गुरुवार, 13 सितंबर 2018

भीड़पसंद

   मनोवैज्ञानिक दृष्टि से कहा गया है कि भीड़ का कोई चरित्र नहीं होता। माना कि चरित्र केवल व्यक्ति का होता है , भीड़ का नहीं ।फिर कुछ लोग ऐसे  भी हैं , जिन्हें भीड़ ही पसंद होती है। तो विचारणीय बात ये है कि फिर भीड़ को पसंद करने वाले लोगों में चरित्र कैसे हो सकता है? यदि कहीं किसी सभा , रैली , बाजार या ऐसी ही किसी जगह कोई पत्थर फेंक दे , जूता उछाल दे,  किसी को गाली दे दे, गोली चला दे -उस अवस्था में दोष सिर्फ भीड़ पर आरोपित कर दिया जाता है और दोषी बच जाता है। साफ़ बच जाता है। यदि कानून की आँख से देखा जाए तो जो धारा एक व्यक्ति के पत्थर, जूता , गाली या गोली फेंकने पर लगती वही धारा भीड़ पर नहीं लगती , क्योंकि संदेह में थोड़ी देर के लिए भले ही भीड़ को दोषी ठहराया जाए लेकिन थोड़ी देर बाद उसे  संदेह के लाभ में मुक्त कर दिया जाता है। यदि किसी व्यक्ति विशेष को क्षेपण करते हुए देख या पकड़ लिया जाए तो भीड़ की धारा नहीं लगती।
   विचार ये करना है कि देश के जो लोग रैली , थैली या बड़ी बड़ी सभाओं के लिए कुछ भाड़े की, कुछ अंधभक्तों की  और कुछ तटस्थ दर्शकों की भीड़ जुटा लेते हैं ,उनका चरित्र कैसा होगा? जैसी पसंद वैसा चरित्र। वैसा ही आचार वैसा ही व्यवहार। येन केन प्रकारेण  सत्ता हथियाना ही उनका असली चित्र। इसके लिए अनेक साधन , तरीक़े , फार्मूले । जैसे हड़ताल, भारत बंद, रेलों  बसों और वाहनों में तोड़फोड़, मार्किट बंद, स्कूल बंद, टायर जलाओ , होली  मनाओ, न कोई प्रदूषण न कोई विरोध। न कोई कानून न कोई नियम। कानून को हाथ में ले लेना। जनता को दुःखी , परेशान करके आनन्द लेना । यही सब भीड़पसन्द लोगों और भीड़ के प्रमुख धर्म हैं। उस समय इन लोगों के चेहरे की रौनक देखते ही बनती है। आदमी का पशु हो जाना ही  इस तरह के कारनामों को अंजाम देता है।   
   अब देखना ये है कि ये भीड़ और उपद्रवी लोग आते कहाँ से हैं?  हम और आप के बीच से ही  ये मुखौटे धारी निकल पड़ते हैं। कोई ये नहीं कह सकता कि इसमें  विदेशी शक्तियों का हाथ है। यहीं के तथाकथित शातिर, बददिमाग,  शून्य चरित्र और राष्ट्र द्रोही लोगों के ये काम होते हैं।  सियासी डालोंन की शह, आड़ और रोटियों पर जीने वाले इन अंधे  लोगों को नीति , नियम और कानून से कोई मतलब  नहीं है। कानून की धज्जियां उड़ाना ही इनकी सफलता है। क्या इनके पालकों और पोषकों का भी कोई चरित्र हो सकता है,?ये बात शत प्रतिशत संदिन्ध है।
   क्या हम औऱ हमारे देशवासी ऐसे ही लोगों लकीर के फकीर बने हुए हैं? क्या इससे  देश और समाज का कल्याण सम्भव है? कभी नागनाथ कभी साँप नाथों  की ये दशा किसी का कोई कल्याण करा पाएगी? हाँ, उनकी जाति, वंश और क्षेत्र के लोगों को अंधे की रेवड़ी जरूर मिल जाएगी।  लेकिन ये देशभक्ति नहीं है। स्वार्थ और किसी भी प्रकार के वाद पर टिकी सियासत देश और प्रदेशो के लिए  घातक है। किसी दूसरे को दोष देने के बजाय अपने गले में झाँक कर स्वसुधार कर लेना ही श्रेयस्कर है। गृहकलह और गृहयुध्द जैसी स्थितियाँ  निरंतर देश की कमजोर कर रही हैं। जिनकी रोटियाँ  इनके चूल्हों पर सिंक रहीं हैं , उन्हें कभी अक्ल नहीं आने वाली। उनका उल्लू तो इन्ही उल्लुओं  से सीधा हो ही रहा है।
सत्य ही कहा है :
हर शाख पे उल्लू बैठा है
अंजामे गुलसिताँ क्या होगा?!

💐 शुभमस्तु !
✍🏼लेखक ©
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

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