादिल रहें सदा ! 🏊🏻‍♀️ [अतुकान्तिका ]

 449/2022


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✍️ शब्दकार ©

🏔️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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पर्वत की 

ऊँचाइयों पर चढ़ना

औऱ चढ़ते जाना,

सागर की 

गहराइयों में उतरना

औऱ उतरते जाना,

दोनों में लक्ष्य है,

मानव हेतु परीक्ष्य है।


सहज नहीं हैं

गिरि - आरोहण,

निधि - अवगाहन,

चाहिए अदम्य साहस,

दुस्साहस,

जीवट की कशमकश,

सबका नहीं है बस,

अंत में मिलता है,

अतुल्य रस।


चलेंगे जब आप

 गिरि-आरोहण पर

किंवा निधि- अवगाहन पर,

रोकेंगे लोग 

तुम्हारे आगे बढ़ने पर,

जिन्हें कुछ भी 

ज्ञान है न अनुभव,

दे डालेंगे 

अयाचित नसीहत,

कितनी है मूढ़ ये,

इंसान की रुकावट?

तुम्हें बहलायेगी

हवा की हर आहट,

किन्तु नहीं होना है

तुम्हें कदापि कभी

आहत,

बनाए रखनी है

अपनी अटल चाहत।


तुम्हारी सफलता पर

जमाना विजय ध्वज

फहराएगा,

'हमने कहा था न

कि यह एक दिन

नाम कमाएगा,'

 -यही कहेगा

बैंड भी बजायेगा,

किन्तु यदि नहीं मिली

एक प्रतिशत सफलता,

तब भी यही दुहरायेगा

- 'हमने कहा था न,

कि घर का बुद्धू 

लौट कर घर आएगा,'

चित्त या पट्ट में

अंटा तो 

उनके बाप का ही

गहगाहएगा।


मत जाओ इसलिए

जमाने पर,

जमाने की अनुशंसा

कुशंसा पर,

बढ़ते रहना है,

निरन्तर बिना रुके

 'शुभम्'  पथ ही

ग्रहण करना है,

लक्ष्य अवश्य 

विजय का सेहरा

मस्तक पर बाँधेगा,

जमाने की क्या?

वह तो कुछ न कुछ

बड़बड़ायेगा,

गड़बड़ायेगा।

प्रवाह में मुर्दे 

बहा करते हैं,

जिंदा दिल तो

सदा आगे 

बढ़ा करते हैं।


🪴 शुभमस्तु !


27.10.2022◆8.30 

पतनम मार्तण्डस्य।

सुख ही सोना 🏕️ [ गीत ]

 448/2022

  

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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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बारह मास दिवाली उसकी,

सुख ही सोना।


सदा निरोगी जिसकी काया,

घर में  माया,

आज्ञाकारी     संतति   सारी,

विरुद  सुहाया,

चिंताहीन  उऋण जीवन का,

कोना- कोना।


सुख की अलग-अलग परिभाषा,

अपनी - अपनी,

कोई लूट - खसोट  खा रहा,

कुव्वत  जितनी,

सत का बीज अलग फलता है,

सत ही बोना।


कोई  जौंक   गिद्ध   है  कोई,

मच्छर कोई,

कोई रिश्वत  नित्य  गबन रत,

पके रसोई,

झूठाचार   उचित  लगता  है,

उन्हें न रोना।


नीति - अनीति सभी पहचानें,

सत्य -झूठ क्या!

फिर भी दुख की चादर ओढ़ें,

छोटी   त्रिज्या,

सुख  - दुख के आँसू में अंतर,

सत्य बिलोना।


🪴शुभमस्तु !


27.10.2022◆6.30 

पतनम मार्तण्डस्य।

गाँव की पगडंडियाँ 🛖 [ गीत ]

 446/2022


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✍️शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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               [नवगीत ]

शहर  को  जाने  लगी  हैं,

गाँव की  पगडंडियाँ।


आदमी  को  देखक र ही,

जल उठा है आदमी,

बाल - बच्चों  को   बचाना,

हो गया अब लाजमी,

कुकर  के  धर  वेष  सारी ,

आ  गई  हैं  हंडियाँ।


खेत का  हल  कर न पातीं,

बैल की वे जोड़ियाँ,

मेंड़ पर   बजती   नहीं   हैं,

रुनक रुनझुन तोड़ियाँ,

ट्रैक्टरों    का   शोर    भारी,

खेत, सड़कें,  मंडियाँ।


दीखता   जावक  न  पग  में,

टाँग जाँघों तक खुलीं,

साठ   सालें   पार  कर   लीं,

पर अभी वे  चुलबुलीं,

उम्र बाइस की बतातीं,

देह पर  हैं  बंडियाँ ।


नीम के    पेड़ों  तले  की,

छाँव  के  लाले  हुए,

दास ए. सी.  के  बने   हैं,

बोतलों के ही कुँए,

धान  जौ बाली  न  जानें,

ग्रीष्म, पावस, ठंडियाँ।


🪴 शुभमस्तु !


27.10.2022◆9.30 आरोहणम् मार्तण्डस्य।

मोबलाला मोबलाली 💌📲 [ गीत ]

 447/2022

 

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✍️ शब्दकार ©

💌 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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चिठ्ठियाँ   वनवास   में    हैं,

हाथ   में  जादूगरी।


सिमट  कर  मुट्ठी  में  भागा,

भागता ही   जा रहा,

पास अब  किसके   समय है,

चक्र बिन भागे महा,

बात   की   चलती    सुनामी,

बात  की  बाज़ीगरी।


मोबलाला           मोबलाली ,

चुम्बनों का दूरदर्शन,

प्यार   की     बातें   अहर्निश,

चल रही हैं न्यूडवर्जन,

खेत   में   सब   साँड़ - गायें,

चर रहे  छुट्टा चरी।


डाकिए     जिनके     भरोसे,

खा रहे  थे रोटियाँ,

दर्पणों     के     सामने      वे,

गुह  रही हैं चोटियाँ,

सामने     शिक्षक     मुबाइल,

दे रहा दृग को तरी।


बात   इतनी   भर   नहीं   है,

नोट भी ले दे रहा,

'टीच'  करता   'ऑन  लाइन',

मुर्गियाँ भी से रहा,

देख   कलयुग   का  करिश्मा,

प्यार की  है  रसभरी।


🪴शुभमस्तु !


27.10.2022◆1.30 

पतनम मार्तण्डस्य।

बुधवार, 26 अक्तूबर 2022

क्या बतलाएँ ! ☘️ [ गीत ]

 445/2022

 

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✍️ शब्दकार ©

🍃 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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धन, धनिकों की चकाचौंध में,

दीवाली  का  दीप   खो  गया,

क्या बतलाएँ!


फुटपाथों   के   सुस्त   चेहरे

लटके,   दीये   धरे   माटी के,

ठेलों  पर   विदेश   से  आए,

इतराते   नव    परिपाटी   के,

उतर कार  से नीचे,

खोले  चार  दरीचे,

सँग में पत्नी  जैसी  लगती ,

वे   बतियाएँ!


उपहारों   में   काजू  पिस्ते,

भाते खाते  हैं  मदमाते,

मधुमेही  चीनी  क्यों  खाएँ,

मोदक पेड़ा नहीं सुहाते,

चकाचौंध की बत्ती,

तोला   माशा   रत्ती,

अपने हाथ खिलाते उनको,

कटि मटकाएँ !


आम   आदमी  से जुड़ने में,

'लेबल' गिरता  भारी उनका,

मर्सिडीज  पर  जब  होते हैं,

दिखता है पैदल जन तिनका,

चढ़ -बढ़  गई खुमारी,

उतरे    नहीं    उतारी,

आँखें आप  मुँदी जाती हैं,

लख उबकाएँ!


अति आधुनिका वही आज की,

अंग दिखाए तन के गोरे,

फ़टी जींस टी शर्ट धार तन,

जैसे  बने  जूट  के बोरे,

यही धनिकता छाई,

हवा चली पछुआई,

वे क्यों  डूब  मरें  दरिया में,

हया बुताएँ!


🪴 शुभमस्तु !


26.10.2022◆7.45पतनम मार्तण्डस्य।

भैया दूज 👫 [ दोहा ]

 444/2022

    

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🪴 शब्दकार ©

👫 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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कार्तिक मावस बाद जो,आती है  शुभ दूज।

यमुना यम से माँगती,  रक्षा- वर  यम पूज।।


भैया  के  सम्मान में,तिलक लगाती   भाल।

बहना करती भावना,दीर्घ आयु  हो  लाल।।


भ्राता-भगिनी एक  सँग,करते 'शुभम्' नहान।

यमुना-जल  में नेह से,यम देते  अति मान।।


 भारत  सँग  नैपाल  में, हिन्दू पर्व     महान।

कहते भैया दूज हम,भगिनी भ्रात   सुजान।।


रवि-संतति यमुना नदी,भ्राता अग्रज   नेह।

यम करते वादा अटल,तनिक नहीं   संदेह।।


कौन बहिन निज बंधु का,नहीं चाहती त्राण।

अंत समय यमराज जी,पीड़ित करें न प्राण।


हतभागिनि भगिनी वही,जिसे न भ्राता- नेह।

आजीवन दुखिया रहे,मिले अंत  पथ  खेह।।


🪴 शुभमस्तु!


26.10.2022◆11.45 आरोहणम् मार्तण्डस्य।



दीवाली के दिप-दिप दीप 🪔 [ दोहा ]

 443/2022

 

[रोशनी,उजियार,जगमग,तम, दीप]

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✍️ शब्दकार ©

🪔 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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   🕯️ सब में एक  🕯️

शुभागमन  जब  से हुआ,भरी रोशनी  गेह।

नवल वधू दिप-दिप करे,दीप शिखा-सी देह।

दिग दिगंत दीपित बड़ा,जगमग  है संसार।

दिनकर-सी शुभ रोशनी,लुटा रही है प्यार।।


रमा-आगमन की घड़ी,करती गृह- उजियार

दीवाली   की  रात   में,  भर देतीं  आगार।।

जहाँ नहीं उजियार हो,तम करताअधिकार।

मति न काम करती वहाँ,लगता जीवन भार।


जगमग आलय हो गया,पड़े चरण शुभ द्वार

दूर  हुआ  तम गेह का,बदल गया   संसार।

दीपदान सरि में हुआ,जगमग वीचि हजार।

सुमन सुगंधित गा रहे,गीत भरे शुचि प्यार।।


विदा हुआ तम दृष्टि का,जागी है नवज्योति।

सब अपने लगने लगे,मिटी भाव की छोति।।

अपनी सीमित शक्ति से,मिटा रहा तम आज

जुगनू घन अँधियार में,करता है नव काज।।


तमसावृत रजनी घनी,दिप- दिप करते दीप।

तारे जगमग कर रहे,ज्यों मोती  सँग सीप।।

दीप जलें उस गेह में, जहाँ तमस का वास।

कहना शुभ दीपावली,करना यही  प्रयास।।


   🕯️ एक में सब 🕯️

जगमग करती रोशनी,

                        दीप करें उजियार।

टिका न तम पल एक भी,

                          भरता हर्ष अपार।।


🪴 शुभमस्तु !


26.10.2022◆2.00आरोहणम् मार्तण्डस्य।


मंगलवार, 25 अक्तूबर 2022

महिषी -महिमा गाइए 🐃 [ दोहा ]

 442/2022

 

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✍️ शब्दकार ©

🌳 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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किया  भैंस  के  साथ  में, नर ने  भेदाचार।

गैया  को माता कहें,भैंस - दुग्ध  से प्यार।।

बचपन से  पीता रहा, माँ महिषी का दूध।

कभी  चाय  मट्ठा  कभी, दे मैदा  में   गूध।।


माँ कहने  में भैंस को,लगती नर को लाज।

दावत  बने पनीर की,आदत से क्यों बाज??

छैना रबड़ी  का  लगा,रसना को अति स्वाद।

गौमाता  को छोड़कर, आती महिषी  याद।।


दधि घी मक्खन भैंस का,कभी न जाता भूल

रसना को लत जो पड़ी,भैंस -क्षीर अनुकूल।

 पूज्या हैं माँ गायजी,क्यों न पिताजी साँड़?

सोचे-समझे ही बिना,बना मनुज ये  भाँड़।।


सौ  में  सत्तर  भैंस   ही,   देतीं   दुग्धाहार।

शेष  तीस  में  माँ  अजा,भेड़, ऊँटनी धार।।

सत्तर  प्रतिशत भैंस का,दूधों पर  अधिकार।

महिषी है वह  दूध  की,शेष कथन निस्सार।।


माता   भले   न  भैंस  हो,नारी  रानी  नेक।

आँखें खोलें चर्म  की, अपना शेष  विवेक।।

देख  मलाई   रस   भरी, टपके तेरी   लार।

दीवाली    में    बाँटता,   खोया - मिष्टाहार।।


हमें न  चिढ़  है  गाय के,माता- पद से मीत।

'शुभम्'कभी तो गाइए, महिषी-पय के गीत।।

महिषी-महिमा  गाइए, भूल न माता  गाय।

'शुभम्' उलटकर दोहनी,बढ़ती तेरी  आय।।


🪴 शुभमस्तु !


25.10.2022◆4.45

 पतनम मार्तण्डस्य।

गौमाता बनाम भैंस माता🐃 [ अतुकान्तिका ]

 441/2022

      

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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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दूध जो पिलाए

उससे है अपना,

मेरा, आपका, सबका

कोई न कोई नाता,

बदली नहीं है

अभी पुरानी परिभाषा,

कहिए ,चाहे न कहिए,

पर है तो

वह भी माता।


जन्मदात्री जननी

दूध पिलाने वाली धाय,

गौ तो है ही प्रख्यात माता,

पिया है आजीवन 

जिस भैंस का

 गाढ़ा दूध,

वह भी तो है

सत्तर प्रतिशत माता,

शेष तीस में 

अनेक माता 

गौमाता ,

बकरी माता,

भेड़ माता ,

ऊँटनी माता,

पर इन सबको

माता कहने में

कृतघ्न क्यों शरमाता!


अपने बच्चों को

अतिथियों को,

चुसनी में

अथवा चाय में

भैंस का ही 

दूध सुहाता,

पर गीत बस

गाय के ही गाता,

क्योंकि

लकीर का फ़क़ीर

स्वार्थी इंसान

पिटी- पिटाई

लकीर पर ही

चल पाता,

बढ़कर इससे 

कुछ औऱ आगे,

बंद हो जाता

उसका खाता।


किसी भी 

दूध को मत लजा,

मार रहा 

 घृत माखन में

दही छाछ में,

रबड़ी में

कलाकंद बर्फी में

उसी भैंस के 

दूध का मजा!

परन्तु कहने के लिए 

है बस एक गौमाता!


ऐसे भी हैं

कुछ कृतघ्न नर,

जो जननी के

दूध का भी

ऋण अदा नहीं करते,

जीते जी

उन्हें करते अपमानित

पाप कमाने से भी

कहाँ डरते!

इंसान नहीं है वे 'शुभम्',

मादा श्वान, शूकरी

गर्दभी से नेह करते,

वे क्या जानें 

माता के दूध का

ऋण कोई चुका नहीं पाता,

 वे क्योंकर कहें

निज जननी को माता!


🪴 शुभमस्त!


25.10.2022◆11.30 आरोहणम्  मार्तण्डस्य।


भैंसिनु माँ पदवी न मिली [ मदिरा सवैया ]

 440/2022


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छन्द- विधान:

1.यह एक वर्णिक छंद है।

2. 07 भगण ($II×7  + गुरु)

3.10 ,12 वर्ण पर यति होता है।

4.चार समतुकांत चरण होते हैं।

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✍️ शब्दकार ©

🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                         -1-

गोधन -  पूजन  आजु चलौ,

             सखि गोधन की महिमा अति है।

देवि  रमावत    पूज्य   सदा,

                 कवि  देवनदी सम  मानत  है।।

दूध   पिबाइ   बड़ौ   करती,

               शिशु कौन नहीं सचु  जानत  है।

कान्ह   बचाइ  दयौ  ब्रज भू,

                 तब  इन्द्रनु कोप जु  ठानत है।।


                         -2-

गाय   कहावति   मात  बड़ी,

                 परि भैंसिनु माँ पदवी  न मिली।

दोनहु    दूध     पिबाइ    रहीं,

              कजरारि  न पावत मान    भली।।

भेद  न    नीक   बड़ौ   इतनों,

               अब  भैंसि  गई पनिया कु चली।

रंगनु   भेद    करौ    जनि  रे,

             कहि भैंसहि स्याह बला  अबली।।


                         -3-

पाँव   बड़े     मजबूत   खड़े,

                 कछु  भैंसिनु गायनु भेद नहीं।

सींगहु  पूँछहु     धारि    रही,

                  सद दूध  सफेदहु देय   रहीं।।

पीवत   दूध      सबै    उनकौ,

                 नहिं मानि रहे अहसान  कहीं।

भैंसि   कहें    महिषी   सिगरे,

                 यदि गाय तुम्हार सुमात  यहीं।।


                         -4-

धूम    मचाइ  - मचाइ    करें,

                 बहु शोर पटाखनु कौ  सिगरे।

फैलि   रहौ   चहुँ   ओर बड़ौ,

                  अति दूषण धूम दुखें चख रे।।

कौन जु  रीति  चली  जग  में,

                 ध्वनि हानि करै जन कौ तन रे।

रोकत   नाहिं   बढ़ी   जड़ता,

                   यह देखि गयौ मुरझौ मन रे।।


                         -5-

पीवत   -  पीवत    जाय   परे,

              कछु मोरिनु नालिनु पी  मदिरा।

भूलि    गए   कछु   गैल भले,

                    अरु पाँव नहीं धरतीहु थिरा।।

चाटि  रहे   मुख   श्वान  खड़े,

                   इक टाँग उठाइ स्वमूत्र   गिरा।

पीटि  रहीं  घरनी   जेहि  की,

              गहि हाथ बुहारु न पी    मदिरा।।


🪴शुभमस्तु !

25.10.2022◆9.15 आरोहणम् मार्तण्डस्य।


ब्रजांगना की बाली देखो! [ गीतिका ]

 439/2022 


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✍️ शब्दकार ©

💃🏻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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कार्तिक -निशा निराली देखो।

आई    है    दीवाली    देखो।।


तारे  हैं   अनगिन   अंबर   में,

भरी  खील की  थाली  देखो।


नर-नारी मन  मुदित  सभी हैं,

नाचें   बालक    ताली   देखो।


कोई   पड़ा   हुआ   नाले   में,

पीकर   सुरा   बवाली   देखो।


मौसम किंचित शीतल नम है,

झुकी  ओस  से  डाली  देखो।


गर्वोन्नत  कानों   पर   चढ़ती ,

ब्रजांगना   की   बाली   देखो।


जीजाजी   से   लजा  रही  है,

भार्या - भगिनी  साली  देखो।


मैंने तो  कुछ  कहा  न  उनसे,

फिर  भी  देती   गाली  देखो।


'शुभम्' न चाहे झगड़ा करना,

सुनी  बात , पर  टाली  देखो।


🪴शुभमस्तु !


23.10 2022◆11.00 पतनम मार्तण्डस्य।

आई है दीवाली देखो! [ सजल ]

 438/2022


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●समांत:  आली।

●पदांत:      देखो।

●मात्राभार : 16.

●मात्रा पतन:शून्य।

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✍️ शब्दकार ©

🪔 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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कार्तिक -निशा निराली देखो।

आई    है    दीवाली    देखो।।


तारे  हैं   अनगिन   अंबर   में,

भरी  खील की  थाली  देखो।


नर-नारी मन  मुदित  सभी हैं,

नाचें   बालक    ताली   देखो।


कोई   पड़ा   हुआ   नाले   में,

पीकर   सुरा   बवाली   देखो।


मौसम किंचित शीतल नम है,

झुकी  ओस  से  डाली  देखो।


गर्वोन्नत  कानों   पर    चढ़ती,

ब्रजांगना   की   बाली   देखो।


जीजाजी   से   लजा  रही  है,

भार्या - भगिनी  साली  देखो।


मैंने तो  कुछ  कहा  न  उनसे,

फिर  भी  देती   गाली  देखो।


'शुभम्' न चाहे झगड़ा करना,

सुनी  बात , पर  टाली  देखो।


🪴शुभमस्तु !


