चल जमूरे साथ मेरे,
दारुल शफा के शहर।
एक मजमा फिर लगा लें,
नेतानगरी में ठहर।।
बात दारू तक नहीं बस,
चूड़ियों के ढेर भी।
क़ानून की नाकों तले,
हो रहा अंधेर भी।
डुगडुगी बज ही रही है,
भीड़ भी घिरने लगी।
बन्दरिया बन्दर नचेंगे,
चेतना उर में जगी।।
पूँछ पकड़े बंदरिया की,
खींच कपि ले जाएगा।
रूठ जाए जब बंदरिया,
मनुहारकर फुसलाएगा।।
आज गठबंधन बुरा ,
बतला रहा है आदमी।
घर में गठबंधन किए ,
इतरा रहा है आदमी।।
बकरिया संग ऊँट का ,
संबंध भी निभता रहा।
संगठन की शक्ति का ,
साथ क्यों अब चुभ रहा?
छोड़ पत्नी दूर जाते ,
क्यों नहीं उनकी तरह?
घर अकेले का बसाते ,
क्यों नहीं उनकी तरह?
रांड के जो पाँव छूती,
मिलता उसे आशीष यह।
तू भी हो जा मेरे जैसी ,
माँग सूनी शीश यह।।
पंक पर पहन पटकते ,
पर तुम्हें भय भी नहीं?
दाग़ अच्छे लग रहे हैं ,
इसमें कहीं संशय नहीं।।
योग्य दागों के बनाया ,
तुमने दामन आपका।
भाल निज कालिख़ लगाना,
पहचान संबल आपका ।
💐 शुभमस्तु !
✍ रचयिता©
🌱 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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