हिंदी में एक बहुत ही प्रसिद्ध कहावत है :अपने मुँह मिया मिट्ठू बनना। जिसका तात्पर्य सभी जानते ही हैं। इससे एक ध्वनि यह भी आती है कि प्रशंसा सभी को प्रिय है। प्रशंसा चाहे झूठी हो अथवा सच्ची। कुछ नमक मिर्च मिलाकर की गई प्रशंसा और अधिक स्वादिष्ट हो जाती है।उसका जायका बढ़ जाता है।जितना अच्छा स्वाद, उतना अधिक आनन्द का अनुभव होना स्वाभाविक है।
प्रशंसा की वृद्धि के लिए आदमी क्या कुछ नहीं करता? हमारे बहुत से सामाजिक और पारिवारिक कार्य तो प्रशंसा की धरती पर ही टिके हुए हैं। जैसे किसी लड़के या लड़की का विवाह - संबंध तय होना है । ऐसे शुभ अवसर पर प्रशंसा रूखी रोटी पर मलाई की चिकनाई का कार्य करती है। सादे पानी में संतरे की महक और ताज़गी का दम भरती है। पचास बातों में दस पाँच झूठी भी चल जाती है। दूसरों के खेत को अपना बता कर अपना ओहदा ऊँचा कर लिया जाता है। दूसरे घर से माँगी गई क्रॉकरी , सोफा, चादर , तकिये आदि से अपना ऊँचा स्थान प्रदर्शित करने के लिए आगन्तुकों की प्रशंसा का पात्र बनना एक आम बात है।
इसी प्रकार कवि- सम्म्मेलनों में चाहे कविता समझ में आये या न आये, पर तालियाँ बजाकर बार -बार वक्ता कवि का मनोबल बढ़ाना समस्त श्रोताओं का आवश्यक धर्म हो जाता है। कुछ कवि लोग तो मंच पर आते ही तालियों की फरमाइश स्वयं करने लगते हैं। जब तक बीच- बीच में तालियों की पटपटाहट सुनाई न पड़े , उनका उत्साह ही पतित हो जाता है। यहाँ पर सच्ची ताली और झूठी ताली का घालमेल हो जाता है। पता ही नहीं लगता कि कौन सी ताली सच्ची प्रशंसा की है।
सच्ची प्रशंसा में खून बढ़ाने की वह टॉनिकीय शक्ति नहीं है ,जो झूठी प्रशंसा में है। अतिशयोक्ति अलंकार की जननी हो न हो, झूठी प्रशंसा ही है। इस काम के लिए अर्थात झूठी प्रशंसा के कसीदे काढ़ने के लिए चारण भाट रखे जाते थे, राज्याश्रय में पलते थे। जिनकी खाना ,उनकी बजाना। इसी अटल सिद्धांत पर चलना ही उनकी दिनचर्या थी । इसी झूठी प्रशंसा की प्रवृत्ति ने अलंकार का रूप ले लिया।झूठ को मान्यता मिल गई।
कवि सदा से ही प्रशंसा प्रिय प्राणी रहा है।यदि उसकी जरा सी भी कमी इंगित कर दी गई , बस वह आग बबूला हो जाता है। शायद उसे अपनी काबिलियत का भरोसा नहीं रहा। जब तक उसके कानों में वाह! वाह!! , क्या कहने हैं ! , क्या ख़ूब कहा है!, मुकर्रर मुकर्रर , वन्स मोर, जैसे कानों में शहद उंडेलने वाले जुमले न पड़ जाएं , तब तक उसे चैन कहाँ? कोई समझ नहीं पाया और मुकर्रर चिल्लाया तो कवि भी खुश होकर दोबारा सुनाने लगा। उसने समझा कि उसे ज़्यादा अच्छा लगा है, इसलिए मुकर्रर कह रहब है। इसके विपरीत सत्य भी संभव है।
वैसे भी देश और दुनिया में सच से ज़्यादा झूठ ही मान्य औऱ पूज्य है। साँचे के साथ लोग नहीं मिलेंगे । झूठों की रैलियाँ निकाली जाएँगी। उन्हें मोटे -मोटे हारों से लाद दिया जाएगा। जीवित रहने पर भी और मरने पर भी। ये सब झूठ की बलिहारी है। इसीलिए झूठी प्रशंसा ज़्यादा प्रभावकारी है। इससे बिना हवा भरे आदमी फुलकर कुप्पा हो जाता है। आदमी को फुलाने औऱ कुप्पा बनाने (अर्थात मूर्ख बनाने ) का इससे बढ़िया कोई फार्मूला नहीं है। इसी फॉर्मूले का प्रयोग आदमी नामक चालाक प्राणी ने देवी देवताओं की आरतियों में बख़ूबी किया है।
प्रशंसा आदमी के लिए बनी या आदमी प्रशंसा के लिए बना ? यह एक विचारणीय प्रश्न है ।मेरे अनुसार आदमी औऱ प्रशंसा एक दूसरे के पूरक हैं। आदमी है तो प्रशंसा है और प्रशंसा है तो ही आदमी है। थोड़ा बहुत अपनी गाँठ में हो उसमें कुछ मिलावट चल सकती है। दूध में पानी मिलाया जाता है। ये काम भैंस नहीं करती। आदमी करता है।यानी सच में झूठ को मिलाने का 'पवित्र' कार्य। उसका सिर्फ़ सच से काम नहीं चलता। इसलिए झूठ का जल मिलाकर उसके आकार और आयतन [अर्थात आय का तन] में बढ़ोत्तरी कर लेता है। झूठ सच की कीमत में बिकने लगता है। धड़ल्ले से बिकता है। गाय का थन तो बढ़ नहीं सकता , हाँ वरुण देव द्वारा प्रदत्त जल से दुग्ध मेन का आय का तन अवश्यमेव बढ़ ही जाता है निस्संदेह झूठी प्रशंसा यत्र तत्र सर्वत्र सर्वमान्य और सोने में सुहागा है।
💐शुभमस्तु!
