रविवार, 17 अप्रैल 2022

मारदेव' की मार ❤️ [ व्यंग्य ]


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 ✍️ व्यंग्यकार © 

 ❤️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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            संसार में 'मार' की विकट मार भी अनंत है।इससे नहीं बचा कोई संत या असंत है।जैसा उसका नाम है। वैसा ही उसका काम है।इस भूमंडल पर इसीलिए उसका नाम है। उसी से सृजन है, संसार है। पर 'मार' की मार खाने के बाद मनुष्य कहता; 'ये दुनिया असार है।' बेचारा इंसान कितना लाचार है।फिर भी नहीं मानता कभी वह हार है। क्योंकि इस 'मार' से ही बनता उसका परिवार है।विश्वामित्र जैसे महा ऋषि ज्ञानी, पराशर मुनि आदि कोई भी नहीं बच पाए ,तो फिर एक सामान्य व्यक्ति की क्या सामर्थ्य कि 'मार' के हमले से संभले! उसके फूलों के धनुष औऱ फूलों के ही बाण कितने घातक हो सकते हैं,यह प्रत्येक घायल पुरुष जानता है। जो घायल न हुआ उसे शिखंडी मानता है।

                    'मार' के जन्मोपरांत नामकरणकर्ता ने बहुत ही सोच - समझकर उसका नाम रखा होगा कि इस नवजात का नाम 'मार' नाम से अभिहित किया जाता है ,क्योंकि इसका मुख्य कार्य मारना ही होगा।इसकी मार से मानव,देव,दानव, राक्षस, पिशाच, जलचर, थलचर ,नभचर कोई भी तो नहीं बच पाया। औऱ तो औऱ इसने तो भगवान शंकर पर भी डोरे डालने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी, भले ही देह विहीन होकर अदेह हो गया।पर अपना काम नहीं छोड़ा। छोड़ना भी नहीं चाहिए।एक सत्कार्य के लिए यदि शरीर का भी त्याग करना पड़ जाए, तो त्याग देने में ही जगत कल्याण है। यही तो उसकी कर्मनिष्ठा का सशक्त प्रमाण है। 

           अपनी निष्ठा की मार मारते - मारते 'मार' देवता हो गया ,काम का देवता और कहलाया 'कामदेव'। जैसे लोग अपने एक से एक उत्तम नाम रखवा लेते हैं ,अथवा उनके परिजन रख लेते हैं,वैसे ही काम के भी अनेक नाम प्रचलित हुए:मन्मथ,कंदर्प, मनसिज, रतिपति, रतिनाथ; परंतु सबसे सार्थक नाम 'मार' ही रह गया :;क्योंकि अनादि काल से यह मारने का काम ही करता आ रहा है। उसे कभी भी बूढ़ा भी नहीं होना। 'मार' की छत्रछाया से ही आच्छादित है पृथ्वी का कोना - कोना।काम ही है 'मार' का अनहोना।

      'मार' अमरदेव है।उसे भगवान शंकर भी पूर्णतः नहीं मार सके।यदि मर ही जाता तो 'मार' कैसे कहलाता! शरीर की क्या ? पर मन में जमा हुआ सबको मथता रहता है।अपने छंद के बन्ध की रचना रचता रहता है। और तो और इसके नाम को यदि उलट दिया जाए तो भी 'मार' से 'रमा' बन कर रमने लगता है।'मा' सृष्टि की उत्पादक है तो 'र' रति है ;नारी की प्रतीक।जिनके संयोग से सृष्टि का सृजन प्रतिपल ही होता रहता है।

           प्रायः मार कष्टकारी ही होती है। परंतु 'मार' की मादक मार का प्रभाव ही अलग है।वह वेदनात्मक नहीं है, आनन्दप्रद और सुखदायक ही है।इसलिए सारा संसार 'मार ' की सुखद मार का आनंद प्राप्त करता हुआ अपने भविष्य का निर्माण करता है। मानव के गर्भाधान,पुंसवन,सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन,चूड़ाकर्म, विद्यारंभ,कर्णवेध,यग्योपवीत, वेदारम्भ, केशांत, समावर्त,विवाह आदि सोलह संस्कार इसी 'मारदेव' के पूरक हैं । 'मार' की इसी रचनात्मकता की सारी दुनिया कायल है।सभी जीव- जंतु उसके प्रभाव में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में उसके गुण गायन में तल्लीन हैं।

 'मारदेव' की मार से, कुसुमित यह संसार। 

 फूले-फलता झूमता,कर नारी से प्यार।।


 'मारदेव' की मार में,डूबे जन आकण्ठ। 

 बुद्धिमान ज्ञानी सभी, ऋषि मुनि कोरे लंठ।।


 'मारदेव' का तन मरा,जीवित केवल प्राण। 

 देकर अपनी देह को,किया जगत कल्याण।।


 'मारदेव' की मार में, मर मत जाना मीत। 

 जिसने जीता मार को , हुई उसी की जीत।।


 'मारदेव' बिन देह के, करते सृजन अपार। 

 पाराशर की मोड़ते, गंगा जी में धार।। 


 जय जय 'मारदेव' महाराज।


 🪴 शुभमस्तु ! 

 १७.०४.२०२२◆७.००पतनम मार्तण्डस्य। 

 ❤️🌱❤️🌱❤️🌱❤️🌱❤️❤️❤️ 


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