इस असार किन्तु असरदार संसार में जन्म लेने वाले हर जीव को सुख चाहिए। इस सुख को पाने के लिए वह कुछ भी करने के लिए वह तैयार रहता है।सुअर कीचड़ -आसन में लीन रहता हुआ परम् सुख की अनुभूति प्राप्त करता है। उसे इसके लिए किसी नियम या आचार - संहिता की आवश्यकता नहीं है। इसी प्रकार अनेक मानव देहधारी प्राणी भी देह- सुख ,मन - सुख , चर्म -सुख, नेत्र -सुख,जिह्वा- सुख, कर्ण- सुख आदि को पाने के लिए मानव द्वारा मानव के लिए ही बनाये गए किसी नियम , आचार -संहिता , संविधान , क़ानून आदि की कोई भी परवाह नहीं करते औऱ अपने ही रंग -ढंग से जीवन यापन में लीन रहते हैं।
इसी मानव -देह में कुछ ऐसे समर्थ प्राणी भी अपने दो पैरों पर कम चार पहियों पर अधिक चलते हुए इस प्रकार जीवन जीने में ही जीवन की सफलता का अनुभव करते हैं , कि जब तक वे अपने ही नियमों का उल्लंघन न कर लें तब तक उन्हें मखमली गद्दों पर भी नींद नहीं आती। उनकी मान्यता आम मान्यता से एकदम विपरीत और स्व- निर्मित है। वे मानते हैं कि नियम तो आम आदमी के लिए होते हैं।हम तो नियमों के विधाता हैं , विधायक हैं। विधाता कोई नियमों पर थोड़े ही चलता है। वह तो आम जनता के लिए नियम बनाता है कि वे उस पर चलें। वे 'समरथ को नहिं दोष गुसाईं' : तुलसीदास जी की उक्ति के पालन में सांगोपांग लीन रहते हैं। यही नहीं उनके बच्चे, पुत्र पुत्रियाँ उनसे भी दो जूता आगे ही कदम रखते हैं। माँ पर पूत पिता पर घोड़ा , और नहीं तो थोड़ा थोड़ा। आपने देखा और अखबारों में पढ़ा होगा , कि टॉल टेक्स वालों को पीटते हुए विधायक , सांसद या मंत्री -पुत्र पिट गए ।क्यों ? क्योंकि वे विधान को रूपाकार देने वाले अमुक- अमुक बड़े बाहुबली नेता जी के 'सुपूत' थे। किसी बड़े पुलिस- अधिकारी के लाड़ले थे। वे न तो टॉल टेक्स देना चाहते थे न किसी की सुनना ही उन्हें पसंद था। वे तो बस अपनी ही हनक में क़ानून को हाँकना चाहते थे। ये भी एक सुख ही है , जिसे नेता -पुत्र या अधिकारी -पुत्र भुनाते हुए अपने पिताओं के नाम रौशन करते हैं।
इसी प्रकार सड़क पर यातायात के नियमों को सूखे पापड़ की तरह तोड़ते हुए बिना हेलमेट , बिना सीटबेल्ट , बिना लाइसेन्स, बिना आवश्यक कागज़ात सर्राटा मारते हुए तीन तीन सवारी बाइक पर लेकर ऐसे चलते हैं जैसे आकाश में एअर इंडिया का विमान उड़ा रहे हों। उन्हें न क़ानून का डर न मरने का भय। उनका यही सुख है।
