वेदना निःशब्द है
हृदय भी निस्तब्ध है
नहीं है कोई वाणी
न कहीं आकार भी
वेदनामय है
सकल संसार ही।
वेद पढ़ना
बहुत ही आसान है,
जानता यह तथ्य भी
इंसान है,
पर वेदना ????
पर वेदना का समझना
दुर्लभ बहुत है,
ज़रूरी नहीं यह भी
सभी चेहरे कुछ कहें,
बोलने वाले नयन
सभी होते नहीं,
वेदना उर की
अश्रु बनकर बही।
वेदना सागर की
समझता है सागर ही,
न तलैया ताल न सरिता
न सीमा में बँधी
लाल- लाल गागर ही,
गहराइयों में उसकी
सीपियाँ शंख घोंघे सभी
मोतियों का आगार भी,
बड़वाग्नि की वाणी
सुनाती वेदना
छिपी सागर के तले,
रहस्यों से भरी
सबल चेतना को।
किस किससे कहें
छिपी उर -वेदना को,
कौन सुने
अवकाश है किसको,
उपहास ही करते सभी,
अवकाश ही अवकाश है
हँसने के लिए किसी की
वेदना पर,
नहीं है किसी के वास्ते
नयनों में नमी बाक़ी।
मात्र स्वार्थ का
घूमता हुआ घेरा,
सभी अपने स्वार्थ
अपने आनन्द में
भ्रमित भटके हुए!
पत्थर की तरह
होता द्रवित
उर 'शुभम ' का,
तहों में वेदना की
करता हुआ प्रतीक्षा
उस घड़ी की
जो कह रही है-
मित्र! जब सुख भी
न रह पाया हमेशा,
तो भला दुःख भी
नहीं रह पाएगा सदा ही।
घड़ी की जो सुई
कभी होती है नीचे
वही चढ़ती हुई
शनैःशनैः ऊपर
पहुँच ही जाती।
समय कोई कभी
स्थिर नहीं होता।
💐शुभमस्तु!
✍ रचयिता ©
☘ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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