बुधवार, 9 जुलाई 2025

जिधर देखता हूँ [गीतिका ]

 332/2025

           

©शब्दकार

डॉ.भगवत स्वरूप ' शुभम्'


जिधर  देखता  हूँ  घटा  ही घटा  है।

फैली  हुई श्याम शिव  की जटा है।।


गरजते  बरसते  सघन   मेघ  छाए,

धरा पर अनौखी हरी हर  छटा  है।


कोकिल  नहीं  कूकती आम्र डाली,

वियोगी   विरहणी   से  जा सटा है।


भरे हैं  नदी ताल  सड़कें  लबालब,

नगर चार भागों   में   जा  बटा  है।


जठर अग्नि  मंदी  हुई है  उदर  की,

आहार  से ज्यादा  मन ये  हटा  है।


निजी स्वार्थ में लिप्त मानव हुआ ये,

इंसां से   इंसान     इतना   कटा   है।


'शुभम्' जिंदगी चार दिन की कहानी,

सुलझा  नहीं   है   इसी  में   खटा है।


शुभमस्तु !


07.07.2025●6.00आ०मा०

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