बुधवार, 31 मार्च 2021

चोर -चोर सब भाई! [ गीत ]

 

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✍️ शब्दकार ®

🫐 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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हमें    प्रशंसा     की  हर मदिरा  ,

लगती         आज   सुहानी    है।

युग  -  युग से  ये चली आ रही !

बिगड़ी      हुई      कहानी     है।।


सुनते    नहीं   और   की  बातें,

मात्र        सुनाना        आता।

सुनने     की   बारी   आए  तो,

वह     बहरा    बन    जाता।।

'मेरी    सुनो'   बात वह  कहता,

  ये     हर    हाल     सुनानी    है।

हमें   प्रशंसा    की  हर मदिरा ,

 लगती        आज   सुहानी    है।



पाँव - पाँव   चलने  वालों को,

कौन      देख       पाता      है!

चार    गोल  पहियों पर उड़ता,

उड़ता        ही     जाता     है।।

मानव     के  ऊपर  दानव  की,

फिर  से    कथा     पुरानी     है।

हमें     प्रशंसा    की  हर मदिरा ,

 लगती          आज   सुहानी    है।


खाने      से   बेहतर   होता  है,

मक्खन         खूब     लगाना।

गोबर   अश्व- लीद   के  ऊपर,

मख़मल       रजत    सजाना।।

चमचे      से   बन    रहे भगौने,

यह   भी    बात     बतानी     है।

हमें     प्रशंसा     की  हर मदिरा ,

 लगती         आज   सुहानी    है।


जब  चाहे   वेतन  बढ़वा  लो,

संविधान       यह     कहता।

कर्मी,   अधिकारी   मर जाएँ,

बहरा  बन     कर     सहता।।

प्रजातंत्र   इसको    कहते  हैं,

 ये   चुपचाप       पचानी      है।

हमें    प्रशंसा   की  हर मदिरा ,

 लगती      आज   सुहानी    है।।


गबन, मिलावट   करने  वाले,

छुट्टा       साँड़         टहलते।

लिए   नमूने   चले   गए  जो,

लेकर      दाम       बहलते।।

अपनी   - अपनी मनमानी की,

सब  चुकतान    चुकानी        है।

हमें     प्रशंसा   की  हर मदिरा ,

 लगती          आज   सुहानी है   ।।


धरती  पुत्र   जिसे   कहते  हैं,

ज़हर     अन्न    में      भरता।

शाक,दूध,फल  ज़हर  भरे हैं,

देश     ज़हर     खा   मरता।।

कोरोना    का   दोष  नहीं है,

 ये    नर   को    चितलानी    है।

हमें     प्रशंसा    की  हर मदिरा ,

 लगती         आज   सुहानी है   ।।


झाँकें हम  सब  निजी गरेबाँ,

चोर -  चोर     सब      भाई।

लिए  छुरे   फिर रहे  देश में,

मानव      बने        कसाई।।

चेतावनी     मात्र     कोरोना,

करनी   ये   समझानी       है।

हमें     प्रशंसा   की  हर मदिरा ,

 लगती       आज   सुहानी है   ।।


🪴शुभमस्तु !


३१.०३.२०२१◆८.१५ पतनम मार्तण्डस्य।

मैं गोरी ज़हरीली चीनी🫖 [ बालगीत ]


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✍️ शब्दकार©

🎋 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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मैं   गोरी   जहरीली    चीनी।

मैंने  सबकी   सेहत   छीनी।।


हृदय  रोग  मैं  ही   लाती  हूँ।

मनोभ्रंश   मैं   करवाती   हूँ।।

समझो  नहीं  मुझे  रसभीनी।

मैं   गोरी   जहरीली    चीनी।।


मोटापा   तन में    लाती   हूँ।

वज़न  बढ़ाती   ही  जाती हूँ।।

लत मैं बनी  नशे  की  झीनी।

मैं   गोरी   ज़हरीली    चीनी।।


मुझसे होती जिगर विफलता।

रक्त - शर्करा  - स्तर  बढ़ता।।

जिनको ज़्यादा  चीनी पीनी।

मैं  गोरी   ज़हरीली    चीनी।।


स्मृति   को   मैं    हरने  वाली। 

मानस -  कारज  चरने वाली।।

चयापचय की  मर्ज   नवीनी।

मैं  गोरी  ज़हरीली    चीनी।।


मैं  अवसाद  सुधारा  करती।

ऊर्जा  के  स्तर   को भरती।।

घाव  भरूँ   ऐसी  भी चीनी।

मैं   गोरी  ज़हरीली   चीनी।।


निम्न रक्त का  चाप  सुधारा।

गुर्दा,  गठिया   रोग उभारा।।

गन्ने  का   उत्पाद    ज़मीनी।

मैं  गोरी   ज़हरीली   चीनी।।


🪴शुभमस्तु !


३१.०३.२०२१◆१२.१५पतनम मार्तण्डस्य।

चीनी से अच्छा गुड़ खाना 🎋 [ बालगीत ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🎋 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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चीनी  से  अच्छा  गुड़ खाना।

रोगों   का   घर चीनी  माना।।


प्रकृति ने  दी   हमें   मिठाई।

गाढ़ी   भूरी   हमने     खाई।।

उदर - रोग  सब  दूर भगाना।

चीनी से अच्छा  गुड़ खाना।।


हड्डी   को  मजबूत   बनाता।

रक्त - चाप का दोष  हटाता।।

कमी रक्त की  पूर्ण  मिटाना।

चीनी  से अच्छा  गुड़ खाना।।


भोजन को  भरपूर  पचाता।

स्वर में सदा मधुरता लाता।।

जोड़ों   के  सब  दर्द हटाना।

चीनी  से अच्छा गुड़ खाना।।


करता है  गुड़  त्वचा  सफ़ाई।

शेष  न   रहें   मुँहासे   भाई।।

ऊर्जा -  स्तर  सदा    बढ़ाना।

चीनी से अच्छा गुड़  खाना।।


देह - थकान  दूर  गुड़ करता।

सर्दी और  ज़ुकाम  सुधरता।।

तन को सक्रिय सुदृढ़ बनाना।

चीनी से  अच्छा  गुड़ खाना।।


नेत्र दिमाग़  सभी  सुख पाते।

जोड़ों के   भी    दर्द  नसाते।।

सेहत का गुड़ 'शुभं' खज़ाना।

चीनी से अच्छा   गुड़ खाना।।


🪴 शुभमस्तु !


३१.०१.२०२१◆९.४५आरोहणम मार्तण्डस्य।

होली गई 🫒 [ बालगीत ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🫒 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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होली  गई    पके     हैं   होले।

बौरों  में  हैं   सजे   टिकोले।।


गेहूँ ,जौ  पक   गए   खेत  में।

नहा  उठे  हैं  कीर   रेत   में।। 

गौरैया    चूँ - चूँ    कर   बोले।

होली  गई   पके   हैं    होले।।


काँटों  में   गुलाब  महके   हैं।

भौंरे   झूम - झूम    बहके हैं।।

बोल पिड़कुली निंदिया खोले

होली  गई   पके    हैं   होले।।


झनकारीं सरसों की फलियाँ।

शहतूतों की महकी डलियाँ।।

महके   महुआ  होले  - होले।

होली  गई   पके   हैं   होले।।


मेला  फूलडोल   का  भारी।

मास्क लगाए  हैं नर- नारी।।

झूले   चरर- मरर  चूँ   बोले।

होली  गई   पके   हैं    होले।


खुला  नहीं   मेले  में   खाना।

कोरोना   से   बचें ,  बचाना।।

लालच  में क्यों  रसना  डोले।

होली   गई   पके  हैं    होले।।


🪴  शुभमस्तु !


