अब व्यभिचार अपराध नहीं है। व्यभिचार को अपराध मानने वाली धारा :497 अब मननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा असंवैधानिक ठहरा दी गई है। पुरुष और स्त्री को बराबरी के अधिकार के अंतर्गत अब यौन स्वायत्तता भी प्राप्त हो गई है। विवाह के बाद चाहे पुरूष कितनी भी स्त्रियों को अंकशायिनी बनाये, अब कानूनन जायज है।इसी प्रकार कोई स्त्री भी यदि विवाह के बाद अपने कितने ही पुरुष मित्रों से सम्बंध बनाये ,तो इसमें कोई पति न रोक सकता है। न हस्तक्षेप कर सकता है और न कोर्ट में ही याचिका दाख़िल कर सकता है। क़ानूनन अधिकार जो मिल गया। अब तो पति के सामने पत्नी और पत्नी के सामने पति अपने -अपने विपरीत लिंगी मित्रों के साथ अपनी इच्छापूर्ति करके संतुष्टि प्राप्त कर सकेगा।
पशु पक्षी और मानव में अब कोई फ़र्क नहीं रह गया। सामाजिक सिद्धान्त औऱ उसूलों की बात ही खत्म कर दी गई। अब विवाह संस्था का क्या मतलब रह गया? जब विवाह के बाद उन्हें व्यभिचार में ही लिप्त रहना है, तो हमारे प्राचीन परम्परागत सिद्धांत हवा कर दिए गए। अब थाने में दरोगा जी भी नहीं सुनेंगे। कहेंगे -अरे भाई मननीय सर्वोच्च न्यायालय ने ही धारा -497 समाप्त कर दी तो अब यह अपराध नहीं, अधिकार है। बराबरी का अधिकार।कुत्ते बिल्लियों जैसा अधिकार।तुम कोई पत्नी के मालिक तो हो नहीं, औऱ न ही वह तुम्हारी प्रोपर्टी है।
पता नहीं प्रधान न्यायाधीश ने कहा है कि धारा 497 लिंग आधारित घिसी -पिटी सोच है,जिससे महिला की गरिमा पर चोट होती है। इस धारा में सम्बंध बनाने के लिए पति की सहमति या सुविधा एक तरह से पति के अधीन बनाती है। ये धारा अनुच्छेद 21 में मिले स्वतंत्रता और जीवन के अधिकार का उल्लंघन करती है। जस्टिस आर एफ नरीमन ने अपने फैसले में कहा है कि 'महिला उस पति पर मुकदमा नहीं कर सकती , जो दूसरे की पत्नी से सम्बंध बनाता है। जिस महिला से उसके पति ने सम्बन्ध बनाये हैं , उसके खिलाफ भी पत्नी कुछ भी नहीं कर सकती।' अब वह बात पुरानी नहीं , व्यर्थ की बात हो गई कि पति की चहेती से पत्नी उसकी पत्नी चुटिया पकड़कर कहे कि चल निकल तूने ही मेरे पति और गृहस्थी को बरवाद किया है। अब सब जायज है। क़ानूनन व्यभिचार को मान्यता प्राप्त है।
आज पश्चिम की नकल में हम कहाँ जा रहे हैं। वर्जिनिटी और कौमार्य की महत्ता पर तुषारापात हो गया है। अब पुरुष या नारी के चरित्र के कोई मानी नहीं रह गए। अब क्या जरूरत रह गई स्कूल कालेजों में चरित्र प्रमाण पत्र लेने की? उसकी कोई उपयोगिता व्यर्थ कर दी गई है। विवाह के महत्व और पवित्रता का मान भंग हो चुका है।अब कैसा पतिव्रत ? कैसी पतिव्रता?कैसी पवित्रता ? कैसी करवा चौथ और किस किस के लिए? और अगर है तो पता नहीं चेहरा किसी का छलनी में देखा जा रहा है और लंबी उम्र की कामना किसी औऱ के लिए । जब विवाह संस्था पर ही पत्थर पड़ गए तो एक इंसान औऱ पशु में अंतर ही क्या रह गया ! एक औपचारिकता के नाम पर बैंड बजवा लो, खुश हो लो , सेहरा बांधों, बारात ले जाओ, सुहागरात भी मना लो, लेकिन उसके बाद न मना कर पाओगे न रोक टोक कर पाओगे। कहाँ जा रही हो?