गुरुवार, 30 अप्रैल 2020

आओ चलो गाँव चलते हैं [ गीत ]


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✍ शब्दकार ©
🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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जिस  माटी  ने जन्माया  है,
वही गाँव अब याद आया है,
आँखों  में  सपने   पलते  हैं,
आओ  चलो  गाँव चलते हैं।

पेड़ नीम का कच्चा  आँगन,
मधुर  निबौली  झूला सावन,
पवन देव   पंखा   झलते  हैं,
आओ चलो  गाँव  चलते हैं।

लिपी - पुती   दीवारें  कच्ची,
लगती थीं वे   कितनीअच्छी,
गोबर से  आँगन  लिपते   हैं,
आओ चलो  गाँव  चलते हैं।

साँकल बँधी खा रही  सानी,
भैंस नाद  पर   पीती  पानी,
दूध, दही,  मट्ठा   मिलते   हैं,
आओ  चलो  गाँव चलते हैं।

हुई   लालिमा    जागा  गाँव,
भागा  दूर  उठा   तम   पाँव,
बिस्तर बहुत  बुरे  खलते  हैं,
आओ चलो  गाँव  चलते हैं।

पनिहारिन  पनघट  पर जातीं,
कमर शीश धर घट भर लातीं,
सास - बहू - चर्चे   मिलते   हैं,
आओ  चलो  गाँव  चलते  हैं।

हरे खेत चहुँ दिशि हरियाली,
पीपल बरगद  छटा  निराली,
आम मधुर  रस  से फलते हैं,
आओ चलो  गाँव  चलते  हैं।

ले हल बैल किसान निकलते,
पट्टी -  बस्ता  ले  हम  चलते,
जिस  विद्यालय  में पढ़ते  हैं,
आओ  चलो गाँव   चलते हैं।

लहराती     गेहूँ    की   बाली,
सरसों   पीले    फूलों   वाली,
चना  मटर  जौ भी   हँसते हैं,
आओ चलो   गाँव  चलते  हैं।

सादा   खान - पान औ' रहना,
कलकल सरिताओंका बहना,
 नहीं परस्पर   जन  छलते  हैं,
आओ  चलो  गाँव  चलते  हैं।

रूखी -  सूखी  रोटी    भाती,
चुपड़ी नहीं  कभी ललचाती,
राम-राम सब  जन कहते हैं,
आओ चलो  गाँव  चलते  हैं।

💐 शुभमस्तु !

30.04.2020 ◆2.00अप.

परिवर्तन [ अतुकान्तिका ]


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✍ शब्दकार ©
🌾 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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प्रकृति का नियम
परिवर्तन,
सृजन संहार,
पुनः नव सृजन,
रुदन हास्य,
नृत्य का लास्य,
आवागमन,
संचरण स्थैर्य,
अधीरता धैर्य,
स्फुरण स्पंदन,
सुशांति क्रंदन,
सबका वंदन।

खग कलरव,
अपगा कलकल,
सुमधुर निनाद ,
मंदिर में घण्टा ध्वनन,
चर्च में घण्टिका
 खन खन,
मस्जिद में अज़ान,
कौन इनसे अजान,
जन्म का रुदन,
हर्ष का सृजन,
प्रमुदित परिजन,
मरण का विलाप,
दारुण संताप,
संगीत का आलाप,
इधर अभिशाप,
उधर आनन्द का ताप,
परिवर्तन पर
परिवर्तन।

निरन्तर प्रतिक्षण
अहर्निश शनै: शनैः
विनाश और विकास,
सब साथ -साथ,
पवन संचरण,
आँधी प्रभंजन,
शीत लहर,
ग्रीष्मज तप्त लहर,
नभगत विद्युत तड़पन,
जलद गर्जन,
जल वर्षण,
अनगिन परिवर्तन।

चराचर जगत ,
संचरित स्वगत,
न कहीं भान,
न कृत्रिम शान,
नवांकुर अंकुरण,
विनाश विकास 
प्रतिक्षण,
रोग - नीरोग,
स्वीकरण विरोध,
विघटन अवरोध,
पुनः विचरण,
प्रेम का पल्लवन,
घृणा -घूर्णन,
ग्रहण -उत्सर्जन,
दैहिक विघटन ,
संघटन विकसन,
अबाध परिवर्तन।

कलिका किसलयगत,
परिवर्धन,
पुष्प पल्लवगत
नव विकास ,
नर -मादा का
शाश्वत मिलाप,
गर्भाधान,
नव सृजन का 
नवाख्यान ,
अगोचर 
जड़ -चेतन परिवर्तन।

शशि सूरज
उदयन ,
चलन 
अस्ताचल गमन,
दिवस रजनी आगमन,
क्रमशः संध्या प्रात,
मानव सीमा से अज्ञात,
आमंत्रण नमन,
सहज स्वीकरण,
अखिल ब्रह्मांड
जड़ -चेतन विचरण,
विलय - अविलयगत
आचरण।

हिमगिरि से
अनवरत सरित प्रवाह,
भरता उछाह ,
वाह ही वाह!
सागर से जा 
शनैः शनैः सुमिलन,
विलयन ,
मेघ दल सृजन,
मेघ वर्षण ,
अन्नोत्पादन,
जगत्व-पालन,
जीवन मरण ,
चक्रगत अनवरत
संचरण,
'शुभम' शाश्वत परिवर्तन,
तव शतशः अभिनंदन,
नमन।
पुनः पुनः नमन,
वंदन।

💐 शुभमस्तु !

29.04.2020◆4.15अप.

मंगलवार, 28 अप्रैल 2020

देहरी - देहरी दीप जलेंगे [ गीत ]


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✍ शब्दकार©
🇮🇳 डॉ .भगवत स्वरूप 'शुभम'
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देहरी   -  देहरी  दीप  जलेंगे,
फिर     से   मेरे    भारत   में।
शंख     और  घड़ियाल बजेंगे,
मातृभूमि    की   ज्यारत में।।

विश्व     महामारी    कोरोना ,
से   लड़ने  की  युक्ति  मिली।
घरबन्दी    कर  ही  बच  पाएँ,
बात    सही   ये  सत्य  भली।।
यथाशक्ति   जनसेवा कर लें,
नहीं   जिएं    निज स्वारथ में।
देहरी  -  देहरी    दीप  जलेंगे,
   फिर    से    मेरे   भारत   में।।

साबुन    से    हाथों   को धोएँ,
बार - बार  अति   उत्तम  है।
सेनेटाइज   करें   घर भर  को,
यही    नहीं    कोई  कम  है।।
स्वस्थ  सुखी सानंद सभी हों,
रहे    न    कोई     गारत में।
देहरी  - देहरी  दीप  जलेंगे,
फिर   से  मेरे   भारत   में।।

डॉक्टर नर्स जवान पुलिस के,
निशि दिन    सेवारत    रहते।
परिजन   छोड़  घरों में अपने,
कितने    कष्ट   सदा   सहते।।
भारत  माता  कहती  सुन लो,
उनकी    सदा    कृतारथ   मैं।
देहरी -    देहरी   दीप   जलेंगे,
फिर       से    मेरे   भारत  में।।

प्रतिरक्षा   का  तंत्र   देह  का ,
है   सशक्क्त  लड़  सकता है।
ज़हरीले     विषाणु   कोरोना,
 के  समक्ष   अड़  सकता  है।।
आशा    का  संचार हृदय  में,
सुबरन     सकल  पदारथ में।
देहरी  - देहरी   दीप   जलेंगे,
फिर      से   मेरे   भारत  में।।

शासन     और  प्रशासन  का,
सहयोग     हमेशा  करना   है।
घर    में   रहें  सुरक्षित  अपने,
कोरोना       से    डरना    है।।
पहलवान   हो या जवान  हो,
कितना    कुशल   महारत में।
देहरी  -  देहरी  दीप  जलेंगे,
फिर    से     मेरे    भारत  में।।

मेरे    भारत    की   माटी में,
नंदन   वन    का   चंदन  है।
पलते   इसमें   साँप   हजारों,
नहीं   व्याप्त  विष ,वंदन  है।।
नेताओं    ने   पाल   रखे  जो ,
जाते    जतन    अकारथ  में।
देहरी -  देहरी   दीप   जलेंगे,
फिर    से   मेरे    भारत  में।।

आओ  कवियो  अलख जगाएँ,
गाँव - गाँव   सब  शहरों   में।
अंधों   के  नयनों   को  खोलें,
संगीत    गुँजा  दें   बहरों  में।।
'शुभम'  चेतना - गान सुनाएँ,
बैठे     आरत    पारथ    में।।
देहरी   - देहरी  दीप    जलेंगे,
फिर   से   मेरे      भारत   में।।

💐 शुभमस्तु !

28.04.2020 ◆12.45 अप.

शारदा माँ के प्रति [ कुण्डलिया ]


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✍ शब्दकार ©
🌷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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                       -1-
वीणा   कवि की बज रही , नभ में  है गुंजार।
सरिता  गिरि सागर मची,धरती पर झंकार।।
धरती   पर झंकार,  समर्थन  में खग   गाते।
नदियाँ करें किलोल,मोर  वन में  मदमाते।।
' शुभम'  विष्णुजी संग, विराजीं देवी  श्रीणा।
ब्रह्मा सर्जन लीन ,  बजाती माता   वीणा।।

                        -2-
वाणी     कवि उर शृंग से, निसृत गंगा   धार।
जन  गण   मन पावन करे, जीवन का उद्धार।।
जीवन   का   उद्धार,  श्रवण  जो कोई   करता।
जलते   भौतिक ताप , वेदना उर  की हरता।।
'शुभम' खिलातीअंक,विमल कविता कल्याणी।
रहता    शेष   न पंक,  दैविकी  कवि  की वाणी।

                        -3-
मानव  का सौभाग्य है, करे सृजन जो काव्य।
धरा  लोक  में   ही मि  ले,पावनता संभाव्य।
पावनता   संभाव्य, सत्य  शिव  सुंदर कहता।
मिथ्या  से  नित दूर ,कष्ट  जो चाहे   सहता।।
'शुभम 'असित  अज्ञान,नहीं हो सकता दानव।
मानव - जीवन भाग्य,सुभागी है कवि मानव।।

                         -4-
मानव  यदि कोशिश करे,बन ता वैद्य वकील।
कवि   यों   ही  बनता नहीं, ऊँची उड़ती चील।
ऊँची    उड़ती   चील ,हंस  की अपनी  सीमा।
कौवे  करते   शोर  , गिद्ध   उड़ता है    धीमा।।
'शुभम' गीत  के मीत,  देव  बन जाते  दानव।
दस  रस  का आनन्द, उठाते   हैं कवि मानव।।

                        -5-
माता       देवी     शारदा  ,   दें   ऐसा वरदान।
मानव    हित रचना करूँ,निर्मल हो ये ज्ञान।
निर्मल      हो  ये ज्ञान,  वेदना  हर लें  सारी।
उर  की बगिया फूल, खिले हों शोभा न्यारी।।
'शुभम'  काव्य की धूम,मची हो भगवत ध्याता
सबका      हो    कल्याण ,  शारदे  देवी  माता।।

💐 शुभमस्तु !

27.04.2020 ◆2.45अपराह्न।

तुमसे भारतवर्ष महान [ बालगीत ]


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 ✍ शब्दकार ©
☘️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
★★★★★★★★★★★★★★
नर्स, डॉक्टर ,पुलिस-जवान।
तुमसे     भारतवर्ष     महान।।

जूझ  रहे  दिन - रात  देश में।
देवदूत  बन  नए    वेश    में।।
काटे      कोरोना   के     कान।
नर्स ,  डॉक्टर,पुलिस-जवान।।

बालक,  पति,पत्नी को छोड़ा।
सेवा    से  ही   नाता  जोड़ा।।
नहीं    बचेगा  रोग -  निशान।
नर्स,  डॉक्टर ,पुलिस-जवान।।

खतरों    के तुम बने खिलाड़ी।
पकड़ी    कोरोना  की   दाढ़ी।।
बन्द   शहर  की सभी दुकान।
नर्स,डॉक्टर,पुलिस -जवान।।

अस्पताल      के   अंदर  रहते।
कितने  कष्ट रात दिन सहते।।
खड़ी    पुलिस   भी  डंडा तान।
नर्स ,   डॉक्टर,पुलिस-जवान।।

सबकी     कर  दी  है   घरबंदी।
मत बेकार  घूम   स्वच्छन्दी।।
सभी    बचाएँ      अपनी  जान।
नर्स, डॉक्टर, पुलिस-जवान।।

सुना    चीन    ने   फैलाई   है।
बीमारी    जो जग   छाई   है।।
लैब  चीन   की   शहर  वुहान।
नर्स,  डॉक्टर, पुलिस-जवान।।

आओ  मिल सम्मान करें हम।
पुष्पमाल   आरति से हरदम।।
'शुभम'     देश  की  वे  संतान।
 नर्स,     डॉक्टर,पुलिस-जवान।।

💐 शुभमस्तु !

26.04.2020◆6.30अप.

सच्चे भारत - मीत [ दोहा ]


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✍ शब्दकार ©
🌷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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रात  दिवस सेवा करें,डाक्टर पुलिस जवान।
मानव तन में पशु वही, भूलें जो अहसान।।

पत्थर     जिसके  वक्ष  में, होगा पत्थरबाज।
क्षमा योग्य होगा नहीं, भारत माँ की खाज।।

रासभ    के हित में दिया, खाने को जब नौन।
उसे   लगा   फोड़े  नयन,  बोला हेंचू   कौन??