३०.०३.२०२१◆६.३० पतनम मार्तण्डस्य।


सोमवार, 29 मार्च 2021

रँगराते-रसमाते छंद [ दोहा ]


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✍️ शब्दकार©

🪂 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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रँग-वर्षा कवि -शब्द की,करती हृदय विभोर।

और रंग कृत्रिम सभी, केवल करते   शोर।।


शब्द - शब्द   में रंग है,जो बरसे    रसराज।

देवर  भौजी से  कहे, छोड़ो भौजी   लाज।।


मैं   रतिदेवी  काम तुम, आओ  मेरे   संग।

हे साजन! दिखता नहीं,कैसा अजब अनंग।।


नहीं, नहीं करती रही,बँधी तिया    भुजबंध।

प्रियतम सँग अभिसार में,युगल नैन हैं अंध।


देखे युगल उभार जब,धड़कन बढ़ी  अपार।

विनत हुईं पलकें युगल,उत्तम अरुण अनार।


अंग-अंग में रँग लगा,परस किए जब अंग।

जाने  कैसी  उठ  रही,तन में प्रबल    तरंग।।


कहाँ  लगा दूँ रंग  मैं,अँग-अँग जगा  अनंग।

पोर-पोर  में   रंग  की,अद्भुत तरुण  तरंग।।


साजन के सँग खेलतीं ,सखियाँ  होली  रंग।

अब तक मैं एकांत को,तरसी मिला न संग।।


अंग-अंग फ़ागुन हुआ, महका सुमन गुलाब।

सहज सुहानी-सी लगे,प्रियतम कर की दाब।


महुआ  के  मादक  सुमन,चूने लगे  अनेक।

बौराए  हैं आम भी,कर फ़ागुन   की  टेक।।


होली   में   चोली  हुई, सजनी मेरी    तंग।

जब से आए सजन घर,लगा करों से रंग।।


 🪴 शुभमस्तु !


२९.०३.२०२१◆५.३० पतनम मार्तण्डस्य।


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शनिवार, 27 मार्च 2021

ग़ज़ल

 

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✍️ शब्दकार ©

🌹 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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अब    फिजाँ  में  रँग  गुलाल है।

मन  की   होली  का   सवाल है।।


ध्यान उधर ,   क्या कोकिल कूजन?

मनश्चेतना     का      कमाल   है।


अंदर    रँग    तो    बाहर  भी  रँग,

वरना    ये       कोरा    बबाल है।


कपड़ों   का    क्या   रँगना बाहर,

ग़म  का   फैला   जटिल जाल है।


बच्चों     जैसा      भोला    हो 'गर,

यहाँ   वहाँ    सब  जगह  लाल   है।


बुढ़वा    में     भी   दिखता  दिवरा,

धड़कन   में    'गर    नित जमाल  है।


'शुभम'     गले   से   तुझे  लगा     लूँ,

आ    जा    मत    रख उर मलाल  है।


🪴 शुभमस्तु !


२७.०३.२०२१◆६.४५पतनम मार्तण्डस्य।



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ग़ज़ल

 

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✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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मिलावट का जमाना है बड़ी रँगदार होली है।

मिले जो भी वही लूटो हुई उपहार  होली  है।


गधे की लीद जीरे में बना नकली यहाँ खोया,

नहींअसली कहीं इंसान की चमकार होली है


सजे पहले मुखौटे थे लगे उन पर मुसीके भी

सियासत की भरी बदबू ठगी बाज़ार होली है


दिखावट के लिए रिश्ते सभी ये मूँ जबानी हैं,

सभी को चाहिए तुर्शी हमें दुश्वार होली है।


न तू मेरा न मैं तेरा यही असली कहानी  भी

समय  पर काम आ जाए वही औजार होली है


भले भूखी मरे जनता वहाँ काला उजाला है

भले वैसे मिले कुर्सी वहीं दमदार होली है।


सियासत के अखाड़े में नहीं इंसाँ बचा कोई,

शुभं यशमैन जो कोई जमी शुभकार होली है


🪴 शुभमस्तु !


२७.०३.३०२१◆४.३०पतनम मार्तण्डस्य।

गुरुवार, 25 मार्च 2021

आठों पहर उपाधि 🐚 [ व्यंग्य ]


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 ✍️ लेखक©

 🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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         महात्मा कबीरदास ने अपने एक दोहे में कहा है- 'कबिरा संगति साधु की,हरे और की व्याधि। संगति बुरी असाधु की,आठों पहर उपाधि।। महात्मा जी ने तो उपाधियों से बचने के लिए साधुओं की संगति करने का सत परामर्श दिया है।लेकिन आज के हर युवा की लगन केवल और केवल उपाधियों को प्राप्त करने की लगी है।उसे चौबीसों घंटे, आठों पहर ,सातों दिन उपाधियों की ही लगन लगी हुई है।उपाधियों को बुलावा ,उनका सादर आमंत्रण उनकी अशांति का कारण बन गया है।

        सभी लोग जानते हैं कि मानव के लिए दो प्रकार की बीमारियां उसके साथ लगी हुई हैं।'व्याधि' अर्थात दैहिक रोग और 'आधि' अर्थात मानसिक रोग। यदि 'आधि ' यदि सम्पूर्ण रूप से मानसिक रोग है ,तो उप+आधि= 'उपाधि' ,उससे कुछ निचले सोपान की बीमारी हुई । जिसे पाने के लिए आज का युवा 'साम' और 'दाम' से प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील है।उसे आठों पहर उपाधि ही चाहिए, इसके लिए भले ही उसके 'घुटना- स्पर्शनीय' पिताजी को उत्कोच समर्पण करके (दाम के माध्यम से) 'उपाधि' हासिल करवानी पड़े,भले ही जाँच में वह फर्जी पाई जाए ,पर कुछ साल तो मजा मार ही लिया जाए ।अथवा पसीना बहा कर(साम) रात के अँधेरे में एल ई डी की रौशनी में हस्तगत कर ली जाए।

           हमारी साधन व्यवस्था में 'दंड' औऱ 'भेद' के प्राविधान भी बताए गए हैं। किसी की उपाधि चुराकर अपना नाम बदलकर भी ये काम किया जा सकता है ,भले ही असली धारक को कितना ही बड़ा 'दंड' मिल जाए।अंतिम अस्त्र 'भेद' ही शेष है,जिसे पढ़ाई के सिवाय कितने ही दरवाजे भेद कर 'उपाधि ' हासिल करना गुणी जनों के बाएँ हाथ का खेल है। अब 'उपाधि 'तो 'उपाधि' है। उसे अपने यथानाम तथा गुण के अनुसार अपनी विशेषता का खेल तो दिखाना ही है। प्राप्ति का साधन कोई भी क्यों न हो ,आठों पहर जिसको पाने की लगन, 'प्रयत्न' और- 'जतन' किए गए ,उसका 'सुफल'-भी कर्ता और भोक्ता को समय पर पाना ही है। वह पाकर ही रहता है। कोई 'साम' औऱ ज्ञान विधि से उपाधि पाकर भले 'सेवा-सुलक्षणी' के भोग से वंचित भले रह जाए, परंतु दाम, दंड औऱ भेद विधियों से 'उपाधि' का वरण करते हैं, वे कभी भी असफल हो जाएं ,ऐसा सुना ,देखा नहीं गया। उन्हें हर रास्ते पर चलने के 'गुर' और 'गुरू' भी मिल जाते हैं ,तो उनका मार्ग भी स्वतः प्रशस्त होता चला जाता है।

        कबीर के युग से आज के युग में कितना बड़ा परिवर्तन आया है। तब लोग उपाधि से बचने के लिए साधु की संगति तलाश करते थे ,और अब उपाधि पाने के लिए 'साढ़ू' की संगति तलाशते हैं।  उप- आधि अथवा आधि की खुशी- खुशी खोज की जा रही है।असाधु से किसी को कोई भय ,खतरा भी नहीं है।वे अधिक निडर ,निर्भर , निशिचर और निश्चल हो गए हैं। उन्हें अपनी वांछित 'उपाधि' पाने से कोई डिगा भी नहीं सकता।इसलिए पूतों की मम्मियाँ, डैडी सब 'एक सूतलीय कार्यक्रम' में तन ,मन औऱ धन से समर्पण करते हैं। भविष्य के सुखों की दूर आकाश में उड़ती हुई पतंग क्या कुछ नहीं करा लेती ? जब वह नील गगन के नीचे लहराती बल खाती है, तब स्वप्न में भी दामों की तिजोरियां भरी हुई दिखाई देती हैं।यह उपाधियाँ कितनी उपाधि कारक, उपाधि दायक और उपाधि ग्रस्त सिद्ध होंगी ,इसका पूर्वानुमान भला किसको होता है औऱ 'आठों पहर उपाधि ' की मृगमरीचिका की यात्रा में चलते रहते हैं।

 🪴 शुभमस्तु ! 