ईमानदारी से जीवन जीना भी कोई जीना है? जब तक बेईमानी, गबन, रिश्वत, चोरी , भृष्टाचारी , ऊपरी कमाई जैसे 'वैध' साधनों का सहारा न लिया जाए तब तक सुख कहाँ? जो मिठास चोरी से प्राप्त गुड़ में है , वह ईमानदारी से कमाई जलेबी में नहीं होती। इसलिए चोरी करना ज़रूरी है। यदि सूखे वेतन से ही काम चल जाए तो कोई 'ऊपरी कमाई' के लिए रिश्वत क्यों ले ? भृष्ट तरीके क्यों अपनाए? चोर प्रवृत्ति के लोग चोरी क्यों करें ? इसलिए करें कि भगवान कृष्ण ने भी चोरी की थी। ये भगवानत्व का विशेष 'सद्गुण' कैसे आएगा। उन्हें भी उस चौर्य कला का आनन्द मिले! जिसकी चर्चा महर्षि वात्स्यायन ने अपने जगत्प्रसिद्ध 'कामसूत्र' में की है। अंततः चोर की गई चोरी के औचित्य का शोध कर ही लेता है। इस प्रकार चोरी करके सुख पाना आदमी की एक कुशल कला की पहचान है।
इसी संदर्भ में यह भी कहना समीचीन होगा कि आदमी - औरत का छिनरा- पन भी बहुत सुख देने वाला है। अपनी सुंदर सुशील पत्नी को छोड़कर पराई स्त्रियों से तन -मन लगाने की बात कोई नई नहीं है।आदिकाल से ऐसा होता चला आ रहा है। इंद्र को अहल्या पर मन आ गया तो वह गौतम ऋषि का वेश बनाकर उसके साथ छल पूर्वक दुष्कर्म करने से नहीं चूका । पराशर ऋषि को एक निषाद बालिका मत्स्यगंधा (सत्यवती) भा गई तो उन्होंने अपने चरित्र, तप , ज्ञान , विवेक औऱ नैतिकता को दूर जंगल में फेंक दिया और नाव में अपने मन की करके सुख पा लिया।
बड़े गर्व के साथ कहते हुए ये सुना जा सकता है कि हम ऋषियों की संतान हैं। क्या हम ऐसे ही ऋषियों की संतान हैं , जो विवेकशून्य और अपने तप को तन की आसक्ति वश तिलाजंलि देने में तिल भर विलम्ब नहीं करते थे? औऱ तो और एक अप्सरा मेनका ने ही ऋषि विश्वामित्र के तप को भंग करते हुए अपने सुख का सृजन किया। अपनी को भुलाकर पराई का जो दैहिक सुख है यह भी आदमी की आदिम संस्कार शाला से निकला हुआ अमर- पाठ है। जिसे वह युग -युगांतर से याद करता आ रहा है। सब कुछ सुख के सृजन के लिए समाज के बनाये नियमों और आचार संहिताओं का खुला उल्लंघन करते हुए। इस स्थान पर आदमी विवाह -संस्था को भी धता बता देता है :दिल लगा गधी से तो परी क्या चीज है!
आदमी ने सुख के साधनों का सृजन करने के लिए अनेक शोध कर डाले हैं। इसी ओर वह निरंतर अग्रसर भी हो रहा है। नैतिकता , नियम , क़ानून, आचरण -संहिता शायद मोटे -मोटे ग्रंथों में छपाकर पुस्तकालयों की अलमारियों में सजावट की वस्तु बनकर रह गई है। अपनी आत्मा की आँख से बचने की कोशिश में लगा हुआ आदमी रात -दिन नियम तोड़कर सुख खोज रहा है। उसकी मान्यता है कि जब सुख ही नहीं तो जीवन कैसा? इसलिए चाहे सब कुछ टूट जाए, पर सुख तो मिलना ही चाहिए।कीड़े-मकोड़े भी सुख ढूंढ़ रहे हैं। फ़िर आदमी और अन्य जीवधारियों में भेद क्या?
हाँ, भई सबसे बड़ा है सुख,
क्यों देखें नियमों का मुख,
नियमों में तो होता है दुःख,
नियमभंग की ओर करें रुख।
आओ चलें उस ओर,
जहाँ जंगल हो घनघोर,
भ्रष्ट बेईमानी का हो जोर,
जार छिनरे रिश्वती चोर।
सुअर से सीखें सुख पाना,
कूकरों से चरित्र गिराना,
गधों से गधत्व का निभाना,
देह को मिलेगा तब सुखदाना
पहले पशु फ़िर इंसान हो,
पर कीड़ेमकोड़ों से महान हो,
देह में जब तक शेष जान हो,
ऐ आदमी! तुम सुख की खान हो।
💐 शुभमस्तु!
✍ लेखक ©
❇ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
इसी मानव -देह में कुछ ऐसे समर्थ प्राणी भी अपने दो पैरों पर कम चार पहियों पर अधिक चलते हुए इस प्रकार जीवन जीने में ही जीवन की सफलता का अनुभव करते हैं , कि जब तक वे अपने ही नियमों का उल्लंघन न कर लें तब तक उन्हें मखमली गद्दों पर भी नींद नहीं आती। उनकी मान्यता आम मान्यता से एकदम विपरीत और स्व- निर्मित है। वे मानते हैं कि नियम तो आम आदमी के लिए होते हैं।हम तो नियमों के विधाता हैं , विधायक हैं। विधाता कोई नियमों पर थोड़े ही चलता है। वह तो आम जनता के लिए नियम बनाता है कि वे उस पर चलें। वे 'समरथ को नहिं दोष गुसाईं' : तुलसीदास जी की उक्ति के पालन में सांगोपांग लीन रहते हैं। यही नहीं उनके बच्चे, पुत्र पुत्रियाँ उनसे भी दो जूता आगे ही कदम रखते हैं। माँ पर पूत पिता पर घोड़ा , और नहीं तो थोड़ा थोड़ा। आपने देखा और अखबारों में पढ़ा होगा , कि टॉल टेक्स वालों को पीटते हुए विधायक , सांसद या मंत्री -पुत्र पिट गए ।क्यों ? क्योंकि वे विधान को रूपाकार देने वाले अमुक- अमुक बड़े बाहुबली नेता जी के 'सुपूत' थे। किसी बड़े पुलिस- अधिकारी के लाड़ले थे। वे न तो टॉल टेक्स देना चाहते थे न किसी की सुनना ही उन्हें पसंद था। वे तो बस अपनी ही हनक में क़ानून को हाँकना चाहते थे। ये भी एक सुख ही है , जिसे नेता -पुत्र या अधिकारी -पुत्र भुनाते हुए अपने पिताओं के नाम रौशन करते हैं।
इसी प्रकार सड़क पर यातायात के नियमों को सूखे पापड़ की तरह तोड़ते हुए बिना हेलमेट , बिना सीटबेल्ट , बिना लाइसेन्स, बिना आवश्यक कागज़ात सर्राटा मारते हुए तीन तीन सवारी बाइक पर लेकर ऐसे चलते हैं जैसे आकाश में एअर इंडिया का विमान उड़ा रहे हों। उन्हें न क़ानून का डर न मरने का भय। उनका यही सुख है।
ईमानदारी से जीवन जीना भी कोई जीना है? जब तक बेईमानी, गबन, रिश्वत, चोरी , भृष्टाचारी , ऊपरी कमाई जैसे 'वैध' साधनों का सहारा न लिया जाए तब तक सुख कहाँ? जो मिठास चोरी से प्राप्त गुड़ में है , वह ईमानदारी से कमाई जलेबी में नहीं होती। इसलिए चोरी करना ज़रूरी है। यदि सूखे वेतन से ही काम चल जाए तो कोई 'ऊपरी कमाई' के लिए रिश्वत क्यों ले ? भृष्ट तरीके क्यों अपनाए? चोर प्रवृत्ति के लोग चोरी क्यों करें ? इसलिए करें कि भगवान कृष्ण ने भी चोरी की थी। ये भगवानत्व का विशेष 'सद्गुण' कैसे आएगा। उन्हें भी उस चौर्य कला का आनन्द मिले! जिसकी चर्चा महर्षि वात्स्यायन ने अपने जगत्प्रसिद्ध 'कामसूत्र' में की है। अंततः चोर की गई चोरी के औचित्य का शोध कर ही लेता है। इस प्रकार चोरी करके सुख पाना आदमी की एक कुशल कला की पहचान है।
इसी संदर्भ में यह भी कहना समीचीन होगा कि आदमी - औरत का छिनरा- पन भी बहुत सुख देने वाला है। अपनी सुंदर सुशील पत्नी को छोड़कर पराई स्त्रियों से तन -मन लगाने की बात कोई नई नहीं है।आदिकाल से ऐसा होता चला आ रहा है। इंद्र को अहल्या पर मन आ गया तो वह गौतम ऋषि का वेश बनाकर उसके साथ छल पूर्वक दुष्कर्म करने से नहीं चूका । पराशर ऋषि को एक निषाद बालिका मत्स्यगंधा (सत्यवती) भा गई तो उन्होंने अपने चरित्र, तप , ज्ञान , विवेक औऱ नैतिकता को दूर जंगल में फेंक दिया और नाव में अपने मन की करके सुख पा लिया।
बड़े गर्व के साथ कहते हुए ये सुना जा सकता है कि हम ऋषियों की संतान हैं। क्या हम ऐसे ही ऋषियों की संतान हैं , जो विवेकशून्य और अपने तप को तन की आसक्ति वश तिलाजंलि देने में तिल भर विलम्ब नहीं करते थे? औऱ तो और एक अप्सरा मेनका ने ही ऋषि विश्वामित्र के तप को भंग करते हुए अपने सुख का सृजन किया। अपनी को भुलाकर पराई का जो दैहिक सुख है यह भी आदमी की आदिम संस्कार शाला से निकला हुआ अमर- पाठ है। जिसे वह युग -युगांतर से याद करता आ रहा है। सब कुछ सुख के सृजन के लिए समाज के बनाये नियमों और आचार संहिताओं का खुला उल्लंघन करते हुए। इस स्थान पर आदमी विवाह -संस्था को भी धता बता देता है :दिल लगा गधी से तो परी क्या चीज है!
आदमी ने सुख के साधनों का सृजन करने के लिए अनेक शोध कर डाले हैं। इसी ओर वह निरंतर अग्रसर भी हो रहा है। नैतिकता , नियम , क़ानून, आचरण -संहिता शायद मोटे -मोटे ग्रंथों में छपाकर पुस्तकालयों की अलमारियों में सजावट की वस्तु बनकर रह गई है। अपनी आत्मा की आँख से बचने की कोशिश में लगा हुआ आदमी रात -दिन नियम तोड़कर सुख खोज रहा है। उसकी मान्यता है कि जब सुख ही नहीं तो जीवन कैसा? इसलिए चाहे सब कुछ टूट जाए, पर सुख तो मिलना ही चाहिए।कीड़े-मकोड़े भी सुख ढूंढ़ रहे हैं। फ़िर आदमी और अन्य जीवधारियों में भेद क्या?
हाँ, भई सबसे बड़ा है सुख,
क्यों देखें नियमों का मुख,
नियमों में तो होता है दुःख,
नियमभंग की ओर करें रुख।
आओ चलें उस ओर,
जहाँ जंगल हो घनघोर,
भ्रष्ट बेईमानी का हो जोर,
जार छिनरे रिश्वती चोर।
सुअर से सीखें सुख पाना,
कूकरों से चरित्र गिराना,
गधों से गधत्व का निभाना,
देह को मिलेगा तब सुखदाना
पहले पशु फ़िर इंसान हो,
पर कीड़ेमकोड़ों से महान हो,
देह में जब तक शेष जान हो,
ऐ आदमी! तुम सुख की खान हो।
💐 शुभमस्तु!
✍ लेखक ©
❇ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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