मंगलवार, 30 नवंबर 2021

नीति वचनामृत 🌻 [ दोहा ]

   

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🌹 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

   ☘️    प्रदत्त शब्द    ☘️

[   सत्य ,संकट ,आस्था,प्रेम, विष   ]

        

       🍁   सब में एक 🍁

सत्य ईश का रूप है,अखिल सृष्टि विख्यात।

मात, पिता,गुरु सत्य हैं,आभा रूप प्रभात।।


सत्य नहीं छिपता कभी,छिपता झूठ कुकृत्य।

सत्य उजागर भानुवत,दीपक ज्योति अपत्य।।


संकट यदि आए  कभी,  तजें न   उर का धीर।

सुख न अमर होता कभी,दुख भी अमर न मीर।।


प्रभु सुमिरन मत भूलना,यदि हो संकट काल।

एक   वही  त्राता अभय,  बन जाता शुभ ढाल।।


मात, पिता, गुरु,ईश  की, आस्था की पतवार।

करती   तरणी   पार  वह,  बहती जीवन धार।।


आशा  हो स्थित जहाँ,प्रतिपल प्रणत प्रणाम।

वहीं   भक्ति है प्रेम है,सत आस्था का  धाम।।


प्रेम जहाँ  निश्छल  बसे,बसते उसमें  ईश।

राम भक्त हनुमान जी,जय बजरंग कपीश।।


पति-पत्नी  के  प्रेम का,नाम प्रणय हे मीत।

प्रेम रहे अविचल सदा,जीवन है    संगीत।।


टूट गया  विश्वास  जो,मानो विष का  बिंदु।

छू  गौतम सहधर्मिणी, बना पातकी  इंदु।।


मिष्ट वाक अमृत सदा,कटुक वाक विष बाण

एक त्राण दे मनुज को,हरता दूजा   प्राण।।


            🌻 एक में सब🌻

विष न प्रेम में घोलिए,

                      यही सत्य है तात।

संकट में त्यागें नहीं,

              'शुभम'   आस्था भ्रात।।


🪴 शुभमस्तु !


३०.११.२०२१◆१०.४५आरोहणं मार्तण्डस्य।


सोमवार, 29 नवंबर 2021

सजल 🎙️

 

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

समांत-इयाँ।

पदांत -अपदान्त।

मात्राभार -20

मात्रा पतन- *

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

खूब      होने      लगी    हैं  यहाँ  चोरियाँ।

दिल    चुराने    लगी     हैं सुघर    गोरियाँ।।


एक    ही    दिल    तुम्हारे   सीने   में   है,

ये   चुरा   ही   न लें  शहर  की    छोरियाँ।


पाँव -  कंदुक - सा  तुमको समझा  सदा,

हो न     जाएँ    कहीं     चंद बरजोरियाँ।


आँख    के   द्वार   से    देह  में  जा    घुसें ,

बैठ     जाती     हैं   ये  उर   की   पौरियाँ।


मत   दिल  में    घुमाना -फिराना   इन्हें,*

दूर     भागें     फ़टाफ़ट    बना  मोरियाँ।


सूत्र   मंगल   के     खंडित करती   रहीं,

बिखराती         हुई        सिंदूरी  रोरियाँ।


मत   चखना   'शुभम'   वासनाई   जहर,*

बन    जाएँ     दिवाली    कहर     होरियाँ।*


🪴 शुभमस्तु !

२९.११.२०२१◆१२.४५ पतनम मार्तण्डस्य।

रविवार, 28 नवंबर 2021

ग़ज़ल ☎️

 

◆●◆●◆●◆◆◆●◆●◆●◆◆◆◆

✍️ शब्दकार ©

☎️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆●◆●◆◆◆●◆◆◆●◆●◆●◆●

जमाने   की  नजर  में   वे चुभने  लगे।

खार   उनके  बदन  पर हैं उगने लगे।।


खाक   उपले   हुए   वे   अंगारे  बने,

राख  बन  के   सबा   में  उड़ने  लगे।


चौंधियाती   उन्हें   रूप   की धूप    ये,

पड़ते  इक   झलक   वे बिदकने  लगे।


आतिश - सा  जलाता   है रुतवा  अगर,

साफ  है    वे  तपन  से  सुलगने    लगे।


आदमी ,आदमी  से इस कदर है  भुना, 

ज्यों  चने  भाड़ में जल उछलने   लगे।


बन  गए   खाते - पीते के दुश्मन  सभी, 

बेंट    से   वे   समूचे    उखड़ने   लगे।


बेहतर    हैं   'शुभम' ढोर  डंगर  सभी,

देख  मुस्कान  को  लोग  जलने   लगे।


🪴 शुभमस्तु !


२७.११.२०२१◆११.००आरोहणं मार्तण्डस्य।

आसमान में तारे ✨ [बाल कविता ]

 

★★★★★★★★★★★★★★★

  ✍️शब्दकार

✨ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

★★★★★★★★★★★★★★★

आसमान  में  टिमटिम   तारे।

लगते  नयनों को अति प्यारे।।


भानु रोज  अस्ताचल   जाता।

अँधियारा वह   लेकर आता।।


तारे   खेलें   आँख   मिचौनी।

लगते हैं मटकी   की  लौनी।।


सारी  रात    नहीं    सोते  हैं।

हँसते  सदा  नहीं   रोते    हैं।।


झलकें    जैसे    फूले   बेला।

बिखरा  है   अंबर   में  रेला।।


नदिया के जल के  उजियारे।

आसमान    के   सारे   तारे।।


सँग में    आते    चंदा  मामा।

पीला  पहने   हुए    पजामा।।


'शुभम' न दिन में वे दिख पाते।

जाने  कहाँ    चले   सब जाते।।


चमक   रहे  वे  अद्भुत  न्यारे।

आसमान में झिलमिल तारे।।


🪴 शुभमस्तु !

२७.११.२०२१★९.००आरोहणं मार्तण्डस्य।

आसमान के तारे 🌟 [ बालगीत ]

 

★★★★★★★★★★★★★★★

✍️ शब्दकार ©

🌟 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

★★★★★★★★★★★★★★★

आसमान  में  झिलमिल तारे।

लगते हैं  आँखों   को  प्यारे।।


सूर्य अस्त  पश्चिम   में  होता।

बीज शीत के जग  में बोता।।

फैले  हुए   सघन   अँधियारे।

आसमान में झिलमिल तारे।।


खेल रहे ज्यों आँख  मिचौनी।

श्वेत  रंग    के  जैसे    लौनी।।

जागें   सारी    रात   न   हारे।

आसमान में झिलमिल तारे।।


बेला  के    फूलों- से झलकें।

धीरे - धीरे    हिलतीं  पलकें।।

सरि सरवर को कर उजियारे।

आसमान में झिलमिल तारे।।


तारों   के   सँग   चंदा  मामा।

आते पीला   पहन   पजामा।।

देते   'एक रहो'      के    नारे।

आसमान में झिलमिल तारे।।


'शुभम'न दिन में वे दिख पाते

जाने   कहाँ   चले  वे  जाते!!

करते दृग से   सभी   किनारे।

आसमान के झिलमिल तारे।।


🪴 शुभमस्तु !


२७११२०२१★८.४५आरोहणं मार्तण्डस्य।


शुक्रवार, 26 नवंबर 2021

इंद्रधनुष है जीवन 🌈 [ अतुकान्तिका ]


■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🌈 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

जीवन और क्या है!

एक इंद्रधनुष ही तो है,

बदलते रहते हैं

जिसमें रंग,

आकाशीय इंद्रधनुष की तरह

नहीं हैं इसमें 

मात्र सप्तरंग।


जीवन के इंद्रधनुष में

रंग हैं हजारों लाखों,

कितना भी छिपा लो

कितना भी ढाँको,

उन्हें बाहर आना है,

मानव के जीवन का

ऐसा ही ताना - बाना है,

जितना भी छिपाना है,

रंगों को उभर आना है।


बादलों से बरसात के

बाद आकाश में

मन मोहक इंद्रधनुष

उभरते हैं,

जो प्रकृति सौंदर्य में

नए रंग भरते हैं,

मानव - जीवन में

सदा बरसातें हैं

सुखों की

कभी दुःखों की,

इंद्रधनुष भला

 क्यों नहीं अपना रंग

दिखलायेंगे! 

लाल हरे पीले नीले

काले धूसर रंग 

उभारेंगे!


जीवनीय इंद्रधनुष का

नियंता कोई और है,

अन्यथा आदमी

गिरगिट नहीं बनता,

आस्तीन का 

साँप भी नहीं  बनता,

मधुर स्वरभाषी

कोयल,पपीहा,मयूर ही बनता,

नियति वश मिला है

मानव जीवन नर देह,

पर बना रहा है उसे

क्यों क्रूरताओं का गेह,

इसीलिए कभी -कभी

आता है नवरूपों में मेह।


आएँ ,

अब जीवन को

विचार कर 'शुभम 'बनाएँ,

जो हुआ उसे भूल जाएँ,

जीवन में नए -नए

सप्त रंगों के

इन्द्रधनुष उगाएँ।


🪴 शुभमस्तु !


२६.११.२०२१◆११.०० आरोहणं मार्तण्डस्य।


गुरुवार, 25 नवंबर 2021

ये शोर क्यों है बरपा! 🦜 [ अतुकांतिका ]

 

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🦜 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

क्यों परिंदे 

चिचियाने लगे हैं,

कानफोड़ू शोर 

मचाने लगे हैं,  

रँभाने लगीं हैं गाय गोरू

बकरियाँ मिमियाती हैं,

दुहवाती हुईं भैंसें

क्यों बिदक जाती हैं!


खिलंदड़ गोरियाँ ,

गाँव की छोरियाँ,

अब कुलाँचें नहीं भरतीं,

डेढ़ हाथ के घूँघट वालियाँ

नव यौवनाएँ 

रहतीं हैं छिपती - लुकती,

न जाने क्यों

गाँव के सीधे - सादे छोकरे

इठलाने - से लगे हैं,

पड़ौसिनों भौजाइयों को

ताकने लगे हैं,

बालों में तेल,

चश्मे आँखों पर 

चढ़ाने लगे हैं।


चौकन्ना-चौकन्ना-सा है

हर प्रौढ़ - प्रौढ़ा,

व्याकुल हिरनी - सी है

हर घर की अनूढ़ा,

सावधान करने में लगे हैं

बुढ़िया - बूढ़ा,

कहाँ से आ गया

नए जमाने का

हमारे गाँव में कूड़ा।


भूल गए हैं बालक

गुल्ली डंडा ,

काँच की गोलियों से

पूस माघ की धूप में

गुच्ची पाड़ा,

बालिकाएँ नहीं खेलतीं

गुट कंकड़,

झाँझी या फूल तरैया ,

क्योंकि हाथ -हाथ में

 है  जादू की डिबिया।


सुना ही नहीं 

देखा भी है  सबने,

आए हैं कुछ लोग

शहर से दिखलाते हुए

नए - नए सपने,

गाँव की हवा ही इसलिए

हर रोज  बदल रही है,

पछुआ  की पवन 

अब गरमाने ,रिझाने ,

 फुसलाने,तपाने लगी है,

उससे भी अधिक

हमें  'शुभम'  सताने लगी है!


🪴 शुभमस्तु !


२५.११.२०२१◆३.३० 

पतनम मार्तण्डस्य।

ग़ज़ल 📀

 

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

📀 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

परिंदे   चिचियाए    डंगर  रँभाने  लगे।

लोग  शहरों  से  जब इधर आने  लगे।।


यहाँ  पछुआ   के  दौर  भले  ठंडे   थे,

चली   पुरवाई   वदन   गरमाने   लगे।


गोरी  छोरियाँ  भी   कुलाँचें  न  भरतीं,

भोरे    छोकरे    सुघर    इठलाने   लगे।


आदमी  औरतें    सब   चौकन्ने हुए  हैं,

शहर  के    लोग  सपन दिखलाने  लगे।


'शुभम'  जानते   हैं  वे   गँवई भी   नहीं,

घोल कर शहद  वचन  क्यों सुनाने लगे।


🪴 शुभमस्तु !


२५.११.२०२१◆२.३० 

पतनम मार्तण्डस्य।


बुधवार, 24 नवंबर 2021

भक्ति, साधना ,दुःख, विचार 🪴 [ दोहा ]


■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

     🪔  प्रदत्त शब्द  🪔

[ दुख,भक्ति,साधना,मानव,विचार ]

   

            ☘️  सब में एक  ☘️


दुख दिन है सुख रात है, देता दुःख उजास।

सुख में सोता आदमी, बना ताश- आवास।।


दुख में रटता राम को,सुख में दिखता काम।

दुख जाग्रति है मूढ़ मन,सुख में मनुज-विराम


भक्ति करें निज इष्ट की, मत हो मूढ़ गुलाम

नेता अंधे  अर्थ  के,पाल  न उनका   झाम।।


विमल भक्ति जो ईश से,मिलते हैं भगवान।

राजनीति  के  खेल  में,टूटें सुर  लय  तान।।


साधक करते साधना,बाधक हैं अहि कीट।

चंदन नित निर्विष तना, शीतलता से पीट।।


प्रेम  राग की साधना, सहज  नहीं है राह।

एकनिष्ठता  हो  सदा, मात्र प्रेम  की  चाह।।


मानवता यदि मर चुकी,क्या मानव का मोल

मानव तन में आदमी, बस चमड़े का खोल।।


जीवित  मानवता अभी, धरती पर हे मीत!

मानव से दुनिया चले,उर में प्रेम  पुनीत।।

  

जैसे  भाव विचार हों, बनता  वैसा   जीव।

मानव तन में क्यों बना,रे नर कायर क्लीव!!


धी निज पावन कीजिए,रखिए शुद्ध विचार।

स्वयं कुल्हाड़ी मार मत,करके पाँव प्रहार।।

       

        ☘️  एक में सब  ☘️

  

भक्ति करें दुख में सभी,

                  करें    साधना    लोग।

पावन रहें विचार यदि,

                      रहे न मानव  -  रोग।।


🪴 शुभमस्तु !


२४.११.२०२१◆१०.१५आरोहणं मार्तण्डस्य।


पारस परिणय प्रीति का 🌹 [ दोहा ]


■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🌹 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

     💛  प्रदत्त शब्द  💛

[परस, परिणय,प्रणय,प्रियतमा, प्रीति]

       

           ❤️ सबमें एक ❤️


कंचन काया कामिनी,किया परस जब अंग।

अवगुंठन ज्यों ही उठा,लाल गाल  का  रंग।।


अभी बहुत  व्यंजन रखे,गहा हाथ  में  कौर।

परस नहीं मोदक प्रिये,ले लूँगा  फिर  और।।


परिणय को  मत जानिए, बंधन  मेरे मीत।

जीवन भर  गाए युगल,है  वह पावन गीत।।


परिणय-वेला आ गई, अंग-अंग में ज्वार।

प्रियतम  खोलेगा  प्रिये,बंद नेह   के   द्वार।।


प्रणय-निवेदन कर रही, उमड़ा प्रेम अनंत।

हृदय  युगल हों एक ही,बाँहों में  ले  कन्त।।


प्रणय बिना दांपत्य का, रूखा जीवन ढेर।

लगा  बेर  के संग ज्यों,चिकना कंचन केर।।


पत्नी ही बस प्रियतमा,नहीं और को ठौर।

लेने को जिसको गए,बाँध शीश पर मौर।।


पत्नी प्रेयसि प्रियतमा,बसते जिसमें प्राण।

धर्म कन्त का एक ही,कर आजीवन त्राण।।


प्रीति लगी तुमसे अमर,कभी न भूलें कन्त।

मम उर के वासी रहो, अपना नेह  अनंत।।


'शुभम' तुम्हारी प्रीति वश,जीवन है खुशहाल

प्रभु से विनती है यही,मिले ताल   से  ताल।।

        

         ❤️  एक में सब   ❤️


परिणय पावन प्रीति का,

                   हुआ परस तव   अंग।

  प्रणय समर्पण है तुम्हें,

               न      हो प्रियतमे!   दंग।।


🪴 शुभमस्तु !


२४.११.२०२१◆७.१५आरोहणं मार्तण्डस्य।


मंगलवार, 23 नवंबर 2021

नेक स्वच्छ संदेश 🍃 [ दोहा - गीतिका ]

 

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

लिए हाथ में डाभ का,झाड़ू एक    पुनीत।

सूखे दल सब झाड़ती, बाला एक अभीत।।


देती  पावन  प्रेरणा, स्वच्छ रखें  घर   द्वार,

देवालय  घर -घर  बने, गाएँ मंगल   गीत।


बाहर भीतर स्वच्छ हों,मन को मिले सु शांति

मानव -  मानव  में रहे,मन की साँची   प्रीत।


यदि अपना परिवेश भी,रहता दूषित क्लांत,

कैसे   दें   संदेश  हम,   कैसी पावन   नीत।


जहाँ स्वच्छता - वास है,रोग न  आते  पास,

गाँव   नगर फूलें- फलें,स्वच्छालय की जीत।


हरियाली  हो  खेत  में,महक रहे  हों  फूल,

अलि दल हों गुंजारते,बनें प्रकृति के  मीत।


'शुभम'धरा,सागर,गगन,में हो स्वच्छ प्रभात,

आतिश धूम न हो कहीं,पावस,गर्मी,  शीत।


🪴 शुभमस्तु !