 २५.०३.२०२१◆८.३०पतनम मार्तण्डस्य।

 

 🪑☘️🪑☘️🪑☘️🪑☘️🪑

पंच शब्दाधृत सृजन🫐 [ दोहे ]

  

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✍️ शब्दकार©

🪦 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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धारण  जो करती हमें,धरती धरणी  नाम।

रत्नवती,अचला,मही,वही हमारा  धाम।।


धरती से ही अन्न है,धरती से फल  फूल।

धीरज धरती -सा नहीं,इसे न जाना भूल।।


महाभूत  में तत्त्व जल, जीवन का   पर्याय।

मरे न आँखों का  कभी,करना उर से न्याय।।


मेघ दत्त जल भूमि पर,आया जलज महान।

लिप्त नहीं जल से कभी, जग में ऊँची शान।


हरिताभा  नीकी लगे,नयनों को   अभिराम।

हरियाली तरु सोहती, जग सौंदर्य ललाम।।


हरियाली सुख शांति का,नीका प्रवर प्रतीक

पक्षी,  तरु क्रीड़ा करें,बड़ी पुरानी   लीक।।


अंबर में  उड़ते कभी, कभी बैठ  तरु  डाल।

पक्षी प्रभु की सृष्टि में,करते प्रकृति निहाल।।


कोकिल पक्षी कुंज में, कूके जब मसधुमास।

तोता, चातक, मोर खग,रहते अपने   पास।।


हुआ प्रदूषण सृष्टि में,मानव कारक बीज।

अपना काम निकालकर,फैलाता है चीज।।


पंच तत्त्व दूषित किए, भरा प्रदूषण   रोज़।

पत्तल  फेंकी  राह में,भैसों जैसा    भोज।।


धरती,जल, पक्षी सभी,  हुए प्रदूषित मीत।

हरियाली मुरझा रही,'शुभं' न समझें जीत।


🪴 शुभमस्तु !


२५.०३.२०२१◆११.३०आरोहणम मार्तण्डस्य।

हम सभी चोर हैं [ अतुकान्तिका ]


★★★★★★★★★★★★★★★

✍️ शब्दकार ©

🕺🏻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

★★★★★★★★★★★★★★★

कहो न कोई और हैं!

हम सभी चोर हैं,

कभी किया आपने गौर है?

ये चोरों का दौर है,

पर दूसरों को

 हम बतला रहे चोर हैं!


कोई है बड़ा कलाकार,

कोई बन रहा है 

बड़ा ही ईमानदार!

कोई सज्जनता का

वास्तुकार,

बड़ा ही कौशल है

उसमें करने का चौर्य कार्य,

अकुशल चोर है वह

जो कर रहा है 

बलात कार्य ,

छीन -झपट कर 

ये शिरोधार्य !


निष्कर्ष है  मात्र यही!

विद्वान विदुषियों

विदूषकों रक्त चूषकों ने 

बात सत्य ही कही:

अंततः सब बेईमान

हम सभी हैं समान,

सबका भले मत हो

सम्मान समान,

चाहे वह दुकानदार है,

चलाने वाला देश का हर नेता 

जो कहलवाता सरकार है,

अधिकारों का दुरुपयोग 

कर रहा अधिकारी दुधार है,

देश का अन्नदाता

जहर को खिलाता

फिर भी 

 किसान महान  है,

भैंस का दूध बेचता

मिला- मिला कर पानी

दूधिया जवान है ,

गधे की लीद को

धनिया बना रहा

जादूगर,ये जुगाड़ है,

पुलिसिया वर्दी का

रौब दिखाता 

चौराहे पर खड़ा

 डंडावान है,

कचहरी से लेकर 

सचिवालय तक का

बाबू है,

जिसके बिना पूरी 

 शासन व्यवस्था बेकाबू है,

अल्ट्रासाउंड, एक्सरे,

रक्त,मूत्र जाँच में लगा

कमीशनखोर चोर,

भगवान का रूप डॉक्टर है,

जिधर भी नज़र पड़ती है

एक से एक बढ़कर है।


सभी भोक्ता हैं,

सभी कर्ता हैं,

कर्ता को लड़ना ही है,

लड़ना कभी

 नैतिक भी नहीं है,

धार्मिक भी नहीं है,

भोक्ता को तो 

परग्रीवा करनी है ही

भंजन,

इसलिए मित्रता 

नहीं  कहीं भी,

सब झूठ ,बकवास,

पाखंड और धोखा है,

भला किसी ने किसी को

धोखा करने से रोका है?

जिसे जब भी

मिले मौका है,

उसका रास्ता 

किसी ने कभी रोका है?


न संस्कृति है कुछ,

नहीं सभ्यता है कुछ,

लुभावना वार्तालाप,

मात्र वार्तालाप,

जिसके नीचे

अपने समीपस्थ की

ग्रीवा -कतरन का

क्रिया कलाप!

सभी सबके शत्रु हैं,

कोई भी नहीं मित्र है,

यही तो आज 

देश -दुनिया का चित्र है,

हर आदमी का चरित्र है।

जी हाँ,

अपने -अपने हुनर में 

माहिर 

हम सभी चोर हैं।

नहीं कुछ और हैं।


🪴 शुभमस्तु !


२४.०३.२०२१◆२.४५पतनम मार्तण्डस्य।

सोमवार, 22 मार्च 2021

पानी को नित व्यर्थ बहाते [ बालगीत ]


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✍️ शब्दकार©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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पानी      को      नित  व्यर्थ बहाते।

फिर   भी   जन    मानव कहलाते।।


बूँद  -    बूँद      से     भरती  गागर।

भर      जाते     हैं      सातों सागर।।

पशु    से   भी     बदतर  बन जाते।

पानी    को    नित       व्यर्थ  बहाते।।


किया    प्रदूषित   भू     का   पानी।

जल -  दूषण   की  अजब कहानी।।

समर   चला      कर    कूद  नहाते।

पानी   को    नित      व्यर्थ  बहाते।।


नगर           पालिका    की  बीमारी।

नल     से   चले    खुली   जल  धारी।।

सूकर         कूकर       लोट   लगाते।

पानी     को      नित    व्यर्थ बहाते।।


टूटी        टोंटी        कौन     लगाए?

नेता     जी      बचकर      के  जाएँ।।

फोटो          खड़े     उधर खिंचवाते।

पानी       को      नित    व्यर्थं  बहाते।।


लोटें         भैंसें,          भैंसे,  गायें।  

पानी       बढ़ - चढ़      कर फैलायें।।

टोकें         'शुभम'      मूढ़ कहलाते।

पानी    को      नित    व्यर्थ  बहाते।।


🪴 शुभमस्तु !


२२.०३.२०२१◆५.४५पत नम मार्तण्डस्य।

वाणी [ कुंडलिया ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🎻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                        -1-

वाणी  भू  से गगन तक,मचा रही  जग धूम।

नव्य सिद्धि गिरि मेरु के,शृंग रही नित चूम।

शृंग रही   नित  चूम,  वेद रामायण जितने।

पावन ग्रंथ महान,ज्ञान के सागर    कितने!!

