रविवार, 21 अक्तूबर 2018

बस वासना का द्वार मैं

तुम   परिधि   हो   मैं  केंद्र हूँ
नन्हा - सा     छोटा    बिंदु हूँ।

क्षेत्रज्ञ       तुम   मैं   क्षेत्र  हूँ
मस्तिष्क   तुम    मैं   नेत्र हूँ।

आकाश    तुम    मैं  इंदु  हूँ
कलंकित ही सही पर चंद हूँ।

किसने  किया  मैं  क्या कहूँ 
सहमति कभी बल  भी सहूँ।

सहमति रही  फिर ज्वार क्यों
केवल पुरुष  पर  भार  क्यों?

दूधों     पले   तुम   भी  नहीं
दूधों    धुली    मैं   भी नहीं ।

बस  भावना    का   फ़र्क़   है
मी टू  का   ये    निष्कर्ष    है।

पराशर    मुनि   की    नाव  में 
कुहरे   की     गहरी    छाँव में।

सत्यवती की  भी सहमति रही 
जो   व्यास   की    जननी रही।

विश्वामित्र    की    मैं    मेनका 
अविचल तपस्या  -  व्रत डिगा।

मम   पहल  का   सब खेल था
प्रकृति -  पुरुष का   मेल   था।

अहिल्या -संग शाचिपति इंद्र ने
जो छल किया  वह अक्षम्य थे।

सहमति   नहीं    बलात्कार  था
नर   इंद्र   को     धिक्कार   था।

संग   वासना   के    वश   हुआ 
मुर्गा   बना     छल  बल किया ।

देवर्षि नारद मोहिनी -आसक्त थे
सक्षम   भी   और    सशक्त   थे।

निश्चय   मैं      केवल   देह     हूँ
हर   पुरुष     का      सन्देह   हूँ।

हर   युग   में    मैं  ही  छली गई
सहमति   या   बल  से दली  गई।

नहा  धो के    तुम   हुए   दूर  ही
धोखे     मैं         मजबूर       ही।

नैतिकता   की  सब    धज्जियाँ
उड़    रहीं      ज्यों     तितलियाँ।

न्यायाधीश    के     दरबार    में
बस   वासना     का    द्वार   मैं।

व्यभिचार   अब  तो  कुछ नहीं 
किसी को  बुलाओ  सब  सही।

पत्नी   भी    जाए    भाड़   में
क्यों खोजें   धुँधली   आड़  में।

पति का न   मतलब अब  रहा 
पत  ही   गई   तो   क्या   रहा?

नर मादा   का   केवल खेल है
नहीं    होनी   कोई    जेल  है।

कुत्ते    बिल्लियाँ     घोड़े  गधे
मानव  भी   उस   पलड़े  सधे।

विवाह  का   क्या   अर्थ  अब
अब   हो   गया है   व्यर्थ  सब।

पति   के   लिए   पत्नी    नहीं 
पत्नी के   हित पति  भी  नहीं।

बस    आदमी      औरत  बचे 
संग     उसका       जो     रुचे।

 गधी - गधे       घोड़े -  घोड़ियाँ
त्यों     मर्द - औरत     श्रेणियाँ।

क़ानून    भी   तो     मर   चुका 
पशु - आचार का  फाटक खुला।

मर      गई        हर     नैतिकता
जी      रही      है       भौतिकता।

क्या  हश्र    हो   भवितव्य   का
अब  तक न   मानव  बन सका।

पशु   था  ये   इंसां   पशु ही रहा
पशु  से    न   ऊपर     जा  रहा।

💐शुभमस्तु  !

✍🏼©रचयिता

डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

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