कौन   हितैषी  कौन रिपु,जानें पिल्ला श्वान।
वे    कृतघ्न हैवान हैं,जिन्हें  नहीं है   भान।।

उचित समय पर कर्म के,बीज उगें बन शूल।
जैसा      जिसका    कर्म  है, वैसे उसके फूल।।

परहित       को  जो जी रहे, मनुज देह में देव।
वे    नारी   हैं देवियाँ,   निरत मनुज की सेव।।

धन्य  देवियाँ नर्स जो,तज  घर में निज  बाल।
निज  तन मन जो होमतीं,जूझ रहीं जो काल।

अभिनंदन    उनका करें, डाक्टर ,नर्स, जवान।
कोरोना      से   जूझते  , मेरा    देश   महान।।

हमसे     जो    सेवा  बने,  करें  देश की आज।
कहती     है   माँ   भारती, बंधु बचा लो लाज।।

कवि      आओ  रचना  करें,गाएँ उनके गीत।
देश   धर्म  में जो  निरत,सच्चे भारत मीत।।

करें   आरती आज  मिल,  पह नाएँ गलहार।
पुलिस ,डाक्टर, नर्स को,   करते जो उपकार।।

💐 शुभमस्तु !

26.04.2020 ◆1.50 अप.

सोमवार, 27 अप्रैल 2020

ग़ज़ल


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✍ शब्दकार ©
🍀 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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टूट   गया  है  आज  भरम।
कभी  न होगी खाज नरम।।

बिच्छू   साँप    न   बदलेंगे,
बची नहीं  है  लाज - शरम।

बदलेंगे     वे   चेहरे    रोज़,
करें  बुरे  नित  काज करम।

भले  कटे   अपनी     ग्रीवा ,
लक्ष्य  गिराना  गाज  चरम।

पत्थर   छाती ,    हाथों  में,
बाहर आया  आज   मरम।

ठंडा  करके    क्यों   खाना,
कहता  यही   जमात    धरम।

'शुभम' बुद्धि   की बलिहारी ,
खाती   है  जो   घास गरम।।

💐 शुभमस्तु !

25.04.2020 ◆11.45 पूर्वाह्न।

सन्नाटा ही सन्नाटा - कविता


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✍ शब्दकार©
🍀 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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 सन्नाटा    ही    सन्नाटा ! है,
सुनसान  सब गलियाँ  यहाँ।
जाने       कहाँ    है   आदमी,
 एकांत     का  साया    वहाँ।।

क्या  हो गया इस शहर को,
किसकी  लगी इसको नज़र।
आबाद    था  जो  रात- दिन,
उसकी    नहीं  कोई  खबर।।

किससे   कहें किसकी सुनें,
एक    ख़ौफ़ का साया यहाँ।
वह    कौन  है जिससे  कहें,
अब    आदमी   ढूँढें  कहाँ??

कब     तलक   ये  शून्यता ,
कब     तलक चुप आँधियाँ।
क्या     कोई भी  बतलायेगा ,
आबाद   कब हों   वादियाँ??

 ये      हाय !  कैसा   वक्त है,
सब     काम - धंधे  बन्द हैं।
रो      रही   कविता 'शुभम',
रूठे       हुए   से    छन्द  हैं।।

देख कर   के     दृश्य   ये ,
कुछ   समझ में आता नहीं।
अपना    प्यारा आगरा का,
रूप     ये   भाता      नहीं।।

रो    र ही     यमुना    नदी ,
ये     आँसुओं  की    धार है।
प्रकृति      से   संग्राम     में,
ये       आदमी की   हार है।।

जग    शून्यता    वीरानगी ,
कोसों     न दिखता आदमी।
कर्म     का फल भोगना तो,
इंसान     को  था  लाज़मी।।

देखी      नहीं   जाती  दशा ,
इंसान    को    सद्बुद्धि  दे।
हो    गया  अब   तो  बहुत ,
दुष्कर्म     की   भी शुद्धि  दे।।

💐 शुभमस्तु !

25.04.2020◆2.45अप. 

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2020

रक्षक हन्ता [अतुकान्तिका]


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✍ शब्दकार ©
🍏 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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सोची -समझी 
साजिश,
आदमी
आदमी के लिए
आतिश,
लगी हुई है
भयानक आग,
डंसता हुआ
निरन्तर नाग,
नाग नहीं
डंसता नाग को,
पर आदमी
 उजाड़ रहा है
अपने ही बाग को।

नादानी नहीं यह
क्षम्य भी नहीं,
प्राण अपने भी 
नहीं प्यारे
वह इंसान नहीं,
जो आदमी को
उजाड़े,
आस्तीनों में 
छिपे हुए नाग
निकल आए,
देश के 
कोने -कोने में छाए,
आदमी ही आदमी को
मारने पर 
उतर आए,
रक्षक -हन्ता बन
पत्थर बरसाए,
आदमी की
नापाक करतूत 
क्या कही जाए?

तुम्हारे भले के लिए
खतरों से खेलते
चिकित्सक 
पुलिस के जवान,
उनकी देह के ऊपर
पत्थर के निशान?
वाह रे
इंसान की
देह धारे
हैवान ,
कायरता में
नहीं है तेरी शान,
क्या तुझे 
नहीं है 
प्रिय अपनी जान?
क्या नर
 क्या मादा!
सबका एक ही इरादा,
छतों से गलियों 
सड़कों पर,
पत्थर ले हाथ
रौंदते 
मानव देहधारी पिशाच!

देश और समाज 
में छिपे हुए 
असंख्य दुश्मन,
बच के 
जाओगे कहाँ,
 कीड़े -मकोड़ों की 
योनि में
नालियों में
पाओगे जहाँ,
नहीं मिलेगा
पुनः मानव  जीवन,
धिक्कार है तुम्हें।

साधु -संतों के
क्लीव घाती,
तेरी करनी
भला किसको भाती,
क्या यही है
मेरे भारतवर्ष की
अनमोल थाती?
हया तेरी 
आँखों में
क्यों नहीं समाती?
बदल -बदल कर चेहरे
बनकर जमाती,
तुम्हारी जननियाँ
तुम्हें जन के
क्यों नहीं शरमाती?

माँ भारती के
नाम पर 
हे रक्षक -हंताओ!
कलंक हो,
ज्यों वर्णमाला का
काला अंक हो,
इतने भी होना मत 
निशंक,
बुला रहा है
तुम्हें 
विषाक्त पंक,
तुम इंसान नहीं
साक्षात वायरस हो!
वायरस हो!!
वायरस हो !!!

💐 शुभमस्तु  !

23.04.2020  ◆4.30 अप.

