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✍️ शब्दकार ©
🏕️ डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'
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बदला - बदला जहां लगता है।
इंसाँ अपना कहाँ लगता है।।
वीरानगी का है आलम शहर में,
आदमी दोमुहाँ लगता है।
गीत गाती न कोयल सुरीले,
बेजुबां बागवां लगता है।
पीले पत्तों का झरना है जारी,
हर शजर खामखाँ लगता है।
तारे आँखें दिखाने लगे हैं,
अश्क भर आसमां लगता है।
न दरिया में पहली रवानी,
ताल सूखा वहाँ लगता है।
'शुभम' रब छिपा तू कहाँ पर,
रेत जैसा यहाँ लगता है।
🪴 शुभमस्तु !
३०.०५.२०२१◆२.००पतनम मार्तण्डस्य।
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