/कहाँ जा रहे हो? कब आओगे ?कब आओगी? उससे क्यों मिलती हो?/ क्यों मिलते हो। वह घर पर क्यों आता है?/आती है? तुम उसके पास क्यों जाती हो?/ क्यों जाते हो।जैसे बहुत सारे प्रश्न स्वतः समाप्त हो गए हैं। क़ानूनन समाप्त कर दिए गए हैं। धारा-497 पूर्णतः दकियानूसी हो गई। चरित्र, पवित्रता , शील , सदाचार , पातिव्रत , पत्नीवृता , सब ढकोसले हो गए। खुली छूट। पूरी तरह मनमानी और स्वेच्छाचार की आज़ादी। आख़िर क्या होगा इस देश का। अब सीता ,सावित्री जैसी महान नारियां केवल उदाहरणों और किताबों में दम घुट घुट कर रहेंगी।राम, लक्ष्मण, विवेकानन्द,जैसे महान चरित्र इतिहास बन जाएंगे। अब हम अमेरिका होने की डगर पर हैं। तो इतना आदर्श का पोटला तो विसर्जित करना ही पड़ेगा। परिवार, धर्म, पावनता, गृहस्थी , सब टूट टूट कर बिखर जाएंगे। धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो - ये केवल नेताओं के नारों की तरह धीरे धीरे दम तोड़ देँगे। प्राणियों में सद्भावना क्यों और कैसे रह जाएगी? इतिहास अपने को दुहराता है-ये कहा जाता है। मनुष्य भी पहले पशु है, बाद में मानव। अब वह केवल पशु ही रह जाएगा। क्योंकि उसे अपने इतिहास को दुहराकर पुनः आदिम अवस्था की ओर जाने का कानून बना लिया है।अरे भी सुप्रीम तो सुप्रीम होता है। अब सुप्रीम का विरोध करके जाओ तो जाओ कहाँ? कोई परमात्मा की सुप्रीम सत्ता का विरोध कर पाया है? इसी तरह इस देश का सुप्रीम भगवान कोर्ट है। वह जो भी फैसला कर दे। मानना हमारी बाध्यता होगी। अन्यथा उसके उल्लंघन का आरोप माथे पर चिपका दिया जाएगा।
मुझे आश्चर्य तब हुआ जब 28 सितंबर 2018 के अखबारों में ये पढ़ने को मिला" विवाहेतर सम्बन्ध अपराध नहीं" । तो ऐसा लगा कि इस देश के सारे नैतिकता वादियों, धर्म के ठेकेदारों , समाज सुधारकों , नेताओं, विधायकों, सांसदों, मंत्रियों, प्रोफेसरों, बुद्धि जीवियों को जैसे साँप सूंघ गया। सबकी बोलती बंद हो गई। थोथी सी हलचल हुई और सब सहज स्वीकार लिया गया कि चलो भाई अच्छा हुआ। न कोई सती बोली, न कोई सता। न पति बोले और पत्नियां भी लापता। सुप्रीम कोर्ट के ख़िलाफ़ कौन बोले? सब की बोलती बंद। एक राहत की सांस लेकर सब
शांत हो गया। मैं इस प्रतीक्षा में इसी उधेड़बुन में रहा कि तीन हफ्ते तक कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं दिखाई सुनाई पड़ी। थोड़ी बहुत टी वी पर कह सुन लिया। और सब स्वीकार। नक्कारखाने में तूती की आवाज भला कौन सुनता है! पर कोई बात बात नहीं। तूती अपनी आवाज़ करेगी औऱ जरूर करेगी।नैतिकता की रक्षा के लिए
, विवाह संस्था की सुरक्षा के लिए विवाहेतर सम्बन्ध को अपराध न मानना उचित नहीं है। नहीं है। नहीं है। मनुष्यता को भाड़ में नहीं झोंका जा सकता। ये गलत है। नितांत गलत है।
💐शुभमस्तु!