कठिन परीक्षा काल [ कुंडलिया ]


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✍ शब्दकार ©
🎪 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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कठिन   परीक्षा काल है, रखनी है   मर्याद।
जो   चूकोगे आज तुम,  रह जाएगी  याद।।
रह   जाएगी याद, नाम   की अपनी   सीमा।
अमर सदा शुभ काम,नहीं आजीवन बीमा।।
'शुभम 'घड़ी पहचान,सीख  नर ऐसी शिक्षा
संभल धरा पद डाल, यही  है कठिन परीक्षा।।


आदत   से लाचार है ,समझ न आए बात।
उलटी  सीधी चाल है, अपने पग ही घात।।
अपने  पग ही घात,मारता मनुज कुल्हाड़ी।
कहता है विद्वान, किंतु है  निपट अनाड़ी।।
'शुभम'  अहं में चूर, भूल तू गया इबादत।
पशुता  से  भरपूर,नहीं  सुधरे यह आदत।।

मानव  तेरे शीश पर,  पुलिस  दंड का घात।
लाज  नहीं तेरे नयन ,है अचरज की बात।।
है    अचरज की बात,लाज से तू मर जाता।
पशुओं के कर काज , नहीं मानव कहलाता।।
'शुभम' संभलजा आज, नहीं बन ऐसा दानव।
   डंडे    से  डर मूढ़ ,  अरे  बन जा  तू  मानव ।।

 मानव का धर रूप  क्यों ,रासभ लोमश काज।
मच्छर  बन रस चूसता, गीध चील या बाज।
गीध  चील  या बाज, वसन मानव के पहने।
इतराता    तन ऐंठ, दिखाता  अपने गहने।।
'शुभम' सोच ले आज ,कर्म से मन है दानव
अंडज स्वेदज रूप, वृथा है यह तन मानव  ।।

आओ  अब   पहचान लें,कौन मनुज नर देह।
माँस  घोंसले छोड़कर ,  रहे भवन  या  गेह।
रहे    भवन  या गेह,मुखौटे  रोज  बदलता।
ठगता  मानव जाति,समझता यही सफलता
 'शुभम'  कपट की खाल,न नर से धोखा खाओ।
मानव  ने ली ओढ़,समझ मानव को आओ।।

💐 शुभमस्तु !

21.04.2020 ◆5.00अपराह्न।

देह के नव द्वार [ चौपाई ]


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✍ शब्दकार ©
🍀 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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कर्ता     के  सब  काम  निराले।
सभी   मनुज  नव द्वारों वाले।।

नौ      दरवाजे    देहधाम  के।
होते   हैं जो  विविध काम के।।

सात  द्वार  मुखड़े  पर   सोहें।
आपस  में  नर - नारी  मोहें।।

कटि   के  नीचे  हैं  दो  द्वारा।
करें  विसर्जित  देह-विकारा।।

दो  आँखों  से दुनिया दिखती।
सारे  जग को सदा निरखती।।

पथ   पर  रखते नज़र हमारे।
मानव  के दो  नयन  सहारे।।

नयन   बीच   नीचे   है नासा।
कहती  साँसों  की परिभाषा।।

दो - दो छिद्र नाक  के  सुंदर।
आता - जाता  श्वास समंदर।।

दायाँ      सूर्य    चंद्रमा  बायाँ।
उष्ण- शीत जो तन में छाया।।

इड़ा  , पिंगला    दोनों  नाड़ी।
मध्य   सुषुम्ना है  कल्याणी।।

नासा  तर आनन  की शोभा।
अधर  कपाट देख मन लोभा

मुख  से  वाणी ,भोजन होता।
पाप-पुण्य  के फल भी बोता।।

दाँत  मध्य   रसना  है  प्यारी।
स्वादकली की जिसमें क्यारी।

वाणी की निधि जीभ हमारी।
सभी स्वाद  की  जिम्मेदारी।।

करते दंत  खाद्य  का चर्वण।
ग्रास   नली   को होता अर्पण।।

कोयल   मेढक की हर बोली।
विधि  ने जीभ हमारी घोली।।

सिर के पार्श्व कान दो प्यारे।
सुनते शब्द जगत के न्यारे।।

मानस     को    संवेदन   देते।
समझ  ज्ञान से  उनको लेते।।

तन- मल के जो करें निकासा।
उनकी   अपनी -अपनी भाषा।

मूलाधार     छिपा   है    नीचे।
कुंडलिनी     को  अंदर  भींचे।।

सबके   एक    द्वार  पर ताला।
मधि कपाल का रहस निराला।

ब्रह्मरंध्र    जो   है    कहलाता।
मोक्ष  क्रिया का मार्ग बताता।।

सतत     साधना  जो करता है।
ब्रह्म-शिखर  दर से तरता है।।

ब्रह्म -द्वार  से प्राण निकलते।
वे मानव फिर जन्म न धरते।।

बिंदु  सिंधु  में जाकर मिलता।
कमल  सरोवर में जो खिलता।

💐 शुभमस्तु !

20.04.2020 ●7.00अप.

जंगल की कहानी [ बालगीत ]


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✍ शब्दकार ©
🐘 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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जंगल  की तुम सुनो  कहानी।
सुना    रही   थी   मेरी  नानी।।

हथिनी   हाथी  पर    चिंघाड़ी।
फ़टी      हुई   है   मेरी साड़ी।।
 नई   पड़ेगी  तुमको     लानी।
जंगल  की तुम सुनो कहानी।।

हाथी    बोला     बंद    दुकानें।
कैसे    जाऊँ    साड़ी    लाने।।
तुमने    ऐसी  जिद   है   ठानी।
जंगल    की तुम सुनो कहानी।।

अपने    घर  में  बंद  सभी  हैं।
बाहर  आते  कभी - कभी हैं।।
बात   नहीं   है  ये  बचकानी।
जंगल  की तुम सुनो कहानी।।

आया   है   विषाणु   कोरोना।
रोगी   जग का कोना -कोना।।
घरबंदी    कर   जान  बचानी।
जंगल  की तुम सुनो कहानी।।

सड़कों पर   पसरा   सन्नाटा।
 नहीं    कहीं   वाहन  अर्राटा ।।
इंसां   माँग   गया   है   पानी।
जंगल  की तुम सुनो कहानी।।

बार - बार  हाथों   को  धोते।
नहीं  घरों   से  बाहर   होते।।
छुआछूत    से    डरते   प्रानी।
जंगल की तुम सुनो कहानी।।

इंतज़ार    तुम  कर  लो थोड़ा।
कोरोना    निर्जीव   निगोड़ा।।
'शुभम'  नहीं क्या अभी डरानी 
जंगल  की तुम सुनो कहानी।।

💐 शुभमस्तु!

20.04.2020 ◆ 9.50 पूर्वाह्न।

चिड़ियाघर में संसद! [ दोहे ]


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✍ शब्दकार ©
🐅 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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चिड़ियाघर में एक दिन, संसद लगी विराट।
पशु - पक्षी  बतिया रहे, जैसे मानव -  हाट।।

'कहाँ   गया  ये आदमी,सूने सड़क बजार।
हमें  देखने आ रहे, नहीं,  करें क्या  यार??'

