सुबह -सुबह कुछ कुत्ते और कुछ आदमी (औरतें भी) सड़कों पर देखे जाते हैं। लेकिन जब भी उनको देखता हूँ तो ये समझना मुश्किल हो जाता है कि आदमी कुत्ते को टहला रहा है या कुत्ता आदमी को टहला रहा है? आदमी ने कुत्ता पाला है या कुत्ते ने आदमी को पाल लिया है? प्रथम दृष्टया देखने पर लगता है कि जो आगे है वही मालिक है और जो पीछे -पीछे घिसट रहा /रही है , वही अनुगामी है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि कुत्ता मालिक है और आदमी उसका अनुगमन करने वाला उसका पालय। इस प्रकार कुत्ते और आदमी का पालक और पालय का सम्बंध है। कुत्ता रुका कि आदमी रुका। कुत्ता चल पड़ा तो आदमी भी चलने लगा। कुत्ते को •••••••लगी तो वह बिना आदमी (पालय/अनुगामी ) को पूछे हुए रुक गया। आदमी को भी रुकना पड़ा, रुकना पड़ेगा , क्योंकि कुत्ता उसका अनुगमन नहीं कर रहा है, वह स्वयं उसका अनुगामी है। पीछे पीछे तो आदमी को ही चलना है कुत्ते के। जो दिख रहा है, वैसा नहीं है कि जंजीर कुत्ते के गले में बँधी दिखाई दे रही है, पर असलियत में बंधा हुआ आदमी है। जैसे नेता के पीछे पब्लिक, वैसे कुत्ता के पीछे आदमी। नेता अनुगम्य ,मालिक। जनता अनुगामी , बन्धित। कुत्ते के रुकने और चलने के अनुसार ही आदमी का रुकना या चलना है। कुत्ता आदमी का गुलाम नहीं, आदमी कुत्ते का गुलाम है। यदि राह चलते /टहलते आदमी का कोई दोस्त मिल गया तो रुक कर परस्पर दो बातें करना कुत्ते ही इच्छा पर निर्भर करता है, आदमी की इच्छा पर नहीं। यदि कुत्ता नहीं रुकता तो यही कहना पड़ता है कि दोस्त फिर मिलेंगे, ये हमारा डॉगी नहीं मान रहा /रुकने की इजाज़त नहीं दे रहा। अच्छा दोस्त बाय !बाय!! औऱ वे कुत्ते के पीछे खिंचे चले जाते हैं। ये है मालिक और नौकर/गुलाम का एक दैनिक सड़कों पर देखा जा सकने वाला दृश्य! जो दिखता , वह नहीं होता और जो होता है, उसे आदमी समझ नहीं पाता। बस यही कुत्ते औऱ आदमी की स्थिति हमारी और हम सबके दिमाग की है। हमारा मन -मष्तिष्क हमें जो आदेश करता है , हम वही करते हैं। हम जो चाहते हैं , वह हमारा मन -मष्तिष्क नहीं करता। जब होना यही चाहिए। हम कुत्ते के अनुगामी बने हुए हैं , जबकि हमारे मन -मष्तिष्क रूपी श्वान को हमारा अनुगमन करना चाहिए। यहाँ भी कुत्ता स्वामी है , औऱ आदमी उसका दास बना हुआ है।
हमारे मन के दो भाग होते हैं:चेतन मन और अवचेतन मन। चेतन मन से संसार की हर बात, अनुभूति का ज्ञान प्राप्त करते हैं। जब कोई बात या अनुभूति हमारे चेतन मन में बार -बार आघात करती है तो वह बाई डिफॉल्ट वहीं स्थित होकर श्थिर हो जाती है। जब भी जाने अनजाने वह बात या अनुभूति हमारे सामने आती है , वह हमारे अवचेतन मन से निकल कर उसीके अनुसार चलने को बाध्य कर देती है। जैसे विज्ञापन में एक ही विज्ञापन विभिन्न चेनल पर बार -बार दिखाया जाता है । तो हमारे दिमाग के अवचेतन में वह बस जाता है,और अच्छी न होते हुए भी हम वह वस्तु बाज़ार से खरीद लाते हैं। विज्ञापन का यही मानव - मनोविज्ञान है। धीरे -धीरे एक छोटी सी चीज हमारे अवचेतन में पक्की सड़क बना लेती है। स्वप्न भी इसी मानव मनोविज्ञान पर आधारित हैं।
आदमी अपनी सोच से ही अज्ञानी - बुद्धिमान , अमीर - गरीब , मजबूत -कमजोर, सम्पन्न- विपन्न, बनता है। क्योंकि हमारा मन रूपी श्वान हमारा मालिक बना बैठा है और हमें टहला रहा है। जबकि हमें अपने मन-मष्तिष्क का मालिक होना चाहिए। इसीलिए तो उचित ही कहा गया है: मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।पारब्रह्म को पाइये मन ही कि परतीत।।
💐 शुभमस्तु !
✍🏼लेखक ©
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"
हमारे मन के दो भाग होते हैं:चेतन मन और अवचेतन मन। चेतन मन से संसार की हर बात, अनुभूति का ज्ञान प्राप्त करते हैं। जब कोई बात या अनुभूति हमारे चेतन मन में बार -बार आघात करती है तो वह बाई डिफॉल्ट वहीं स्थित होकर श्थिर हो जाती है। जब भी जाने अनजाने वह बात या अनुभूति हमारे सामने आती है , वह हमारे अवचेतन मन से निकल कर उसीके अनुसार चलने को बाध्य कर देती है। जैसे विज्ञापन में एक ही विज्ञापन विभिन्न चेनल पर बार -बार दिखाया जाता है । तो हमारे दिमाग के अवचेतन में वह बस जाता है,और अच्छी न होते हुए भी हम वह वस्तु बाज़ार से खरीद लाते हैं। विज्ञापन का यही मानव - मनोविज्ञान है। धीरे -धीरे एक छोटी सी चीज हमारे अवचेतन में पक्की सड़क बना लेती है। स्वप्न भी इसी मानव मनोविज्ञान पर आधारित हैं।
आदमी अपनी सोच से ही अज्ञानी - बुद्धिमान , अमीर - गरीब , मजबूत -कमजोर, सम्पन्न- विपन्न, बनता है। क्योंकि हमारा मन रूपी श्वान हमारा मालिक बना बैठा है और हमें टहला रहा है। जबकि हमें अपने मन-मष्तिष्क का मालिक होना चाहिए। इसीलिए तो उचित ही कहा गया है: मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।पारब्रह्म को पाइये मन ही कि परतीत।।
💐 शुभमस्तु !
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डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"
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