गुरुवार, 7 अप्रैल 2022

बिच्छू और तितली 🦋 [ अतुकान्तिका ]

  

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 ✍️शब्दकार ©

🪴 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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सभी हैं यहाँ

बिच्छू  भी 

तितलियाँ भी यहाँ!

अपनी - अपनी प्रकृति,

अपनी-अपनी गति,

जैसी प्रकृति 

वैसी ही मति।


बिच्छू को तो बस

डंक ही मारना,

कभी भी स्व प्रकृति

नहीं बदलना,

पहन लें भले

योगी की वेशभूषा

 चला जाए  प्रयागराज 

अथवा बन जाए मूसा,

जो भी मिले 

उसे अपना डंक घूँसा।


तितली तो 

जब भी निकली

सुंदरता ही बिखरी,

फूलों से मिलती

उड़ती फुदकती,

बस रस ही चूसती,

अपनी ही मस्ती में

इधर से उधर फिरती!


कोई तुलना नहीं

तितली की बिच्छू से,

जो आया 

करने जो काम,

नहीं सधेगा 

उससे कुछ औऱ

कर पाने का आयाम!

बिच्छू  तो बिच्छू ही रहेगा,

तितली तितली ही

रहेगी।


आदमी की देह में

बिच्छू भी हैं

तितलियाँ भी हैं हजारों,

कुछ बदले हुए वेष

रूप रंग  बदले हुए

लगाए मुखौटे,

धोखे का सामान!

जगत परेशान,

कैसे करें पहचान,

अपने स्वार्थ में

पुतिन भी 'देवता' है?

मित्रों के लिए,

वरना क्या है वह?

सारा जगत

देख रहा है

उसके दंशों को।

मानवता को विनष्ट

कर रहे महिषासुर

रावण और कंसों को।


🪴 शुभमस्तु !


०७.०४.२०२२◆१.३० पतनम मार्तण्डस्य।

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