लोमशजी की बात ने,खींचा  सबका  ध्यान।
जम्बुक जी  कहने लगे ,सही बात श्रीमान।।

क्या  विशेष कारण बना, घर में मानव  बंद।
शुतुरमुर्ग बोला वचन, हम सब हैं स्वच्छन्द।।

चलो   शेर   से हम कहें  ,  बोले भालू  राम।
खैर   ख़बर लेने    चलें,शहर गली हर गाम।।

हाथी  चीता ने किया, अनुमो दित प्रस्ताव।
वानर  उछला डाल पर,भरे हृदय में चाव।।

देख  शेर ने माँद पर,  खड़े सैकड़ों  जीव।
सोचा    कैसे  जीव ये, आए तोड़ी  सींव।।

उठ   जा   रानी शेरनी ,बाहर जाकर देख।
क्यों   आए हैं माँद पर,चीता  हाथी शेख।।

जो  आज्ञा कह शेरनी,  बाहर  आई   आप।
हिरन मूस  खरगोश की,टाँगें थर-थर काँप।।

चीते   से कहने लगी,  सुघर शेरनी   बोल ।
देवर जी  क्या कष्ट है,निर्भय हो मुँह खोल।।

भाभी    भैया   से कहो ,मानव क्यों घरबंद।
सभी    चलेंगे  देखने ,पहले  था स्वच्छन्द।

गई   माँद  में  शेरनी,  लेटे    थे वन राज।
आए    बाहर शेर जी,लगा शीश पर ताज।।

चलो  बंधु स्वीकार है , तुम सबका प्रस्ताव।
मिल जुल  कर हैं ढूँढ़ते,क्या है उसको घाव।।

गली   सड़क वन बाग में,फैल गए वे जीव।
इध र गया कोई उधर, बिखरे  बेतरतीव।।

घर , दुकान,  शाला सभी, देखे ताले बंद।
पुलिसमैन  तैनात हैं,ठौर ठौर स्वच्छन्द।।

जो  बाहर आता कहीं,उस पर दंड विधान।
सख़्ती से  सारी पुलिस ,  देती डंडा  तान।।

बैठ  कार में घोषणा, करते  हैं दिन  रात।
कोरोना  के कोप से, बच ले मानव जात।।

लगा मुखौटा नाक मुँह,धो साबुन से हाथ।
घर के अंदर बैठजा,निज परिजन के साथ।

संक्रामक यह रोग है ,  चलो यहाँ   से  दूर।
चिड़ियाघर अपना भला,है मानव मजबूर।।

वाणी     सुनकर   शेर की,  माना है आदेश।
पिजड़ों में जाकर घुसे,त्याग मनुज से द्वेष।।

मानव  विपदाग्रस्त  है,पशु पक्षी निरुपाय।
खोजेगा   वह   शीघ्र ही,कोई 'शुभम'उपाय।

💐 शुभमस्तु !

19.04.2020 ◆4.15 अपराह्न।

ग़ज़ल


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 ✍ शब्दकार ©
🌿 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'
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 इस    पार    सबने    देखा।
उस   पार   किसने  देखा??

जिंदा     रहेगा    जो     भी ,
उस     पार  उसने    देखा।

बदलाव       कुछ   बड़े    हैं,
वह  द्वार    हमने      देखा।

ऐसा     हुआ      न    पहले,
संसार       जिसने      देखा।

पाकीज़गी    का     परचम ,
फहराता      जग  ने    देखा।

औरों     की   जान    बख्शे,
भारत  को   तुमने    देखा !

दुश्मन  को  भी 'शुभम'  जो,
उपहार         उनने     देखा।

💐 शुभमस्तु !

19.04.2020 ◆10.45 

ग़ज़ल


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✍ शब्दकार ©
🌾  डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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आदमी   का आदमी से बात करना बंद है।
दुरदुराती   नज़र से आघात करना बंद है।।

ख़ाली    सड़क,   बाज़ार, गलियाँ  हैं सभी,
अपने घर से रौशनी भी निकलना बंद है।

सूनी   पड़ी हैं सब पटरीयाँ भी हमारी रेल की,
देख  लो नीले  गगन  में यान उड़ना बंद है ।

जब से  चली ये विषहवाएँ अहंवादी चीन से, 
बाग में मुस्कान का हर फूल खिलना बंद है।

आदमी  से हाथ क्या अपना मिलाए आदमी,
नज़रें  उठाए गर्व से नज़रें भी मिलना बंद है।

अजब   सन्नाटा  यहाँ   पसरी हुई वीरानगी,
माँझियों का नदी में कोई नाव चलना बंद है।

इस  तरफ है नेकनीयत उस तरफ हैवानगी ,
शुभम  क्या   जी बाग  में फूल खिलना बंद है?

💐 शुभमस्तु !

18.04.2020 ◆ 6.05 अपराह्न।

गरीब के खून की मशाल [ व्यंग्य ]


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 ✍ लेखक ©
 🌹 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम' 
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               कौन नहीं जानता कि खून का रंग लाल होता है।अमीर , गरीब, नेता , अधिकारी, नौकर , कर्मचारी, भिखारी, नर और नारी , शादीशुदा , ब्रह्मचारी - सभी का खून लाल ही होता है। पर आदमी ने अपनी ही तरह खून को भी चार समूहों  में बाँट दिया।लेकिन सबका रंग वही लाल का लाल ही रहा। इन सभी खूनों में एक तत्त्व ऐसा भी है जो 99.99%प्रतिशत लोगों में समाविष्ट है। अब जो चीज खून में एक अनिवार्य तत्त्व के रूप में विद्यमान हो , उसकी चर्चा क्यों की जाए ? कोई भी उस अनिवार्य तत्त्व की चर्चा न करना चाहता है और न सुनना ही पसंद करता है, क्योंकि वह तो उसमें भी पहले से ही विद्यमान है। पर आज हम उसकी चर्चा करने बैठ गए तो बैठ ही गए।
            जिसे सारा देश और जमाना भ्रष्टाचार और बेईमानी कहता है। इस देश में सदाचार और ईमानदारी ऐसे गायब हो गई है , जैसे हाथी के सिर से सींग। हमारा देश कोई गधा थोड़े ही है , जो गधे के सिर से सींग गायब होना कहा जाए। यह देश तो ऋषियों मुनियों की संतान वाला गौरवशाली देश है। अब यह तो शोध का विषय है कि भ्रष्टाचार और बेईमानी के पवित्र तत्त्व इस देश के रक्त में कब से समाहित हुए। कैसे और कहाँ से आगमन हुआ ? जब कोई चीज हमारी समझ से परे हो जाती है , तो हम विदेशी ताकतों पर पल्ला झाड़कर कमर पर हाथ ऐंठकर खड़े हो जाते हैं। हो सकता है कि भारत में आर्यों की तरह भ्रष्टाचार भी बाहर से आ गया हो। सबसे मजे की बात यह है कि हमारे रक्त के सभी समूहों ने उसे ऐसे स्वीकार कर लिया है , जैसे प्लास्टिक सर्जरी में जांघ की चमड़ी नाक पर सुशोभित होकर नाकवास (स्वर्ग में वास) प्राप्त कर लेती है।