23.10 2022◆11.00 पतनम मार्तण्डस्य।

पाँच दिवस का पर्व 🪔 [ दोहा गीतिका]

 437/2022

 

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✍️शब्दकार ©

🪔 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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पाँच  दिवस  का पर्व है, दीपावली   महान।

घर -घर में दीपक जलें, भारत भूमि प्रमान।।


धन्वंतरि  भगवान  की,बरसे कृपा    अपार,

नर-नारी  नीरोग  हों,  सरसे शुचि  धन-धान।


सत्कर्मों  में  रत रहें, परि पुरजन  शुभ  देश,

नहीं मिले यम यातना, न हो नरक प्रस्थान।


नरकासुर  को  मारकर, किया कृष्ण  उद्धार,

सोलह सहस कुमारियों,का करते प्रभु मान।


सागर  का   मंथन  हुआ, लक्ष्मी आविर्भूत,

दीप जले तम नाश कर,गाएँ मंगल  - गान।


चौदह  वर्षों  बाद ही,लखन सिया  श्रीराम,

लौटे  थे वनवास  से,जग  के कृपा  निधान।


गोवर्धन गिरि को उठा,नासी ब्रज  की  पीर, 

द्वापर  में  श्रीकृष्ण  ने,कहता जग  भगवान।


रमा  रूप  गौ  मात है, गंगावत   हैं   पूज्य,

गोधन को पूजें सभी,तिथि पड़वा की जान।


यम  भगिनी  यमुना नदी, टीका  देती भाल,

अपने भय से मुक्त कर,सता न जन के प्रान।


'शुभं'सुखद दीपावली,कर सबका कल्याण,

यथाकर्म फल प्राप्त कर,पाएँ जन जन त्रान।


🪴शुभमस्तु !


23.10.2022◆8.00आरोहणम् मार्तण्डस्य।


रविवार, 23 अक्तूबर 2022

आई है दीपावली [मनहरण घनाक्षरी]

 436/2022

 

        


✍️ शब्दकार©

🪔 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                         -1-

आई है दिवारी आज,देखि-देखि भव्य साज,

दीप  जले    राम - काज, भारत महान   है।

नदी   घर - द्वार सजे, अंधकार गेह   तजे,

भक्त राम -नाम भजे ,ऐक्य का  वितान है।।

छतें देहरी अटारी,नव्य ज्योति की  पिटारी,

दीप - पुंज ने  निखारी, स्वर्ग के  समान  है।

आओ  दीप  ही  जलाएँ, दूर करके  बलाएँ,

बाग  देहरी   सजाएँ, स्वदेश की  शान   है।।


                         -2-

मावस  की आज रात,अश्व नहीं भानु सात,

नेत्र  से  न दृश्य  गात,  घन अँधियार  है।

दूर्जा  संग  मातु  रमा, विभु देव  प्रियतमा,

पूजन  का  साज जमा,दीपों की  कतार  है।।

शारदा की बीन बजी,रम्य दिशि दस सजी,

अंधकार  मही तजी,ज्योति का  प्रहार  है।

पुष्प धूप की सुवास, धन-धान्य का प्रकाश,

आया 'शुभम्' को रास, विज्ञता - बहार है।।


                         -3-

देखि  धरा - चमकार,  तारे करते    गुहार,

देखि ज्योति की फुहार,आई है दीपावली।

नदी,  नद,  घर,  द्वार, छत, अटारी,  पनार,

जली   दीपनु  कतार, रात  गई है    ढली।

जलें  शून्य  फुलझड़ी, अनार बम भी  बड़ी,

नारि  अटारीनु खड़ी,सजी- धजी  है   गली।

खील, फूल,लड़ीमाल,बदली-बदली है चाल,

नृत्य  करें  खूब बाल,खिल उठी  है   कली।।


                         -4-

खेत-खेत  में किसान, झूमि रहे देखि धान,

खील  खिलीं  सेत फूल,श्री गणेश   आइए।

गेह में  समृद्धि  होइ, नेह  के सु-बीज बोइ,

विनष्ट   होंइ    कु-शूल, नियति   सजाइए।।

गाँव-गाँव  धाम-धाम, जपें जन  राम-राम,

मन   में   न  शेष   धूल, ज्ञान सों   भिगाइए।

निरोगता   सदा  बढ़े,  प्रगति पंथ    पै   चढ़े,

मिले    देह   को     दुकूल, वीरता  दृढ़ाइए।।


                         -5-

चाँदनी  न शून्य  बीच, घनान्ध तम  नगीच,

दिवस - उजास  भरा, दिवाली - बाजार में।

यथार्थ है कि भ्रान्तिका,शंख ध्वनित क्रांतिका

तम   गया   मान  हार, राम  के  प्रचार   में।।

श्याम  कहत श्यामा सों, रेवती बलरामा सों,

जगमगा   रही   धरा, दीप -पर्व   प्यार   में।

धन्य  शुचि ब्रजधाम,राम नाम अंत   काम,

निधिवन   हरा  -   हरा,   शुभं उपहार    में।।


🪴शुभमस्तु !


22.10.2022◆ 3.00

पतनम मार्तण्डस्य।

शनिवार, 22 अक्तूबर 2022

चुगलानंद [ व्यंग्य ]

 435/2022 


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 ✍️ व्यंग्यकार ©

 👩‍👩‍👦‍👦 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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 'चुगलानंद' शब्द से आप कहीं यह मत समझ लीजिए कि यह कोई श्री श्री 108 चुगलानंद महाराज हैं।जिस प्रकार अपने यहाँ साहित्य के क्षेत्र में पहले नव रस हुआ करते थे, अब दस रस होते हैं। जिह्वा - रस के पास मात्र गिनती के छ: रस हैं,उसी प्रकार संसार के अनेक क्षेत्रों में रसों की संख्या भी पृथक् -पृथक् है।साहित्य,जिह्वा, राजनीति,धर्म, अधर्म, पाप,पुण्य के विविध क्षेत्रों की तरह ही समाज के क्षेत्र में भी अनेक रस हैं। जिनकी निश्चित संख्या के लिए संप्रति शोध कार्य प्रगति पर है।यहाँ मात्र इतना जान लीजिए कि कि यह 'चुगलानंद' इसी खेत की भरपूर उपज है।

 'चुगलानंद' की व्यापक गहनता में उतरने पर बहुत कुछ ज्ञानवर्द्धन होता है।'ज्यों- ज्यों गहरे जाइए त्यों -त्यों मोती पाँइ' कथन के अनुसार आप तो बस इसकी गहनता में अवगाहन करते जाइए। सबसे पहले आप यह जानने की जिज्ञासा में उत्सुक होंगे कि यह 'चुगलानंद' पाया कहाँ जाता है? भगवान मिथ्या वचन न बुलवाए तो सत्य तो यही है कि जनानियाँ की जिह्वा पर उत्पन्न होकर उसी में घुल-मिल जाता है। चूँकि यह होली, दिवाली, दशहरा आदि की तरह एक सामाजिक त्योहार अर्थात रस है,इसलिए अकेले -अकेले यह रसानुभूति नहीं कराता।इसका भरपूर आनन्द तभी मिलता है, जब न्यूनतम दो जनी तो हों ही।इससे अधिक हों तो उसका सामाजिकीकरण हो जाता है। ऐसा नहीं हैं कि जब जनी दो ही हों तो आनन्द की सीमा कुछ कम होगी।बल्कि बढ़ी हुई ही होती है। क्योंकि दो जनियों के चार कानों में जाकर यह द्विगुणित ही नहीं अनन्त गुणित हो जाता है।उसका चरमोत्कर्ष शब्दों में वर्णनातीत है। 'चुगलानंद' के अंत में लगाया जाने वाला सम्पुट भी बड़ा ही क्षीणकाय और अशक्त होता है। वह है "किसी से मत कहना" अथवा "किसी औऱ को मत बताना"। और मजे की बात यही है कि हर जनी अगली दूसरी, तीसरी, चौथी, पाँचवीं, छठी औऱ इसी प्रकार हजारवीं लाखवीं जनी को यही मंत्र देकर अपनी बात की इतिश्री करती है। बात आगे बढ़ती रहती है, औऱ च्वंगम की तरह जितना चुभलाओ उतना रस बढ़ जाता है। इस प्रकार 'चुगलानंद' जिह्वांतरणीय है।अर्थात यह एक जीभ से हजारों लाखों जिह्वाओं की यात्रा करता हुआ मौन रहता है।एक बार अपनी यात्रा का श्रीगणेश होने के बाद विश्व नहीं तो देश भ्रमण पर निकल जाता है।

 आपकी एक जिज्ञासा यह भी हो सकती है कि चुगलियाने के शुभ लाभ की पात्रा जनी ही होती हैं या जन भी इसे प्राप्त कर पाते हैं अथवा नहीं? इस सम्बंध में यही कहूँगा कि इस रस में रुचि लेने वाले जनों की संख्या बहुत ही कम होती है।ऐसा नहीं है पुरुष वर्ग इससे पूर्णतः वंचित  होता  हो ।कतिपय विरले ही भाग्यशाली हैं, जो इस लाभ को प्राप्त कर पाते हैं। 

  आपकी बिना जिज्ञासा के ही इतना ज्ञान वर्द्धन करना भी व्यंग्यकार अपना धर्म समझता है कि यह 'चुगलानंद' प्राप्त करने के मुख्य स्थान कौन-कौन से हैं? तो आप जान लें कि शहरों में प्रातः कालीन भ्रमण की पवित्र वेला से शुभ मुहूर्त भला क्या हो सकता है! यहाँ घूमकर ,बैठकर, खड़े होकर, चलते - चलते आदि विविध स्थितियों में 'चुगलानंद' का रस पान किया जा सकता है। इसी प्रकार किसी के घर से चाय की पत्ती,धनिए की पत्ती, कटोरी भर चीनी, प्याज, हरी मिर्च, अदरख की एक गाँठ,लहसुन की दो कली, नमक की डली आदि उधार माँगे जाते समय इसका भरपूर आनंद लिया जा सकता है।भले इस आनन्द के नशे में यह भी भूल जाएँ की गैस के चूल्हे पर रखा हुआ दूध उबलकर कोयला बन जाए। पानी खौल-खौल कर चिल्लाए कि मुझे उतारो- मुझे उतारो ,मैं जला , उड़कर आसमान की ओर चला।मगर वहाँ है ही कौन जो उसकी सुने!वहाँ तो देवी जी 'चुगलानंद' की चुहल में चूर हैं। आनंद से सराबोर हैं।

  ग्रामीण क्षेत्रों में तो 'चुगलानंद' की अनंत संभावनाएं हैं।गली के नुक्कड़ पर बतियाते, मेलों में धकियाते,घूरे पर कूड़ा गोबर फेंकते,कढ़ाई में सब्जी छोंकते,चूल्हे में लकड़ी ईंधन झोंकते,किसी को कोई वस्तु सौंपते,गाय भैसों की सानी- पानी, नदी पर नहाते,कपड़े धोते, विवाह- शादी,तीज- त्योहार, दशहरा,होली, दीवाली आदि अनन्त अवसर औऱ स्थान हैं ; जहाँ ग्रामीण जनानियाँ अपनी जीभ का भार कम करतीं औऱ कानों का उद्धार करतीं तथा प्रचार में गल्पोपहार उलीचतीं देखी जा सकती हैं।

   सारांशतः यही कहा जा सकता है कि 'चुगलानंद' का क्षेत्र अत्यंत विस्तृत और अखिल विश्व में व्याप्त है। अब इसमें व्यंग्यकार का क्या दोष कि पुरुष के हिस्से में इस आंनद का अल्पांश ही आ सका है। सारा श्रेय जनियों ने ही ले लिया।अरे मित्रो ! वे मेहनत भी तो करती हैं औऱ नि:शुल्क लाभान्तरण कर 'समाज -हित!' करती हैं। यह काम अहर्निश बारह मास चौबीस घण्टों अनवरत चलता रहता है। 'चुगलानंद' तो धाराप्रवाह बहता रहता है।किंतु कोई भी इस अदा को अच्छा न बुरा कहता है । अरे भाई क्यों कहे कोई!जब प्रकृति ने ही यह सौगात जनी के लिए बनाई। क्या करें ताऊ और क्यों रोकें दाऊ! यदि यह खासियत जनों में झनझनाई, तो उसे भी मिल जाती है पदवी : 'आधी लुगाई'।

 🪴 शुभमस्तु !