२३.११.२०२१◆१.३०पत नम मार्तण्डस्य।

धूप गुनगुनी 🌄 [ बालगीत ]

 

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🌄 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

धूप  गुनगुनी  छत  पर आती।

हम सबको वह खूब सुहाती।।


जब निकले  सूरज का गोला।

लगता कितना भोला -भोला।

अपनी चादर   धूप  बिछाती।

धूप गुनगुनी  छत पर आती।।


लंबी - चौड़ी   बिछा  चटाई।

बैठे    बाबा ,    दादी,  ताई।।

अम्मा  भी ऊपर  आ जाती।

धूप गुनगुनी छत पर आती।।


अगहन का जाड़ा अब आया।

शीत-लहर की अद्भुत माया।।

मूँगफली मुनिया नित खाती।

धूप गुनगुनी छत पर आती।।


माँ ने छत  पर दही  बिलोया।

मट्ठे का  मुँह  जल  से धोया।।

तैर  छाछ पर लवनी  आती।

धूप गुनगुनी छत  पर आती।।


देखो  खेल    खेलते   पिल्ले।

धूसर, काले ,गौर     मुटल्ले।।

कुतिया माँ निज दूध पिलाती।

धूप गुनगुनी  छत पर आती।।


'शुभम'बाजरे की  सद रोटी।

डाल छाछ में   खाते मोटी।।

शकरकंद की  खीर लुभाती।

धूप  गुनगुनी छत पर आती।।


🪴 शुभमस्तु !


२३.११.२०२१◆११.००

आरोहणं मार्तण्डस्य।


सावन के अंधे 🤢 [ व्यंग्य ]

  

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

 ✍️ व्यंग्यकार © 

 😎 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम ' 

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■ 

  'सावन के अंधे को सब हरा - ही- हरा दिखाई देता है'। यह कहावत आज- कल से नहीं प्राचीन काल से ही चली आ रही है।इस कहावत के पद-चिह्नों पर एक - दो नहीं, हमारे जैसे लाखों करोड़ों लोग चल रहे हैं। हम सभी ने अपनी आँखों पर मजबूत पट्टी बाँध रखी है।इसलिए हमें अपनी ओर से कुछ भी देखने की आवश्यकता नहीं रह गई है।हमें आप उनका पिछलग्गू कहकर अपमानित मत कीजिए, हम तो सच्चे अनुगामी हैं, सद्भक्त हैं।

  सद्भक्त वह होता है, जो अपनी सोच का समर्पण अपने आराध्य को कर देता है। हमारे कुछ विरोधी तत्त्व यह भी कह सकते हैं ,कि हमारी बुद्धि दिवालिया हो गई है। अब आप कुछ भी कहें: चमचा कहें, अंध भक्त कहें अथवा दीवाना कहें। जो भी कहें , कह सकते हैं। पर हम तो अपने विवेक और चमड़े की दोनों प्रकार की आँखें उनके कारण बंद कर चुके हैं।यदि आँखों के कोई औऱ भी प्रकार होते हों, तो भी वे सब उनके लिए समर्पित हैं। जैसे प्रेम दीवानी मीराबाई कृष्ण भक्ति में दीवानी हो गई थी ,हमारा दीवानापन किसी भी अर्थ में उससे कम नहीं है। 'मेरौ तौ गिरधर गोपाल दूसरौ न कोई ।'

  यदि हमारे आराध्य अपने मुख कमल से कुछ भी बाहर निकाल कर वमन कर देते हैं, और कुछ अंतराल के बाद किसी स्वार्थवश उसे पुनः अपने मुख कमल से उदरस्थ भी कर लेते हैं ,तो भी हम उनके इस प्रशंसनीय कार्य की सराहना ही करते थे , करते हैं और करते भी रहेंगे।हिंदी सहित्य वाले भले मुहावरे की भाषा में इसे थूककर चाटना कहें ,तो कहते रहें ,हमारी बला से। हम तो अपनी आँखों पर पट्टी बाँधे हुए अपनी जुबाँ से इसे विवेक का सही इस्तेमाल करना ही कहेंगे। भला अपने आराध्य में हमें कोई दोष, दुर्गुण, धोखा और धुंध क्यों दिखाई दे ? हम सभी यह सब अच्छी तरह से जानते हैं कि ' जिसके प्रति हम आसक्त होते हैं,उसके अवगुण हमें दिखाई नहीं देते।'

हमारा आराध्य भले ही कितना बड़ा चोर, ढोंगी, धोखेबाज, शोषक ,अत्याचारी ,जुमलेबाज, वचन का मिथ्याचारी, ड्रामेबाज, बहुरूपिया जैसे अनेक विशेषणों का धारक औऱ वाहक हो , हमें आँखें बंद करके अनुगमन उसी का करना  है। यदि धोखे से हमारी आँखों की पट्टी हट भी जाए , तो भी हमें आँखें बंद कर लेनी हैं। क्योंकि सद्भक्त के गुणों के अनुसार हमें अपने 'सतपथ' से क्षण मात्र के लिए भी विच्युत नहीं होना है। 

      आप और हम यह भी अच्छी तरह से जानते समझते हैं कि इस धरा धाम पर जिसने भी अपने चरण रखे हैं , वह 'जड़ चेतन गुण दोष मय विश्व कीन्ह करतार'  उक्ति के अनुसार शत - प्रतिशत श्रेष्ठ गुणवान नहीं है।और फिर इस कलयुग में ;जिसमें धर्म में भी पाप भरा हुआ हो, 100 में से 90 प्रतिशत पाप- ही -पाप बरस रहे हों ,वहाँ सतयुग (100 में से 99 पुण्य) भला कैसे हो सकते हैं। 'काजर की कोठरी में कैसे हू सयानों जाय एक लीक काजर की लागि है पै लागि है।'

 ऐसी हालत में भला आप ही बताइए कि जब हम सभी भक्तों ने अपनी बुद्धि को भी गिरवी रख दिया है, उसके साथ ही दिल भी दे दिया है। हम तो बस उनके ही प्राणों से चलते -फिरते हैं। हमारी समग्र जीवनी-शक्ति कर एक मात्र स्वामी, संवाहक, संचालक, परिचालक, परिपालक , पालक, मालिक सब वही हमारे आराध्य देव हैं ।वे चाहें थूक कर चाटें, चाहे चाटकर पुनः थूकें। हम तो उनके थूके हुए को भी सहस्रों बार चाटने में सहयोग करने को अहर्निश तैयार हैं। भक्त -  धर्म के साँचे पालनकर्त्ता यदि कोई है ,तो वर्तमान कलयुग में हम ही हैं।

    हमें अपने इस महान समर्पण पर प्रचंड घमंड भी है। यदि सौ झूठों के सामने दस सत्यवादी भी आकर चुनौती दें ,तो वह सत्य भी झूठ सिद्ध हो जाता है। आज हम उसी युग में जी रहे हैं। कलयुग में सत्य को ,साँचे इंसान को और आराध्य - आराधक को ढूँढना ,ठीक वैसे ही है ,जैसे चील के घोंसले में माँस ढूँढना। मालूम है कि यह बहुमत का जमाना है। यहाँ बहुमत की जीत होती है ,भले ही वह मूर्खों का हो , झूठों का हो , चोरों का हो, चरित्रहीनों का हो, जुमलेबाजों का हो।बहुमत के आगे अच्छे-अच्छे साँचाधारी भी पानी भरते हैं। हम ऐसे ही 'भगवानों' के सच्चे भक्त हैं। बोलो कलयुगी 'भगवान' की ......... 

 🪴 शुभमस्तु !

 २२.११.२०२१◆६.३० पतनम मार्तण्डस्य।

सोमवार, 22 नवंबर 2021

गीतिका 🌳

 

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

दें  मिला हाथ में  हाथ  पास हम  आ जाएँ।

जो दें सबका हम साथ पास हम आ जाएँ।।


ये   आदर्शों    के  ढोल  दूर  के   लगें   भले,

जन-जन हो आज सनाथ पास हम आ जाएँ


मुखपोथी  के   चित्रों  में  यों भरमाना  क्या,

मुख हो  आँखों के साथ पास हम आ जाएँ।


उर  की कमान से चलें नित्य विष बुझे बाण,

यदि झुके चरण में माथ पास हम आ जाएँ।


सबको  चलना  है 'शुभम' अकेले  जीवन में,

हो सुगम सुभीता पाथ पास हम आ  जाएँ।

२२.११.२०२१  ४.३० पतनम मार्तण्डस्य.

🪴 शुभमस्तु !


सजल 🥗

 

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

समांत-आरी।

पदांत- है।

मात्राभार -14.

मात्रा पतन :नहीं है।

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

प्रभु  की   महिमा   न्यारी  है।

शूल -  फूल  की  क्यारी   है।।


कभी  रात है   दिवस   कभी,

साँझ ,  सुबह   की    बारी है।


आँसू   हैं     मुस्कान    कभी,

पुरुष  परुष   नम   नारी   है।


सरिता  सागर  सलिल   बहे,

मधुर  कहीं  जल   खारी  है।


सबके  गुण   अपने -  अपने ,

नभ  हलका   भू    भारी  है।


कटहल  ऊबड़ -   खाबड़  है,

ख़रबूज़े     पर     धारी      है।


'शुभम' आज पनघट  प्यासा,

एक    नहीं    पनिहारी      है।


🪴 शुभमस्तु !


