मंगलवार, 27 नवंबर 2018

हार सभी को चाहिए [ दोहे ]

कुहरा फिर छाने लगा, पाँच वर्ष के बाद।
समझ न आये जोर से, घनघन घंटा नाद।।

मुद्दों की बरसात में, कीचड़ छिड़कें रोज़।
दूध धुले कहते स्वयं, दूषित नयन-सरोज।।

फिर मंदिर निर्माण की,लगी सुलगने आँच।
शनै:-शनै: बढ़ने लगी,ज्यों -ज्यों बीते पाँच।।

हार सभी को चाहिए,नहीं चाहिए हार।
पुंलिङ्ग की वांछा उन्हें,खुले भाग्य का द्वार।।

मिट्ठू जी कहने लगे,हम विकास के ईश।
भ्रष्टाचारी चोर तुम,हम तुमसे इक्कीस।।

नारों के निर्माण में, ऊँचा अपना नाम।
चिंता हमें न काम की ,हमें चाहिए दाम।।

हुई समस्या दूर जो,मुद्दे रहें न शेष।
इसीलिए हमने रखा, अपना नेता -वेष।।

नेता सबसे श्रेष्ठ है, जनता नौकर भेड़।
आगे-आगे हम सदा, भले देश की रेड़ ।।

सर्दी का मौसम नहीं,बढ़ता जाता ताप।
नारे, मुद्दे ,पंक का,क्षण-क्षण बढ़ता शाप।।

पश्चिम की अंधी नकल, कोई नहीं विचार।
देश काल जाने बिना, "शुभम" न हो गलहार।।

💐शुभमस्तु  !
 ✍🏼©रचयिता :
डॉ. भगवत स्वरूप"शुभम"

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