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✍️ शब्दकार ©
🪔 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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-1-
माता गंगा पावनी, सबसे तीर्थ महान।
माता चारों धाम है,माँ मानव का मान।।
माँ मानव का मान,वही शुचि मथुरा काशी।
रामसेतु हरिद्वार, जननि संतति अघनाशी।।
'शुभं' वही सुत श्रेष्ठ,नित्य जननी को ध्याता
सेवा हर दिन-रात,किया करता निज माता।।
-2-
माता की माने नहीं,जो संतति शुभ बात।
तीर्थ सभी व्रत व्यर्थ हैं,करता है निज घात।।
करता है निज घात, धतूरे- सा खिलता है।
पापों का परिणाम ,सुता -सुत में मिलता है।।
'शुभम' जननि का रूप,धूप वर्षा में छाता।
घर बनता सुरलोक,जहाँ पूजित हो माता।।
-3-
माता है सब देवमय,पितर बसें पितु देह।
सभी तीर्थ उस गेह में,जहाँ प्रेम निधि मेह।।
जहाँ प्रेम निधि मेह, बरसता झर-झर प्यारा।
नहीं डूबती नाव,सभी को मिले किनारा।।
'शुभम'वही शुभ धामवही नर जग को भाता
जननि-जनक हैं तीर्थ,शक्ति श्री धी की माता
-4-
माता ने निज कुक्षि में,रखा तुम्हें नौ माह।
तन-मन की हर भावना,तृप्त अधूरी चाह।।
तृप्त अधूरी चाह, तीर्थ हर यमुना - गंगा।
नहीं वसन का लेश,सर्वथा ही था नंगा।।
'शुभम'मान-अपमान,नहीं था उर में आता।
जीवन की वह शान, श्रेष्ठतम होती माता।।
-5-
माता के स्तन्य में, पावन गंगा - धार।
तीर्थराज की छाँव भी, उज्जयिनी हरिद्वार।।
उज्जयिनी हरिद्वार,अवध मथुरा या काशी।
कण-कण में ब्रजभूमि,वहीं रहते अविनाशी
'शुभम'पिता के साथ, पुत्र जो माँ को ध्याता।
नित उसका उद्धार,किया करते पितु माता।
🪴 शुभमस्तु !
०६.०४.२०२२◆२.३०
पतनम मार्तण्डस्य।
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