जेठ की तपती दोपहरी थी,
खेतों में वीरानगी पसरी थी,
अर्द्ध विकसित बड़े -से गाँव में,
घने बरगद की ठंडी छाँव में,
धरती तप रही थी ज्यों तवा,
चल रही थी पशु-पक्षियों की सभा।
गधे -घोड़े भैंस -भैंसे
कह रहे थे आदमी हैं कैसे-कैसे,
बकरियाँ भेड़ गायें बैल भी थे
जिनके दिलों में न कहीं मैल ही थे,
शाखाओं पर बैठी थीं फ़ाख्ता गौरैयाँ
तोते कबूतर गलगल गिलहरीयाँ,
सभी की वार्ता का केंद्र आदमी था
उनका सोचना भी बड़ा लाज़मी था,
उन्हीं के बीच रात -दिन रहना था
उन्हीं के आदेश- संगत को सहना था।
उधर से एक गधा रेंका औ' सवाल दागा-
"ये इंसान भी है कितना अभागा"
-सुनकर घोड़े के खड़े हो गए दो कान,
हाँ!हाँ!! बताओ कैसा है ये इंसान,
"हमारी तुम्हारी सभी की है
अलग जाति,
लड़ते नहीं इंसानवत इस भाँति,
ये कहने तो इंसान हैं,
एक - से शरीर हैं बुद्धिमान हैं,
पर जाति के नाम पर ऊँचाई नीचाई,
अभिजात्यता की सभी देते हैं दुहाई,
ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र,
सोच नितांत घटिया बुद्धि क्षुद्र,
एक ही वर्ण में अनेक जतियाँ,
छोटाई -बड़ाई की विषम भ्रांतियां,
आख़िर ये कैसा इंसान है!
हम गधों से कहलाता महान है।"
"बात सच है तुम्हारी कि वह इंसान है,
वह तुम्हारी तरह गधा नहीं
जातिवादिता ही उसकी पहचान है।"
कथन सुनकर घोड़े का सभी
हँस पड़े,
तोता मैना मयूरों ने लगाए कहकहे,
गौरेया फ़ाख्ता ने स्वर में स्वर मिलाया,
गाय भेड़ बैलों ने भी स्वीकृति
में सिर झुकाया,
आँखे बंद किए उल्लू भी मुस्कराया,
बैठा हुआ ऊँची शाखा पर
यों बोला,
अपनी छोटी -सी चोंच को खोला-
"सही कहते हो भाया,
मुझे तो अक्ल नहीं निरा उल्लू हूँ,
काम कुछ करता नहीं पूरा निठल्लू
हूँ,
मतलब के लिए ये गधे को भी बाप बनाता है,
ये इंसान है बाल की भी खाल निकाल लाता है,
खून की बोतल में जाति नहीं दिखती,
होटल की प्लेट में जाति नहीं
पुछती,
ट्रेन बस की सीट पर नहीं दीखती है जाति,
पतुरिया के कोठे पर रहता समाजवाद,
गर्ज़ पड़ने पर उल्लू
भी पूज लेता है,
लक्ष्मीजी के साथ मुझे भी पूछ
लेता है।"
सभी ने स्वीकारा इंसान जातिवादी है,
अहंकार के वशीभूत जति हावी है।
"इस इंसान से तो हम सभी अच्छे हैं,
बुद्धि छोटी है पर मन के सच्चे हैं।"
गर्दभ -उलूक उवाच से सभी खुश थे,
विसर्जित हो गई सभा वे पक्षी -पशु थे।
💐शुभमस्तु !
✍🏼रचयिता ©
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"
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