शुक्रवार, 13 नवंबर 2020

वह दीवाली थी दियों की

 [ संस्मरण ]

 ✍️लेखक© 

🪔 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

 

                   आधी से अधिक सदी विदा हो चुकी है।आधी सदी से पहले के समय की गाँव की दीवाली कुछ औऱ ही हुआ करती थी।वह दिवाली दियों की दीवाली थी।परंतु आज लड़ी और झालरों की कृत्रिम रौशनी की दीवाली है।जो सहजता ,स्वाभाविकता और सरलता उस समय थी ,अब बीते युगों की बात हो चुकी है।

            महीने भर पहले से घर, मकानों की लिपाई -पुताई की जाती थी। दीवाली से एक दिन पहले पीली मिट्टी और गोबर से घर के सभी कक्षों और आँगन को लीपा जाता था। दीवाली के दिन पूड़ी ,पुए,खीर ,कचौड़ी बनाने के साथ -साथ घर की भैंस के ताजा औऱ शुध्द दूध का खोया बनाकर उसके लड्डू, बर्फी आदि मिष्ठान्न तैयार किए जाते थे। लौकी की खोए वाली बर्फी तो बहुत आनन्द दायक होती थी। देशी घी की पूड़ियों की महक से पूरा मोहल्ला गमक उठता था। हम बच्चे लोग नए -नए कपड़े पहनकर आतिश बाजी का आनन्द भी लूटते थे। सूर्यास्त होने के बाद शुद्ध सरसों के तेल से मिट्टी के लाल- लाल दिए जलाए जाते थे।घर ,आँगन, छत ,मुंडेरों , कुओं की मुँडेरों,मंदिरों आदि पर दिए जलाए जाते थे।कार्तिक के कृष्ण पक्ष की अमावस्या की रात प्रकाश से नहा -नहा उठती थी।

            आतिशबाजी, फुलझड़ी, रॉकेट, अनार की चिंगारियों से होने वाले कपड़ों में छेद माँ की डांट का कारण बनते थे। रात को लक्ष्मी -गणेश सरस्वती की पूजा ,अर्चना के बाद नए धान की सफेद दूधिया खीलों औऱ खांड के बने खिलौनों का प्रसाद वितरण किया जाता था। रात को कुछ लोग लड्डू -बताशे भी बाँटा करते थे।मेरी माँ सूप में दिए जलाकर गांव ,मोहल्ले के घरों में जलाने जाया करती थी।माटी की बड़ी सी दीवट में एक रुपये का सिक्का डालकर उसके ऊपर एक बिना भीगा हुआ दिया औंधा कर काजल पारा (बनाया) जाता था ,जिसे माँ हम बच्चों की आँखों में लगा दिया करती थी। सुबह लगभग 4 बजे माँ सूप लेकर घर के बाहर यह कहते हुए जाती थी :'निकल छुछूँन्दर निकल'अर्थात घर की दरिद्रता दूर हो , दूर हो।

                  इसके बाद गांव के एक विशेष स्थान पर गाँव की महिलाओं द्वारा की जाने वाली स्याहू माता   की सामूहिक पूजा में सम्मिलित होती थी। वहाँ वह एक सूप में दिये जलाकर औऱ सिक्का वाली दीवट लेकर पूजन में सम्मिलित होती थी। जहाँ गाँव की बहुत सारी महिलाएं, वृद्धाएँ आतीं औऱ पूजा करके गीत गाकर अपने घर लौट जातीं।जब मैं छोटा ही बालक था ,तो एक दो बार माँ के साथ स्याहू पूजन के लिए गया था। तब मैंने सुना कि वे महिलाएं, विषेशकर वृद्धाएँ कुछ अश्लील गालियाँ भी गाती हुई देखीं गईं। 


             सुबह होने पर हम बच्चे देखते कि कुछ दिये बिना जले ही रह गए। शेष का तेल समाप्त हो गया था। वे जल चुके थे। हम उन दियों को इकट्ठे कर लेते , जिनका उपयोग दाल में छोंक देने के लिए माँ के द्वारा साल भर किया जाता था। सुबह कपड़ों में छेद देखकर डर लगता था कि यदि माँ ने देख लिया, तो बहुत डांट पड़ेगी।इसलिए छिपते रहना पड़ता था, पर आखिर कब तक? आखिर पता लग ही जाता, और डांट भी खानी पड़ती। । मोमबत्तियों के अवशेष को एकत्र करके पपीते या  रैंडी के पत्ते के खोखले डंठल से उसमें पिघला हुआ मोम डालकर पुनः मोमबत्ती बनाना हमारा प्रिय शौक था।

                पर आज न वह दीवाली रही , न वे शौक-रहे ! सब कुछ रेडीमेड !वह असली दीवाली थी, वास्तव में एक सामाजिक त्यौहार ! न प्रदर्शन न बनावटीपन।न रिफाइंड न चर्बी की मिठाईयां।न विषैले चीनी भरे दूषित खाद्य पदार्थ। न बिजली की बनावटी रौशनी, न मनुष्य की स्वार्थ वृत्ति का दम्भीय प्रदर्शन।धन की चकाचोंध का ढोंग तब नहीं था ,जब कि आज के युग में उसी का बोलबाला है। जुए की चर्चा क्यों न की जाए! वह तो सत्यवादी धर्मावतार युधिष्ठिर से लेकर अब तक पवित्र परम्परा के रूप में जीवित है। जहाँ अमृत-कलश है ,वहीं आसपास विष्कुम्भ भी है। 

 💐 शुभमस्तु!

 13.10.2020 ◆7.50अपराह्न।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...