'शुभं'सुरक्षितआज,सु-वाणी जन कल्याणी।

मानवता का बीज,बो रही मानव - वाणी।।


                        -2-

ऐसी  वाणी  बोलिए,   हृदय कली हो फूल।

लगे  सुमन की पाँखुरी,झाड़े मन  की  धूल।।

झाड़े  मन  की  धूल,आर्द्रता से मन   रीझे।

माने  पत्नी बात,अगर प्रियतम से   खीझे।।

'शुभम' न  तान  कमान, न हालत ऐसी वैसी।

बोले  वाणी सौम्य, लगे जो सुमधुर   ऐसी।।


                        -3-

कौरव-पांडव  युद्ध का,जाने जग   परिणाम।

क्रूर महाभारत  हुआ,समय मनुज का वाम।।

समय मनुज का वाम,सुनी जब कृष्णा-वाणी

जमा विनाशी बीज,आँख शकुनी की काणी।

'शुभम' न ऐसे बोल,बने जीवन  ये   रौरव।

हुई सत्य की जीत,लड़े जब पांडव- कौरव।।


                        -4-

वाणी  में अमृत बसा,वाणी में विष - बीज।

शीतलता का घट यही,यही अनल-सी चीज।

यही अनल-सी चीज,जलाती कुनबा  सारे।

बोले  बिना विचार,सैन्य कौरव दल मारे।।

'शुभम'सोचकर बोल,बने जग की कल्याणी।

मानव  को वरदान,शारदा माँ की   वाणी।।


                        -5-

वाणी   माँ  का नाम है ,देती ज्ञान   अपार।

कविमुख से कविता बनी, रहती सदा उदार।

रहती सदा  उदार, वही  मानव  की   भाषा।

शिशु को तोतल बोल,रमा का रम्य उजासा।।

'शुभं'जगत के जीव,धरा जल नभ के प्राणी।

बिन वाणी के मूक,सभी की माता  वाणी।।


🪴 शुभमस्तु !


२२.०३.२०२१◆१.००पत नम मार्तण्डस्य।

माता वीणावादिनी [ कुंडलिया ]


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✍️ शब्दकार©

🎸 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                        -1-

वीणा  वीणावादिनी,की बजती  चहुँ   ओर।

कविजी कविता कर रहे,दिवा निशा हर भोर।

दिवा निशा हर भोर,गूँजतीं सकल   दिशाएँ।

सदभावों के सुमन,महकते उर   को   भाएँ।।

'शुभम' सतत अभ्यास, बनाता पाहन मीणा।

बजने लगती मंजु, हृदय में माँ की    वीणा।।


                        -2-

माता   मेरी    शारदा,  ज्ञान स्वरूपा  नित्य।

गूँज रही  वीणा मधुर,शुभदा पावन  कृत्य।।

शुभदा पावन  कृत्य,रमा,कांता  शुभनामा।

दें आशिष वरदान, शिवा, सुरवंदित भामा।।

'शुभम'विश्वकल्याण,करें मैं निशिदिन ध्याता।

रहें  निरोगी  जीव,   प्रार्थना करता  माता।।


                        -3-

गूँजी  मेरी  शब्द स्वर,की वीणा  लय  साध।

कविता यों झरने लगी,गिरि से सरि   निर्बाध।

गिरि से सरि निर्बाध,सींचती उर  की धरती।

उगते भाव  विचार,देह को पावन    करती।।

'शुभं'सकल साम्राज्य,यही मम जीवन पूँजी।

मेरा जीवनकाल, धन्य जब वीणा   गूँजी।।


                        -4-

सुनता कवि वीणा मधुर,गूँज रही उर सृष्टि।

होती पल्लव फूल पर,अंबर से ज्यों    वृष्टि।।

अंबर से ज्यों वृष्टि,ओस झर झर कर झरती।

मिलते तरु को प्राण,मुदित हो मेधा  धरती।।

'शुभं'शब्द से रूप,काव्य का कवि ही बुनता।

बहरा वह नर-नारि,नहीं वीणा स्वर  सुनता।।


                          -5-

आओ  हम वंदन करें, पाने को सद   ज्ञान।

वीणावादिनि शारदा, करतीं कृपा  महान।।

करतीं कृपा महान,बजाकर वीणा अपनी।

ज्ञानप्रदा की माल,निरंतर हमको  जपनी।

'शुभम'शारदा मातु,चरण में नत  हो जाओ।

जय हो माँ का गान,करें सब मिलकर आओ


🪴 शुभमस्तु !


२२.०३.२०२१◆६.३० आरोहणम मार्तण्डस्य ।

रविवार, 21 मार्च 2021

ग़ज़ल

 

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 ✍️ शब्दकार©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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फ़ागुन       में      कोयल     रस  घोले।

फिर     भी   सजन   रहे   अन   बोले!!

    

रंगों      से     तर-ब-तर   शहर   भर,

पुरबा     सनन    सनन    सन  झोले।


दिवरा       कहे      खेल     रँग   भौजी,

पीपल      पात       सदृश     मन  डोले।


ढोलक     के       सँग    ताल मिलाए,

ढप,     करताल      खनन  खन  बोले।


छत   पर     भरी     रंग     की  मटकी,

भरा     कटोरा     छन -   छन  हो   ले।


रगड़        गाल       पर    रँग गोरी   के ,

यौवन ,      यौवन        का     तन  तोले।


'शुभम'       मधुर      मधुमास  मनोहर,

बौरा          अमुआ       आनन  खोले।


🪴 शुभमस्तु  !


२१.०३.२०२१◆२.३० पतनम मार्तण्डस्य

ग़ज़ल


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✍️ शब्दकार ©

🪦 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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यूँ  तो  बहुत  हैं  रंग  पर  रंगत नहीं  है।

खुशबू के साथ फूल की संगत नहीं  है।।


दावतों   पर  दावतें  होती  हैं यहाँ  पर,

जंगल है आदमी का पर पंगत नहीं है।


कौन  फैलाता  नहीं  है हाथ को अपने,

झूठ  है  यह  बात  वह  मंगत  नहीं  है।


फूल- से  मुरझा   रहे  ये चेहरे भी  क्यों,

युवक - युवतियों पर सद रंगत नहीं   है।


कहता  है  'शुभम'  ग़ज़ल  हर रँग   में,

मगर  उसकी  कहन   पारंगत नहीं    है।


🪴 शुभमस्तु !


२१.०३.२०२१◆९.००आरोहणम मार्तण्डस्य।

शनिवार, 20 मार्च 2021

कु - रसी बनाम सु - रसी 🪑 [ व्यंग्य


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 ✍️ लेखक ©

 🪑 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                   मेरा देश कृषि प्रधान नहीं, कुरसी प्रधान है।आप देख ही रहे हैं कि कृषि करने वालों का सम्मान अब कितना शेष रह गया है? वैसे पहले भी किसान का कितना सम्मान था ! इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि सुनार ,लुहार, मनिहार अपने सोने ,लोहे औऱ चूड़ियों की कीमत स्वयं ही लगाता है और ग्राहक को उसका वही मूल्य देना भी पड़ता है ,किन्तु किसान के  गेहूँ ,चावल ,सब्जी ,फल आदि का मूल्य मंडी में बैठा हुआ लाला या दलाल ही लगाता है। किसान अपनी ओर से इतना भी नहीं बोल सकता कि इस भाव नहीं देंगे। बल्कि मंडी में आने के बाद उसे आढ़तिये से यही कहना होता है कि लाला जी गेहूँ ,चना ,मटर ,मक्का जो भी है ,उसे किस भाव लोगे ?यदि टमाटर  की डलिया में कोई टमाटर गला,फटा या पिचका हुआ निकलता है तो खरीदार लाला उसे सड़क पर ऐसे फेंक देता है ,जैसे उसके पूज्य पिताजी के खेत से ही टमाटर तोड़कर लाए गए हों।इसी प्रकार बैंगन,आलू,सेम, मिर्च ,भिंडी , शलजम,मूली, गोभी आदि के साथ भी मंडी में यही बदसलूकी दलालों औऱ सेठों के द्वारा नित्य प्रति ही की जाती है ,जो आजकल से नहीं, सदियों से यही होता चला आ रहा है। इन क्रेताओं द्वारा किसान को अपने पूज्य माता -पिता का नौकर समझा जाता रहा है। किसान अपने खेत औऱ फसल का मालिक समझता भर है ,पर वास्तव में उसके असली मालिक तो ये दलाल ,आढ़तिये औऱ मोटे पेट वाले लाला लोग ही हैं। किसान का झूठा अहंकार औऱ खोखली मालकियत यहीं मंडी में आकर पता चलती है। 

                 पुनः अपने पूर्व प्रसंग पर आते हैं और आपको अपने देश की 'कुरसी - प्रेम'  की कथा सुनाते हैं।नेता से अधिकारी तक,ग्राम प्रधान से लेकर इंस्पेक्टर आबकारी तक सबकी एक ही कहानी है। येन -केन - प्रकारेण सबको चाहिए कुरसी ही।इसका नाम 'कु' -'रसी'(अर्थात बुरे रस वाली ) है तब तो आदमी का ये हाल है ,उसकी चाल ही बेचाल है ,हाल बदहाल है, ताल बे ताल है,जब चाहो तब हड़ताल है , दंगा है बबाल है। यदि यह 'सु'-'रसी' हुई होती ,तो न जाने क्या होता? 

             एक गाँव का प्रधान बनने के लिए लोग विरोधियों के लोहू तक को कोकाकोला बनाकर पी जा रहे हैं।गाँव ,जो प्रदेशों और देश की सबसे छोटी इकाई है ,उसकी कुरसी के लिए मानवता को खूँटी पर कमीज की तरह बेतमीज बन कर टाँग दिया जाता है।इससे ऊपर नगरपालिका अध्यक्ष, ब्लाक प्रमुख, विधायक, सांसद ,मंत्री ,मुख्यमंत्री प्रधान मंत्री के लिए कितना हवन पूजन, उच्चाटन, तीर्थ - भ्रमण, स्नान ,दान , महादान किया   जाता  होगा, ,अकल्पनीय है।इसमें बहुत कुछ अख़बार में छपता है , कुछ गोपनीय बाहर नहीं दिखता है।सियासत के सभी सूत्र साम,दाम,दंड औऱ भेद अपनाए ही जाते हैं।बिना उनके कुरसी माई के चरण पकड़ कर उस पर आसन नहीं जमा पाते हैं।

               समय -समय पर कुरसी के रूप बदलते रहे हैं। कभी चौपायों की तरह यह चार पैरों की हुआ करती थी, लेकिन जब से आदमी बे पेंदे का लोटा हो गया ,तब से इसके चार पैर गायब ही हो गए और वह रिवॉल्विंग(अर्थात घूमने वाली) हो गई।जब आदमी का चरित्र ही घूमने लगा और हर रस का रसास्वादन करने लगा तो भला कुरसी का रूप ,चरित्र और चाल-चलन क्यों नहीं बदलता। वह भी बदल गया औऱ बहुत अच्छी तरह बदल गया। अब नाई और  अधिकारी  की  कुरसी  में  कोई  अंतर  ही  नहीं  रह  गया। यह  बात  अलग   है कि  नाई वाली से अधिकारी ,विधायक,मंत्री की कुर्सी में बहुत अधिक मूल्यात्मक अंतर हो। कहाँ बेचारा नाई औऱ कहाँ अधिकारी। कहाँ राजा भोज कहाँ गंगू तेली? सारी बात  अनमेली ! कहाँ रबड़ी कहाँ गुड़ की भेली!

              तो मैं कह रहा था कि आदमी के चंचल चरित्र ने कुरसी के चरण भी खत्म कर दिए।वह जिधर भी चाहे अपना रुख मोड़ लेता है। किसी को अपनाता है, किसी को छोड़ देता है। वैसे इन घूमने वाली कुरसियों पर बैठने वालों का कोई अपना नहीं होता है।इनका तो भगवान दामोदर में अर्थात दाम के उदर में रहता है । स्थिरता विहीनता,चंचलता, विमोह आदि इन कुरसियों औऱ कुरसी आसीनों की प्रमुख विशेषताएँ हैं। अब आप कहेंगे कि ये घुमंतू कुरसी नसीन जन कृषि को या किसान को महत्व दें तो क्यों? इनका गेहूँ ,सेव , काजू, बादाम, सब्जी ,दाल ,आटा सब कुरसी की करामात का चमत्कार है ।ये नहीं मानते   कि दूध भैंस देती है । ये मानते हैं कि दूध इनकी कुरसी देती है। वहीं से सब्जी ,दाल ,आटा ,कोठी, कार, कंचन ,कामिनी सब कुरसी से ऐसे निकलता है ,जैसे चक्की से आटा। जब किसान और गरीब इंसान पिसता है ,तब इनका दूध निकलता है।फ़ल औऱ मिठाईयों की डलियाँ बरसती हैं।नोटों की बोरियां सरसती हैं। जिधर भी कुरसी घूम जाय ,उधर से ही अलादीन का चिराग कंचन बरसाने लगता है।

           कुरसी के कमाल और धमाल की कथा अनन्त है।इन कुरसी वालों की  नज़र में खेती  किसानी तो पिछड़े ,गरीब और  सर्वहारा लोगों के पेट भरने का साधन मात्र है। उ न्हें  इन  किसानों  से क्या  लेना - देना? उनकी तो चतुर्दिश घूमने वाली कुरसी ही सब कुछ उंडेलकर दे देती है। किसान को मूर्ख बनाकर ठगने के लिए ही उसे इनके द्वारा अन्नदाता कह दिया जाता है। तभी तो कपड़े की दुकान पर बैठा हुआ सेठ किसी किसान के दुकान में आने पर कहता है :'आओ बौरे जी' (बौरे= पागल, मूर्ख)। बौहरे जी नहीं कहता। ये शब्द सुनकर किसान बेचारा फूलकर कुप्पा हो जाता है। और अपनी जेब कटवाने की सहर्ष अनुमति दे देता है। 

              कुरसी औऱ कृषि की कोई तुलना नहीं है। तभी तो किसान का बेटा कृषि को वरीयता न देकर जैसे भी मिले कुरसी की तलाश में बूढ़ा हो जाता है,पर कुरसी मैया है कि  वह  सब   पर कृपा नहीं  करती। वह  ऊँची  सोच से नहीं ,उत्कोच से मिल जाती है।ज्ञान से नहीं ,चाटुकारिता के विज्ञान से मिल जाती है। चरित्र से नहीं, प्रमाणपत्र से मिल जाती है ,भले ही वे नकली हों।नकली सोने की चमक असली सोने से होती भी ज्यादा है , पर कसौटी पर सब गुड़ गोबर हो हो जाता है। हो ही जाना है। हो ही जाना चाहिए। कुरसी धारियों के लिए कुरसी से अधिक रस संसार की किसी भी वस्तु भी नहीं है। जब तक सृष्टि पर मानव की कृपा वृष्टि है ,तब तक कुरसी की महिमा अपरम्पार है। कुरसी से डूबतों की नैया पार है। सात सात पीढ़ियों का उद्धार है।उनके लिए न सावन ,भादों क्वार है, बस कंचन कामिनी की भरमार है।जो कुछ भी सुख के नाम पर है, हमार है। बहती हुई गंगा जी की धार है, जिसने भी कुरसी मैया के गह लिए घूमते हुए चरण उसका बेड़ा पार है।फिर तो सब नकद ही नकद है , कुछ भी नहीं उधार है। वास्तव में कुरसी की माया का क्या कोई पार है? 


 🪴शुभमस्तु ! 