२२ नवंबर २०२१◆११.४५आरोहणं मार्तण्डस्य।

शनिवार, 20 नवंबर 2021

कछुआ- खरगोश दौड़ 🐇 [ कुंडलिया]


■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🐢 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

                        -1-

आया कछुआ ताल से,वन से सित खरगोश

शर्त लगाने को अड़ा, दिखलाता आक्रोश।।

दिखलाता आक्रोश, कहा रे!कछुए आजा।

कौन दौड़ता तेज,शक्ति अपनी दिखलाजा।।

'शुभं'लगी तब होड़,मिली झाड़ी की छाया।

सोया शशक महान,प्रथम कछुआ ही आया।


                        -2-

तेरे  मन  में जो  उगा, अहंकार  का   बीज।

बढ़ने  मत दे  तू उसे,बहुत बुरी यह  चीज।।

बहुत बुरी यह चीज, शशक-सा शरमा जाए।

यदि  कछुए  के  संग,शर्त से दौड़    लगाए।।

'शुभम' समझ  संदेश, शूल मत  उगा  घनेरे।

सबको  दे सम्मान, मिटेंगे  सब  दुख   तेरे।।


                        -3-

सीमा  बालक  तक नहीं, सुनी  कहानी एक।

होड़ लगी दो जंतु की,कछुआ सीधा  नेक।।

कछुआ सीधा नेक, शशक भी था  गर्वीला।

ऊँचा नहीं  विवेक,उठा ताकत का   टीला।।

'शुभम' हुई तब दौड़,दौड़ता कछुआ धीमा।

सोया तरु की छाँव,शशक क्यों पाता सीमा!


                        -4-

कछुआ एक प्रतीक है,खोना मत निज धीर।

पा  जाएगा   लक्ष्य  को, कहलाए  रणवीर।।

कहलाए   रणवीर, अहं  की ओढ़े    चादर।

होती उसकी  हार,शक्ति से जो है     बाहर।।

'शुभं'न बन खरगोश,चले जब ताजी पछुआ।

सोया  खोता दाँव,प्रथम आता है   कछुआ।।


                        -5-

सबको विधि ने ज्ञान से,किया यहाँ धनवान।

कैसे धी से काम  लें, लगता कब  अनुमान!!

लगता कब अनुमान,अहं में शशक न जीता।

बढ़ी कूर्म की शान,शशक लौटा घर रीता।।

'शुभम' जान ले धीर,बनाता उत्तम  हमको।

धी है सदा महान,बनाती सत नर  सबको।।


🪴 शुभमस्तु !

 

२०.११.२०२१◆४.००पतनम मार्तण्डस्य।


🐇🐢🐇🐢🐇🐢🐇🐢

शुक्रवार, 19 नवंबर 2021

जन-जन में व्यापित हैं खुशियाँ🧑‍🏭 [गीत ]


■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

जन -  जन   में   व्यापित  हैं खुशियाँ,

शरद       सुहावन           वेला      है।

शुभागमित         है      शीत -  सुंदरी,

मौसम      ये           अलबेला     है।



प्राची     में      उगता    जब   सूरज,

लाल   -    लाल        मुँह  चमकाता।

अंबर     में         तारे        गुम  होते,

हिमकर       कहाँ         चला जाता।।

प्रकृति   -   सुंदरी        ने    दुनिया में,

खेल       अनौखा           खेला     है।

जन -  जन में      व्यापित   हैं खुशियाँ,

शरद      -       सुहावन       वेला   है।


शीतलता        बढ़       रही    निरंतर,

सघन         कोहरा        है     छाया ।

नीड़ों      में       सिमटे      हैं   पंछी ,

प्रभु     की         मनमोहक     माया ।।

सुमन      सुगंधें     बाँट      रहे    हैं,

निशि    में    तम    का     रेला    है।

जन -    जन में   व्यापित  हैं खुशियाँ,

शरद   -   सुहावन         वेला   है।


स्वेटर,     कोट ,    शॉल    ओढ़े  हैं,

थर -   थर     काँपें      नर  - नारी।

मोटे          गद्दे        सघन   लिहाफों,

में        दुबकी        घरनी     सारी।।

बालक    कहते    ठंड    न लगती,

खाते    गुड़       का     ढेला     है। 

जन  -  जन  में  व्यापित  हैं खुशियाँ,

शरद        सुहावन       वेला     है।।


ओस   लदी      पादप ,सुमनों पर,

झूम      रहे         गुलाब      गेंदा।

सरिता   में      गुनगुना   नीर  है,

शीतल       रेणु         भरा    पेंदा।।

आने -  जाने    का      क्रम चलता,

दुनिया      का      यह      मेला है।

जन -  जन   में   व्यापित  हैं  खुशियाँ,

शरद      -    सुहावन      वेला    है।।


तिल    के    मोदक     बहुत सुहाते,

गरम    बाजरे         की        रोटी।

साग    चने    का     सरसों भुजिया,

भाती        है           रोटी      मोटी।।

'शुभम'     धूप    में    बालक खेलें,

एक    न       उन्हें      झमेला    है।

जन  -  जन    में  व्यापित  हैं खुशियाँ,

शरद       सुहावन           वेला  है।।


🪴 शुभमस्तु !


१८.११.२०२१◆५.२५

पतनम मार्तण्डस्य।


ग़ज़ल 🍀


■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

भरा  जहाँ  में रंजो -  ग़म  है।

जर्रे   में   तो   रंजो - ग़म  है।।


आया  था  तो   थीं   मुस्कानें,

चला  गया  तो  रंजो -ग़म है ।


खेला जब तक चला खिलौना,

टूट  गया  तो   रंजो -  ग़म  है।


खिले   फूल   भौरें    मँडराए,

फूल  झड़ा  तो रंजो - ग़म  है।


सुबह  हुई  तो  जागी  कुदरत,

तम आया  तो रंजो -  ग़म  है।


खुशियों की चिड़ियाँ हैं नाचीं,

जुदा  हुआ  तो रंजो -ग़म  है।


'शुभम' बना है  जोड़ा सबका,

बिखर गया तो रंजो -  ग़म है।


🪴 शुभमस्तु !


१८.११.२०२१◆३.१५

 पतनम मार्तण्डस्य।

पायल 💃🏻 [कुंडलिया ]

  

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

💃🏻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

                        -1-

पायल    पैरों   में  बजे,  कानों  में    गुंजार।

मुड़-मुड़आँखें देखतीं,किधर रम्य ध्वनिकार।

किधर रम्य ध्वनिकार,हृदय के द्वार खोलती।

गूँज रहा  संगीत,  काम- रस  अंग  घोलती।।

'शुभम' बहुत बेचैन,हुआ  मन  मेरा  घायल।

अँगना   के  देहांग,  थिरकते जैसे   पायल।।


                        -2-

पायल  गाती   प्रेम के,गीत मनोरम    मीत।

कहती मुझसे कौन नर, पाएगा अब जीत।।

पाएगा  अब  जीत,  बाँध लूँगी  मैं  स्वर से।

मैं   धरती   से  दूर, जुड़ी हूँ तेरे  उर   से।।

'शुभं'तपस्वी साधु,सभी मुझ पर हैं मायल।

करते विनत प्रणाम,कह रही रूपा-पायल।।


                        -3-

पायल हृदय-प्रवेश की,एक युक्ति  प्राचीन।

पहने कामिनि पाँव में,भरती भाव  नवीन।

भरती भाव नवीन,हृदय नर का  भटकाती।

बजता  मधु संगीत,खींच नारी तर   लाती।।

'शुभं' पुरुष बलवान,हो रहे नित प्रति घायल।

करती जग चमकार,नारि की बजती पायल।


                        -4-

पायल  तेरे  पाँव  की,बजे सदा  अविराम।

गूँजें नित  संगीत  मधु,सुनूँ सुबह  से शाम।।

सुनूँ सुबह से शाम,हृदय दो- दो  जुड़ जाते।

तन - मन   होते एक,प्रेम के बीज   उगाते।।

'शुभम' प्रिये! मत रूठ,हृदय मेरा है मायल।

अलिंगन में  बाँध, बंद मत करना  पायल।।


                        -5-

पायल की आहट सुनी, हुआ हृदय मदहोश।

रग-रग  में  खुलने लगे,बंद पड़े  जो  कोश।।

बंद  पड़े  जो  कोश,  चेतना जागी   भारी।

जाग उठा उर -काम,आ रही कामिनि नारी।।

'शुभम' देखते झाँक,हुए दर्शक  नर  घायल।

छुन-छुन का संगीत,बजा नारी- पद पायल।।


मायल =आसक्त।

रूपा=चाँदी।

युक्ति= डिवाइस।


🪴 शुभमस्तु !


१८.११.२०२१◆२.३०

 पतनम मार्तण्डस्य।

सोमवार, 15 नवंबर 2021

सजल 🌴


◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

समांत :इत ।

पदांत  :    है।

मात्राभार:16.

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

शब्द -   शब्द   का  बिंब   रचित  है।

जिनसे    उनका    भाव  विदित   है।।


खेल     हो     रहे     नित्य   हजारों,

सबका  अपना   रंग     विहित    है।


जिसका  हृदय  विशाल सिंधु- सा,

उसमें  धरती  , गगन    निहित है।


शूकर  की  दुनिया   चहला तक,

दिखता  नर  ऐसा   विदलित  है।


ज्ञान   नहीं       बाहर      से  आता,

अंतर   से  वह नित  शोभित     है।


क्या  घमंड   इस    रूप-मृदा का,

जल  जाता  कुछ  पल में नित है।


'शुभम'   ज्ञान    का   गर्व  न करना,

जो  करता     वह      होता   चित  है।


चहला=कीचड़।


🪴 शुभमस्तु !


१५.११.२०२१◆२.१५

पतनम मार्तण्डस्य।


सजल 🌴


◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

समांत : अंचित।

पदांत  :    है।

मात्राभार:16.

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

शब्द -  शब्द  पट   पर  मंचित है।

जो  न   जानता  वह   वंचित  है।।


खेल   हो     रहे   नित्य   हजारों,

क्यों  मानव  का  उर  कुंचित है।


जिसका  हृदय विशाल सिंधु- सा,

उससे  नभ ,  धरती    सिंचित है।


शूकर  की  दुनिया   चहला तक,

दिखता  नर  ऐसा     लुंचित  है।


ज्ञान   नहीं    बाहर    से  आता,

अंतर   से   ही    अभिवंदित  है।


क्या  घमंड   इस     रूप-मृदा का,

जल  जाता   तन   से   वंचित  है।


'शुभम'   ज्ञान   का   गर्व  न करना,

जो  करता   रहता    किंचित   है।


चहला=कीचड़।


🪴 शुभमस्तु !


१५.११.२०२१◆२.१५

पतनम मार्तण्डस्य।


रविवार, 14 नवंबर 2021

स्वामी विवेकानंद के संदेश 🌷 [ गीत ]


■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार©

🌷 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

करके   आँखें   बंद चीखता,

अंधकार यह   क्यों   छाया।

मानव  कैसा  अंध मूढ़ मति,

समझ नहीं  प्रभु को  पाया।।


सर्व शक्तियाँ  हैं  मानव  की,

उनके   हम   अधिकारी   हैं।

मानव हित में  उन्हें  जगाएँ,

नहीं   बहुत     लाचारी   हैं।।

नाशवान यह   दुनिया  सारी,

अमर नहीं मानव काया।करके...


अंतर  में   स्वभाव   जो तेरा,

बाहर   लघु   आकार  वही।

विज्ञ   विवेकानंद   संत    ने,

लाख  टके  की बाट  कही।।

भीतर ,भीतर,भीतर जा नर,

बाहर, बाहर तू धाया।करके...


दिल,दिमाग में झगड़ा हो तो,

दिल की  मानें   बात   सभी।

निर्णय के स्वर भर देता वह,

नहीं बाल   की  खाल कभी।।

भाव भरा निर्णय मिलता है,

सदा मनुज को जो भाया।करके...


शक्ति मध्य  जीवन बसता है,

निर्बलता     ही     मरना   है।

है  विस्तार  नाम  जीवन का,

बैठ  सिकुड़  क्या डरना है !!

जीवन  नाम नेह का  हे नर!

ले  जाए क्या  है  लाया !करके...


विश्व  एक  शाला    है  सुंदर,

आओ  हम   व्यायाम    करें।

सुदृढ़  बनाएँ तन-मन अपने,

जग  को   तारें    स्वयं   तरें।।

'शुभम'समस्याओं को समझें,

गीत  प्रभाती   है   गाया ।करके...


🪴 शुभमस्तु !


१४.११.२०२१◆ ३.१५ पतनम  मार्तण्डस्य।

सच के रूप हजारों 🔥 [ गीत ]


■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

सच  के  रूप   हजारों   होते।

भू,नभ,जल में सच को बोते।।


जीव    अंश,  अंशी    प्रभु  प्यारे।

सरिता      के दो सजल किनारे।।

फिर क्यों मानव  रोते- धोते।सच...


फूल, शूल,      पादप  में   छाया।

सूरज ,     चाँद, नखत में भाया।।

गिरि सर सागर सदा भिगोते।सच..


मानव,  दानव,पशु, खग सारे।

सत्य     ईश  के  सदा  सहारे।।

चर, अचरों में नित्य समोते।सच...


सच    को तो सच ही  है रहना।

कितनी    भी  धारों में बहना।।

       सच  के  रूप कदापि   न सोते।सच...


'शुभम' सत्य  की महिमा न्यारी।

महक   रही जिसकी जग क्यारी।।

मानव,पिक,मयूर,बक,तोते।सच...


🪴शुभमस्तु !


१४.११.२०२१◆१.३० पतनम

मार्तण्डस्य।

अपने दीपक आप बनें! 🪔 [ गीत ]

  

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🪔 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

अपने दीपक बनें आप ही,

नव प्रकाश जग भर देना।

धरती के कोने -  कोने के,

अंधकार   को   हर लेना।।


आत्मा सर्वश्रेष्ठ गुरु शिक्षक,

ज्ञान   उसी   से   पाना   है ।

पहले उर का तम  हर  लेना,

तब   बाहर  शुभ  लाना है।।

अपनी तरणी आप चलाकर,

सबको  पार लगा खेना।अपने...


तुम्हें कौन सिखला सकता है,

भले -  बुरे   के   तुम    ज्ञाता।

कौन   तुम्हें  अध्यात्म  पढ़ाए,

तुम  गुरु, पिता  तुम्हीं माता।।

झाँको  अपने    अंतरतम  में,

खड़ी ज्योति की युव-सेना।अपने ...


ब्रह्म - अंड   में   जो  स्थित है,

देह -पिंड   में   उसका   वास।

वृथा भटकना क्यों इस जग में,

भीतर  खोजो  दिव्य उजास।।

सूरज - सोम   नयन  दो  तेरे,

 भीतर भी हैं   दो नैना। अपने...


घट के भीतर दिया जला है,

बाहर   प्रभा    उजाले   दो।

अंतर को ज्योतिर्मय करके,

जग को   लाभ  उठाने दो।।

सुमन समाई सद सुगंध से,

पावन  हो रमणी रैना।अपने...


नाभि  बस  रही कस्तूरी का,

'शुभम' शोध सब  कर लेना।

नहीं भटकना वन-उपवन में,

उड़ें   खोल   अपने    डैना।।

हरियाली ही  देना  जग को,

नहीं  शूल देना  पैना।अपने...


🪴 शुभमस्तु !


१४.११.२०२१◆११.४५

पतनम मार्तण्डस्य।


आप अबल नहीं हैं! 🦁 [ गीत ]

  

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🦁 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम' 

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

अपने  को अबल नहीं  मानें।

हैं  आप  सबल  मन में ठानें।।


मन   जो    हारा , हार गया।

वह स्वयं आपको मार गया।।

मन की मस्ती का रस छानें।अपने...


रथवाह आपके  तन-रथ  का।

मन ही प्राजक जीवन- पथ का।।

वल्गा को सदा उचित तानें।अपने...


इन्द्रियाँ अश्व दस  चंचल भी।

चाहतीं नियंत्रण   संबल भी।।

साँची न दिशा  उनकी जानें।अपने...


अति मुक्ति नहीं  इनको देना।

तरणी को आप  स्वयं खेना।।

दस करण लगें यदि उकताने।अपने...


बन अबल पाप  क्यों है लेना?

सब उचित काम उनको देना।।

थक जाएँ 'शुभम'उनकी रानें।

अपने को अबल   नहीं मानें।।


🪴 शुभमस्तु !


१४.११.२०२१◆१०.१५ आरोहणं मार्तण्डस्य।


कर्मों का मंदिर मानव- तन 🛕 [ गीत ]

 

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🛕 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

कर्मों   का मंदिर  मानव -तन,

मन   ही  सुहृद    पुजारी   है।

कर्मदेव    की   पूजा    करता,

जीवन    भर   आभारी    है।।


संत     विवेकानंद     हमारी,

युवा - शक्ति  के   जादू   हैं।।

ओज भरा जिनकी वाणी में,

संचेतना -    सु -  साधू   हैं।।

जागो ,उठो लक्ष्य  पाने तक,

रहो   कर्मरत    भारी      हैं।

कर्मों का मंदिर मानव - तन,

मन  ही   सुहृद   पुजारी है।।


बिना ध्यान एकाग्र  नहीं मन,

तभी   इंद्रियों     पर   संयम।

ज्ञान मिले तब ही शिक्षा का,

प्रगति -पंथ पर बढ़े  कदम।।

है  प्रमाद   मानव   का  बैरी,

छात्र   हेतु     बीमारी     है।

कर्मों का मंदिर  मानव-तन,

मन ही   सुहृद   पुजारी  है।।


ज्ञान   नहीं   आता  बाहर से,

भीतर   तेरे      वास    सदा।

शोध  तुम्हें करना   है मानव,

शेष  नहीं   रहनी   विपदा।।

अंतरतम में   उसे   खोजना,

दिखला  मत    लाचारी   है।

कर्मों का मंदिर मानव - तन,

मन   ही   सुहृद  पुजारी है।।


मन से  वृद्ध  नहीं   होना  है,

यावज्जीवन    सीखें    हम।

अनुभव ही शिक्षक हैं अपने,

बढ़ें   हमारे    युगल  कदम।।

अहं विनाशक  मानवता का,

तन, मन, धन    संहारी    है।

कर्मों का मंदिर मानव - तन,

मन   ही  सुहृद  पुजारी  है।।


धैर्य, उरज   पावनता,  उद्यम,

त्रय गुण   धारण   सदा  करें।

सदा  सफलता  चरण चूमती,

'शुभम'  पंथ ही  वरण  करें।।

कर्मशील  मानव की  धरती,

फूली  - फली    सुखारी   है।

कर्मों का मंदिर   मानव -तन,

मन ही   सुहृद   पुजारी   है।।


🪴 शुभमस्तु !


१३.११.२०२१◆४.१५ 

पतनम मार्तण्डस्य।

दूल्हा आया 🤴 [ बालगीत ]


■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🤴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

दूल्हा  आया ! दूल्हा  आया!!

सँग  में बहुत  बराती  लाया।।


घोड़ी   पर  दुलहा   बैठा   है।

तना हुआ कुछ-कुछ ऐंठा है।।

हँसता  मुस्काता -  सा पाया।

दूल्हा  आया ! दूल्हा  आया!!


बैंड  बज  रहा  आगे -  आगे।

सभी  देखने को हम  भागे।।

चाची, भाभी के  मन  भाया।

दूल्हा  आया ! दूल्हा आया!!


पीछे   उसके    सजे   बराती।

नाच  रहीं  बाला   मदमाती।।

लड़कों  ने भी नाच दिखाया।

दूल्हा  आया ! दूल्हा आया!!


सजे हुए घर,  द्वारे,  गलियाँ।

सुंदर  वंदनवार   फुलड़ियाँ।।

जिसने  देखा   वह   हर्षाया।

दूल्हा आया ! दूल्हा  आया!!


आज रात   में   होगी  शादी।

करें पुरोहित ब्याह   मुनादी।।

'शुभम' जहाँ मंडप बनवाया।

दूल्हा  आया ! दूल्हा आया!!


🪴 शुभमस्तु !


१३.११.२०२१◆१२.१५

आरोहणं मार्तण्डस्य।


शुक्रवार, 12 नवंबर 2021

शब्द-सुरभि 🪴 [ दोहा ]


[अपराधी, झील,अलाव,किलकार,मेला]

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

अपराधी भी जानता,क्या होता  अपराध।

उर में भरे  कुभाव जो,बदले नहीं  कुसाध।।


अपराधी सब सोच कर, करता क्रूर कुकृत्य

दंड पड़े जब देह पर,दिखता सत्य असत्य


कामिनि  तेरे रूप  को,देख दिया उर   कील।

डूब गया हूँ मानिनी, तव नयनों की झील।।


ओढ़े चादर शांति की,झील सुप्त उद्भ्रांत

धवल कोहरा झूमता,गिरि के उज्ज्वल प्रांत


आया जाड़ा गाँव  में, घर-घर जले अलाव।

कर विलंब सरि तीर पर,आती हैं अब नाव।।


क्यों अलाव से तप्त हो, बोल रहे यों  बैन।

लपटों- सा तन काँपता,लाल मिर्च - से नैन।।


आँगन में ज्यों ही पड़ी कविता सी किलकार।

दादी - बाबा  हर्ष में, मग्न हुए सह  प्यार।।


सुनने को किलकार स्वर, पति-पत्नी बेचैन।

प्रभु से  करते कामना,जोड़ हस्त, उर, नैन।।


जीवन मेला मेल  का,कर ले  प्राणी  मेल।

त्याग अहं के अंश भी,'शुभं न बिगड़े खेल।


मेला में भटकाव से,मिले न वांछित  राह।

अपनों का सँग साध ले, रहें न्यूनतम चाह।।


झील किनारे जल रहा,

             लोहित एक अलाव ।

मेले की किलकार से,

             गत अपराधी भाव।।


🪴 शुभमस्तु !


१०.११.२०२१◆९.३० आरोहणं मार्तण्ड।

मंगलवार, 9 नवंबर 2021

गई दिवाली जाड़ा आया 🗻 [ बालगीत ]

 

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार © 

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

गई   दिवाली   जाड़ा  आया।

खेत,बाग़, वन,घर  में छाया।।


मोटे कंबल,   शॉल,    रजाई।

टोपे, स्वेटर   की ऋतु  आई।।

मफ़लर ने  सिर को गरमाया।

गई  दिवाली   जाड़ा  आया।।


ओस   बरसती   कुहरा भारी।

ढँके खेत, फूलों की  क्यारी।।

पेड़ों पर जल  ढुलता   पाया।

गई  दिवाली  जाड़ा   आया।।


कार्तिक,अगहन,पूस सताती।

मैदानों    में     सर्दी   आती।।

लगता   ठंडा  तन  पर फाया।

गई   दिवाली  जाड़ा आया।।


पूस ,माघ में  कँपते थर- थर।

उड़े कपासी कुहरा झर-झर।।

खाना गरम  सभी को भाया।

गई  दिवाली  जाड़ा  आया।।


रोटी   गरम   बाजरे    वाली।

सरसों भुजिया लगे निराली।।

शकरकंद का स्वाद लुभाया।

गई  दिवाली   जाड़ा  आया।।


'शुभम' ठंड से बचना सबको।

अधिक नहीं सोना भी हमको

कुक्कड़ कूं   ने   राग सुनाया।

गई  दिवाली  जाड़ा   आया।।


🪴 शुभमस्तु !


०९.११.२०२१◆१०.००

आरोहणं मार्तण्डस्य।


सजल 💦


■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

समांत-आर।

पदांत-हमारा।

मात्रा भार-16.

मात्रा पतन-नहीं।

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

बदल     रहा      संसार   हमारा।

कहाँ    शेष    वह    प्यार हमारा।


शब्द    खोखले    खन-खन बजते,

नेह      हुआ       व्यापार   हमारा।


चरणों     से   घुटनों    तक   आया,

कृत्रिम          है      आचार हमारा।


सूखी       सरिता      संस्कार  की,

धूमिल    जल   -   आगार   हमारा।


कागज़    के    पुष्पों     पर  मोहित,

शोभित    गृह    का     द्वार  हमारा।


मात  - पिता       को   भूली संतति,

अर्थहीन         घर    -   बार   हमारा।


'शुभम'       नहीं      कर्तव्य निभाते,

कहते       यह      अधिकार हमारा।


🪴 शुभमस्तु !


०८.११.२०२१◆१०.३० आरोहणं मार्तण्डस्य।


पत्र-लेखन विधा:तब और अब 🖋️ [ लेख ]


■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

 ✍️ लेखक 

 💌 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

 ■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■ 

 साहित्य की अनेक गद्य औऱ पद्य विधाओं की  तरह गद्य में पत्र -लेखन भी एक विधा रही है। गद्य की अनेक विधाओं में नाटक,निबंध,लेख,कहानी, उपन्यास,संस्मरण,रेखाचित्र, दैनंदिनी, इंटरव्यू(साक्षात्कार),शिकार साहित्य   आदि की तरह पत्र- लेखन भी एक प्रसिद्ध विधा है। 


 समय अनवरत परिवर्तनशील है।समय बदलता है ,तो सब कुछ बदलने लगता है। इस परिवर्तन पर किसी का कोई नियंत्रण नहीं है। वह निरंतर प्रवहमान सरिता की तरह है। एक समय था, जब पोस्ट कार्ड ,अंतर्देशीय पत्र, बंद लिफ़ाफ़े, पंजीकृत पत्र, यू पी सी ,स्पीड पोस्ट , पार्सल, ,मनी आर्डर आदि अनेक रूप थे ,जिनके माध्यम से हर साधारण से विशेष व्यक्ति तक अपने संदेश भेजा करते थे। वह व्यक्तिगत, सरकारी और व्यापारिक पत्रों का युग था।


 व्यक्तिगत पत्रों में पण्डित जवाहर लाल नेहरू के अपनी पुत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को लिखे गए 'पिता के पत्र पुत्री के नाम ' से पुस्तक रूप में ख्याति प्राप्त हुए। हम सभी अपने सम्बन्धियों को पत्र लिखा करते थे ,जिनका श्री गणेश ' अत्र कुशलं तत्रास्तु'से हुआ करता था। प्रेमी-प्रेमिका, पति -पत्नी, पिता- पुत्र ,पिता -पुत्री आदि अनेक सम्बंधों के अनेक प्रकार के पत्र लिखे जाते थे।इन पत्रों की सबसे बड़ी विशेषता यही थी कि पत्र आने की प्रतीक्षा बहुत ही प्रिय लगती थी। यदि अपने पड़ौस में भी डाकिया पत्र लेकर आया है ,तो उससे यह पूछना नहीं भूलते थे, कि डाकिया बाबू हमारी कोई चिट्ठी -पत्री तो नहीं आई। यदि उसका जबाब 'नहीं' में होता ,तो उदास होना स्वाभाविक था।यदि उसने 'हाँ' कहा ,तो हमारी बाँछें खिल जाती थीं। किसी की मृत्यु का संदेश भेजने पर पोस्ट कार्ड का एक कोना फाड़ दिया जाता था।जिससे पाने वाला पत्र देखकर बिना पढ़े ही समझ लेता था कि शोक का पत्र है। 


 प्रसिद्ध उपन्यासकार श्री शैलेश मटियानी का हिंदी आंचलिक उपन्यास 'चिट्ठीरसा' ख्यातिलब्ध साहित्यिक कृति है।यह पत्र लेखन विधा की अनुपम कृति है। इसका विशिष्ट उल्लेख मैंने अपने बाबा नागर्जुन विषयक अपने शोध ग्रंथ में किया है। पति -पत्नी के कुछ पत्र -विधा आधारित ग्रंथ भी प्रकाशित हुए हैं। 


 सरकारी पत्रों में उच्च अधिकारियों के अपने अधीनस्थ कार्यालयों को ढेर सारे पत्र लिखे जाते थे। नियुक्ति, स्थानांतरण, कार्य भार ग्रहण, पदच्युति, निलंबन आदि के पत्र लिखने का वह अलग ही युग था। एक -एक कार्यालय में ढेरों पत्र आते जाते थे।लेकिन आज कंप्यूटर, मोबाइल के डिजिटल युग ने पत्र लेखन विधा का ढेर कर दिया है। अति महत्त्वपूर्ण पत्र पंजीकृत करके भेजे जाते थे , ताकि उनके खोने का भय न रहे ,साथ ही ये पत्र उसी व्यक्ति को प्राप्त क़राये जाते थे ,जिसके नाम से भेजे जाते थे। दूसरा व्यक्ति उन्हें प्राप्त नहीं कर सकता था। चैक, ड्राफ्ट आदि भी पंजीकृत करके ही भेजे जाते थे।आज भी भेजे जाते हैं।


 व्यापारिक और वाणिज्यिक पत्रों में व्यापारियों के सम्बंधित फर्मों को पत्र ही भेजे जाते थे। डाक द्वारा ही उनकी बिल्टी भी   आती- जाती थीं। उनके चैक ,ड्राफ्ट आदि भी डाक से प्राप्त होते थे। बीस वर्ष पहले जो धन, धनादेश द्वारा हफ़्तों और महीनों में प्राप्त होता था, वह आज नेट बैंकिंग, मोबाइल बैंकिंग आदि से कुछ ही पल में हो जाता है। आज भी पत्र लिखे जाते हैं ,किन्तु उनमें अब वह जिज्ञासा और उत्कंठा नहीं बची। व्हाट्सएप की चैटिंग के द्वारा , फोन से , संन्देश भेज कर पल भर में सारे सुख - दुःख के हाल लिए औऱ दिए जा रहे हैं।मनीऑर्डर भेजना बन्द कर दिया गया है। इसी प्रकार धीरे -धीरे बहुत कुछ बदलता जा रहा है।यह सब युग परिवर्तन का प्रभाव है। अब पाँच प्रतिशत से भी कम पत्र आदि का प्रेषण होता है। बीता हुआ अतीत लौटकर नहीं आता।


 पत्र लेखन विधा तो विदा ही हो चुकी है। अब तो मोबाइल पर  'हाय'  'हैलो' होती है औऱ बिना भूमिका के बात आरम्भ हो जाती है ,जो कुछ सेकिंड से लेकर घंटों चलती है। अब यह लिखना और बोलना भी नहीं होता :  हम सब यहाँ पर ईश्वर की कृपा से सकुशल हैं औऱ आशा है कि आप भी कुशल मंगल होंगे। आगे समाचार यह है कि तुम्हारी भाभी ने एक पुत्र रत्न को जन्म दिया है। अपनी भूरी भैंस ब्या गई है। कुतिया ने भिसौरे में चार प्यारे बच्चे दिए हैं। तुम्हारी आर्मी की नौकरी का खत आ गया है,इसलिए तुरंत चले आओ। छोटों को प्यार और बड़ों को सादर चरण छूना पहुँचे।    आदि -आदि .............।


 🪴 शुभमस्तु ! 

 ०७.११.२०२१◆९.००

आरोहणं मार्तण्डस्य। 

रविवार, 7 नवंबर 2021

 पत्र-लेखन विधा:तब और अब 🖋️ 

 [ लेख ] 

 ■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

 ✍️ लेखक 

 🖋️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम

' ■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■ 

 साहित्य की अनेक गद्य औऱ पद्य विधाओं की गद्य तरह पत्र -लेखन भी एक विधा रही है। गद्य की अनेक विधाओं में नाटक,निबंध,लेख,कहानी, उपन्यास,संस्मरण,रेखाचित्र, दैनंदिनी, इंटरव्यू(साक्षात्कार),शिकार साहित्य   आदि की तरह पत्र- लेखन भी एक प्रसिद्ध विधा है। 

 समय अनवरत परिवर्तनशील है।समय बदलता है ,तो सब कुछ बदलने लगता है। इस परिवर्तन पर किसी का कोई नियंत्रण नहीं है। वह निरंतर प्रवहमान सरिता की तरह है। एक समय था, जब पोस्ट कार्ड ,अंतर्देशीय पत्र, बंद लिफ़ाफ़े, पंजीकृत पत्र, यू पी सी ,स्पीड पोस्ट , पार्सल, ,मनी आर्डर आदि अनेक रूप थे ,जिनके माध्यम से हर साधारण से विशेष व्यक्ति तक अपने संदेश भेजा करते थे। वह व्यक्तिगत, सरकारी और व्यापारिक पत्रों का युग था।

 व्यक्तिगत पत्रों में पण्डित जवाहर लाल नेहरू के अपनी पुत्री श्रीमती इंदिरा गांधी को लिखे गए 'पिता के पत्र पुत्री के नाम ' से पुस्तक रूप में ख्याति प्राप्त हुए। हम सभी अपने सम्बन्धियों को पत्र लिखा करते थे ,जिनका श्री गणेश ' अत्र कुशलं तत्रास्तु'से हुआ करता था। प्रेमी-प्रेमिका, पति -पत्नी, पिता- पुत्र ,पिता -पुत्री आदि अनेक सम्बंधों के अनेक प्रकार के पत्र लिखे जाते थे।इन पत्रों की सबसे बड़ी विशेषता यही थी कि पत्र आने की प्रतीक्षा बहुत ही प्रिय लगती थी। यदि अपने पड़ौस में भी डाकिया पत्र लेकर आया है ,तो उससे यह पूछना नहीं भूलते थे, कि डाकिया बाबू हमारी कोई चिट्ठी -पत्री तो नहीं आई। यदि उसका जबाब 'नहीं' में होता ,तो उदास होना स्वाभाविक था।यदि उसने 'हाँ' कहा ,तो हमारी बाँछें खिल जाती थीं। किसी की मृत्यु का संदेश भेजने पर पोस्ट कार्ड का एक कोना फाड़ दिया जाता था।जिससे पाने वाला पत्र देखकर बिना पढ़े ही समझ लेता था कि शोक का पत्र है। 

 प्रसिद्ध उपन्यासकार श्री शैलेश मटियानी का हिंदी आंचलिक उपन्यास 'चिट्ठीरसा' ख्यातिलब्ध साहित्यिक कृति है।यह पत्र लेखन विधा की अनुपम कृति है। इसका विशिष्ट उल्लेख मैंने अपने बाबा नागर्जुन विषयक अपने शोध ग्रंथ में किया है। पति -पत्नी के कुछ पत्र -विधा आधारित ग्रंथ भी प्रकाशित हुए हैं। 