 22.10.2022◆ 8.45 आरोहणम् मार्तण्डस्य। 


 

शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2022

पीड़ा-हर प्रभु राम हैं 🛕 [ कुंडलिया ]

 434/2022


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✍️शब्दकार ©

🛕 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                         -1-

पीड़ा हर प्रभु राम हैं,पीड़ित यदि   परिवार।

परपीड़क  को दंड  दें,पल में कर   उद्धार।।

पल में  कर  उद्धार, प्रेम की पावस   प्यारी।

बरसे  बन उपकार, खिले पुष्पों की क्यारी।।

'शुभम्' जपें शुचि नाम,राम का लेकर बीड़ा।

हरि करते दुख दूर, हरे तन मन की  पीड़ा।।


                         -2-

पीड़ा  में प्रभु राम का,याद करें  सब  नाम।

सुख  में हम भूले रहें,कहाँ राम  का  धाम।।

कहाँ राम का धाम,काम,मद ,मत्सर भाते।

करते   नहीं   प्रणाम,  अहं  में वे मदमाते।।

'शुभम्' ज्ञान का लोप,रेंगता मन  में  कीड़ा।

काट रहा दिन- रात,जगाता जग की पीड़ा।।


                         -3-

पीड़ा  बहु  आयाम  में, आती नर  के पास।

शांतिहरण मन की करे,मुख भी म्लान उदास

मुख भी म्लान उदास,भाँप लेता   हर  कोई।

लगा  भाल   सिंदूर, भाग्य - रेखा  है  सोई।।

'शुभं'न आशा छोड़,उठा कटि कसकर बीड़ा

सुख न रहा यदि साथ,सदा ही रहे न पीड़ा।।


                         -4-

पीड़ा   देखें   और  की,दूर  करें  चितलाय।

यही   पुण्य  सद्धर्म   है ,होना सदा  सहाय।।

होना  सदा  सहाय, निवारक ही  हरि   होते।

पर  दुख   में   जो  डूब, लगाते  गहरे गोते।।

'शुभम्' न पश्चाताप, न होगी मन  में  व्रीड़ा।

जो  हरता पर पीर,मिटे उसकी  हर  पीड़ा।।


                         -5-

पीड़ा का कारक नहीं, बने न जो  नर  धीर।

महा  आत्मा  है वही,वही साधु  शुचि वीर।।

वही साधु शुचि वीर, नहीं तन वसन रँगाता।

जन-जन में नर देव,सदा ही नाम कमाता।।

'शुभम्'न उनको काट,सकेगा कपटी  कीड़ा।

करता नित उपकार,औऱ हरता पर पीड़ा।।


🪴 शुभमस्तु !


21.10.2022◆7.45  आरोहणम् मार्तण्डस्य।

गुरुवार, 20 अक्तूबर 2022

नित दीप जला उर मंदिर में 🛕 [ दुर्मिल सवैया ]

 433/2022

 

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छंद-विधान:

1.24 वर्ण का वर्णिक छंद।

2.आठ सगण सलगा =(II$ ×8).

3.12,12 वर्ण पर यति।प्रत्येक चरण में 24 वर्ण।

4.अंत में समतुकांत अन्त्यानुप्रास।

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✍️ शब्दकार ©

🛕 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                         -1-

चलते प्रभु  राम  सुबंधु सिया,

                    सँग वीर महा बजरंग बली।

दसकंधर - बंधु  विभीषण हू,

                जिनके सँग वानर सेन   चली।।

वन -मारग में अति सोभि रहे,

               छवि मोहि रही द्रुम कुंज  कली।

सुनि  औधपुरी  सरसाइ उठी,

                 हरषीं सब मात सचेत  भली।।


                         -2-

मुद  मंगल  गान  भए  पुर में,

                      नर- नारि बड़े हरषाइ  रहे।

नभ बीच खड़े  सुर लोगनु में,

                     सद फूल घने बरसाइ  लहे।।

हनि  रावण, राम चले घर कूं,

                निज हाथनु माल सिहाइ  गहे।।

हर एक घड़ी  लगि बोझ रही,

                    सब आपस में बतराइ  कहे।।


                         -3-

मन में सुख सौरभ आइ मिलौ,

                अब आजु दिवारि कहें    सिगरे।

घर  भीतर   बाहिर  दीप  जरें,

                  वन बाग तड़ागनु के   नियरे।।

अपने  प्रिय राम  सुबंधु सखा,

                    सँग हैं बजरंग बली सिय   रे।

अब आइ  रहे वन - मारग में,

                  सब देंइ सुझाव पिया तिय रे।।


                         -4-

सरजू तट पै  अति  भीर भई,

                   पुर के नर नारि जुरे    हरसें।

कर  माल  लिए  उर  मोदमई,

                    बिन देखत नैन  गए   तरसें।।

अगवानि करें  बढ़ि  मारग में,

                सिय आइं त पाँयनु  कूं  परसें।

गलबाँह  लगाय मिलें प्रभु से,

                 छुइ देह बढ़ें अपने   कर   सें।।


                         -5-

जप रे  मन राम  हि राम सदा,

                  रमता जड़ चेतन बीच   सदा।

मत  सोवत  जागत भूल कहूँ,

                  भरमा मत मूरख जीव  कदा।।

नित   दीप  जला उर मंदिर में,

                  उजियार  भरे उर में    प्रमदा।

लख  यौनि  न  जीव यहाँ भटकै,

            शुभ  मोख  मिलै नर कूं   शुभदा।।


🪴 शुभमस्तु !


20.10.2022◆5.45 

पतनम मार्तण्डस्य।

पाँच दृश्यिकाएँ 🪔 [ अतुकांत ]

 432/2022


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✍️ शब्दकार ©

🪔 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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               दृश्यिका :1

दिया अकेला

जलता रहा

रात भर,

जूझते हुए

हवाओं से,

बस दिया ही दिया

प्रकाश।


                दृश्यिका :2

चुगलियाती हुई

चार चतुर जनानियाँ

गले में देख उसके

स्वर्ण हार,

जलती रहीं,

दिया ही दिया

मानसिक दूषण।


             दृश्यिका: 3

नहीं देखी

स्वनिष्ठा 

कर्मनिष्ठा,

पड़ौसी  देखकर

अपना पड़ौसी

जल भुन कर

कोयला हुआ,

दिया ही दिया,

समाज को 

भयानक विष।


           दृश्यिका :4

साथ- साथ खेले

लड़े -भिड़े 

बालक छोटे - छोटे,

क्षण भर में

फिर खेले एक साथ,

दिया ही दिया

प्रेम औऱ सौहार्द्र।


           दृश्यिका : 5

प्रगतिशील 

विकासशील 

कहता मानव,

टंगड़ी मारकर

गिराने में कुशल,

दिया ही दिया है

असमानता,

 तुच्छ-बड़प्पन,

अहंकार।

वाह रे मानव!


🪴 शुभमस्तु !


20.10.2022◆ 8.00 आरोहणम् मार्तण्डस्य।

मुक्ता ढूँढ़ रहा हूँ! ⚪ [ गीत ]

 431/2022

 

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✍️ शब्दकार ©

🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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धीरे - धीरे उतर सिंधु में,

मुक्ता ढूँढ़ रहा हूँ।


नहीं   जानता  कहाँ  मिलेंगे,

चमकीले   वे   मोती।

चमक देख आँखें चुंधियातीं,

जिनकी कीमत होती।।

तट से  नीचे   जाता  भीतर ,

जागृत खूब बहा हूँ।


परखी परख किया करते हैं,

तट के सिल क्या जानें।

जिनका हृदय पंप लोहू की,

वे क्यों कब पहचानें!!

प्रसव-पीर-सी पल-पल झेली,

अंतर्वेद दहा हूँ।


अक्षर, शब्द, छंद ,वाक्यों का,

माँ देती   शुभ बीड़ा।

भावों   के   रँग   में  रँगती  है,

मम अंतर की पीड़ा।।

काव्य चमक से चर्म-चक्षु की,

पीड़ा गहन सहा हूँ।


आओ   मीत  साधना कर लें,

फल मीठा होता है।

'शुभम' शस्य वह लाता घर में,

बीज स्वस्थ बोता है।।

कठिन   साधना ने रँग  लाया,

युग में आज लहा हूँ।


🪴 शुभमस्तु !


19.10.2022◆8.40 प.मा.

दीप क्या बारें ! 🏕️ [ गीत ]

 430/2022

 

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✍️शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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फूस छप्पर पर नहीं है,

झाँकता है  सूर्य ऊपर,

दीप क्या बारें?


आज  खा मन में लगी है,

क्या करें कल क्या करेंगे,

देख  व्याकुलता  बढ़ी  है,

दुःख   निज   कैसे  हरेंगे,

विपति ने की है चढ़ाई,

बंद बच्चों  की  पढ़ाई,

क्यों नहीं  हारें!


दे   नहीं   विधना   गरीबी,

पाँव  दे  तो   सौर  भी  दे,

भूख  से हम बिलबिलाते,

पेट   दे   तो  कौर   भी  दे,

क्या दिवाली दौज अपना,

है   हमारी   मौज  सपना,

स्वप्न हैं कारें।


चीथड़ों     में   झाँकती   हैं,

देह की पसली सभी ये,

आँसुओं   को   पी  रही  हैं,

संगिनी जीवन नई ये,

माँग कर जीना न आता,

स्वेद से   दो  बीज पाता,

प्रभु हमें तारें।


🪴शुभमस्तु !


19.10.2022◆ 7.30 प.मा.

सबके अलग उजाले 🕯️ [ गीत ]

 429/2022

   

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✍️ शब्दकार ©

🦢 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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अलग-अलग  दीवाली सबकी,

सबके अलग उजाले।


काले धन से भरी कोठियाँ,

मनों टनों में सोना।

चाभ रहे हैं शुष्क रोटियाँ ,

उन्हें सुखों का रोना।।

उपहारों  में  मेवा।

सेवक करते सेवा।।

तरस रहे रहने  को बँगले,

सब्जी बिना मसाले।


एक  बहाता  उधर पसीना,

दो रोटी के लाले।

सुख की नींद पत्थरों में भी,

हाथ पैर में छाले।।

चिंता नेंक न कल की।

टी वी ,कारों,नल की।।

पैर  सौर  की  सीमा  में हैं,

सोता लगा न ताले।


दिये बनाने  वाले   की   भी,

है अपनी दीवाली।

खील-खिलौने उसे  चाहिए,

तिया अधर में लाली।।

छोटे-   छोटे  सपने। 

पूर्ण किए कब रब ने??

ऊँची सजी  दुकान देखकर,

 हो जाते सब काले।


जहाँ  अमीरी  औऱ गरीबी,

बीच बनी दीवारें।

काली  श्वेत लक्ष्मी  के घर,

कैसे देश सुधारें।।

उर के चूल्हे जलते।

लोग ऐंठ में चरते।।

'शुभम्' दिखावे की बातें सब,

उर में उगते भाले।


🪴शुभमस्तु !


19.10.2022◆ 5.00पतनम मार्तण्डस्य।

प्रकाश पर्व दीवाली 🕯️ [ दोहा ]

 428/2022



[ दीपक,वर्तिका,दीवाली, रजनी,रंगोली]


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✍️ शब्दकार ©

🪔 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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        🕯️ सब में एक 🕯️

गुरु दीपक सत ज्ञान का,भरता दिव्य प्रकाश

अंधकार  उसके  तले,रह कर करता    नाश।

 मात पिता दीपक सदा,निज संतति के हेतु।

अंधकार  करते  नहीं, सदा सजीवन  सेतु।।


जननी सुत हित वर्तिका,जलती सभी प्रकार

नेह  नहीं  चुकता  कभी,नहीं मानती   हार।।

बिना वर्तिका तेल क्यों,देता  कभी प्रकाश?

दीपक  के आधार में,भरा- भरा  हो  नाश।।


नेह-दीप   उज्ज्वल करें,दीवाली  का  पर्व।

झोंका  लगे  न  वात का,रक्षा करें   सगर्व।।

अंतर का तम  दूर कर,हितकारी  हों  मीत।

दीवाली   के  दीप  भी, गाएँगे   नवगीत।।


कार्तिक-मावस पावनी,रजनी सौम्य ललाम।

दसकंधर  को  जीत  कर,लौटे  सीता  राम।।

रजनी का तम चीर कर,दीपक करे प्रभात।

संग उषा ले भानु का,रथ लाया  हय  सात।।


गेह - सुमंगल दायिनी, रंगोली  शुभ  नीक।

दीवाली  के दीप  की,पावन प्रबल  प्रतीक।।

गृहणी की रचना 'शुभम्', रंगोली  उपहार।

सोह रही घर-द्वार में,अनुपम विविध प्रकार।


 🕯️   एक में सब   🕯️

रंगोली     दीपक    सजे,

                         दीवाली अभिराम।

जले  वर्तिका  नेह  की,

                    रजनी   बनी  सकाम।।


🪴शुभमस्तु !


18●10●2022◆10.00

पतनम मार्तण्डस्य।


मंगलवार, 18 अक्तूबर 2022

स्याम दीवाली दीप तरंग [मदिरा सवैया]

 427/2022



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छंद विधान:

1. 7 भगण($II ×7) + गुरु ।

2. 10,12 पर यति।

3.चार चरण सम तुकांत।

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✍️ शब्दकार ©

🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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                         -1-

