गुरुवार, 14 मार्च 2019

ऊँट आया पहाड़ के नीचे [अतुकान्तिका ]

अब ऊँट आया है
पहाड़ के नीचे,
अहंकार ने 
इसके मरुथल सींचे,
अपने कूबड़ को
रहा है भींचे,
पड़ गया है
अब तो कोई
उसके पीछे।

विवेक की आँखों पर
 पड़ा हुआ पर्दा,
हो गया था 
इकट्ठा बहुत ज़्यादा गर्दा,
हटना ही था,
हटाना ही था।
बकरे की अम्मा
कब तक खैर मनायेगी,
कटने के लिए जन्मा
कटना ही था।

उठाए हुए ऊँची 
नाक अब बची ही कहाँ?
कर रहा है थू! थू!!
सारा  जहाँ',
अपनी औक़ात से
बाहर जो जाएगा,
इसी तरह 
अपनी ही
 जग हंसाई  कराएगा,
न सही प्रत्यक्ष
झुकाए हुए अपनी गर्दन
पहाड़ से नज़र
 नहीं मिलाएगा।

 सहलाने वाले
चिकने -चुपड़े नागों से
होशियार 
सदा रहना है,
इनकी सरसराहट भरी
बातों में नहीं
रीझना है।
ये सपोले ही 
आस्तीन के
 काले विषधर हैं,
मौके की तलाश में
अभी बिल में 
जा छुपे उधर हैं,
नज़र रखनी है
चौकसी भी पूरी,
बनाये रखनी है बराबर
एक निश्चित दूरी,
कितना भी दूध
 पिलाओ इनको,
न कभी अपने हुए हैं
न कभी अपना
समझना इनको।

खुल ही गई है
अब पूरी तरह
पोल इनकी,
ऊँट के गले की
आदत नहीं
जाएगी कभी इनकी।

न रहेंगे ये ऊँट
न सपोले नाग सभी,
मिटा के रहेगा
पहाड़ कुचल के
रख देगा तभी।

💐 शुभमस्तु !
✍ रचयिता ©
डॉ.भगवत स्वरूप 'शुभम'

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