✍🏼लेखक©
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"
पशु पक्षी और मानव में अब कोई फ़र्क नहीं रह गया। सामाजिक सिद्धान्त औऱ उसूलों की बात ही खत्म कर दी गई। अब विवाह संस्था का क्या मतलब रह गया? जब विवाह के बाद उन्हें व्यभिचार में ही लिप्त रहना है, तो हमारे प्राचीन परम्परागत सिद्धांत हवा कर दिए गए। अब थाने में दरोगा जी भी नहीं सुनेंगे। कहेंगे -अरे भाई मननीय सर्वोच्च न्यायालय ने ही धारा -497 समाप्त कर दी तो अब यह अपराध नहीं, अधिकार है। बराबरी का अधिकार।कुत्ते बिल्लियों जैसा अधिकार।तुम कोई पत्नी के मालिक तो हो नहीं, औऱ न ही वह तुम्हारी प्रोपर्टी है।
पता नहीं प्रधान न्यायाधीश ने कहा है कि धारा 497 लिंग आधारित घिसी -पिटी सोच है,जिससे महिला की गरिमा पर चोट होती है। इस धारा में सम्बंध बनाने के लिए पति की सहमति या सुविधा एक तरह से पति के अधीन बनाती है। ये धारा अनुच्छेद 21 में मिले स्वतंत्रता और जीवन के अधिकार का उल्लंघन करती है। जस्टिस आर एफ नरीमन ने अपने फैसले में कहा है कि 'महिला उस पति पर मुकदमा नहीं कर सकती , जो दूसरे की पत्नी से सम्बंध बनाता है। जिस महिला से उसके पति ने सम्बन्ध बनाये हैं , उसके खिलाफ भी पत्नी कुछ भी नहीं कर सकती।' अब वह बात पुरानी नहीं , व्यर्थ की बात हो गई कि पति की चहेती से पत्नी उसकी पत्नी चुटिया पकड़कर कहे कि चल निकल तूने ही मेरे पति और गृहस्थी को बरवाद किया है। अब सब जायज है। क़ानूनन व्यभिचार को मान्यता प्राप्त है।
आज पश्चिम की नकल में हम कहाँ जा रहे हैं। वर्जिनिटी और कौमार्य की महत्ता पर तुषारापात हो गया है। अब पुरुष या नारी के चरित्र के कोई मानी नहीं रह गए। अब क्या जरूरत रह गई स्कूल कालेजों में चरित्र प्रमाण पत्र लेने की? उसकी कोई उपयोगिता व्यर्थ कर दी गई है। विवाह के महत्व और पवित्रता का मान भंग हो चुका है।अब कैसा पतिव्रत ? कैसी पतिव्रता?कैसी पवित्रता ? कैसी करवा चौथ और किस किस के लिए? और अगर है तो पता नहीं चेहरा किसी का छलनी में देखा जा रहा है और लंबी उम्र की कामना किसी औऱ के लिए । जब विवाह संस्था पर ही पत्थर पड़ गए तो एक इंसान औऱ पशु में अंतर ही क्या रह गया ! एक औपचारिकता के नाम पर बैंड बजवा लो, खुश हो लो , सेहरा बांधों, बारात ले जाओ, सुहागरात भी मना लो, लेकिन उसके बाद न मना कर पाओगे न रोक टोक कर पाओगे। कहाँ जा रही हो?/कहाँ जा रहे हो? कब आओगे ?कब आओगी? उससे क्यों मिलती हो?/ क्यों मिलते हो। वह घर पर क्यों आता है?/आती है? तुम उसके पास क्यों जाती हो?/ क्यों जाते हो।