[ दोहे ]
अहंकार की खाल में,
लिपटा मानव आज।
विनत भाव आता नहीं,
शीश अकड़ का ताज।।1
झुकी पेड़ की डालियाँ,
पर न झुका नर मूढ़।
झुकने वाले ही मिलें,
यह रहस्य अति गूढ़।।2
अति प्रिय अपनी बेटियाँ,
बहू में लाखों खोट।
समझे पुत्रीवत बहू,
मुस्काएँ तब होठ।।3
मुँह धोये बैठी हुईं,
चाहें खूब दहेज।
पर देने के नाम पर,
पटके कुरसी - मेज।।4
कहते दोनों सत्य वे,
फिर कैसी तक़रार !
कोर्ट कचहरी में भरी,
वादों की भरमार ।।5
बहुत बड़ा उद्योग है,
राजनीति का काम।
हर्रा लगे न फ़िटकरी,
मिलें दाम ही दाम।।6
दस पीढ़ी तर जाएँगीं,
राजनीति की नाव।
पाप - पुण्य कुछ भी नहीं,
करो वही जो चाव।।7
मी टू के माहौल में,
फूँक - फूँक पी छाछ ।
कब लिपटी थी तन तिरे,
समझ व रहा है गाछ।।8
तब मुस्काते फूल थे,
अब है सूखी खाल।
चिपक न जाए 'मी त' ही,
इसका रखना ख़्याल।।9
बीस वर्ष के बाद में,
पावनता की याद।
पंक - नदी बहती "शुभं"
ले कलयुग की खाद।।10
💐शुभमस्तु !
✍🏼©रचयिता
डॉ. भगवत स्वरूप "शुभम"
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