शुक्रवार, 21 सितंबर 2018

हाथ में झाड़ू सामने कैमरा

   अब यह पूरी तरह से सिद्ध हो चुका है कि  अब तक हमारे देशवासी कितने अधिक गंदगी पसंद थे। गंदे रहते थे। गन्दा पहनते थे। खाते - पीते भी गन्दा ही होंगे। अब अचानक एक मसीहा ने अवतार लिया कि सारा देश स्वच्छता प्रिय हो गया है। आये दिन बेनर, कैमरा ,झाड़ू से सुसज्जित राजनेता, बड़े बड़े अधिकारी , कर्मचारी , मेयर,नगर पालिका अध्यक्ष, सभासद, पार्षद, ब्लॉक प्रमुख , ग्राम  प्रधान स्कूलों , कालेजों, नगर पालिकाओं, नगर निगमों, जिला मुख्यालयों आदि प्रमुख स्थानों पर आए दिन स्वछता का संदेश देते हुए दिख जाते हैं।
   जिस स्वच्छता की महत्ता से हम अनभिज्ञ थे ,या ये कहिए हमारा यह ज्ञान सुप्तावस्था में था, उसकी नींद अब खुल गई है। कचहरियों ,दीवानीयों , तहसीलों आदि की दीवारें जहाँ मुफ्त की पान , तम्बाकू  औऱ गुटका पेंटिंग से सुशोभित रहती थीं, अब वह बात नहीं है। अब हम सुधरने लगे हैं। हमारे इस प्रकार के सुधारों के अनेक प्रमाण टी वी , अखबारों और सोशल मीडिया पर  सुर्खियां बटोरने लगे हैं।हाथ में खूबसूरत फुलझाडू, सामने कैमरा या मोबाईल कैमरे का फ्लैश, नज़र कैमरे की ओर  और झाड़ू कहाँ है -जमीन पर या जमीन से ऊपर , कुछ पता नहीं। कैमरा क्लिक हुआ , काम ख़तम हुआ। बस हो गई हमारे स्वच्छता -अभियान के उद्देश्य की पूर्ति।तुरंत व्हाट्सअप पर हम ही हम। अगले दिन न्यूज पेपर की सुर्खियों में भी।
   आखिर इतने दिनों से हम अक्ल के अंधे क्यों थे। क्या व्यर्थ में ही हम कहते थे कि जहाँ स्वच्छता होती है , वहाँ ईश्वर का निवास होता है। इसका मतलब पहले ईश्वर कहाँ निवास करता था?  अब तो खैर हमारी सफाई से  हमारे इर्द -गिर्द ही कहीं होगा। रेलवे लाइन के किनारे अंधेरे उजाले में लाइन से बैठे हुए महिला , पुरुष और बच्चे क्या आज नहीं दिखाई देते? ट्रेन में यात्रा करके देखिए कि कितना खुले में शौच मुक्त हुआ है भारत! क्या रेल की पटरी के पास, सड़कों के किनारे , झाड़ियों में, और खुले खेतों में  भी, खड़ी फसलों के बीच  क्या जंगल फिरने लोग नहीं जाते। भारत के स्वछता पसदं व्यक्ति को भारतीय ट्रेनों के शौचलयों में बैठने का सहूर कब आएगा? कहा नहीं जा सकता। निर्धारित स्थान छोड़कर सीट के बाहर शौच करने वाले लोग विदेश से नहीं आते। क्या यही भारतीय सभ्यता की स्वच्छता पसंदगी का मजबूत प्रमाण है?
   गांव में बनाये गए शौचालयों की बहुआयामीय उपयोगिया का सुबूत अगर  देखना हो तो चार -छः  गॉंव में देखिए कि किसी मे दूकान चल रही है,  किसी में उपले भरे हुए हैं , कहीं स्नान हो रहे हैं और कोई कचरा घर या ईंधन भंडार बना हुआ है। शौच के अतिरिक्त बहुत सारे उपयोग हमारे बहुमुखी प्रतिभा के धनी लोगों ने खोज लिए  हैं। और आप ये तो जानते ही हैं कि आवश्यकता अविष्कार की मम्मी है। फिर भला क्यों न किए जायँ नए नए अविष्कार। अब देखिए त्यौहार का समय चल रहा है, मजदूर मिल नहीं रहे तो सोचा घर में सफेदी, वगैरह भी होनी है। यह भी तो स्वच्छता कार्यक्रम है, तो विचार आया कि जो राजनेता , अधिकारी , कर्मचारी आदि स्वच्छता अभियान के झंडे गाड़ चुके हैं। जिन्हें छपास और फोटो सेल्फी दिखास का ज्यादा चाव है, वे इस नेक काम के लिए आगे आयें। उनका चाय नाश्ता , फोटो, खींचना, सोशल मीडिया पर डालना हमारी तरफ से फ्री। उन्हें तो बस अपना ध्यान अपने काम मे लगाना है। अपना  ही काम होगा, उनका नाम होगा। देश का एक उद्देश्य बिना हर्रा फिटकरी के पूर्णता को प्राप्त करेगा।
   उच्च स्तर के सफाई करने वालों का जिक्र करना भी यहाँ उचित ही होगा ।माल्या , मोदी जैसे उच्च स्तर के सफाई पसंद बैंकों की सफाई करके रफूचक्कर हो गए।  ये तो वे वे जानें या देश के राजनेता या बैंक मैनेजर और उनके कर्ता -धर्ता कि वे काला कूड़ा ले गए या सफेद कूड़ा। बहरहाल सफ़ाई तो कर ही गए। देश वासियों को बाद में होश आया कि सफ़ाई तो होनी ही चाहिए। अब भी लकीर पीटने में लगे हैं, इस  बहाने से छोटी -बड़ी पिकनिक भी हो जाती है। एक साथ कई उद्देश्य पूर्णता को प्राप्त कर लेते हैं। कुछ ज्यादा सामान भी नहीं चाहिए:- कुछ झाड़ू, कुछ स्मार्ट फोन (जो प्रायः सबकी जेब या पर्स में रहता ही है),  और हम। और हाँ, सबसे इम्पोर्टेन्ट चीज कूड़ा-कचरा । जब वही नहीं तो सारा अभियान ही बेकार हो जाएगा। इसी के वास्ते तो ये आंदोलन चलाया गया है।
  अगर सुबह का भूला शाम को घर आ जाए तो उसे भूला हुआ नहीं कहते।  देर से ही सही , हम सफ़ाई का मतलब तो समझे।  ये अलग बात है कि माल्या, मोदी से हमारे मायने अलग ही हैं। परन्तु राजनेताओं के मन की कोई गारंटी नहीं है। उनके मन की तो भगवान भी नहीं जानते।

💐 शुभमस्तु  !

✍🏼 लेखक ©
डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

1 टिप्पणी:

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...