दिन और रात
संध्या और प्रभात
उजाला और अँधेरा
निकम्मा और कमेरा
परस्पर विरोधी विलोमार्थक
स्वस्थान में सभी हैं सार्थक।
वैसे ही फूल और काँटा
जी हाँ, फूल और काँटा
आप सब मुझे काँटा कहते हो
कभी -कभी मेरी चुभन सहते हो
मेरा नाम आते ही आती है वेदना
एक चुभन एक टीस की संवेदना
जानते हैं निकलता है
काँटे से काँटा,
मैं वही हूँ एक चुभता हुआ काँटा,
मारता है ज़हर ही ज़हर को
मार देती है बुरी नज़र ही शज़र को।
भगवान है तो शैतान भी है
इंसान है तो हैवान भी है
महकता नहीं मैं फूल की महक सा
कसकता हूँ हमेशा चुभन से दहकता
एक ही डाली के हम वासी हैं
दुष्टों के दलन में अहमियत खासी है।
हमसे ही सुरक्षित हैं ये सुमन
हम शूल हैं वे फूल हैं प्रमन
गुलाब की डाली पर बसेरा
मैं नहीं मुरझाता साँझ हो या सवेरा
दीर्घजीवी भी मैं सुमन की अपेक्षा
सभी ने तो की है इस शूल की उपेक्षा
मैं ही शूल ,शल्य और काँटा
प्रकृति ने मुझे मेरा कार्य बाँटा
जिसको जो आवंटित वही तो करेगा
काँटे की चुभन काँटा ही हरेगा।
काँटा ही हारेगा।।
शुभमस्तु !
©रचयिता
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"
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