अगर 'वही बात' कोई मर्द कह देता,
तो जमाना उस मर्द को क्या क्या न कह देता।
बराबर का जमाना तो बराबरी की बात तो हो,
अगर बिंदास है औरत तो क्या मर्द सह लेता?
अगर मुँह खोलकर दो चार नामों को-
मर्द कह देता, तो कोई कैसे सह लेता?
लोग तो उस जान के ग्राहक ही बन जाते,
कोई कोर्ट क्यों जाता हाथ कानून गह लेता!
लज्जाशीलता शर्म ओ हया की दीवार टूटी है,
बेबाकियत के नाम पर क्या क्या न हो लेता!
जो जिन्न बोतलबंद था देखो तमाशा अब,
उठी जिसकी भी दुम ऊपर वो गर्दन झुका देता।
चौगुनी लज्जा किसी औरत में मर्दों से,
वह चाणक्य भारत का यूँ ही न लिख देता।
मर्द चुप आज भी खुद को बचाने में,
चौगुनी लज्जा का हस्र क्या ये सब होता?
बगबगे कपड़ों से ढँके अब सड़क पर आओ,
रजामंदी नहीं थी या कोई यूँ ही बक देता !
हम जा रहे किस ओर छाया अँधेरा है,
पश्चिम की नकल में क्या क्या न हो लेता।
💐शुभमस्तु!
✍🏼रचयिता©
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"
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