सोमवार, 31 मई 2021

ग़ज़ल 🌴

  

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✍️ शब्दकार ©

🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

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बदला  - बदला   जहां  लगता है।

इंसाँ   अपना    कहाँ    लगता है।।


वीरानगी   का   है  आलम शहर में,

आदमी      दोमुहाँ        लगता  है।


गीत     गाती     न   कोयल सुरीले,

बेजुबां        बागवां      लगता   है।


पीले   पत्तों   का   झरना   है  जारी,

हर    शजर   खामखाँ   लगता   है।


तारे      आँखें     दिखाने   लगे   हैं,

अश्क  भर    आसमां    लगता   है।


न       दरिया   में    पहली   रवानी,

ताल     सूखा     वहाँ    लगता  है।


'शुभम'   रब    छिपा     तू  कहाँ  पर,

रेत     जैसा       यहाँ      लगता  है।


🪴 शुभमस्तु !


३०.०५.२०२१◆२.००पतनम मार्तण्डस्य।

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