               बेईमानी की बात तो अब कोई बहुत दकियानूसी या पिछड़ा हुआ आदमी ही कर सकता है। अब टी वी,  अखबारों में भ्रष्टाचार की बात देख , सुन या पढ़कर कोई चोंकता नहीं है। क्योंकि यह इस देश के लिए कोई बड़ी बात नहीं है। अब ईमानदारी हमें चोंकाती है। हमें आश्चर्य होता है कि आज ऐसे मूर्ख भी अस्तित्व में हैं , जो ईमानदारी का तमगा गले में डाले घूमते हैं। आज यदि दिन में 1000 वाट का टॉर्च लेकर खोजा जाए , तो एक भी ईमानदार मिलना असम्भव होगा। हाँ, इतना तो मानना ही पड़ेगा कि आज केवल वही ईमानदार है ,जिसे बेईमानी करने , चोरी करने , गबन करने , रिश्वत लेने, कमीशन खाने , बख्शीश पाने का सुअवसर ही प्राप्त नहीं हुआ।
             आज के युग में ऐसा व्यक्ति बेचारा है , क्योंकि उसे चारा ही नहीं मिला। चारे के नाम पर लोग यहाँ पुल, सरिया , सीमेंट , ईंट और न जाने क्या - क्या खा गए! अब तो ये सब छोटी - छोटी बातें हैं। अब तो बैंकों को खाने का क्रम लंबे समय से चल रहा है। लेकिन यह सबके सामर्थ्य की बात नहीं है। व्यापारी , अधिकारी , कर्मचारी , पंसारी, भंडारी, सबकी अपनी सीमा है। कोई रेलवे का कोयला चुराकर ही संतुष्ट है। कोई बोरों में नोट लेकर भी संतुष्ट नहीं है। अरे भई  ! सबकी अपनी -अपनी सीमा है।किसी एक का नहीं बीमा है , कोई तेज है ,कोई धीमा है। भ्रष्टाचार की जाँच कौन करे ? भ्रष्टाचार की जाँच किसी ईमानदार को क्यों दी जाएगी? उसे कोई अनुभव ही नहीं है। बिना अनुभव के वह जाँच कैसे करेगा? इसलिए महाभ्रष्टाचारी और महा बेईमान को इसका जिम्मा सौंपा जाता है। वह अपनी कलाकारी से कुछ ही समय में क्लीन चिट देकर अलग हो जाता हैं । यह भी खुश , वह भी खुश औऱ जिसने जाँच बिठाई वह तो महाखुश। इसे कहते हैं दूध का दूध और पानी का पानी। हंस का नीर क्षीर विवेक? धन्य मेरे भारत के भूषण अनेक।अब क्या , आगे -आगे देख । पीछे मुड़कर मत देख। करता रह ऐसे ही काम नेक ।

               भाँग कुँए में ही पड़ी हुई है। ऐसी- ऐसी जाँच समितियां हैं कि ईमानदार को चोर और भ्रष्टाचारी को चार दिन में चोर सिद्ध कर दें। बहुमत का जमाना है न ? बहुमत जिसे चाहे कुछ भी सिद्ध कर सकता है। गधे को सिंहासन पर बिठा सकता है और घोड़े को गधशाल में बंधवा सकता है। बस मूलमन्त्र यही है कि भ्रष्टाचार जिंदाबाद औऱ ईमानदारी मुरादाबाद। इस देश में भ्रष्टाचार की जड़ें बहुत गहराई तक अपनी पैठ बना चुकी हैं।एक बात आज तक मेरी समझ में नहीं आई, कि जब देश के सभी नेता , मंत्री , बड़े -बड़े अधिकारी इतने ईमानदार हैं ,तो देश में नौ -नौ शहरों में कोठियाँ, बंगले , होटल , मॉल, कारखाने ,मिलें , अरबों खरबों की चल -अचल संपत्ति , सोना , हीरे ,जवाहरात, प्लॉट कहाँ से और कैसे आए? फिर भी ईमानदार के ईमानदार? क्या कोई नेता , मंत्री ,अधिकारी या व्यापारी ईमानदारी के वेतन और कमाई से इतना कर सकता है? शायद इसका एक ही जवाब होगा :नहीं कर सकता।

                फिर ? फिर ?? फिर    ???यह ईमानदारी का चोगा क्यों ? हालत वही है, जिसकी भी दुम उठाई मादा निकला। बस मौका न था , अन्यथा रहे बचे सभी बहती गंगा में हाथ धो लेते। लेकिन दुर्भाग्य ! अरे भई! खून तो सबका एक ही रंग का है , लाल। उसी लाल में छिपे हुए हैं कितने कमाल। जो आए दिन मचा रहे हैं धमाल। कोई कभी अंदर तो कुछ दिन में बहाल।फिर काटो गर्दनें और होते जाओ मालामाल।ऊपर से ओढ़ाते रहिए मखमल की शॉल। बेईमानी ही बनकर आएगी तेरी ढाल। बस जलती रहनी चाहिए गरीब के खून की मशाल।

 💐 शुभमस्तु !
 24.04.2020 ◆11.20 पूर्वाह्न
। www.hinddhanush.blogspot.in

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2020

जीवन के खेल ( गीत)


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✍ शब्दकार ©
☘️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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जीवन  के  खेल   निराले  हैं।
अपने    ही   ऊपर   ताले हैं।।

ऐसा -  वैसा   कुछ  होना था।
तज कामकाज घर सोना था।
कैसी    दुर्धर्ष     मिसालें   हैं।
जीवन के  खेल   निराले  हैं।।

मानी  तो   बहुत   मनौती  हैं।
हम अपने  लिए  चुनौती  हैं।।
निज  ग्रीवा   फन्दे  डाले  हैं ।
जीवन  के  खेल   निराले हैं।।

मानव,  मानव  को  खाता है।
निज करनी पर  इतराता  है।।
छल -छन्द  भरी सब चालें हैं।
जीवन  के  खेल  निराले  हैं।।

जिस  शाखा  पर बैठा मानव।
वह शाख काटता बन दानव।
जैविक बम आज निकाले हैं।
जीवन  के खेल  निराले  हैं।।

विज्ञान आज अभिशाप हुआ।
जो कियाअद्यतन पाप-जुआ।
निज हाथ  लिए  करवालें  हैं।
जीवन के  खेल  निराले   हैं।।

पक रही फ़सल हैं जहरों की।
आ रही आँधियाँ कहरों की।।
अंधे  -  बहरों   के   जाले  हैं।
जीवन के  खेल  निराले  हैं।।

अब धर्म - कर्म सब पीछे हैं।
सब अपनी आँखें  मींचे हैं।।
सात्विकता के नित लाले हैं।
जीवन के खेल  निराले  हैं।।

💐 शुभमस्तु !

16.04.2020 ◆7.30अपराह्न।

नियम कोई बंधन नहीं है ! [ अतुकान्तिका]


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✍ शब्दकार ©
🐒 डॉ.भगवत  स्वरूप 'शुभम'
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निहितार्थ हैं
कुछ तो,
कि जीवन 
थम गया है,
स्वयं अपनी 
कैद में
इंसान क्यों
यों रम गया है?
विस्तारवादी 
अहं का
परिणाम भीषण,
उच्च पर्वत पर
तुहिन- सा
जम गया है।

आदमी का ज़हर
आदमी ने ही
पिया है,
पीकर जहर ये
कौन धरती पर
जिया है?
अपने चक्षुओं से
देखता है
आदमी ये
मरता हुआ 
वह
आदमी अनगिनत ,
हृदय लख
काँपता  है
अपने भविष्यत को
जहन में
भाँपता है।

छू नहीं सकता
किसी इंसान को,
न अपने नाक मुँह
या नासिका,
खतरा मँडरा  रहा
उसी की जान को,
देखता है 
स्वप्न में
श्मशान को,
काँप उठती रूह,
जाने कहाँ
किस ओर 
बना हो 
प्राणघाती व्यूह,
देखकर कर
अस्पतालों ,
मुर्दाघरों,
कब्रिस्तान में
शव - ढूह।

निज 
प्राण रक्षण की
चिंता चिता - सी
धधकती है, 
बुद्धि मानव -कृत्य से
यों बहकती है,
निरुपाय 
असहाय ,
फिर भी
हो रहा मानव 
विस्तृत मुँह बाए
खड़ा है।

एक अदृश्य दानव
ताण्डव -नृत्य से,
दहलती है धरा ,
प्रतिक्षण 
सुनाई पड़ रही
अनसुनी ध्वनियाँ,
किस ओर
कौन मानव मरा,
यमराज ने
जिसके
प्राण को हरा।

छिप जाइए
अपने घरों में
सिमटकर, 
करके स्वयं 
घरबंदियाँ अपनी, 
अन्यथा संख्या 
कम हो जाएगी
घटकर,
कौन ले जाएगा 
देह तेरी को
मरघट पर,
ये सोचा ?

छूना मना है
भले ही हो 
जिंदा तुम,
बाद में क्या
हस्र हो तेरा ?
लगाता रह
अपने ही घरों में 
हे मनुज ! फेरा!
नहीं कर पाएगा 
ये तेरा, 
ये मेरा।


'शुभम' सात्त्विक 
बना रह ,
मत इतना
तना रह,
दिव्य आशा को
जगा मन में,
वही संजीवनी तेरी!
रक्षकारी सिद्ध होगी,
नियम कोई
बंधन नहीं है,
बताया जा रहा जो,
सबको सही है,
सबको सही है।

💐 शुभमस्तु !

16.04.2020 ● 1.30अपराह्न।

अमर आशा [ गीत ]


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✍ शब्दकार ©
🪔 डॉ.भगवत  स्वरूप 'शुभम'
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अंबर  तक  आशा की धरती।
आशा न  कभी मेरी  मरती।।

आशा  में  दिव्य  उजाला  है।
उन्नति का खुलता ताला है।।
जीवन   प्रकाशमय  है करती।
आशा   न कभी मेरी  मरती।।

सरिता -प्रवाह कब रुकता है?
क्या  अंबर नीचे  झुकता है ??
हुंकार    आँधियाँ  जब भरती।
आशा   न  कभी  मेरी मरती।।

कब  सुमन भूलते   मुस्काना?
भौरों  से  मधुरस   चुस्वाना??
ताजा  सुगंध उड़ती - फिरती।
आशा  न कभी  मेरी  मरती।।

नियमित है भानु उदय  होता।
अस्ताचल में  जाकर  सोता।।
हर किरण विश्व उज्ज्वल करती।
आशा न  कभी  मेरी  मरती।।

शशि   शीतलता  का  दानी है।
वह तनिक नहीं अभिमानी है।
रश्मियाँ   चकोरें  नित  चरती।
आशा  न कभी  मेरी  मरती।।

पर्वत   सिर  ऊँचा  तान  खड़े।
सरिताओं   के वे  पिता  बड़े।।
झर झर झर झर रहती झरती।
आशा    न कभी   मेरी  मरती।।

कृत्रिम   जीवन  जो जीता है।
नित ज़हर    बनाता  पीता है।।
मुश्किलें    नहीं उसकी टरती।
आशा     न कभी मेरी मरती।।

जो   दूर   प्रकृति  से  रहता  है।
दरिया   में शव - सा बहता है।।
मानव   से प्रकृति नहीं डरती।
आशा   न कभी  मेरी  मरती।।

ठोकर  खा   अक्ल नहीं आती।
मानव  प्रजाति फिर पछताती।
आशा  से 'शुभम' नाव तरती।
आशा   न कभी  मेरी  मरती।।

💐 शुभमस्तु ! 

16.04.2020 ◆9.45 पूर्वाह्न।

आदमी की देह [ व्यंग्य ]


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 ✍ लेखक © 
🙈 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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          बाहर से देखने पर तो वह आदमी ही दिखाई पड़ता है। लेकिन वास्तविकता इसके विपरीत ही नज़र आती है। उसकी देह तो प्रकृति ने आदमी की ही बनाई है , पर उसकी देह में ही संदेह है। निस्संदेह संदेह है। कुछ जीवों की प्रजातियाँ पशु -पक्षी की देह में भी मानव हैं। उसी प्रकार यहाँ सभी मानव मानव नहीं हैं।अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि इस तथ्य की पहचान कैसे की गई है? 

          जहाँ तक मैंने समझा सोचा है , यह कोरोना नामक महामारी इस चराचर जगत के लिए एक व्यापक संदेश लेकर आई है।वह प्रत्यक्ष रूप में चर्म चक्षुओं द्वारा दृश्य न भी हो।अन्य अनेक न दिखाई देने वाली चीजों की तरह वह भी दिखाई नहीं देती। लक्षणों के आधार पर उसकी उपस्थिति का विश्वसनीय अनुमान लगा लिया जाता है। जैसे पवन भी दृश्य नहीं है। लेकिन उसका अस्तित्व भी ऐसा है कि उसके बिना मनुष्य तो क्या कोई भी जीवधारी एक निशिचत अवधि के बाद जीवित नहीं रह सकता।पवन को दिखाई नहीं देने के बावजूद सारा संसार उसके अस्तित्व को प्रणाम करता है। पवन की ही तरह ईश्वर ,परमात्मा ,गॉड भी दिखाई नहीं देता तो लक्षणों के आधार पर मानव अथवा अन्य जीवों में उसकी परिकल्पना करके उसके अस्तित्व को स्वीकार किया जाता है। इसी प्रकार से इस विराट ब्रह्मांड में अनेक वस्तुएँ अस्तित्व में हैं।कृपा , आशीष ,वरदान , शाप ये प्रत्यक्षतः दिखाई नहीं देते, किन्तु यथासमय अपना कार्य करते हैं। 

           चिकित्सकों , पुलिस प्रशासन आदि पर ईंट ,पत्थर बरसाने वालों ,थूकने वालों , पॉलीथिन की थैलियों में मूत्र भरकर फेंकने वालों , अपने ही शुभचिंतकों को मारने -पीटने वालों को मानव -देह मिलने पर भी वे मानव तो हैं ही नहीं।वे हिंसक पशु , राक्षस , दो मुँहे सर्प , बिच्छु, नरभक्षी आदि कुछ भी हो सकते हैं , किन्तु उन्हें मानव कहलाने का अधिकार तो दिया ही नहीं जा सकता। अब यदि देश के नेता अपने वोटों की तिजोरी भरने की ख़ातिर अपने सिर पर कालीन बिछाकर उन्हें बिठाएँ तो कोई क्या कर सकता है। क्योंकि मानव की देह में वे सभी मानव नहीं हैं। इसलिए उनका मौन धारण करना, उनकी लल्लो- चप्पो करना , तेल मालिश करना ये सब यही सिद्ध करते हैं कि ये भी किसी स्तर पर , उनके किसी पूर्व जन्म के रिश्तेदार ही होंगे। अरे भई ! जब उन्हें मनुष्य का चोला मिला है ,तो उन्हें अपनी 'अतिमानवता ' तो उन्हें दिखानी ही होगी। इसलिए ऐसे मानव देहधारी अमानवों को सहलाना , फुसलाना , बहुत जरूरी हो जाता है। और वे ऐसा कर रहे हैं। उनकी छत्रछाया में पल रहे हैं। फल -फूल रहे हैं।

                उन्हें मानव कैसे माना जा सकता है जो दूसरों के हकों पर डाका डालकर अपने घरों में आटा , दाल , सब्जी , नमक दैनिक प्रयोग की चीजों को एकत्र करके दुकानों पर बेच रहे हैं और बदले में शैम्पू, क्रीम ,पाउडर ,लिपस्टिक खरीद रहे हैं। यह महामारी ऐसे राक्षसों को पहचान कराने के लिए आई है। उन्हें उनके आँगनों में नंगा किया जा रहा है। लेकिन शर्म वह शै है ,जो मानवों के लिए है , पशु या राक्षसों के लिए नहीं। उन्हें आए तो कैसे और क्यों? 

         कोरोना महामारी मानव, अतिमानव और अमानव की पहचान करने के लिए आई है कि कौन -कौन हैं ऐसे जो मानव देह में मानव नहीं हैं। वे उसी कोरोना के रिश्तेदार , भाई , बन्धु , इष्ट , मित्र कुछ भी हो सकते हैं। वह तो एक निश्चित अवधि के बाद चली ही जाएगी , किन्तु आदमी की देह में कौन सा राक्षस , देवता , अतिमानव छिपा बैठा है , इसकी बहुत अच्छी पहचान कराने आई है। वायरस कोरोना कम है , उससे बड़ा वायरस तो ये मानव देहधारी छद्म मानव है , जिसका नंग नाच कभी इंदौर, कभी दिल्ली , कभी निजामुद्दीन , कभी मुरादाबाद कभी देश के अन्य स्थानों में देखने , सुनने और पढ़ने को मिल रहा है। यह मानव की परीक्षा की घड़ी है , जो यह सिद्ध कर चुकी है कि सबसे घातक वायरस यह मानव देह में छिपा हुआ राक्षस ही है। 

 💐 शुभमस्तु !
 17.04.2020 ◆6.20अपराह्न।

आशा का संदेश [ गीत ]


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  ✍ शब्दकार ©
🌹 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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मैं     गीत   देश  के   गाता  हूँ।
आशा - संदेश    सुनाता   हूँ।।

आशा   ही  श्वांस    हमारी  है।
 विश्वास  सुमन की क्यारी है।।
क्यारी    को  हरा   बनाता  हूँ।
आशा   - संदेश   सुनाता   हूँ।।

ये  आशा  कोई   त्रास   नहीं।
भरती मन  में  विश्वास वही।।
उर  में  उल्लास  जगाता   हूँ।
आशा  - संदेश  सुनाता  हूँ।।

सुख    गया  दुःख भी जाएगा।
दुख यहाँ  नहीं  रह  पाएगा।।   
उस  दुख   की त्रास मिटाता हूँ।
आशा -  संदेश       सुनाता  हूँ।।

भोगों     में  रोग   बसा  करते।
सुख - चैन   हमारा  वे हरते।।
उस    सुख कीआश जगाता हूँ।
आशा    -    संदेश   सुनाता  हूँ।।

जूझना  निरन्तर   जीवन है।
आशा    अपनी  संजीवन है।।
बूटी    की   पौध   लगाता  हूँ।
आशा - संदेश   सुनाता  हूँ।।

आशा   की र  श्मि  उजाला है।
तम       नहीं वहाँ पर काला है।।
उस   तम को श्वेत बनाता हूँ।
आशा    - संदेश   सुनाता  हूँ।।

आशा  ने   मुझको  पाला है।
अपने   साँचे   में  ढाला  है।।
उन  साँचों  को  सजवाता हूँ।
आशा -  संदेश   सुनाता  हूँ।।

आँधी   या   तेज   प्रभंजन  हो।
सबका   ही    तो अभिनंदन हो।।
आशा       का जल  बरसाता  हूँ।
आशा -   संदेश  सुनाता   हूँ।।

यह     रोग - सुनामी  आई  है।
इसने     मानवता   खाई   है।।
आशा     से  धता   बताता हूँ।
आशा -      संदेश    सुनाता हूँ।।

देखो       फूलों   को   कलियों को।
तितली  को कोकिल अलियों को।।
गुन-   गुन का    राग  गुँजाता   हूँ ।
आशा   -  संदेश     सुनाता    हूँ।।

उत्साह       नहीं  अपना  खोना।
वापस         जाएगा    कोरोना।।
नित  'शुभम '   दीप जलवाता हूँ।
आशा      - संदेश   सुनाता  हूँ।।

💐 शुभमस्तु !

  15.04.2020 ◆4.00अप

समय -चक्र रुकता नहीं [ दोहा ]


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✍ शब्दकार ©
🦚 डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'
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समय  नाम है ईश का,जगत झुकाता शीश।
सदा समय के साथ जो,होता वही  मनीष।।

सदा   समय से उदित हों,सूरज सोम नक्षत्र।
पवन चलाए श्वास को,हिलते हैं   तरुपत्र।।

समय - चक्र रुकता नहीं,सदा बदलता चाल।
सुख   दुःख  के काँटे  अथिर,वही कहाते काल।

दिन     जब  जाता रात का,आता है तम  घोर।
पुनः पवन निर्मल बहे,शुभा गमन नव भोर।।

समय -   सुई ऊपर चढ़े,   वही चले भू   ओर।
क्रमशः पुनि चढ़ती वही,छूती नभ के छोर।।

बुरा   समय   कहता नहीं, करता लघु संकेत।
समझ   उसे   चुप बैठिए,छिपा वहीं तव हेत।

बुरा     समय     संघर्ष का ,प्रेरक होता  मीत।
निर्भय    हो    संघर्ष    कर, होगी तेरी  जीत।।

देख     समय    के फेर को,चुप रह बैठें  आप।
शनैः - शनैः होंगे   शमित,तन मन के संताप।।

शुभ्र  काल  का आगमन, जबभी होता मित्र।
सद   सुगन्ध की वायु तब, फैलाती है इत्र।।

समय  चूकता जो मनुज, पछताता दिन रात।
घड़ी  देख खिलती कली, महके संध्या प्रात।।

'शुभम'      काल  वासंतिका,फूलें फूल अपार।
पतझड़    में  पल्लव झड़ें, देती पवन बुहार।।

💐 शुभमस्तु !

14.04.2020 ◆11..पूर्वाह्न

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...