 सरकारी पत्रों में उच्च अधिकारियों के अपने अधीनस्थ कार्यालयों को ढेर सारे पत्र लिखे जाते थे। नियुक्ति, स्थानांतरण, कार्य भार ग्रहण, पदच्युति, निलंबन आदि के पत्र लिखने का वह अलग ही युग था। एक -एक कार्यालय में ढेरों पत्र आते जाते थे।लेकिन आज कंप्यूटर, मोबाइल के डिजिटल युग ने पत्र लेखन विधा का ढेर कर दिया है। अति महत्त्वपूर्ण पत्र पंजीकृत करके भेजे जाते थे , ताकि उनके खोने का भय न रहे ,साथ ही ये पत्र उसी व्यक्ति को प्राप्त क़राये जाते थे ,जिसके नाम से भेजे जाते थे। दूसरा व्यक्ति उन्हें प्राप्त नहीं कर सकता था। चैक, ड्राफ्ट आदि भी पंजीकृत करके ही भेजे जाते थे।आज भी भेजे जाते हैं।

 व्यापारिक और वाणिज्यिक पत्रों में व्यापारियों के सम्बंधित फर्मों को पत्र ही भेजे जाते थे। डाक द्वारा ही उनकी बिल्टी भी डाक से ही आती जाती थीं। उनके चैक ,ड्राफ्ट आदि भी डाक से प्राप्त होते थे। आज के डिजिटल युग में जो धन धनादेश द्वारा हफ़्तों और महीनों में प्राप्त होता था, वह आज नेट बैंकिंग, मोबाइल बैंकिंग आदि से कुछ ही पल में हो जाता है। आज भी पत्र लिखे जाते हैं ,किन्तु उनमें अब वह जिज्ञासा और उत्कंठा नहीं बची। व्हाट्सएप की चैटिंग के द्वारा , फोन से , संन्देश भेज कर पल भर में सारे सुख - दुःख के हाल लिए औऱ दिए जा रहे हैं।मनीऑर्डर भेजना बन्द कर दिया गया है। इसी प्रकार धीरे -धीरे बहुत कुछ बदलता जा रहा है।यह सब युग परिवर्तन का प्रभाव है। अब पाँच प्रतिशत से भी कम पत्र आदि का प्रेषण होता है। बीता हुआ अतीत लौटकर नहीं आता।

 पत्र लेखन विधा तो विदा ही हो चुकी है। अब तो मोबाइल पर  'हाय'  'हैलो' होती है औऱ बिना भूमिका के बात आरम्भ हो जाती है ,जो कुछ सेकिंड से लेकर घंटों चलती है। अब यह लिखना और बोलना भी नहीं होता :  हम सब यहाँ पर ईश्वर की कृपा से सकुशल हैं औऱ आशा है कि आप भी कुशल मंगल होंगे। आगे समाचार यह है कि तुम्हारी भाभी ने एक पुत्र रत्न को जन्म दिया है। अपनी भूरी भैंस ब्या गई है। कुतिया ने भिसौरे में चार प्यारे बच्चे दिए हैं। तुम्हारी आर्मी की नौकरी का खत आ गया है,इसलिए तुरंत चले आओ। छोटों को प्यार और बड़ों को सादर चरण छूना पहुँचे।    आदि -आदि .............। 

 🪴 शुभमस्तु ! 

 ०७.११.२०२१◆९.००आरोहणं मार्तण्डस्य। 


शुक्रवार, 5 नवंबर 2021

प्रकाश पर्व दीपावली 🪔🏕️ [ कुंडलिया ]


■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🪔 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

                        -1-

जलता परहित के लिए,करता तम का नाश।

दीपक के नव नेह का,सोहे  तेज प्रकाश।।

सोहे तेज प्रकाश,वर्तिका निशि भर जलती।

घनी अँधेरी  रात, भयातुर पल -पल ढलती।।

'शुभं'छिपा मुख चाँद,नहीं रजनी को छलता।

दीप अकेला आज,मिटाने तम को जलता।।


                        -2-

आया शुचि आलोकमय, दीपावलि का पर्व ।

अँधियारा उज्ज्वल करें,बाँटें ज्योति सगर्व।।

बाँटें ज्योति  सगर्व, रहे क्यों खाली   कोना।

उजियारे  की आभ,ओस से कलियाँ धोना।।

'शुभम'सुहानी साँझ,समा सोहित मनभाया।

दें गणेश शुभ लाभ,रमा अर्चन दिन आया।।


                        -3-

काली  धनदेवी  जहाँ,वहाँ न सुख की राह।

अंतर में दुख कष्ट है,भावी भी नित   स्याह।।

भावी भी नित स्याह,उलझनें सावन  गातीं।

मोरी  बने निकास,मुसीबत सब  मुस्कातीं।।

'शुभं'विकलता शाख,झुलाती अपनी डाली।

दीवाली की रात,नहीं करना नर    काली।।


                        -4-

बरसे  धन  जल मेघ-सा,चाहें डाकू , चोर।

नेता,अभिनेता   सभी, गबनी, रिश्वतखोर।।

गबनी, रिश्वतखोर, संत रँगते जो    चीवर।

करें मिलावट रोज,तृप्त क्यों पानी  पीकर।।

'शुभं'न बुझती प्यास,बिना कंचन कब हरसे।

काले  धन  के  कीट, चाहते सोना    बरसे।।


                        -5-

अपने -  अपने   ढंग  से, मना रहे  त्यौहार।

काक टिटहरी मोर पिक, किंतु भिन्न व्यौहार।

किंतु  भिन्न   व्यौहार, नेवला नाग   निराले।

चलते तीर कमान,किसी के निकले  भाले।।

'शुभम' एक त्यौहार,अलग हैं सबके  सपने।

कहीं दीप की ज्योति,किसी के रँग हैं अपने।


🪴 शुभमस्तु !

०३.११.२०२१◆७.३० 

पतनम मार्तण्डस्य।

दीपावली- शृंगार 🏕️ [ दोहा ]

 

(दीपक, उजियार,माटी,वर्तिका,तमस)

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

ज्योति - पर्व  दीपावली,उर में भरे   उछाह।

जलते दीपक तम हरें,भरते ज्योति-प्रवाह।।


दीपक के तल में बचा,तम का   पारावार।

दीप-पर्व आया 'शुभम',करना है उजियार।।


अमा अँधेरे  की मिटा,फैलाएँ उजियार।

माटी के दीपक जलें,प्रमुदित हों घर-द्वार।


ज्ञानद्वीप  उर में जला, मेटें हर तम - भार।

तम में मत रहना शुभं,भर जन में उजियार।


माटी का दीपक सदा ,देता नवल प्रकाश।

दिया उसे कहता 'शुभं',करता तम का नाश।


माटी का  ही गात ये, माटी में    हो   लीन।

कर माटी का मान तू,समझ न उसको हीन।।


जली वर्तिका दीप में,पी-पी घृत  या   तेल।

सुघड़ मृत्तिकाधार से,करती पल-पल मेल।।


बन जा मानव वर्तिका,दे जग सोम उजास।

करता कोई ज्योति की,तुझसे जीवन आस।।


कैसे बनती वर्तिका,भरती नवल  उजास।

जानें बतलाता 'शुभम',देता धवल कपास।।


तमस मिटाने के लिए,दीप मालिका  पर्व।

आया भारत भूमि पर,कहते कवि , गंधर्व।।


गया तमस जब बुद्धि से,मिला सोम-सा ज्ञान

पाकर मानव ज्ञान को,करना मत अभिमान


माटी से  दीपक बना,

            करता   जग उजियार।

जला वर्तिका  ज्योति ज्यों,

            गया  तमस  सब हार।।


🪴 शुभमस्तु !


०३.११.२०२१◆९.३० आरोहणं मार्तण्डस्य।

ग़ज़ल 🙊

 

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

✍️ शब्दकार ©

🙊 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■◆■

वचन   बोलते   तोल   हमारे  नेताजी।

देते    हैं   रस   घोल    हमारे  नेताजी।।


ठूँस -  ठूँस  कर  ज्ञान  भरा इनके अंदर,

भीतर      ढोलमपोल    हमारे  नेताजी।


जाते   पूरब   दिशा   बताते  उत्तर  को,

कहते    धरती    गोल   हमारे नेताजी।


करनी  जानें   राम   कथनियों की गठरी,

रहे    जलेबी       घोल    हमारे नेताजी।


पहन    बगबगे   वेश  ज्ञान के पुंज बने,

बजते    जैसे     ढोल    हमारे नेताजी।


कंचन  पर ही   ध्यान कामिनी के  रसिया,

देशबंधु      अनमोल      हमारे  नेताजी।


'शुभम ' वंश- उद्धार  सात पीढ़ी तक हो,

करें   रोज़    कल्लोल    हमारे नेताजी।


🪴 शुभमस्तु !


०५.११.२०२१◆५.४५

पतनम मार्तण्डस्य।


किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...