कातिक मावस की करते,

                 हम आस दिवारि दिया दमकें।

द्वार  सजें  सिग  झालर  तें,

               नव जोति पटाखनु की  चमकें।।

खील   खिलौननु   पूजत   हैं,

                   सुत गौरि गणेश रमा  सबकें।

भीजि उठें  धन - वृष्टि चहें,

                बिन काम रहें धन की  धमकें।।


                         -2-

आजु  चलौ  ब्रज गामनि  में,

                 घर -द्वारनु पै शुभ दीप  जलें।

आवत   जाउ   सखा   सिगरे,

                   अँधियार भयौ हुशियार चलें।।

स्याम   सुझाइ    रहे   सबकूँ,

            शुचि काजनु  के फल जाइ    फलें।

जो   न   करें  जग में शुभता,

                अपने - अपने सिग हाथ मलें।।


                         -3-

दीप   जराइ     उजास   भरौ,

                      अँधियार कहूँ नहिं शेष रहै।

होइ    प्रदूषण   जौ    घर   में,

                सिग  देंइ बुहारि अकूत   दहै।।

कोइ     रसायन   माहुर    है,

                  भरि डारि सरोवर  नीर   बहै।

कौन  जु  मूरख   मानुस  यों, 

                दुरवास  सड़ाँधनु  पाइ    सहै।।


                         -4-

जाइ   नदी   तट   पै   विहरें,

                  बहु दीपनु माल तरंग  बहै।

आजु   दिवारि   बुलाइ  रही,

                  नटनागर गोपिनु सों जु कहै।।

वीचिनु   बीच     बहे   तिरतौ,

                  इक पंकज राधिक देह लहै।

सूँघत   होसु   न   स्याम  रहौ,

                  जब बोलत कीरनु दाह दहै।।


                         -5-

स्याम   चढ़े तरु  - शाखनि में,

                    जमुना तट एक  कदंब   रहै।

न्हाइ   रहीं   तहँ  गोप - जनी,

                   बिन चीर धरे बतराति  अहै।।

नीक   नहीं  बिन  चीर  यहाँ,

                   खग, वानर या नर  देखत है।

है  न   हया   तुमकूँ    इतनी,

                 यह बोध न और तुम्हें   बकहै।।


🪴 शुभमस्तु !

18.10.2022◆11.00आरोहणम्

मार्तण्डस्य।

मानव योनि: एक चरित्र 🌱 [ दोहा ]

 426/2022


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✍️शब्दकार ©

🦢 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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मात्र  देह नर   की  नहीं,देती मानव    रूप।

ज्ञान बिना नर  ढोर है,गिरता तम के   कूप।।

नर तन के अनुरूप ही,कर्म उचित करणीय।

कर्म वही करना 'शुभम्',संग राम ज्यों सीय।


नर तन में हैं जौंक भी,मच्छर, डेंगू,  गिद्ध।

कपड़े  रँगने  से  नहीं, बनता कोई सिद्ध।।

नर तन का अपमान कर,बना रहा तू  कीट।

योनि मिलेगी कीट की,रौरव नरक  घसीट।।


मनुज  योनि  तेरी नहीं, निर्मल एक  चरित्र।

सेवा से  उज्ज्वल बना, महकेगा तब इत्र।।

नर नारी कुछ नाम को,मिली नियति से देह।

जीवन जिनका  ढोर-सा,रहे घूर  के  खेह।।


परजीवी बन चूसता,जनक जननि का खून।

संतति  सूकर श्वान-सी, जीवित  टेलीफून।।

अगली योनि सुधारना,इसी देह  का  काम।

दाग  लगा  नर  देह में,मिले नहीं  विश्राम।।


मात,पिता, गुरु का करे, जो संतति अपमान

सात जन्म पशु कीट बन, सोता कीचड़ सान

विगत योनि में हो गया,बुरा अशुभ यदि कर्म

उगे  कंडुआ  गेह  में,  करता पाप   अधर्म।।


जगत  सराहे   कर्म  को,नहीं रूप   या  देह।

'शुभम्' कर्म से जीव का,बनता स्वर्ग सु-गेह।


🪴शुभमस्तु!


17.10.2022◆9.00प.मा.

सोमवार, 17 अक्तूबर 2022

जननी के सँग तात बनाए 🪦 [ गीतिका ]

 425/2022


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✍️ शब्दकार ©

🪦 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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अच्छे  ये   दिन -  रात बनाए।

संध्या कनक प्रभात  बनाए।।


सूरज   कभी   उजाला   देता,

काले   तम   के  घात  बनाए।


टिक-टिक कर सुइयाँ हैं बढ़तीं,

आरोहण    सँग   पात   बनाए।

        

खिलतीं कलियाँ सुबह फूल की,

रजनी   में   मुरझात   बनाए।


शीत  चंद्रिका  है  रजनी  की,

तारे    लिए    बरात    बनाए।


गर्मी,   पावस,   वर्षा,  जाड़ा,

शुभ वसंत  मधु  वात  बनाए।


'शुभम्'  ईश  तव  रचना ऐसी,

जननी के   सँग  तात  बनाए।


🪴 शुभमस्तु !


17.10.2022◆1.45 प.मा.

शरद छा गई ! 🪷 [ बालगीत ]

 424/2022

 

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✍️ शब्दकार ©

🪷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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कार्तिक  की  चाँदनी  है  नई।

शरद सुहानी सुखद  छा गई।।


जब सूरज   अस्ताचल जाता।

स्वर्ण साँझ उजियारा भाता।।

नीड़ों में जा  छिपे  खग  कई।

शरद सुहानी सुखद छा गई।।


धीरे  -  धीरे   ओस   बरसती।

नहीं  दिखती किंतु सरसती।।

अब न तपन है  जून या  मई। 

शरद सुहानी सुखद छा गई।।


 भीगी  धरती  फसलें  आलू।

नहा    रहे    पौधे     जर्दालू।।

नहीं   पुकारे   मनुज   हा दई!

शरद सुहानी सुखद छा गई।।


निकले कंबल, शॉल, रजाई।

ओढ़ें    बाबा,   ताऊ,  ताई।।

कोहरा - चादर तनी आ छई।

शरद सुहानी सुखद छा गई।।


बाल  काँस   के   बूढ़ी  वर्षा।

मूँज गई  झुक मन भी हर्षा।।

'शुभम्' पुकारें  ग्वाल गौ हई!

शरद सुहानी सुखद छा गई।।


🪴 शुभमस्तु !


17.10.2022◆12.45 पतनम मार्तण्डस्य।


ईश तुम्हें हम कैसे जानें 🪂 [ बालगीत ]

 423/2022


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✍️ शब्दकार ©

🪦 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम्'

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ईश  तुम्हें   कैसे   हम   जानें!

धरती पर  रह  कर पहचानें!!


सूरज बन तुम सुबह सजाते।

संध्या  को छिप हमें सुहाते।।

निशि  में  चंद्र  चाँदनी  तानें।

ईश  तुम्हें   कैसे  हम  जानें!!


तुम्हीं हवा  हो ,धरती , पानी।

रोटी  सब्जी   तुम्हें  पकानी।।

बनकर आग  ईश  हम  मानें।

ईश   तुम्हें  कैसे  हम  जानें!!


पेड़ों  पर फल बन कर आते।

मीठे   आम,   पपीते   भाते।।

अंगूरों   में  रस   की   खानें।

ईश  तुम्हें   कैसे   हम  जानें!!


तुम अम्मा   के   दूध   हमारे।

रूप  पिता के   तुम्हीं  दुलारे।। 

जिनके कंधे  चढ़  सुख छानें।

ईश  तुम्हें  कैसे   हम  जानें!!


रूप  तुम्हारा   कभी न देखा।

झूठा   सब   ग्रंथों का लेखा।।

कविजन'शुभम्' देश के भानें।

ईश  तुम्हें  कैसे    हम  जानें!!


🪴शुभमस्तु !


17.10.2022◆12.15 

पतनम मार्तण्डस्य।

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...