विधि लिखी टारे नाहिं टरी ।
ऐसी आँधी उठी कमल की
हाथी भये घरी।
हवा निकरि गई साईकिल बाकी
जाने हनक भरी ।
नमो -नमो को मंतर गुंजौ
कहि दई खरी - खरी।
छोड़ि पोखरा आये मेंढक
मिलि गई कमल - तरी।
होरी जरी गई लाल - हरे की
नीलौ परौ दरी ।
जहाँ-जँह 'हाथ' धरे 'संतन 'ने
तिनपै विपति परी।
झाड़ू लगि गई एक ओर तें
सूखी घास जरी ।
उगौ कमल कीचड़ 'दल'-'दल'की
अंधियारिहु डरी ।
जगी किरन चहुँ दिसा दिसा में
नव उजास बिखरी।
छेद ढूंढि रहे चोर-उच्चका
कर रये हरी- हरी ।
जिन्हें न भावें सूखी रोटी
तिन्हें बादाम गिरी ।
दूध धुले जे ऊ सब नाएँ
सुनि लेउ शुभम खरी।
जौ इनने जन - सेवा छोरी
जात न लगें घरी ।।
शुभमस्तु
डॉ भगवत स्वरुप 'शुभम'
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें