शाब्दिक दृष्टि से आस्था शब्द व्यापक है। कहीं स्थित होने की अवस्था या स्थान को 'आस्था' कहते हैं। जब हम किसी महान व्यक्ति या पूज्य व्यक्ति के प्रति पूर्ण विश्वास के साथ अपनी पूर्ण भावना के साथ समर्पित हो जाते हैं, तो कहा जाता है कि हमें अमुक महापुरुष, विद्वान , देवी ,देवता में पूर्ण विश्वास है , यह विश्वास ही आस्था है। वैसे भी 'आस्+था' ही 'आस्था' है। जहाँ आस है , वहीं विश्वास का बीजांकुर भी होता है। यही आशा या आस का वांकुर कालांतर में वृहद रूप धारण कर विश्वास का वट-वृक्ष बन जाता है। इसलिए विश्वास के लिए आस पहला कदम है और अगला कदम आस्था या विश्वास का है ही।
विश्वास में यदि अंध विश्वास भी आ जाए तो आस्था अंधी हो जाती है।लेकिन वहाँ पर विवेक की विशेष आवश्यकता है। एक समर्पण कज़ भाव आस्था बन जाता है। जैसे गुरु के प्रति समर्पण , इष्ट के प्रति समर्पण आदि आदि। कहा गया है कि विश्वास: फल दायक: जहाँ विश्वास होगा ,वहीं फल की प्राप्ति भी सुनिश्चित है। इस प्रकार आस्था से होकर ही हर सफलता का मार्ग प्रशस्त होता है। जब कभी हमारी आस्था के पैर डगमगाते हैं , तो सफलता भी संदिग्ध हो जाती है। आस्था से प्रत्येक सफलता का रास्ता बनता है। आस्था टूटी कि हम दिग्भ्रमित हुए और हमारा भटकाव शुरू हो जाता है। उदाहरण के लिए जब किसी व्यक्ति का किसी देवी या देवता के इष्ट मानने पर उसकी कार्यसिद्धि या कहें स्वार्थ सिद्धि नहीं होती तो वह अन्य देवी -देवताओं , पीरों, सैयद, शैतान , ब्रह्मदेव , यंत्रिकों आदि की शरण में जाकर अपनी आस्था का दीप जलाने लगता है। संयोगवश या किसी प्रकार उसकी प्राप्ति हो जाने पर वह उसी के लिए आस्थावान हो जाता है। यहाँ तक कि अन्य धर्मों में धर्मांतरण भी इसी आस्था के टूटने औऱ जुड़ने का परिणाम है। गुरु के प्रति आस्था ज्ञान देती है, बड़ों के प्रति आस्था मान देती है। प्रभु के प्रति आस्था सब कुछ प्रदान करती है। पर होनी चाहिए सच्ची आस्था। चंचल मन औऱ इधर उधर झाँकने वाली आस्था भटकाव का इतर नाम है। ऐसी खोखली और दिखावटी आस्था निरर्थक और सर्वनाशी है। सच्ची
आस्था से ही सफलता , विकास , श्रद्धा, भक्ति और शक्ति का मार्ग निकलता है। आस्था में ही भक्ति छिपी है और भक्ति में ही शक्ति है। शक्ति से ही संसार चलता है। चाहे संसार की कोई भी शक्ति क्यों न हो।
💐शुभमस्तु !
✍🏼लेखक ©
डॉ.भगवत स्वरूप "शुभम"
विश्वास में यदि अंध विश्वास भी आ जाए तो आस्था अंधी हो जाती है।लेकिन वहाँ पर विवेक की विशेष आवश्यकता है। एक समर्पण कज़ भाव आस्था बन जाता है। जैसे गुरु के प्रति समर्पण , इष्ट के प्रति समर्पण आदि आदि। कहा गया है कि विश्वास: फल दायक: जहाँ विश्वास होगा ,वहीं फल की प्राप्ति भी सुनिश्चित है। इस प्रकार आस्था से होकर ही हर सफलता का मार्ग प्रशस्त होता है। जब कभी हमारी आस्था के पैर डगमगाते हैं , तो सफलता भी संदिग्ध हो जाती है। आस्था से प्रत्येक सफलता का रास्ता बनता है। आस्था टूटी कि हम दिग्भ्रमित हुए और हमारा भटकाव शुरू हो जाता है। उदाहरण के लिए जब किसी व्यक्ति का किसी देवी या देवता के इष्ट मानने पर उसकी कार्यसिद्धि या कहें स्वार्थ सिद्धि नहीं होती तो वह अन्य देवी -देवताओं , पीरों, सैयद, शैतान , ब्रह्मदेव , यंत्रिकों आदि की शरण में जाकर अपनी आस्था का दीप जलाने लगता है। संयोगवश या किसी प्रकार उसकी प्राप्ति हो जाने पर वह उसी के लिए आस्थावान हो जाता है। यहाँ तक कि अन्य धर्मों में धर्मांतरण भी इसी आस्था के टूटने औऱ जुड़ने का परिणाम है। गुरु के प्रति आस्था ज्ञान देती है, बड़ों के प्रति आस्था मान देती है। प्रभु के प्रति आस्था सब कुछ प्रदान करती है। पर होनी चाहिए सच्ची आस्था। चंचल मन औऱ इधर उधर झाँकने वाली आस्था भटकाव का इतर नाम है। ऐसी खोखली और दिखावटी आस्था निरर्थक और सर्वनाशी है। सच्ची
आस्था से ही सफलता , विकास , श्रद्धा, भक्ति और शक्ति का मार्ग निकलता है। आस्था में ही भक्ति छिपी है और भक्ति में ही शक्ति है। शक्ति से ही संसार चलता है। चाहे संसार की कोई भी शक्ति क्यों न हो।
💐शुभमस्तु !
✍🏼लेखक ©
डॉ.भगवत स्वरूप "शुभम"
Nice
जवाब देंहटाएंधन्यवाद।
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