न दिया न दिया नित कहते हो
पर वह तो देती रहती है,
पितु हिमगिरि से प्रिय सागर तक
वह नितप्रति बहती रहती है।
नदिया में जीवन बहता है
तुम कहते ये पानी है,
नदिया जीव-जगत की पालक
पोषक जीवनदानी है।
पी लो प्यास बुझा लो अपनी
या स्नान करो नदिया से,
कृषि फसल को सिंचित करके
अन्न उगा लो इस नदिया से।
भेदभाव से शून्य सदा से
देते रहना यही कर्म है,
जीव - जगत की सेवा करना
नदिया माँ का श्रेष्ठ धर्म है।
छुआछूत या ऊंचनीच का
नहीं वास्ता है नदिया को,
हिन्दू मुस्लिम सिक्ख ईसाई
का न वास्ता है नदिया को।
आरक्षण दीवार नहीं है
राजनीति का मैल नहीं है,
नदिया माँ - सा हृदय बनाना
मानुष कोई खेल नहीं है।
नेताओं सम यहाँ न नाटक
बहना देना मात्र धर्म है,
जिनकी आँखों में न हया-जल
उन नयनों में कहाँ शर्म है ?
गंगा वही वही है जमुना
कृष्णा कावेरी और कृष्णा,
मानव जीव -जगत की हे माँ !
तेरे मन में एक न तृष्णा।
पिता तुम्हारे हिमगिरि सारे
निकल गेह से तुम चलती हो,
यद्यपि पिता कठोर पाहनी
पर तुम अमृतजल बहती हो।
सिन्धु तुम्हारा प्रीतम प्यारा
जिससे मिलन हेतु बहती हो,
कोई कुछ भी कहे करे या
पर तुम मौन धार रहती हो।
मिल सागर से बादल बनकर
बरस रही हो सब सुखदात्री,
जीवों को खुशहाल बनाती
हरष रही हो नदिया मातृ।
वंदनीय तुम माननीय तुम
"शुभम" तुम्हारा नितअभिनंदन
रे मानव ! मत दूषित कर तू
स्वच्छ बनाकर नित नत वंदन।
शुभमस्तु !
✍🏼©रचयिता
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"
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