शनिवार, 26 मई 2018

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने
नदी बह रही है,
बहते -बहते कुछ कह
रही है,
कभी कलकल
कभी हलचल
कभी समतल प्रवाह ,
कभी सूखी हुई आह,
नदी में चल रही हैं
कुछ नावें,
अरे आप भी
कुछ समझें
कि सब कुछ
हमीं बतावें,
नदी कभी सूखी है,
कुछ नावें सुखी
कुछ दुःखी हैं,
पानी भी नहीं है
नाव में कभी कभी
पर नावें चल रही हैं,
अपनी मंजिल
पर बढ़ रही हैं,
बिना पानी के ही
लोग गोते लगा रहे हैं,
हँस रहे नावों के
गीत गा रहे हैं,
नावों पर फहरा रहे हैं
कुछ झंडे,
मतवाले मस्ती में
मुस्टंडे,
अपना झंडा लिए
जयकारे लगा रहे,
दूसरी नाव पलटने
की होड़ मचा रहे।

आने वाली है बरसात
मेढ़क उछलने लगे हैं,
कभी नदी में कभी
बाहर मचलने लगे हैं,
मछलियां बेचारी लाचार हैं
बिना पानी जीना दुश्वार है,
पर नावें नदी में
चली जा रही हैं,
हवा के रुख को
भांपने लगे हैं जीव,
जिनकी अपनी नहीं
है कोई नींव ,
और किनारे पर
स्थित मैं देख
रहा हूँ,
ये नदी
ये नावें ,
ये उछलते
हुए मेढ़क,
तड़पती सिसकती मछलियां
और नावें चली जा रही हैं
चलती चली
जा रही हैं,
अनिश्चित भविष्य की ओर,
न जाने कब हो अपनी भोर।

और मैं किनारे पर भौंचक
खड़ा सारा दृश्य
देख रहा हूँ ,
देखे जा रहा हूँ।
क्योंकि मेरी आसक्ति
न नदी के अंधे प्रवाह में है
और ही झंडे वाली नावों में।

शुभमस्तु
✍🏼डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

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