✍ लेखक ©
📒 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
प्रशंसा की वृद्धि के लिए आदमी क्या कुछ नहीं करता? हमारे बहुत से सामाजिक और पारिवारिक कार्य तो प्रशंसा की धरती पर ही टिके हुए हैं। जैसे किसी लड़के या लड़की का विवाह - संबंध तय होना है । ऐसे शुभ अवसर पर प्रशंसा रूखी रोटी पर मलाई की चिकनाई का कार्य करती है। सादे पानी में संतरे की महक और ताज़गी का दम भरती है। पचास बातों में दस पाँच झूठी भी चल जाती है। दूसरों के खेत को अपना बता कर अपना ओहदा ऊँचा कर लिया जाता है। दूसरे घर से माँगी गई क्रॉकरी , सोफा, चादर , तकिये आदि से अपना ऊँचा स्थान प्रदर्शित करने के लिए आगन्तुकों की प्रशंसा का पात्र बनना एक आम बात है।
इसी प्रकार कवि- सम्म्मेलनों में चाहे कविता समझ में आये या न आये, पर तालियाँ बजाकर बार -बार वक्ता कवि का मनोबल बढ़ाना समस्त श्रोताओं का आवश्यक धर्म हो जाता है। कुछ कवि लोग तो मंच पर आते ही तालियों की फरमाइश स्वयं करने लगते हैं। जब तक बीच- बीच में तालियों की पटपटाहट सुनाई न पड़े , उनका उत्साह ही पतित हो जाता है। यहाँ पर सच्ची ताली और झूठी ताली का घालमेल हो जाता है। पता ही नहीं लगता कि कौन सी ताली सच्ची प्रशंसा की है।
सच्ची प्रशंसा में खून बढ़ाने की वह टॉनिकीय शक्ति नहीं है ,जो झूठी प्रशंसा में है। अतिशयोक्ति अलंकार की जननी हो न हो, झूठी प्रशंसा ही है। इस काम के लिए अर्थात झूठी प्रशंसा के कसीदे काढ़ने के लिए चारण भाट रखे जाते थे, राज्याश्रय में पलते थे। जिनकी खाना ,उनकी बजाना। इसी अटल सिद्धांत पर चलना ही उनकी दिनचर्या थी । इसी झूठी प्रशंसा की प्रवृत्ति ने अलंकार का रूप ले लिया।झूठ को मान्यता मिल गई।
कवि सदा से ही प्रशंसा प्रिय प्राणी रहा है।यदि उसकी जरा सी भी कमी इंगित कर दी गई , बस वह आग बबूला हो जाता है। शायद उसे अपनी काबिलियत का भरोसा नहीं रहा। जब तक उसके कानों में वाह! वाह!! , क्या कहने हैं ! , क्या ख़ूब कहा है!, मुकर्रर मुकर्रर , वन्स मोर, जैसे कानों में शहद उंडेलने वाले जुमले न पड़ जाएं , तब तक उसे चैन कहाँ? कोई समझ नहीं पाया और मुकर्रर चिल्लाया तो कवि भी खुश होकर दोबारा सुनाने लगा। उसने समझा कि उसे ज़्यादा अच्छा लगा है, इसलिए मुकर्रर कह रहब है। इसके विपरीत सत्य भी संभव है।
वैसे भी देश और दुनिया में सच से ज़्यादा झूठ ही मान्य औऱ पूज्य है। साँचे के साथ लोग नहीं मिलेंगे । झूठों की रैलियाँ निकाली जाएँगी। उन्हें मोटे -मोटे हारों से लाद दिया जाएगा। जीवित रहने पर भी और मरने पर भी। ये सब झूठ की बलिहारी है। इसीलिए झूठी प्रशंसा ज़्यादा प्रभावकारी है। इससे बिना हवा भरे आदमी फुलकर कुप्पा हो जाता है। आदमी को फुलाने औऱ कुप्पा बनाने (अर्थात मूर्ख बनाने ) का इससे बढ़िया कोई फार्मूला नहीं है। इसी फॉर्मूले का प्रयोग आदमी नामक चालाक प्राणी ने देवी देवताओं की आरतियों में बख़ूबी किया है।
प्रशंसा आदमी के लिए बनी या आदमी प्रशंसा के लिए बना ? यह एक विचारणीय प्रश्न है ।मेरे अनुसार आदमी औऱ प्रशंसा एक दूसरे के पूरक हैं। आदमी है तो प्रशंसा है और प्रशंसा है तो ही आदमी है। थोड़ा बहुत अपनी गाँठ में हो उसमें कुछ मिलावट चल सकती है। दूध में पानी मिलाया जाता है। ये काम भैंस नहीं करती। आदमी करता है।यानी सच में झूठ को मिलाने का 'पवित्र' कार्य। उसका सिर्फ़ सच से काम नहीं चलता। इसलिए झूठ का जल मिलाकर उसके आकार और आयतन [अर्थात आय का तन] में बढ़ोत्तरी कर लेता है। झूठ सच की कीमत में बिकने लगता है। धड़ल्ले से बिकता है। गाय का थन तो बढ़ नहीं सकता , हाँ वरुण देव द्वारा प्रदत्त जल से दुग्ध मेन का आय का तन अवश्यमेव बढ़ ही जाता है निस्संदेह झूठी प्रशंसा यत्र तत्र सर्वत्र सर्वमान्य और सोने में सुहागा है।
💐शुभमस्तु!
✍ लेखक ©
📒 डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें