गुरुवार, 19 नवंबर 2020

चुटकी भर सिंदूर [अतुकान्तिका]

 

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

✍️शब्दकार ©

❤️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆◆

एक चुटकी भर

माँग का सिंदूर,

भर देता है

नारी-जीवन में नूर,

होता है  रंग

जिसका लाल ,

बदलते चले गए

बड़े -बड़े काल,

नहीं बदला

परंतु सिंदूर का रँग,

आज भी है जिंदा

वही सिंदूरी तरंग।


बदले हैं 

बिंदिया ने

कितने रंग,

हुई है पग-पग पर

कितनी बदरंग,

साड़ी के रंग से

करती हुई होड़,

अपने मूल रंग

अरुण को छोड़,

कभी नीली हरी पीली,

काली बैंगनी मुँहजोर,

प्रेम के अरुण रंग से

चुराती हुई नजरें 

वह  बनी चोर।


पड़ गया

प्रणय का रंग,

बदरंग,

कभी काला नीला

पीला या सब्जरंग,

हो गया नारी का

चरित्र भी ढीला,

मटीली साड़ी के संग

बिंदिया का रंग भी मटीला!


क्या पता

कभी सिन्दूर भी

हरा पीला काला 

हो जाए?

साड़ी की मैचिंग में

लाल पर ताला 

पड़ जाए!


प्रणय का रंग

उड़ने लगा है!

गृहस्थी में बना घर

ढहने लगा है,

बह जाएगा 

किधर क्या पता!

कहीं -कहीं तो

माँग का सिंदूर भी

हो गया है  लापता।


वाह री!

भारतीय हिन्दू नारी?

लग गई तुझे भी

आधुनिकता की

बड़ी बीमारी!

मैचिंग कलर का विषाणु

वैवहिकता को 

ढहाने लगा है!

सह जीवन,

विवाह विच्छेद,

पति की हत्या,

नारी के प्रेमियों की कृत्या!

मानवता का महल

बहाने लगा है।


नहीं समझी है

आज की अत्याधुनिका ने

एक चुटकी 

सिंदूर की कीमत,

चला जा रहा है

क्योंकि नारी का

सतीत्व ,

'शुभम 'सत!

गार्हस्थ की हो रही है

इसीलिए तो दुर्गति!


💐 शुभमस्तु !


19.11.2020◆12.30अपराह्न।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

किनारे पर खड़ा दरख़्त

मेरे सामने नदी बह रही है, बहते -बहते कुछ कह रही है, कभी कलकल कभी हलचल कभी समतल प्रवाह , कभी सूखी हुई आह, नदी में चल रह...