 २०.०३.२०२१◆ ८.१०पतनम मार्तण्डस्य।

फ़ागुन:2 ❤️❤️ [ मुक्तक ]


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✍️ शब्दकार©

❤️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                      -1-

पिचकारी      सबकी       भरी     रखी,

जितनी      हैं      मेरी     सभी   सखी,

फ़ागुन      लगते      ही      रंग    भरे,

पर     मैं    साजन   के    बिना  दुखी।


                      -2-

बूढ़ा         पीपल       मुस्काता     है,

अमुआ    पर    कोकिल   गाता    है,

फ़ागुन     का   मस्त     खुमार  चढ़ा,

नर  -   नारी      उर    मदमाता    है।


                      -3-

ढोलक,    ढप    के    सँग  नाच   रही,

पिचकारी         रंग      कुलाँच    रही,

फ़ागुन   फगुनाया   फर    फर    फर,

अम्मा         रामायण       बाँच   रही।

    

                       -4-

बच्चे       होली        में    मस्त   सभी,

फ़ागुन    आता    है       कभी -  कभी,

हर    बार       साल    में    एक    बार ,

रँग  - राग     बरसता   'शुभम'  सभी।



                      -5-

कलियों         के      भार - उभार    बढ़े,

खिलते       फूलों      पर     भृंग     चढ़े,

फ़ागुन        में      उड़ता    रँग    गुलाल,

ढप  -  ढोलक    फिर     से   गए    मढ़े।


                      -6-

आती            राधा       बरसाने       से,

गोपी     -    ग्वाला        हरषाने       से,

फ़ागुन     की       वात     बही    प्यारी,

आ     गए      श्याम     मुस्काने  -  से।


                      -7-

देखो          ये           लठामार     होली,

गोरी    यों        प्रियतम      से  बोली,

फ़ागुन   का     ये       मधुमास  'शुभम',

रँग         लगवाओ      मस्तक  रोली।


🪴 शुभमस्तु !


१९.०३.२०२१◆ १०.००आरोहणम मार्तण्डस्य।

फ़ागुन:1 [ मुक्तक ]

 

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 ✍️ शब्दकार©

🎊 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                       -1-

मदमत्त           सुवासित    है फ़ागुन,

जड़ -  चेतन   को   अति मनभावन,

कलियाँ  उर ,   तरु    की खिलतीं हैं,

लतिका      लहरी      है   नव पावन।


                      -2-

रँग     भर      लाया      मादक फ़ागुन,

रग -    रग    में     छाई    छवि पावन,

विरहिनि   तरसी    बिन  पिया 'शुभम',

कब    आएँगे       मम     प्रिय साजन।


                       -3-

फूलों      को      भँवरा     चूम   रहा,

रस   चूस  -   चूस    वह    झूम  रहा,

फ़ागुन    का     मास    मद भरा   है,

कहती   कामिनि     यह    खूब   रहा।


                        - 4 -

कब         आओगे       साजन   मेरे,

दिन   -    रात      अनंग    मुझे  घेरे,

शैया     डसती      है    साँपिन -  सी,

फ़ागुन        में    तपती      बिन  तेरे।


                         -5-

प्रिय !         होली      आने    वाली   है,

कलियों       की       छटा   निराली  है,

फ़ागुन        तड़पाता       मुझे   'शुभम',

नित      रात       डराती    काली    है।


                        -6-

सब       सखियाँ      ताने    देती    हैं,

नित     चिढ़ा    मुझे   रस लेती     हैं,

फ़ागुन    के    दिन     दस - पाँच  शेष,

घर    -      बाहर      रहती    जेती   हैं।


                      -7-

फ़ागुन      में     रंग     बरसता     है,

मन    मेरा       रोज़    तरसता     है,

तुम     कल    का    वादा करते    हो,

तव       बादल      कहाँ   सरसता है।


🪴 शुभमस्तु !


१९.०३.२०२१ ◆९.००आरोहणम मार्तण्डस्य।


गुरुवार, 18 मार्च 2021

शब्द-रस-रंजन ❤️ [ अतुकान्तिका ]


              

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✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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रँग       गुलाल,

चंदनी   भाल,

रसभरित बात,

होली - हुलास,

महकती श्वास।


आया फ़ागुन,

अति मन भावन,

सखि-साजन,

रँग - रस रंजन,

अलि दल गुंजन।


भावज साली,

मति मतवाली,

गोरी   काली,

मिश्री डाली,

खेलें   होली,

मधुरस बोली।


झरता पराग,

टेसू की आग,

शैया का नाग,

कैसा विराग!

हर रँग सुहाग।


 जागा  अनंग,

बरसा सु-रंग,

प्रिय -प्रिया संग,

संसार दंग,

सब रँग -बिरंग।


पिचकारी धार,

नर और नार,

अद्भुत खुमार

दिखता न मार,

उत्तल उभार।


नव फाग -राग,

उर बाग- बाग,

नर जाग-जाग,

नारी-सुहाग,

धा-धिनक-धाग।


🪴 शुभमस्तु !


१८.०३.२०२१◆६.००पतनम मार्तण्डस्य।

ब्रज की लठामार होली 🎊 [ दादरा शैली में गीत]

 

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 ✍️ शब्दकार ©

🎊  डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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मेरे   ब्रज   जैसी   होली  कहीं  भी  नहीं।

जो   यहीं   है,  यहीं   है,   यहीं   है   यहीं।।


नंदगाँव     से       चले    हुरियारे    सभी।

वन    संकेत    में   गए   हैं  सारे     तभी।।

राधारानी     के   दरस  को पधारे     यहीं।

मेरे    ब्रज   जैसी  होली  कहीं  भी  नहीं।।


गली  रँगीली   में  आए  हैं  ग्वाला    बली।

लठामार    देने   को   खड़ी बाला   चली।।

मार   खाने  में  कहते  वे  नहीं  ही    नहीं।

मेरे    ब्रज  जैसी   होली  कहीं   भी  नहीं।।


वे     रसिया   रसीले   गाए  चले  जा   रहे।

वार    लाठी   के   सिर  पे बचाए जा   रहे।।

गोपियाँ        रँग      धारी  बरसाती     रहीं।

मेरे   ब्रज  जैसी    होली   कहीं   भी  नहीं।।


प्रिया   कुंड में    अब   अजब  है    समा।

लठामार     होली     में    रँग  है   जमा।।

ढाल   सिर   पर  लगाए  लठ गिराती  रहीं।

मेरे    ब्रज    जैसी  होली  कहीं  भी  नहीं।।


धन्य   हैं   वे 'शुभम'   जो  ब्रज  में   हुए ।

खाते    गोपी   के   हाथों से  मीठे    पुए।।

चिपकी साड़ियाँ  चोली कसमसाती  रहीं।

मेरे   ब्रज   जैसी   होली  कहीं   भी  नहीं।।


🪴 शुभमस्तु !


१८.०३.२०२१◆१२.३०पतनम मार्तण्डस्य।


मत तरसाओ 🐧 [ नवगीत ]


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✍️ शब्दकार ©

🦋 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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कोयल बोली 

अमुआ डाली

मत तरसाओ।


फूल -फूल पर

 भँवरे आए

चूस रहे रस,

फूल मौन हैं

हुए समर्पित

अपना क्या वश?


सूखी काया

सोया माली

मत तरसाओ 


होली आई

शरमाई कलियाँ

आस तुम्हारी,

रात -रात भर 

बाट निहारूँ

एकटक हारी।


मन की मन में 

किससे कह दूँ,

मत तरसाओ।


कोने में

सूखी पिचकारी

व्यर्थ पड़ी है,

मेरी नजरें 

दिन औऱ रातें

उधर गड़ी हैं।


ताने मारें

सखी -सहेली

मत तरसाओ।


कौवा बोला है

मुँडेर पर

क्या खुशखबरी!

बाहर देखूँ

भीतर जाऊँ

हाय मैं मरी।


चोली तड़की

उठी तरंगें

मत तरसाओ।


तन महका

दहका -दहका है

क्या बतलाऊँ,

प्यास जगी है

नीर नहीं है

क्या समझाऊँ!


ओ रँगरसिया!

मन के बसिया

मत तरसाओ।


🪴शुभमस्तु!


१८.०३.२०२१◆७.३०आरोहणम मार्तण्डस्य।

बुधवार, 17 मार्च 2021

मेरा कृषक महान🌾🎋 [ कुंडलिया ]

  

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✍️ शब्दकार ©

🎋 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                         -1-

लौकी  में   सूई    चुभी,  देखें रातों    रात।

पूर्ण शुद्धता की करें,जनघाती मधु   बात।।

जनघाती मधु बात,कृषक हैं  कितने  भोले!

विष का देते सेंट , यही अब विष  के  गोले।

'शुभम'भाड़ में आज,गई होली  की  चौकी।

टिंडा रँग में डाल,खिलाते विष  की लौकी।।


                           -2-

खोजा  मैंने  देश भर, मिले एक  भी  नेक।

जिधर  दृष्टि  मेरी  गई,देखे केवल   भेक।।

देखे   केवल   भेक,  टर्र  ही  टर्र     मचाते।

नेता  पा  अधिकार ,देश दिन- रात चबाते।।

जिसका जो भी काम, 'शुभं'रखता है रोज़ा।

सब मिल खाते देश,शहर गाँवों में खोजा।।


                            -3-

देखा  मैंने   गाँव में,  भोला बहुत   किसान।

दोहनी  में पानी मिला, दुहता भैंस  महान।।

दुहता  भैंस   महान ,क्रीम खींचे   हलवाई।

पीते  जहरी  दूध, रो  रहे  लोग  -  लुगाई।।

'शुभम' न  लज्जा शेष,नहीं माथे पर रेखा।

दाता  अन्न   महान,  गाँव   में मैंने   देखा।।


                          -4-

कहता   सुत  बीमार है, घरवाली   बीमार।

मिला  यूरिया दूध में,पशु- पालक   लाचार।।

पशु - पालक  लाचार, नीर का लेता  पैसा।

बीमारी  का  धाम , बना है उसका    ऐसा।।

'शुभम'माँगता रोग,लाख का झटका सहता।

मेरा  कृषक  महान,  दूध से धुलकर रहता।।


                          -5-

कैसे   भव - बाधा  मिटे, मानव बे - ईमान।

मंदिर   में माथा घिसे,विष ही उसकी शान।

विष ही उसकी शान, दूध,फल,शाक विषैले।

चाहे  खाएँ    आम,   संतरा, नीबू ,   केले।।

'शुभम'  फेरते   माल, भक्त गण  ऐसे - ऐसे।

गुंडा,चोर, लबार,  मिटे  भव- बाधा  कैसे।।


🪴 शुभमस्तु !


१७.०४.२०२१◆११.००आरोहणम मार्तण्डस्य।

रंगोत्सव-किलोल 💃🏻 [ कुंडलिया ]

 

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                          -1-

होली  भारत  देश   का , रंग भरा  त्यौहार।

रँग हों प्रेम सुभाव के,सुरसरि- सा  व्यौहार।।

सुरसरि-सा व्यौहार,सभी को पावन करता।

आपस का सद्भाव,घाव उर के सब   भरता।।

'शुभम' कपट से दूर,वचन वाणी  रस घोली।

यही  एकता  मंत्र , तभी मन भावन   होली।।


                         -2-

होली का  रँग- पर्व  ये,भारत का   संस्कार।

मिटा हृदय के कलुष को,कर लें मनुज सुधार

कर लें  मनुज  सुधार ,सुनें संदेश  रँगों  का।

बने रहें  रंगीन, न बिगड़े भाव  लबों  का ।।

'शुभम' न कटुता शेष, रहे मधु जैसी  बोली।

डालें  रंग   गुलाल, प्रेम  से खेलें  होली।।


                         -3-

बदला  युग बदली हवा,बदल गए  हैं  लोग।

बाहर भीतर विष भरा, नए आ  रहे  रोग।।

नए  आ  रहे  रोग,  कौन खेले अब    होली।

कोरोना  का  काल,  विषैली मानव   बोली।।

विष  वाले  ही   रंग, भरा है उर   में गदला।

होली  के  दिन बैर, निकालें लेकर  बदला।।


                      -4-

गुझिया   में मैदा  भरी, संग परिष्कृत   तेल।

चर्बी सिकीं जलेबियाँ, उधर मिलावट खेल।।

उधर  मिलावट खेल,  दूध में गड्ढा -  पानी।

मिला   यूरिया   खाद, मौन  हैं राजा - रानी।।

'शुभम' रंग बदरंग, पर्व   की बैठी  बधिया।

होली  कैसे  आज , मनाएँ खाकर  गुझिया।।


                         -5-

आलू पत्थर हो  गया ,देख मनुज की चाल।

जहर  भरी  सब्जी हरी, कौवा बना  मराल।।

कौवा  बना   मराल, बने दुश्मन   हलवाई।

मिला  जहर के  रंग,बनाते सभी    मिठाई।।

'शुभम'न रंग की धार,रही असली सुन कालू।

होली मने न आज, चिप्स का पाहन  आलू।।


✍️ शुभमस्तु !


१७.०३.२०२१◆१०.००आरोहणम मार्तण्डस्य।


मंगलवार, 16 मार्च 2021

होली के रंग 💃🏻🎊 [ हाइकु ]

  

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✍️ शब्दकार©

💃🏻 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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                      -1-

होली के रंग

हमजोलिनें संग

ऊँची तरंग।

                       -2-

ये पिचकारी

छोड़ती रंग धारी

भिगोती सारी।


                      -3-

बालियाँ भूनें

हमारी कुछ सुनें

होलिका जले।


                       -4-

देवर भौजी 

बड़े ही मनमौजी

रंग भरी कचौड़ी।


                      -5-

फ़ागुन मास

रति काम सुवास

महके श्वास।


                    -6-

ढप ढोलक

मंजीरा करताल

बजाते ताल।


                      -7-

इधर राधा 

होली का है इरादा 

निभाया वादा।


                        -8-

तीर -कमान 

सुमन से निर्माण

मारते तान।


                     -9-

रंग ही रंग

मन में है तरंग

थोड़ी -सी भंग।


                     -10-

लाल गुलाल

बरसा हर हाल

नारी  बेहाल।


                       -11-

होली तो होली

सँग  हैं  हमजोली

भीगती चोली।


✍️ शुभमस्तु !


१६.०३.२०२१◆३.००पतनम मर्तण्डस्य।

पुरानी याद 🍃🍃 [ गीत ]


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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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 पुरानों   को     पुरानी   याद,

अक्सर      आ  ही  जाती  है।

वही  बीते    दिनों   की  याद,   

रह - रह  कर   सताती    है।।


यों    ही    नहीं     ये     गाल,

गड्ढों      में      धँसे        मेरे।

यों    ही     नहीं     ये    बाल,

सन   वत        हुए       मेरे।।

ये   देखो     चाल   भी  मेरी,

मुझे  लड़खड़    चलाती  है।

पुरानों    को   पुरानी    याद,

अक्सर   आ   ही  जाती  है।।


चिकनी   चमकती  खाल थी ,

अब     तो        नहीं     मेरी।

ये  देह    भी   तो   लाल  थी ,

घन    श्याम      ने       घेरी।।

ये    ज़िंदगी     खुशहाल थी,

अब        बरगलाती         है।

पुरानों  को    पुरानी     याद ,

अक्सर     आ   ही जाती है।।


दृष्टि    अब     धुँधली     हुई,

क्या      देखना         बाकी!

कान    बहरे      हो        गए,

सुन - सुन   सबद    छाकी।।

जीभ   को   रसना  कहा है ,

रस   भर   ही     लाती   है।

पुरानों  को    पुरानी    याद,

अक्सर     आ   ही जाती है।।


मुख    बना      बे - दांत   ये ,

पर     पेट        भूखा     है।

यों  ही    निगलना  है   उसे,

दलिया    जो       रूखा है।।

आँत        बेचारी     परेशां,

भूखी     कुलबुलाती      है।

पुरानों  को    पुरानी   याद,

अक्सर   आ   ही  जाती है।।


फूल      खिलते     बाग   में,

तितली   आ   ही   जातीं  हैं।

जितने     मिलें     रस - बिंदु ,

वे   सब   पा   ही   जाती हैं।।

झड़    गए   अब   पात  सब,

पछुआ      नित   तपाती  है।

पुरानों  को     पुरानी     याद,

अक्सर   आ     ही जाती है।।


हर     समय    के     रंग नव ,

सबसे   अलग     ही     होते।

विगत   के     नर -    नारियाँ,

निज    ढंग      से       बोते।।

ज़िंदगी     अपनी         हवा ,

कुछ     यों      चलाती     है।

पुरानों     को    पुरानी  याद,

अक्सर   आ    ही  जाती है।।


देखते     क्या     हो   'शुभम',

दिल     होता     नहीं    बूढ़ा।

देह    तो     बस     वसन   है,

दह    कर      बने       रूढ़ा।।

आज   भी   दिल  की  कली,

फिर       मुस्कराती         है।

पुरानों    को    पुरानी   याद,

अक्सर    आ  ही  जाती  है।।


🪴 शुभमस्तु !


१६.०३.२०२१◆१२.४५पतनम मार्तण्डस्य।

धन्य हुआ धनियाँ 🫐 [ दोहा ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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दूध, तेल,मिष्ठान्न  में,   करें मिलावट रोज़।

असली  के  सपने बचे,कैसे आए   ओज।।


धन्य किया धनिया शुभं, मिला अश्व की लीद

हल्दी  में  रँग जो मिला , हम हो गए मुरीद।।


मूँग, उर्द,अरहर  सभी,पत्थर के    शौकीन।

चर्बी सिकीं जलेबियाँ ,   बिगड़े चाहे   दीन।।


शुद्ध दूध जब भी पिया,हुआ हाजमा ध्वस्त।

ले कर  लोटा  दौड़ते, शुरू   हो गए   दस्त।।


मिलावटी  खाया पिया,संतति है   कमज़ोर।

आई   पीढ़ी    सामने,   आज मिलावटखोर।


हया  हिये  से  है  हवा,  मानव नाटकबाज।

राजनीति जब से घुसी,बदल गया सब साज।


गाय,भैंस  पालें  नहीं, पा  लें पाउडर  तेल।

जादूगर  इस  देश के ,  दिखा रहे  हैं  खेल।।


खोया  खोया  भीड़   में, मैदा के   मैदान।

तेल परिष्कृत को मिला,करता है अहसान।।


खाया जब से जहर को,जहरी  है   इंसान।

कंठ नहीं नीला पड़ा, पचा बना भगवान।।


असली की उम्मीद तो,करना दो अब  छोड़।

लगा मुखौटे आदमी,नित्य निकाले तोड़।।


वरद हस्त नेता खड़े,कुछ भी कर लो मीत।

'शुभम'झूठ कहता नहीं,होगी तेरी   जीत।।


🪴 शुभमस्तु !


१५.०३.२०२१◆६.३० पत नम मार्तण्डस्य।

गाँव शहर में खो गया [ दोहा ]


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✍️ शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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पनघट  सब सूखे पड़े, शेष न रस्सी  डोल।

नहीं सुनाई पड़ रहे,पनिहारिन के   बोल।।


गागर का जल अब नहीं,शीतल करता तृप्त।

फ्रिज़ घर-घर में आ गया,प्यास हो गई जब्त।


अब ठंडे के नाम पर,लस्सी मिले  न छाछ।

कोका कोला भा गया,खिली युवा की  बाछ।


ढप  ढोलक सब  मौन हैं,मंजु मँजीरा शांत।

यू-ट्यूब  को देखकर,  होली है  उद्भ्रांत।।


होली  वह  होली  नहीं,  बीते वर्ष   पचास।

गाँव  शहर  में  खो गया, पीढ़ी नई   उदास।।


मोबाइल  है हाथ में, दिखता नहीं  धमाल।

राग-रंग सूखा सभी,  शेष न फ़ाग गुलाल।।


फूलों के  अब  रँग नहीं,सोया कहीं पलाश।

रंग  रसायन  से  बने, टूट  गई है     आश।।


पहली - सी  मस्ती नहीं,चंदन लगती धूल।

गले  गले  से  मिल रहे, बीती बातें  भूल।।


देवर  भाभी  खेलते, लगा गाल  पर  रंग।

बुरा न  कोई  मानता,  न   थी भावना तंग।।


बाली  जौ  गोधूम  की, भून होलिका आग।

खाते थे नव अन्न हम,फिर होता था फ़ाग।।


चढ़-चढ़  छत पर नारियाँ, बरसाती थीं रंग।

कपड़े होते तर-ब-तर,होता रंग   न   भंग।।


🪴 शुभमस्तु !


१५.०३.२०२१◆४.३० पत नम मार्तण्डस्य।


रविवार, 14 मार्च 2021

होली:राधे श्याम की🍇🫐 [ चौपाई ]

 

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✍️ शब्दकार ©

🏕️  डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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खेल    रहीं    रँग     राधा   गोरी।

सँग  में  ब्रज  की  सखियाँ छोरी।।

कहाँ    गए      घनश्याम   हमारे।

गोपीनाथ    नयन        के  तारे।।


ऋतु  वसंत   की   फ़ागुन आया।

दर्शन   को   मम     उर तरसाया।।

कोयल    शोर      मचाती   बोले।

पीपल   पल्लव  सम मन डोले।।


उर    में     उठें      हिलोर   रँगीली।

लाल ,    गुलाबी ,    नीली ,  पीली।।

राधा   के     मन    बड़ी  उदासी।

व्याकुल  कान्ह - दरस की प्यासी।।


चूनर       में       उरसी   पिचकारी।

जान   न    पावें     कृष्ण  मुरारी।।

कुंज,    बाग ,   वन   में   वे जातीं।

लौट   निराश   धाम   निज आतीं।।


दिखे     तभी   प्रिय   कृष्ण कन्हाई।

ज्यों  बादल    बिच    शरद जुन्हाई।।

राधा -      गोपी       हर्षित    सारी।

चुनरी    से    कर      ली पिचकारी।।


बोले     श्याम       'नहीं   घबराओ।

एक  -   एक   कर     खेलें  आओ।।

मैं    हूँ      एक    बहुत   तुम  गोरी।

सभी     करो       रँग  -  वर्षा थोरी'।।


सुन   प्रिय     वचन    सखीं हरषानी।

आगे      बढ़ीं         राधिका    रानी।

रँग     से     भरी        मार पिचकारी।

मारी        पीताम्बर       पर   धारी।।


सभी    खिलखिला    कर हर्षातीं।

घेर     चतुर्दिशि       रँग बरसातीं।।

कटि    कर   थाम   एक  गोपी  की।

भरी   नाद     में   फिर  डुबकी  दी।।


दौड़ीं     गोपी     घर    को अपने।

राधा      खड़ीं       देखती  सपने।।

डरीं   न      दौड़ीं    घर  को राधा।

'शुभम'  सहज   संयोग सु- साधा।।


फिर  क्या  श्याम  संग  ले श्यामा।

खेलें      होली  -  रँग अभिरामा।।

युगलबद्ध      खेलें       रँग  होली।

वाणी   एक     न  मुख  से बोली।।


🪴 शुभमस्तु !


१४.०३.२०२१◆६.००पतनम मार्तण्डस्य।

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...