बात चौराहों पर चलने लगी है,
धड़कनें अब बढ़ने लगी हैं ।
गर्म बाजार हैं अटकलों के
खुशबुएँ अब उड़ने लगी हैं ।
लोग बहसों में भिड़ने लगे हैं
सियासत भी सहमने लगी है ।
बस , ट्रेनों में चर्चा वही है
हार - जीतों की बहसें जगी हैं।
एक लेना न देना किसी को
छोड़ते मगर फुलझड़ी हैं ।
उलटी गिनती दिनों की शुरू है
किस कदर बिज़ी जिंदगी है!
हाथ सीने पै उनके रखो 'गर
तब लगेगा पता क्या हलचली है।
धूल से ही कोई होली मनाए
किसी की उड़ी फुलझड़ी है।
कोई अफ़वाह में ही गरक है
उसके मन में इसी की ख़ुशी है।
रस ले -ले के बगूले उड़ाते
मज़ा लेने की उनको लगी है।
आरोपों की कीचड़ की होली
खेलते वे मिटी खुजली है।
बात औकात की ही करते
जिसके हिस्से जितनी लगी है।
इस धरती पै लगता है "शुभम"ये
फैलती कितनी गंदगी है।।
शुभमस्तु
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"
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