[फसल,मिट्टी ,खलिहान,अन्न,किसान]
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✍️ शब्दकार ©
🌷 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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🌲 सब में एक 🌲
तिय - यौवन के खेत में,महक रहे हैं फूल।
झूम भृङ्ग भूँ-भूँ करें,फसल हुई अनुकूल।।
स्वामिनि स्वागत में सजी,लदी शाख फलदार
पकी फसल के लोभ में,तन में उछले मार।।
महकी मिट्टी देह की, जीवित कंचन गात।
मदमाती नित कामिनी,महक रहा अवदात।।
इतराना क्या देह का,मिट्टी का यह रूप।
यहीं दिव्य सुरलोक है,यहीं बना भवकूप।।
तन ही तेरा खेत है,तन ही है खलिहान।
उत्पादन होता यहाँ, करता नहीं निदान।।
जीवन के खलिहान में, एक-एक कण बीन
जब बोएगा खेत में, बीज उगें हर तीन।।
जैसा खाए अन्न तू, मन का वैसा रूप।
चुरा अन्न जो खा रहे, गिरते अंधे कूप।।
मन का ही उपवास है, नहीं अन्न- उपवास।
लार टपकती अन्न को,करता नर उपहास।।
तू किसान नर देह का, उपजा चाहे अन्न।
सोना, हीरा, कोयला, चाहे पीतल खन्न।।
वह किसान होता नहीं,जो न बहाए स्वेद।
नौकर - चाकर खेत में,करते गहरे छेद।।
🌲 एक में सब 🌲
मानव जीवन खेत है,
अन्न, फसल, खलिहान।
मिट्टी से सोना उगा,
रे नर मूढ़ किसान।।
🪴 शुभमस्तु !
०६.०४.२०२२◆७.४५◆ आरोहणं मार्तण्डस्य।
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