शनिवार, 24 नवंबर 2018

वे फिसलें तो हम हँसें 【 व्यंग्य लेख】

इस हँसी का शायद दिमाग नहीं होता। इधर वे फिसले और ये महारानी जी तुरन्त हाज़िर।किसी के फ़िसलते (रपटते) ही बुलंद आवाज़ में हा! हा !!हा !!!हा!!!,ही !ही !!ही !!!ही !!!ही !!! , हे! हे !!हे!!! हे!!!, हैं ! हैं !!हैं !!!हैं !!!, हो ! हो !! हो !!!हो !!! स्वतः ही निकल जाता है।ये हँसी का कैसा मनोविज्ञान है ? कि किसी के फिसलने, रपट जाने, स्लिप हो जाने पर अनायास ही हँसी का फव्वारा फूट जाता है और फिसलने वाला अनायास ही एक
ऐसे अवांछित और अनावश्यक अपराध बोध से घिर जाता है ,मानो उससे कितना बड़ा अपराध हो गया हो।जबकि किसी के अचानक फिसलने में उसका कोई दोष नहीं होता। हमारी असावधानी , जल्दबाज़ी, अन्यमनस्कता, कहीं पर निगाहें कहीं पर चलना, स्थान दोष आदि के कारण हम फ़िसलते हैं, रपटते हैं। पर किसी दूसरे की हंसी हमें ख़ुद को लज्जित होने जैसा भाव  बोध कराके उसकी हँसने की पुष्टि ही कर देती है।
विचारणीय ये है कि किसी पर हँसने से पहले हमारी बुद्धि इतना क्यों नहीं सोच लेती की कभी जिस शख़्स पर हँसा जा रहा है , उसके विपरीत स्थिति भी तो उत्पन्न हो सकती है। हँसने वाला भी तो फ़िसल सकता है। अनायास हँसी का  पात्र बन सकता है।
   आज का व्यक्ति समाज, पड़ौसी, सियासी दल सभी दूसरे को फिसलता देखकर प्रसन्न हो रहे हैं। इसलिए उनके मार्ग में ऐसी स्थितियाँ,परिस्थितियां, रपटन, फ़िसलन, पैदा कर रहे हैं कि वे गिरें तो हमें हँसने का सुअवसर सुलभ हो ।आदमी आदमी की सफ़लता , उन्नति , विकास और उत्थान से खुश नहीं है। वह उसे गिरते हुए देखकर और झूठी सहानुभूति दिखलाकर खुश है। पड़ौसी पड़ौसी को गिरते देखकर प्रसाद बाँट रहा है। मन ही मन हँस रहा है। देखो ! अब आएगी अकल ठिकाने! ये सोच है उसकी।  जैसे कि उसके जीवन में तो विषमताएँ आयेगीं ही नहीं। राजनीतिक दल तो हद से बाहर ही चले गए हैं। वे दूसरों को रपटाने के लिए कोई कोर कसर
बाक़ी नहीं छोड़ना चाहते। इसलिए सभी दलों के दलदल की यह अहम विशेषता हो गई है कि जब दलदल में हैं तो कीचड़ उछालना तो उनका एक जायज़ धर्म बनता है। जिसका परिपालन उन्हें करना ही है औऱ बखूबी कर  भी रहे हैं। इस बिंदु पर कोई भी दल किसी से पीछे नहीं रहना चाहता। मानो एक सियासी कीचड़ उछाल प्रतियोगिता का युग ही प्रारम्भ हो गया है। सत्ता दल को तो पाँच -पाँच वर्ष केवल कीचड़ उछाल में ही लग जा रहे हैं। अरे!मियां मिट्ठू बनना तो कोई इनसे सीखे ! दूसरे फिर भला पीछे क्यों रहने लगे? सारी सियासत दलदलमय, पंकमय, निर्भय, निर्दय  और विछिन्नता की लय में गतिमान हो गई है। साठ वर्षों से पिछली सरकारों ने देश का शोषण किया, अत्याचार किये,  देश का विकास नहीं किया, इसका मौका अब हमें  दिया जाए। इस मानसिकता को लेकर ही सत्तासीन होना सियासत का लक्ष्य हो गया है। इसलिए साम, दाम ,दंड और भेद इन चतुरनीतियों का प्रयोग कर वोट लुटे जाने और अगले को फिसलकर गिराने का चक्रव्यूह बनाया जाता है। कैसे हम दूसरों को गिराएँ :इसके प्रशिक्षण शिविर चलाये जा रहे हैं। कैसे वे फ़िसलकर चारों खाने चित्त हो जाएं , इसकी योजनायें  क्रियान्वित की जा रही हैं। मीठा ज़हर जनता को खिलाकर उसे मदहोश किया जा रहा है।  बस वे न फिसलें, बाक़ी सब फ़िसल जाएँ। यही एक मात्र उद्देश्य है उनका। देश की किसे पड़ी। अपनी कुरसी , मंत्रिपद, अपनी सत्ता हासिल हो जाए बस।  फिसलाने ,फुसलाने का पूरा इंतज़ाम है। स्पीड ब्रेकर, गड्ढे, खाइयाँ , टीले,  हड़ताल , बवाल, दंगे -सभी पूरी तैयारी के साथ हाज़िर हैं। बस वक़्त का इंतज़ार है। जनता तो भेड़ है, जिधर  हांको हक ही जाएगी। सोशल मिडियस पर बाकायदा ब्रेनवाश फ़िसलन तैयार हो ही चुकी हैं। पत्रकार और टी वी चैनल बिक ही गए। जैसा वे चाहेंगे , वही गीत गाएंगे , वही मिथ्या आँकड़े पेश किए जाएंगे।ये सभी फ़िसलन जनता को फिसलाने के लिए ही तो बनाई गई हैं। अब रही बात हँसी की , तो देखते हैं कि कौन हँसेगा औऱ किस पर हँसेगा। अपने पर या अपनी नादानियों पर। वक़्त इंतज़ार कर रहा है। इसलिए हँसी तो फंसीं में मत रह जाना। दूसरों पर हँसना आसान है, अपने पर नहीं। अपने पाँव संभलकर रखना , बड़े - बड़े लुभावनी जलेबी दौड़ में  मैदाने -जंग में उतरने जा रहे हैं।

💐 शुभमस्तु !
✍🏼© लेखक
 डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"

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