जैसे बहुत सारे प्रश्न स्वतः समाप्त हो गए हैं। क़ानूनन समाप्त कर दिए गए हैं। धारा-497 पूर्णतः दकियानूसी हो गई। चरित्र, पवित्रता , शील , सदाचार , पातिव्रत , पत्नीवृता , सब ढकोसले हो गए। खुली छूट। पूरी तरह मनमानी और स्वेच्छाचार की आज़ादी। आख़िर क्या होगा इस देश का। अब सीता ,सावित्री जैसी महान नारियां केवल उदाहरणों और किताबों में दम घुट घुट कर रहेंगी।राम, लक्ष्मण, विवेकानन्द,जैसे महान चरित्र इतिहास बन जाएंगे। अब हम अमेरिका होने की डगर पर हैं। तो इतना आदर्श का पोटला तो विसर्जित करना ही पड़ेगा। परिवार, धर्म, पावनता, गृहस्थी , सब टूट टूट कर बिखर जाएंगे। धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो - ये केवल नेताओं के नारों की तरह धीरे धीरे दम तोड़ देँगे। प्राणियों में सद्भावना क्यों और कैसे रह जाएगी? इतिहास अपने को दुहराता है-ये कहा जाता है। मनुष्य भी पहले पशु है, बाद में मानव। अब वह केवल पशु ही रह जाएगा। क्योंकि उसे अपने इतिहास को दुहराकर पुनः आदिम अवस्था की ओर जाने का कानून बना लिया है।अरे भी सुप्रीम तो सुप्रीम होता है। अब सुप्रीम का विरोध करके जाओ तो जाओ कहाँ? कोई परमात्मा की सुप्रीम सत्ता का विरोध कर पाया है? इसी तरह इस देश का सुप्रीम भगवान कोर्ट है। वह जो भी फैसला कर दे। मानना हमारी बाध्यता होगी। अन्यथा उसके उल्लंघन का आरोप माथे पर चिपका दिया जाएगा।
मुझे आश्चर्य तब हुआ जब 28 सितंबर 2018 के अखबारों में ये पढ़ने को मिला" विवाहेतर सम्बन्ध अपराध नहीं" । तो ऐसा लगा कि इस देश के सारे नैतिकता वादियों, धर्म के ठेकेदारों , समाज सुधारकों , नेताओं, विधायकों, सांसदों, मंत्रियों, प्रोफेसरों, बुद्धि जीवियों को जैसे साँप सूंघ गया। सबकी बोलती बंद हो गई। थोथी सी हलचल हुई और सब सहज स्वीकार लिया गया कि चलो भाई अच्छा हुआ। न कोई सती बोली, न कोई सता। न पति बोले और पत्नियां भी लापता। सुप्रीम कोर्ट के ख़िलाफ़ कौन बोले? सब की बोलती बंद। एक राहत की सांस लेकर सब
शांत हो गया। मैं इस प्रतीक्षा में इसी उधेड़बुन में रहा कि तीन हफ्ते तक कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं दिखाई सुनाई पड़ी। थोड़ी बहुत टी वी पर कह सुन लिया। और सब स्वीकार। नक्कारखाने में तूती की आवाज भला कौन सुनता है! पर कोई बात बात नहीं। तूती अपनी आवाज़ करेगी औऱ जरूर करेगी।नैतिकता की रक्षा के लिए
, विवाह संस्था की सुरक्षा के लिए विवाहेतर सम्बन्ध को अपराध न मानना उचित नहीं है। नहीं है। नहीं है। मनुष्यता को भाड़ में नहीं झोंका जा सकता। ये गलत है। नितांत गलत है।
💐शुभमस्तु!
✍🏼लेखक©
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"
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