योग नाम है जोड़ का,
जो जोड़े वह योग।
तन - मन को जो तोड़ता,
कहते उसको रोग।।1।।
तन - मन के उपयोग ही,
कहलाते हैं भोग।
बिना भोग जीवन नहीं,
कहते हैं सब लोग।।2।।
सदा संतुलन श्रेष्ठ है,
मानव - जीवन हेत।
भोग संग हो योग भी,
ज्यों श्यामल सँग सेत।।3।।
एक दिवस तो योगमय,
तिन सौ चोंसठ भोग।
ख़बर छपे अख़बार में,
फिर सब भूले योग।।4।।
फ़ोटो भी खिंचवा लिए,
टी वी पर भी सीन।
योग - दिवस ऐसे मना,
सेल्फ़ी सजी नवीन।।5।।
आपस में यदि प्रेम है,
उर में शुचि सद्भाव।
यह भी शुभकर योग है,
भरें हृदय के घाव।।6।
मन की चंचल वृत्तियाँ,
'शुभम' रोकता योग।
नियम बिना सब व्यर्थ है,
बारहमासी भोग।।7।।
क्लेश अविद्या अस्मिता ,
राग द्वेष कुल पाँच।
अभिनिवेश के संग में,
जलें योग की आँच।।8।।
परमतत्त्व से जोड़ता ,
आत्मतत्व को योग।
देहभोग में लिप्तजन ,
भोगा करते रोग।।9।।
ढोंग दिखावे में नहीं ,
होता 'शुभम' सु-योग।
एक दिवस के खेल से,
बनते बुद्ध न लोग।।10।।
जो मन को रुचिकर लगे,
उसका करना त्याग।
विकट योग यह भी 'शुभम',
जाग सके तो जाग।।11।।
राजनीति जिस घर घुसी,
हुआ वही बरबाद।
वही हाल है योग का,
भोगी ढूढ़े स्वाद।।12।।
राजनीति के घुन बड़े-
घाघ बदल नित रूप।
साँस फुला बाहर करें,
वायु बनी विद्रूप।।13।।
एक दिवस के योग से,
तर जाए इंसान।
रोज़-रोज़ फ़िर क्यों करें,
योगक्रिया कर ध्यान।।14।।
गृहिणी नट नित ही करें,
नियमित सभी किसान।
पशु पंक्षी नित योगरत,
घर जंगल खलिहान।।15।।
💐शुभमस्तु!
✍ रचयिता ©
🧘♂ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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