सोमवार, 24 जून 2019

हमारी मानसिकता

   मानव जीवन मन से संचालित है। वही इस शरीर रूपी रथ का सारथी है। इस तथ्य को भगवान श्रीकृष्ण ने श्री मद्भगवत गीता में विस्तार से समझाया है। इन्द्रयों रूपी दस घोड़े उसे अपनी -अपनी दिशा में खींच रहे हैं। ऐसी दशा में यदि हमारा मन रूपी सारथी देह रूपी रथ को बचाने के लिए यदि इन इंद्रियों रूपी घोड़ों पर नियंत्रण नहीं  कर सका तो रथ का नष्ट -भृष्ट होना अनिवार्य है।
   जिन जातियों  औऱ समाजों के  संस्कार  ऐसे नहीं हैं ,कि वे आत्म नियंत्रित हो सकें ,उनके उत्थान और विकास में  सदियां लग जाएँगीं। शनैः शनैः उन्हें अपने संस्कारों में सुधार करना आवश्यक है। तन से निश्चित ही मन की महत्ता अधिक है। वह इतने विशाल तन पर नियंत्रण करता है।अवश्य ही कुछ अनिवार्य क्रियाएँ ऐसी हैं, जिन पर मन का भी नियंत्रण नहीं है। वे स्वतः चालित क्रियाएँ अहर्निश चलती रहती हैं , जिनसे हमारा जीवन चलता है। जैसे :हृदय की गति, भोजन का पाचन, अनेक अन्तःस्रावी ग्रंथियों से अनेक।पाचक रसों, हार्मोन्स आदि का आवश्यकतानुसार स्रवण, पलकों का  उठना गिरना आदि आदि।
   जैसी हमारी सोच होती है ,वैसा ही मन निर्मित होती है। सोच का सम्बंध हमारे मष्तिष्क से है। उसमें निरन्तर विचारों का खेल चलता रहता है। पल -पल  विचार बनते औऱ बिगड़ते रहते  हैं। इन्ही के बनने -बिगड़ने से मन में किसी स्थाई  धारणा का सृजन होता है, जो कालांतर में मन में एक स्थान बना लेता है।इसी मन के बारे में कहा  गया है :
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।
पारब्रह्म को पाइए , मन ही की परतीति।।
   हमारा मन जितना शक्तिशाली होगा, हम भी उतने ही शक्तिशाली होंगे। कमजोर मन के लोग चूहे को भी साँप समझकर मर जाते हैं।उधर एक अपंग भी मन की दृढ़इच्छा शक्ति के बल पर अलंघ्य पर्वत पर चढ़ जाता है। यह सब कुछ मन की अपरिमेय शक्ति के द्वारा ही संपादित किया जा सकता है। संकल्प के द्वारा इसे बढ़ाया जा सकता है।
   मानव सामान्यतः मन की सात से दस प्रतिशत शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए सारा जीवन व्यतीत कर देता है। शेष नब्बे से  तिरानवे प्रतिशत हिस्सा निष्क्रिय ही बना रहता है। विश्व के बड़े - बड़े वैज्ञानिक भी  अधिकतम 20 % भाग प्रयोग में लाकर चमत्कारिक खोज करते हुए अपना नाम रौशन करते हैं। कल्पना करें कि यदि शत- प्रतिशत मानसिक शक्तियों का प्रयोग हो जाए तो शायद अपने अभिमान में वह ईश्वर औऱ प्रकृति को भी भुला दे औऱ उस परम पिता को भी धता बताने लगे। संभवतः इसीलिए उसे औऱ अधिक मानसिक शक्ति के प्रयोग पर स्पीड ब्रेकर लगा दिया है। परिणामतः वह  उतनी ही परिधि में भ्रमण करते हुए अपने अहंकार का  विनाशक डंका नहीं बजा पाता। यह प्राकृतिक न्याय् है।जो मानव के हितार्थ प्रकृति के द्वारा लिया गया है।
   प्रत्येक जाति और समाज  की सांस्कारिक इच्छा शक्ति  उसे   प्रगतिशील , विकासशील और  जन हितकारी बनाती है। कहा गया है कि पेट तो कुत्ते  भी भर लेते हैं। इसका स्पष्ट अर्थ ही यह है कि यदि केवल अपने लिए जिए तो क्या जिए? पशु -पक्षी, कीट पतंगे, जलचर, वनचर, थलचर करोड़ों जीव केवल अपने में ही जीते हुए स्व सीमित हैं। अधिकांश मनुष्यों का जीवन भी कुछ इसी प्रकार का है। यदि  पैदा होकर खाया ,पिया , बड़े हुए , जवान हुए , बूढ़े हुए  और मर गए तो एक  कुत्ते , बिल्ली , गधे , घोड़े के जीवन और मानव देह धारी में क्या अंतर हुआ?  इसलिए जीव का मानव देह धारण का कुछ पृथक महत्त्व  भी होता है। शिक्षा ,सुसंगति, स्वाध्याय, और संस्कार -परिमार्जन- प्रयास से इस ओर सफ़लता पाई जा सकती है। इसके लिए हमें सदैव प्रयत्नशील रहना चाहिए। यही सच्चा मानव -धर्म है।
कहने का आशय यह है कि जातीय  और सामाजिक उत्थान के लिए निरन्तर  अपने मन को उसी प्रकार परिमार्जित  करते रहना है, जैसे पीतल के पात्र को बार-बार माँजने पर वह चमक उठता है। इसी में मानव-जीवन की सार्थकता है। अन्यथा 'जैसा बोओगे वैसा काटोगे , के सिद्धांत पर तो चौरासी लाख योनियों में यों ही जीव को भटकते रहना होगा। फिर क्या मानव और क्या श्वान, दोनों एक समान।

💐 शुभमस्तु!
✍ लेखक ©
❤ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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